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बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

प्रो. देवराज की डायरी : खतौली का औचक दौरा

 मित्रों को पढ़वाने की दमित-वासना के प्रवाह में प्रेषित...... 



                    डायरी में एक विशेष तिथि

21 अक्तूबर, 2022 : कल दोपहर के भोजन के समय खतौली पहुँच गया था। आज संध्या होते-होते लौटा। इस बीच जीवन के जितने बड़े हिस्से को जितने रोमांचक ढंग से जी सकावह बरसों याद रहेगा। जसवीर राणा चौपले पर ही मिल गए थे। वहाँ से हम दोनों मोटर साइकिल से उड़ान-पुल पार करके भूड़ पर ऋषभ के घर शास्त्री निकेतन’ पहुँचे। भाभी जी के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया और तीनों ने भोजन किया। गुरु जी (स्व. डॉ. प्रेमचंद्र जैन) की भाषा में कहूँतो यह एक दिव्य भोजन थाजिसमें ऋषभ के लिए कमल ककड़ी की सब्जी अति दिव्य थी। पता चला मोनु (आशीष) अपने चाच्चा जी’ के लिए कल रुड़की से लौटते हुए कहीं रास्ते में नजर पड़ते ही गाड़ी रोक कर खरीद लाया था। उसकी सब्जी बनी भी इतनी सुस्वादु थी, कि लगता है बहू (मोनु की पत्नी) ने व्यंजन-शास्त्र में पी-एच. डी करते हुए अपना शोध-कार्य कमल ककड़ी के विशेष संदर्भ में ही संपन्न किया होगा।

इस भोजन-उत्सव का एक विशेष आकर्षण शकराना’ था। परंपरागत उत्तर भारतीय ग्राम्य-जीवन में एक समय शकराना’ ही ब्याह-शादी की दावत का श्रीगणेश हुआ करता था। पंगत के बैठते ही एक आदमी पत्तल पर थोड़े-से चावल की ढेरी परोसता आगे बढ़ता जाता थाउसके पीछे एक दूसरे आदमी के हाथ में एक बरतन में शक्कर (या बूरा) रहती थीवह चावल की ढेरियों पर शक्कर परोसते हुए चलता जाता थाजिसकी पत्तल पर चावल और शक्कर परस दिए जाते थेवही अपनी ढेरी में अंगूठे और अनामिका के बीच वाली तीन उँगलियों की सहायता से एक गड्ढा बना लेता थाशक्कर वाले के पीछे एक आदमी एक बरतन में पिघला हुआ देशी घी लिए रहता था और उसमें से रमचा भर-भर कर चावल-शक्कर की ढेरी के गड्ढे में डालता जाता थाकई बार पिघला हुआ घी धातु अथवा मिट्टी के टोंटी वाले बरतन में भरा रहता था और परोसने वाला सीधे टोंटी से ही परसता जाता था। इस प्रकार शकराना तैयार हो जाता था। वर्तमान काल की होटल-भाषा’ या होटल-पारिभाषिकी’ में इस शकराने को स्टार्टर’ कहा जा सकता हैक्योंकि गाँव की ब्याह-शादी में शकराना खाने के बाद ही दावत का मुख्य भाग शुरु होता था--- लोहे के कड़ाह में सुबह से शाम तक धीमी-धीमी आँच पर कढ़े हुए उर्द या मलाईदार उर्द की धुली दाल या पकते-पकते लालिम होने को आई कढ़ीसाथ में बघरा हुआ मट्ठा।

भाभी जी करती तो जीवन भर डाक्टरी ही रहींलेकिन मन उनका गँवई से बस थोड़ा-सा ही कस्बाई बन सका। भाई साहब के जाने के बाद उन्होंने बड़े जतन से परिवार संभाला। अब नाती-पोतों वाले भरे-पूरे परिवार वाली हो गई हैं। डौली और सोनु तो घरबारी-कारोबारी होने के चक्र में नोएडा चले आए हैंलेकिन मोनु अपने परिवार के साथ उन्हीं के पास रहता हैरुड़की में दवाई का बड़ा व्यवसाय चलाता हैसुबह जाकर शाम को माँ के पास भागा चला आता है। भाभी जी उसकी बहू-बच्चों के बीच खुश-खुश रहती हैं। हम लोगों ने खाना खाते-खाते देखा कि वे एक तश्तरी में काफी सारा बूरा लाकर मेज पर रख रही हैं। हमें भ्रम हुआ नमक है। सोचने लगेभाभी इतना सारा नमक क्यों ले आईंउन्होंने सुनातो बोलीं, ‘बाद में बूरे के साथ चावल खानातभी तो लगेगा कि घर का खाना खा रहे हो।’ सभी के मुँह से एक साथ निकला, ’वाहशकराना!’ मैंने नहीं देखा कि बाकी लोग कैसे खा रहे हैं, चम्मच एक ओर रख कर उँगलियों से चावल-बूरा मिलाया और खाया।

खतौली के लिए चलते समय मैंने अपने थैले में जनकवि जगदीश सुधाकर के काव्य-संकलन अधूरी आजादी’ की तीन प्रतियाँ रख ली थीं। मन में था कि बरसों बाद ऋषभजसवीर राणा और मैं खतौली में एक साथ होंगेलेकिन हमारे अभिन्न आशुकवि जगदीश सुधाकर नहीं होंगे। यह मन को बेतरह झकझोर देने वाली बात होगी कि जब बैठेंगेखाएँगेघूमेंगे, ‘अंटागफीली’ करेंगे तो हमारे मित्र की आवाज वहाँ नहीं होगी। इसलिए दो निश्चय कर लिए थेएक--- खतौली में उन प्रमुख जगहों पर जाएँगेजहाँ-जहाँ हम लोग सुधाकर जी के होते हुए लगभग प्रतिदिन जाया करते थेऔर दो--- रात को रेलवे स्टेशन की बैंचों पर बैठ कर अधूरी आजादी’ से सुधाकर जी की कविताओं की आवृत्ति करेंगे। इस तरह अपने कवि मित्र को याद करने की कोशिश करेंगे। तीनों मित्रों ने दोनों निश्चयों का पालन किया।

शाम ढले उसी समय रेलवे स्टेशन के उस पीर के सामने प्लेटफार्म की बैंच पर बैठेजिस पर सुधाकर जी प्रति बृहस्पतिवार बताशे चढ़ाया करते थे और लौट कर धार्मिक पाखंडों को गालियाँ दिया करते थे। वहाँ से जसवीर राणा के पिताजी की स्मृति में स्थापित विद्यालय (प्रीतम मेमोरियल स्कूल)वहाँ से उस गली मेंजिसमें बनी दो गुफानुमा छोटी-छोटी दुकानों में से एक पर गुलाब जामुन और समोसे बनते हैंजबकि दूसरी पर पानी-बताशे और अन्य कई तरह की चाट मिलती है। सुधाकर जी अक्सर हमें घसीटते हुए वहाँ ले जाते थे और आग्रह कर करके खिलाते थे। कल हमने स्वयं चाट वाली दुकान के भीतर बैठ कर गुलाब जामुन और चाट खाते हुए उनकी चर्चा की। वहाँ से रामसिंह सैनी की कपड़े की दुकान पर चाय पी और वहाँ से प्लेजरा’ जाकर खाना खाया। खतौली बाइपास से होते हुए मुजफ्फरनगर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर बने इस आधुनिक ढाबे (सुधाकर जी के समय में यह पुराने ढंग का ढाबा ही थाजहाँ बनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों में से एक में अंटागफील अखाड़ा’ जीमता था) को सुधाकर जी पलेजरा’ कहते थे। यह सोच कर कि यह नाम आसपास के अथवा इसके स्वामी सुशील पँवार (दस्तावेजों में नाम रविपाल पँवार) के गाँव के नाम पर रखा गया होगामैं भी इसे पलेजरा ही कहता थालेकिन कल जब मैंने अपने मित्रों से पूछा कि पलेजरा गाँव कहाँ था?’, तब पता चला कि गाँव कहीं नहीं हैबल्कि पलेजरा दरसल प्लेजरा हैजिसे अंग्रेजी के प्लेजर से बनाया गया है। सुधाकर जी ने कौरवी भाषा’ का मान रखते हुए इसी प्लेजरा को पलेजरा कर दिया था। प्लेजरा के स्वामी सुधाकर जी और जसवीर राणा के गहरे मित्र हैंइसी के चलते वे मुझे और ऋषभ को भी अपनी मित्र-मंडली में ही गिनते हैं। कल सुशील जी ने बड़े प्यार से भोजन करायासुधाकर जी की भावपूर्ण चर्चा की और आग्रह करने पर भी खाने के पैसे नहीं लिए।

रात को सुधाकर-काल वाले समय पर ही हम तीनों खतौली रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म की बैंच पर बैठ गए। अधूरी आजादी’ की एक-एक प्रति तीनों मित्रों ने ले ली और छोटी-सी भूमिका के बाद एक-एक कर कविताओं की आवृत्ति होने लगी। बाद में अन्य साथियों को भेजने के लिए ऋषभ (हमारी वर्तमान मित्र मंडली में प्रवीण प्रणव के बाद वे सूचना प्रौद्योगिकी के सबसे भारी जानकार और प्रयोक्ता हैं) ने पहले तो अपने मोबाइल फोन से रिकॉर्डिंग शुरु कियालेकिन कुछ देर बाद ताजा उत्पाद उपभोक्ताओं तक पहुँचाने की उपयोगिता’ के बाजार-नियम के वशीभूत उसका लाइव फेसबुक प्रसारण’ शुरु कर दिया। इसका आश्चर्यजनक परिणाम भी मैंने पहली बार अनुभव कियादो-तीन कविताओं की आवृत्ति पूरी होते-होते पापुमपारे (अरुणाचल में ईटानगर के निकट)इम्फाल (मणिपुर)बीजापुर (कर्नाटक)हैदराबाद (तेलंगाना)चेन्नई (तमिलनाडु)वर्धा (महाराष्ट्र)जम्मू, दिल्ली अर्थात तमाम अलग-अलग जगहों पर बैठे काव्य-प्रेमियों की टिप्पणियाँ और कवि-मित्रों की ओर से सुधाकर जी की चर्चित कविताओं की आवृत्ति के आग्रह आने लगे। इनमें सबसे पहली टिप्पणी प्रवीण प्रणव की थी और आवृत्ति-आग्रह गुर्रमकोंडा नीरजा का। प्रवीण ने इस स्मृति-कार्यक्रम से आह्लादित होकर आज कवि दुष्यंत की हम तीन दोस्त’ कविता उनकी ग्रन्थावली से खोज कर भेज दी। सुधाकर जी होतेतो तुरंता प्रभाव से कहते---

मान्यवर जीटैक्नॉलॉजी का देखा इतना भारी कमाल/ हमारी इस खतौली के रेलवे प्लेट्फॉर्म से जोड़ दिया इम्फाल/मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन दमड़ी लगा न छदाम/हैदराबाद में बैठे प्रवीणचेन्नई में नीरजापापुमपारे में यालाम/पता नहीं और भी कहाँ-कहाँ बैठे लोग कविता सुन रहे हैं/दिन में नेताओं के आश्वासनों सेरात में हमारी कविता से सिर धुन रहे हैं/वाह री टैक्नॉलॉजी, तू कभी गरीब जनता के पास भी चली जाना/और उसे गरीबी के साथ-साथ उसका असली कारण भी समझाना/गरीब जनता को गरीबी से मिल कर लड़ना होगा यही है कायदा/जगाओ जनता को वरना इस प्लेटफॉर्म पर कविता करने का क्या फायदा?’ 

ऋषभ की टोकाटाकी शुरू होती, ’सुधाकर जीमात्रा-वात्रा भी तो देख लिया करो कविता की’, और कवि का उत्तर होता,’अजी मंत्री जीमातरा-वातरा जब देक्खूँगा जब कागज पै उतारूँगाअभी तो रामकटोरी की मातरा देखने का टैम होराचलो बैंच खाल्ली हैफिर कोई मुसाफिर आ जमैगाक्यों मान्यवर जीअब चाय तो होनी चैय्यै ना!’ हम लोगों को आता देख रामकटोरी के असमय बुढ़ाए चेहरे पर हल्की मुस्कान उतरने लगतीबिना कहे ही संख्या गिन कर केतली कोयले की अंगीठी पर जा बैठतीचाय के घूँट धीरे-धीरे भरे जाने लगतेआस-पास के वातावरण पर सुधाकर जी की काफी हल्की-फुल्की आशु-कविता-टिप्पणियाँ बाहर आने लगतींरेलगाड़ी पकड़ने के लिए समय से कुछ पहले चले आए मुसाफिरोंहर रेलवे स्टेशन पर बखत-बेबखत यों ही रमंडते रहने वाले लोगोंमस्त-मौला रिक्शे वालों में से कुछ आकर खड़े हो जातेउनमें से कुछ रामकटोरी को चाय बनाने का इशारा करके खाली बैचों पर टिक जाते और सुधाकर जी की आशु कविता पर अपने बेबाक टिप्पणी-ढेले फेंकने लगतेबीच-बीच में अचानक-अचानक हम लोगों की वाहवाही भरी हँसी और ऋषभ के ठहाके चौंकाने लगते--- यह स्टेशन की बैचों के बाद चलने वाली अंटागफीली’ का दूसरा अंक होता।

चाय तो कल भी हुईलेकिन रामकटोरी की टूटी-फूटी बैंचों पर नहींएक व्यवस्थित दुकान के भीतरजहाँ दीपावली के लिए दूसरी मिठाइयों के साथ गुलाबजामुन की चाशनी तैयारी के अंतिम चरण में थी। आश्चर्य यह हुआ कि दुकानदार ने चाय तो बहुत मन से बनाईलेकिन पैसे लेने से आग्रहपूर्वक मना कर दिया। एक तो वह जसवीर राणा को पहचानता थादूसरे यह भी देख रहा था कि हम तीन लोग दोपहर बाद से कई बार उसकी दुकान के निकट ही वहाँ आकर खड़े हो रहे थेजहाँ कभी रामकटोरी की टी-स्टॉल’ थीहमारी बातें भी उसके कानों तक पहुँच रही होंगीसंभव है इस कारण उसके मन में हम लोगों के प्रति सहानुभूति का भाव पैदा हुआ हो। मैं अभी तक सोच रहा हूँ कि क्या बड़े शहर के किसी चाय वाले के लिए भी ये दो कारण चाय का पैसा न लेने के आधार बन सकते थेजनकवि जगदीश सुधाकर एक बार फिर से याद आए।……. 

         

                   ---- देवराज