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रविवार, 12 फ़रवरी 2017

(पुस्तक) 'कथाकारों की दुनिया' : दो शब्द

कथाकारों की दुनिया/ ऋषभदेव शर्मा 
I.S.B.N. : 978-81-7965-278-7
प्रथम संस्करण, 2017 
पृष्ठ 392, मूल्य : रु. 800
 तक्षशिला प्रकाशन, 98 ए, हिंदी पार्क, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002
दूरभाष : 011-43528469, 23258802
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दो शब्द

‘कथाकारों की दुनिया’ के लेखक की मान्यता है कि एक दुनिया कथाकार को मिलती है, जिस पर उसका कोई वश नहीं होता और एक दुनिया वह रचता है, जिस पर उसका शासन चलता है. उसे मिली हुई दुनिया दरअसल उस पर थोप दी गई होती है और उसे उसका एक टुकड़ा बना दिया गया होता है. जो दुनिया वह खुद निर्मित करता है, उसके नदी-नालों, खेत-जंगलों, बस्तियों-शहरों, उनमें रहने वाले लोगों के बारे में सारे निर्णय उसी के होते हैं. क़ानून व्यवस्था, लड़ाई-झगड़े, शांति-अशांति, अपराध-आंदोलन, न्याय-नियम, परिवार-समाज, दोस्ती-दुश्मनी, नैतिकता-अनैतिकता, रिश्ते-नाते, संवाद-संवादहीनता, भाषा के उचित-अनुचित प्रयोग आदि जो कुछ भी ज़रूरी है, उसे लेखक अपनी दुनिया के लिए अपने ढंग से तय करता है.

अगर इस अवधारणा को पूरा का पूरा सही मान लिया जाए, तो यह भी मानना होगा कि सामान्य लोगों की दुनिया और लेखक की दुनिया के बीच ढेर सारे अंतर्विरोध होंगे. भौगोलिक दशाओं और द्वंद्वात्मक स्थितियों से लेकर नागरिकों के व्यवहार तक में इन अंतर्विरोधों का वास होगा. तब सवाल है कि आलोचक किसी लेखक की कृति में कौन सी दुनिया की खोज करता है वह उसमें साधारण लोगों की दुनिया खोजता है या फिर रचना में लेखक की ही दुनिया की तलाश करता है अगर उसकी जिद है कि वह किसी रचना में साधारण दुनिया खोजता है, तो कोई लेखक उसके लिए अपने दरवाजे बंद कर सकता है ऐसे व्यवहार के औचित्य के लिए लेखक के पास यह दावा हो सकता है कि उसने जो दुनिया रची है, वह अपनी अवधारणा और उसमें रच-बस सकने वाले अपने नागरिकों के आधार पर टिकी है इसे लेखक की दुनिया के एक तार्किक आधार के रूप में ग्रहण भी किया जा सकता है इस आधार पर लेखक एक आलोचक के लिए यह चुनौती खड़ी कर सकता है कि वह किसी रचना में उस दुनिया की तलाश करे, जिसकी वास्तव में रचना की गई है. 

यहाँ एक संकट यह है कि लेखक स्वयं उस दुनिया का निवासी नहीं है, जो उसने रची हैं. वह उस दुनिया का सामान्य (या विशिष्ट) नागरिक है, जो वस्तुत: साधारण लोगों की दुनिया है. इससे भी आगे उसने जो दुनिया रची है, वह साधारण दुनिया के परिप्रेक्ष्य में ही रची है. यह अवश्य है कि यह परिप्रेक्ष्य सामान्य न होकर बहुत जटिल है, क्योंकि इसके मूल में साधारण दुनिया की सचाई सामने लाने या उस दुनिया को प्रभावित करने या बदल डालने के दावे होते हैं. यहाँ आलोचक के सामने और भी बड़ी चुनौती आ खड़ी होती है. क्योंकि उसे अपने आलोचना कर्म के हथियारों से उस दुनिया का दरवाजा भी खोलना होता है, जिसकी चाबी सिर्फ लेखक के पास है (कारण यह कि अपनी दुनिया की रचना प्रक्रिया केवल लेखक को ही पता होती है, आलोचक को नहीं) और लेखक की दुनिया का मूल्यांकन साधारण दुनिया के परिप्रेक्ष्य में भी करना होता है. यहाँ संकट यह है कि इस परिप्रेक्ष्य का दावा लेखक ने किया था, आलोचक ने नहीं, इसलिए उसकी सही-सही समझ केवल लेखक को ही हो सकती है, आलोचक अपने उपकरणों के सहारे लेखक की समझ के निकट पहुँचने की कोशिश भर कर सकता है.

यह परिस्थिति आलोचना-कर्म को अत्यधिक जटिल और संश्लिष्ट बनाती है तथा आलोचक को विश्लेषक के साथ रचनाकार की भूमिका में ला खड़ा करती है. प्रो. ऋषभदेव शर्मा अपनी इस नवीनतम कृति में दोनों ही रूपों में नज़र आते हैं. मेरी शुभकामनाएँ!
11 मई, 2016                                                                                                    

                                                                         - देवराज
                                                                 पूर्व अधिष्ठाता,
                                      अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ,
               महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,
                           गांधी हिल्स, वर्धा – 422005 (महारष्ट्र).

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