अभिमत
कवि,समीक्षक, समालोचक, भाषाविद और साहित्य की अन्यान्य विधाओं के गंभीर अध्येता डॉ. ऋषभदेव शर्मा की अद्यतन कृति ‘कथाकारों की दुनिया’ उनके साहित्य चिंतन की निर्विराम साधना का प्रामाणिक साक्ष्य है. साहित्यान्वेषण की व्याकुलता उनकी सृजन शक्ति का मूल स्रोत है। साहित्य विमर्श के नित नूतन संदर्भों का अनुसंधान ही उनके सतत अध्ययनशील मानस की ऊर्जा है। प्रस्तुत कृति ‘कथाकारों की दुनिया’ लेखक की हिंदी और भारतीय कथा-साहित्य के प्रति एक विशेष शोधपरक दृष्टि को उद्घाटित करती है ।
डॉ. ऋषभदेव शर्मा हिंदी साहित्य जगत में काव्य विमर्श की पुरोगामी और प्रगतिशील दृष्टि के लिए विशेष रूप से समादृत हैं। उनके साहित्य विमर्श की विशेषता उनकी विविधोन्मुखी पाठानुसंधान की प्रवृत्ति में निहित है। हिंदी के साथ साथ इतर भारतीय भाषाओं के साहित्य पाठ को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात कर रचना के तल में छिपे वैशिष्ट्य को उद्घाटित करने की नैपुण्यता उन्होंने हासिल की है। गद्य और पद्य दोनों प्रारूपों में रचित लगभग सभी विधाओं के वे विशद अध्येता हैं। उन्होंने प्रत्येक पठित कृति के प्रति सजग विश्लेषक की ख्याति अर्जित की है। साहित्य विमर्श लेखन में उनकी निरंतरता और सातत्य, साहित्य के अध्येताओं को अचंभित कर देती है। हिंदी के साथ तेलुगु और तमिल साहित्य की गद्य विधाओं के प्रति लेखक की आसक्ति गौरतलब है। भारतीय भाषाओं की साहित्य विधाओं के प्रति उनकी सहज संवेदना, भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता को रेखांकित करती है। लेखक ने प्रस्तुत ग्रंथ में संकलित अपने आलेखों से इस सत्य की पुष्टि की है कि हिंदी और इतर भारतीय भाषाओं में रचित गद्य और पद्य को अनुवाद के माध्यम से आत्मसात करना कठिन या दुष्कर उद्यम नहीं है।
प्रस्तुत ग्रंथ में 44 वैचारिक आलेख छह खंडों में संकलित हैं। प्रत्येक खंड का शीर्षक उस खंड के अंतर्गत सँजोए गए आलेखों की विषयवस्तु का परिचायक है। प्रथम खंड मे प्रेमचंद, जैनेंद्र, रेणु, रामदरश मिश्र और अनामिका जैसे हिंदी के मूर्धन्य उपन्यासकारों की रचनाओं के प्रतिपाद्य को विश्लेषित किया गया है। इन आलेखों में लेखक की नवीन आलोचना दृष्टि से पाठक परिचित होता है। ‘प्रेमचंद की वर्तमानता : रंगभूमि और गोदान’ शीर्षक आलेख इन उपन्यासों की प्रासंगिकता को वर्तमान संदर्भ में दर्शाता है। प्रेमचंद की रचना दृष्टि और उनकी दूरदर्शिता का रेखांकन, इस आलेख की विशिष्टता है। उसी प्रकार अनामिका के उपन्यास, समकालीन हिंदी उपन्यास साहित्य में स्त्री-चेतना को भिन्न दृष्टि से व्याख्यायित करते हैं जिसे लेखक ने अपने आलेख में नवीन दृष्टिकोण से विवेचित किया है।
ग्रंथ के द्वितीय खंड ‘हिंदी उपन्यास : रचना संदर्भ’ के अंतर्गत लेखक ने लीक से हटकर ऐसे उपन्यासों का चयन किया है जो या तो अचर्चित हैं या आलोचकों की दृष्टि से उपेक्षित रहे हैं। चयनित उपन्यासों में रचना के विविध संदर्भों की व्याख्या भिन्न मानदंडों के आधार की गई है जो कि महत्वपूर्ण है। राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह कृत ‘राम-रहीम’ (समाज-समीक्षा और गांधी दर्शन), अज्ञेय कृत ‘नदी के द्वीप ‘ में अस्तित्ववादी दर्शन (क्षण सनातन है), निराला कृत कुल्लीभाट में समलैंगिक विमर्श, रेणु कृत ‘मैला आँचल’ में भारत की ग्रामवासिनी संस्कृति का विश्लेषण, रांगेय राघव कृत ‘कब तक पुकारूँ ‘ में आदिवासी विमर्श, श्रीलाल शुक्ल कृत ‘राग दरबारी’ में चित्रित राजनीतिक व्यंग्य, आपातकाल के संदर्भ में मन्नू भंडारी द्वारा रचित उपन्यास ‘महाभोज’ जिसने राजनीतिक चेतना-प्रधान उपन्यासों का व्याकरण ही बदल दिया, कि पड़ताल – इस खंड के विशिष्ट आलेख है। ऐसे उपन्यासों पर विचार कर, लेखक ने प्रस्तुत ग्रंथ में अध्ययन के नए मानकों को स्थापित किया है और हिंदी कथा-साहित्य के अध्येताओं के लिए चिंतन की नई दिशा प्रदान की है। इसी क्रम में अलका सरावगी कृत ‘कलिकथा : वाया बाइपास’ के कथ्य एवं प्रतिपाद्य के प्रति लेखक की आलोचकीय दृष्टि अनेक नए बिंदुओं को उद्घाटित करती है।
इधर पिछले दशकों में भारतीय साहित्य में प्रतिरोध की संस्कृति बहुत तेजी से विकसित हुई है। सत्ता, व्यवस्था एवं स्थापित मूल्यों, स्वीकृत मान्यताओं एवं नैतिक मूल्यों के प्रति नई पीढ़ी में प्रतिरोध के स्वर तीव्र हुए हैं। आदिवासी विमर्श, नारी विमर्श, दलित विमर्श और अल्पसंख्यक विमर्श जैसे सैद्धांतिक वाद-प्रतिवाद के अनेक मत-अभिमत साहित्य विमर्श के अहाते में अपनी जगह तलाश रहे हैं। इस कारण प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक भी स्थापित मानदंडों के बरक्स नए सिरे से चयनित उपन्यासों का पुनर्पाठ करते हैं। लेखक ने इस खंड में समकालीन परिदृश्य में रचित हिंदी कथा साहित्य के जटिल शिल्प एवं कथ्य पर ध्यान केंद्रित किया है। मैत्रेयी पुष्पा कृत ‘कही ईसुरी फाग’ लोकतत्व और आंचलिक परिवेश में रचित चरित्र प्रधान उपन्यास है जिसके प्रति लेखक विशेष संवेदनशील है। विकिरण और विस्थापन से जूझते आदिवासी समुदायों की विवशता का जो चित्रण महुआ माजी ने अपने उपन्यास ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ में किया है, इसे लेखक ने अपनी विशेष शैली में विश्लेषित किया है।
स्तुत ग्रंथ का तीसरा खंड ‘हिंदी कहानीकारों की दुनिया’ शीर्षक से नौ विशिष्ट आलेखों का संग्रह है। हिंदी कहानियों में वर्णित ग्रामीण जीवन, प्रेमचंद युगीन कहानियों का मूल स्वर रहा है जिसे लेखक ने इस खंड के प्रारभिक लेखों में विश्लेषित किया है। समकालीन हिंदी कहानी मुख्यत: दलित विमर्श और स्त्री विमर्श के इर्दगिर्द ही रूपायित होती रही है जिसे लेखक ने चयनित कहानियों के माध्यम से इस खंड में विश्लेषित किया है। दलित कहानीकारों की रचनाओं में मूलत: मानवाधिकारों का प्रश्न निरंतर उठता रहा है, इसकी ओर भी बलपूर्वक लेखक ने ध्यान आकर्षित किया है। हिंदी कहानी का समकालीन परिदृश्य दलित लेखन और दलित विमर्श प्रधान है जिसे लेखक ने प्रस्तुत ग्रंथ में रेखांकित किया है। इसके साथ ही इक्कीसवीं सदी की कहानी का आकलन भी लेखन ने प्रस्तुत किया है जो कि समकालीन हिंदी कहानी के गंभीर अध्येताओं के लिए अकादमिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
ग्रंथ का चौथा खंड दो आलेखों का लघु-खंड है जिसमें लघु कथा साहित्य पर लेखक ने समुचित प्रकाश डाला है। लेखक ने अनुवाद के माध्यम से तेलुगु और तमिल कथा साहित्य का अध्ययन पूरे मनोयोग से किया है जो ग्रंथ के खंड-पाँच और छह में प्रस्तुत उनके समालोचकीय आलेखों से सिद्ध होता है। तेलुगु कथा-साहित्य के प्रति लेखक की विशेष अभिरुचि ने उन्हें न केवल तेलुगु के कतिपय महत्वपूर्ण लेखकों की कृतियों को अनुवाद के माध्यम से समझने का अवसर प्रदान किया बल्कि उन्हें इन कृतियों के माध्यम से तेलुगु समाज और संस्कृति से रूबरू होने का अवसर प्राप्त हुआ। लेखक ने हिंदी में अनूदित तेलुगु कथा-कृतियों की समीक्षा बेबाकी और पूर्वाग्रहरहित होकर की है, जिससे हिंदी पाठक वर्ग के लिए उन कृतियों के प्रति यथार्थपूर्ण दृष्टि विकसित होगी। ‘बैरिस्टर पार्वशीतम’ तेलुगु कथा-साहित्य की हास्य-व्यंग्य प्रधान औपन्यासिक कृति है जिसे लेखक ने भलीभाँति परखकर आलोचना की है। उसी क्रम में तेलुगु की कुछ अन्य अनूदित कृतियों पर भी लेखक ने विचार किया है जैसे, द्रौपदी, क्रतु, एड्स आदि। तेलुगु की कुछ लघु कथाओं को भी लेखक ने अध्ययन का विषय बनाया है जो कि सराहनीय है। लेखक की वैचारिकता में स्थानीय तत्व का समावेश, इतर भाषा साहित्य के प्रति उनकी आस्था और प्रतिबद्धता का सूचक है। इसका साक्ष्य उनके द्वारा तेलंगाना के किसानों की व्यथा को चित्रित करने वाली कहानियों का अध्ययन एवं समीक्षा है।
किसी भी साहित्य चिंतक के लिए स्थानिकताबोध एक आवश्यक सामाजिक दायित्व होता है जिसके प्रति डॉ. ऋषभदेव शर्मा सदैव जागरूक और प्रतिबद्ध रहे हैं। यह उनके साहित्य चिंतन का प्राण तत्व और अभिन्न अंग रहा है। स्थानीय उदीयमान लेखकों एवं कवियों के प्रति उनमें सदैव सकारात्मक प्रेरणादायक भाव विद्यमान रहे हैं। हिंदी एवं इतर भारतीय भाषा-साहित्य के मध्य अनुवाद सेतु के निर्माण में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण है। वे प्रादेशिक और प्रांतीय तत्वों से ऊपर उठकर समेकित भारतीय साहित्य के समावेशी स्वरूप को अपनी संपूर्ण भौतिक और मानसिक शक्तियों से सुदृढ़ करने के लिए कृतसंकल्प हैं। दक्षिण में निवास करते हुए, तेलुगु, तमिल, कन्नड तथा मलयालम साहित्य के प्रति लेखक की विशेष आसक्ति रही है जिसे उन्होंने अनुवाद के माध्यम से साधने का प्रयास किया है। इसी प्रयास को लेखक ग्रंथ के अंतिम आलेख ( खंड छह ) ‘तमिल कहानी : उद्भव और विकास’ में सिद्ध करते हैं। स्मरणीय है कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने चेन्नई में रहने की अवधि के दौरान दो लघुपत्रिकाओं ‘आदर्श कौमुदी’ और ‘कर्णवती’ के तमिल साहित्य संबंधी विशेषांकों का संपादन किया था। उसी समय उन्हें तमिल कहानी के इतिहास को निकट से जानने-समझने का अवसर मिला। हिंदी पाठकों के लिए तमिल कहानी के प्रारंभ और उसके उत्तरोत्तर विकास क्रम को अति संक्षेप में लेखक ने इस आलेख में प्रस्तुत किया है जो कि किसी भी हिंदी पाठक को तमिल कहानी साहित्य का समुचित परिचय उपलब्ध कराने में सहायक होगा ।
हिंदी, तेलुगु और तमिल कथा साहित्य के प्रति लेखक की अभिरुचि प्रस्तुत ग्रंथ से स्वत: सिद्ध होती है । प्रस्तुत ग्रंथ इस सत्य को प्रमाणित करता है कि डॉ. ऋषभदेव शर्मा बहुमुखी प्रतिभासंपन्न और मेधावी साहित्य एवं भाषा चिंतक हैं। भारतीय भाषाओं और साहित्य की भीतरी परतों को अनावृत्त कर उन्हें साहित्य के अध्येताओं को उपलब्ध कराने की उनकी ललक प्रशंसनीय है। वे एक प्रखर शब्द-चिंतक और रचनाकर्मी हैं जिन्होंने भाषा और प्रांत की सीमाओं को भेदकर भारतीय साहित्य को संपूर्णता के साथ आत्मसात किया है।
‘कथाकारों की दुनिया’ ग्रंथ साहित्य के शोधकर्ताओं के लिए अकादमिक महत्व का तो है ही, साथ ही हिंदी कथा साहित्य के अध्येताओं के लिए यह हिंदी कथा-साहित्य के अनछुए पहलुओं की ओर गैर-पारंपरिक विचारदृष्टि विकसित करने में सहायक सिद्ध होगा। आधुनिक साहित्य विधाओं में उपन्यास, साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा है जिसका समाजशास्त्रीय महत्व निर्विवाद है। इस दृष्टि से प्रस्तुत ग्रंथ की प्रयोजनीयता अक्षुण्ण है। भारतीय कथा साहित्य के समालोचनात्मक ग्रंथों की परंपरा को प्रस्तुत ग्रंथ निश्चित रूप से समृद्ध करेगा। डॉ. ऋषभदेव शर्मा ‘कथाकारों की दुनिया’ ग्रंथ की रचना के लिए बधाई एवं अभिनंदन के पात्र हैं । उन्हें मैं उनके इस नूतन प्रयास और प्रस्तुति के लिए शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ।
26 मई, 2016
- डॉ. एम. वेंकटेश्वर
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी एवं भारत अध्ययन विभाग,
अंग्रेजी एवं अंग्रेजी भाषा विश्वविद्यालय,
हैदराबाद ।
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