पुस्तक के बारे में
‘कथाकारों की दुनिया’ के लेखक की मान्यता है कि एक दुनिया कथाकार को मिलती है, जिस पर उसका कोई वश नहीं होता और एक दुनिया वह रचता है, जिस पर उसका शासन चलता है. उसे मिली हुई दुनिया दरअसल उस पर थोप दी गई होती है और उसे उसका एक टुकड़ा बना दिया गया होता है. जो दुनिया वह खुद निर्मित करता है, उसके नदी-नालों, खेत-जंगलों, बस्तियों-शहरों, उनमें रहने वाले लोगों के बारे में सारे निर्णय उसी के होते हैं. क़ानून व्यवस्था, लड़ाई-झगड़े, शांति-अशांति, अपराध-आंदोलन, न्याय-नियम, परिवार-समाज, दोस्ती-दुश्मनी, नैतिकता-अनैतिकता, रिश्ते-नाते, संवाद-संवादहीनता, भाषा के उचित-अनुचित प्रयोग आदि जो कुछ भी ज़रूरी है, उसे लेखक अपनी दुनिया के लिए अपने ढंग से तय करता है.
इस आधार पर लेखक एक आलोचक के लिए यह चुनौती खड़ी कर सकता है कि वह किसी रचना में उस दुनिया की तलाश करे, जिसकी वास्तव में रचना की गई है. यह परिस्थिति आलोचना-कर्म को अत्यधिक जटिल और संश्लिष्ट बनाती है तथा आलोचक को विश्लेषक के साथ रचनाकार की भूमिका में ला खड़ा करती है. प्रो. ऋषभदेव शर्मा अपनी इस आलोचना-कृति में दोनों ही रूपों में नज़र आते हैं.
प्रेमचंद ने अपने कथासाहित्य के माध्यम से आदर्शोन्मुख यथार्थ से प्रेरित अपनी दुनिया रची. उनकी इस दुनिया में गाँव और किसान तो हैं ही, अपने समय को चुनौती देती हुईं स्त्रियाँ भी हैं. प्रेमचंद जहाँ एक ओर जिजीविषा और संघर्ष की दुनिया रचते हैं वहीं दूसरी ओर फक्कड़पने से लेकर अमानुषिकता तक के अलग-अलग लोक भी निर्मित करते हैं. जैनेंद्र अपनी दुनिया मनोविश्लेषण के ताने-बाने से बुनते हैं तो अज्ञेय क्षणों के सहारे निजता के द्वीप उगाते हैं. नागार्जुन, फणीश्वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह और रामदरश मिश्र की दुनिया गाँवों और अंचलों की वह दुनिया है जिसकी यातना अनंत है और जिजीविषा असीम. निराला प्रगतिशीलता से लेकर किन्नर और समलैंगिक विमर्श तक की पहली ईंटें रखते हैं तो रांगेय राघव, श्रीलाल शुक्ल, मन्नू भंडारी और भगवान सिंह क्रमशः आदिवासी विमर्श, सत्ता विमर्श, लोकतंत्र विमर्श और जनवाद की शिलाओं से अपनी अपनी दुनिया बनाते हैं. अनामिका, मैत्रेयी पुष्पा, अलका सरावगी, महुआ माजी और अहिल्या मिश्र जैसी लेखिकाएँ स्त्री विमर्श की भींतों पर अपनी दुनिया खड़ी करती हैं तो ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम, श्योराजसिंह बेचैन और मुद्राराक्षस जैसे कथाकार दलितों की अधिकार चेतना और अंबेडकरवाद के सहारे अपनी नई दुनिया का निर्माण करते हैं. बलराम अग्रवाल और सुकेश साहनी अपनी लघुकथाओं में जिस संसार की रचना करते हैं उसके एक सिरे पर लोक और लोकतंत्र है तो दूसरे सिरे पर अतिरंजना और महास्वप्न. अभिप्राय यह है कि अपनी कथा-रचना के माध्यम से हर संवेदनशील कथाकार अपनी रुचि के अनुसार अपनी समानांतर दुनिया का सृजन करता है.
प्रस्तुत ग्रंथ में हिंदी के प्रमुख कथाकारों द्वारा रची गई उनकी इसी अपनी दुनिया की प्रामाणिक पड़ताल की गई है और यह दर्शाया गया है कि बहुत सी कथा कृतियाँ अपनी निजी दुनिया के कारण देश-कालांतरगामी महत्व प्राप्त कर लेती हैं. यह ग्रंथ कभी उस दुनिया का पता देता है जो कथाकार को बनी बनाई मिली है तो कभी उस दुनिया की ओर इशारा करता है जिसे कथाकार बनाना चाहता है.
‘कथाकारों की दुनिया’ में हिंदी के अलावा कुछ प्रमुख तेलुगु कथाकारों की दुनिया की भी एक झाँकी प्रस्तुत है. साथ ही, तमिल कहानी साहित्य के उद्भव और विकास का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने के बहाने तमिल कथाकारों की दुनिया की भी एक झलक उपस्थित है. इस तरह इस ग्रंथ में हिंदी, तेलुगु और तमिल के मध्य राष्ट्रभाषा के माध्यम से सेतु-रचना का भी स्तुत्य कार्य किया गया है.
लेखक के बारे में
डॉ. ऋषभ देव शर्मा
जन्म : 04 जुलाई 1957, ग्राम गंगधाड़ी, जिला मुजफ्फर नगर, उत्तर प्रदेश.
शिक्षा : एमए (हिंदी), पीएचडी (उन्नीस सौ सत्तर के पश्चात की हिंदी कविता का अनुशीलन).
कार्य : 1983-1990 : जम्मू और कश्मीर राज्य में गुप्तचर अधिकारी (इंटेलीजेंस ब्यूरो, भारत सरकार). 1990-2015 : उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के विभिन्न केंद्रों में अध्यापन एवं शोध निर्देशन. 4 जुलाई, 2015 को उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के हैदराबाद केंद्र के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से अवकाशप्राप्त.
संप्रति : स्वतंत्र लेखन.
प्रकाशन : काव्य संग्रह – तेवरी (1982), तरकश (1996), ताकि सनद रहे (2002), देहरी (स्त्रीपक्षीय कविताएँ, 2011), प्रेम बना रहे (2012) [तेलुगु काव्यानुवाद : प्रेमा इला सागिपोनी (2013), प्रिये चारुशीले (2013)], सूँ साँ माणस गंध (2013), धूप ने कविता लिखी है (2014).
आलोचना - तेवरी चर्चा (1987), हिंदी कविता : आठवाँ नवाँ दशक (1994), साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श (2000), कविता का समकाल (2011), तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ (2013), तेलुगु साहित्य का हिंदी अनुवाद : परंपरा और प्रदेय (2015), हिंदी भाषा के बढ़ते कदम (2015), कविता के पक्ष में (2016), कथाकारों की दुनिया (2016).
संपादन : पदचिह्न बोलते हैं (1982) , शिखर-शिखर (डॉ.जवाहर सिंह अभिनंदन ग्रंथ, 1994), कच्ची मिट्टी – 2 (1994), माता कुसुमकुमारी हिंदीतरभाषी हिंदी साधक सम्मान : अतीत एवं संभावनाएँ (1996), अभिनंदन : जनकवि दुलीचंद शशि, हैं सरहदें बुला रहीं (2000), भारतीय भाषा पत्रकारिता (2000), अनुवाद : नई पीठिका, नए संदर्भ (2003), हिंदी कृषक (काजाजी अभिनंदन ग्रंथ, 2005), पुष्पक – 3 (2003), पुष्पक – 4 (2004), स्त्री सशक्तीकरण के विविध आयाम (2004), प्रेमचंद की भाषाई चेतना (2006), अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य (1999, 2009), भाषा की भीतरी परतें : भाषाचिंतक प्रो.दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ (2012), मेरी आवाज (2014), उत्तरआधुनिकता : साहित्य और मीडिया (2015) , संकल्पना (2016), वृद्धावस्था विमर्श (2016), ‘अंधेरे में’ का पुनर्पाठ (2016).
मूलतः कवि. 1981 में तेवरी काव्यांदोलन (आक्रोश की कविता) का प्रवर्तन. हिंदी के प्रचार-प्रसार-अध्ययन-अध्यापन हेतु पूर्णत: समर्पित. अनेक शोधपरक समीक्षाएँ एवं शोधपत्र प्रकाशित. डीलिट, पीएचडी और एमफिल के 142 शोधकार्यों का निर्देशन. सौ से अधिक पुस्तकों के लिए भूमिका लेखन.
सम्मान :
वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट, हैदराबाद द्वारा ‘हिंदी साहित्य सम्मान’ (2015), तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी, चेन्नई द्वारा ‘जीवनोपलब्धि सम्मान’ (2015), प्रतिभा प्रकाशन, हैदराबाद द्वारा ‘सुगुणा स्मारक सम्मान’ (2015), कमला गोइन्का फाउण्डेशन, बैंगलोर द्वारा ‘रमादेवी गोइन्का हिंदी साहित्य सम्मान’(2013), जनजागृति सेवा सद्भावना पुरस्कार, हैदराबाद (2011), शिक्षा शिरोमणि पुरस्कार, हैदराबाद (2006), रामेश्वर शुक्ल अंचल सम्मान, जबलपुर (2002).
विशेष : ऋषभदेव शर्मा का कविकर्म (2015 : डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह द्वारा समग्र काव्य का विमर्श मूलक मूल्यांकन)
संपर्क : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013 (तेलंगाना). फोन : 08121435033, 040-42102132
ईमेल : rishabhadeosharma@yahoo.com, rishabhadsharma@gmail.com
आभार
मुझे लगता है कि यदि कोई लेखक निश्चिंत और निर्द्वंद्व होकर कुछ लिख पाता है तो ऐसा तभी संभव है जब उसे परिवार और परिवेश का समर्थन प्राप्त हो. मैं बचपन से आज तक जो भी लिख पाया हूँ, घर से मिले प्रोत्साहन की उसमें बड़ी भूमिका रही है. ‘कथाकारों की दुनिया’ कभी न रची जाती, अगर मेरे जैसे व्यावहारिक बुद्धि से हीन और प्रमादी व्यक्ति को घर-परिवार का संबल न मिला होता. मेरे दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा से सेवानिवृत्त होने पर श्रीमती जी (डॉ.. पूर्णिमा शर्मा), बिटिया (लिपि भारद्वाज) और बेटे (कुमार लव) ने आदेश के स्वर में कहा था - अब आप लिखने में लग जाइए. यह पुस्तक उनके आदेश का पालन करते हुए लिखी गई है. ‘आभार’ में क्या कहूँ?...
इस पुस्तक के लिए संदर्भ सामग्री जुटाने से लेकर प्रेस कॉपी तैयार करने तक की जिम्मेदारी सौभाग्यवती डॉ.. जी. नीरजा ने स्वेच्छा से अपने सिर पर ले ली और दिन-रात एक कर दिया. उन्हें और उनके पतिदेव तथा सुपुत्री को अनंत आशीर्वाद!
पुस्तक को प्रकाशन के मुहाने तक पहुँचाने में डॉ. पोलवरपु जयलक्ष्मी तथा डॉ. सिरिपुरपु तुलसी देवी के आग्रह की भी बड़ी भूमिका रही है. मैं उनके प्रति भी आभारी हूँ.
‘दो शब्द’ और ‘अभिमत’ लिख देकर मुझे भाग्यवान बनाने के लिए प्रो. देवराज जी और प्रो. एम. वेंकटेश्वर जी को विनम्र प्रणाम!
... और पुस्तक को निर्धारित समय के भीतर सुरुचिपूर्वक प्रकाशित करने के लिए प्रिय भाई कमल बिष्ट और तक्षशिला प्रकाशन का विशेष आभार.
- ऋषभदेव शर्मा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें