यों तो विभागीय कार्यवश समय-समय पर विजयवाडा जाना होता रहता है. पर इस बार एक पुस्तक लोकार्पण समारोह के सिलसिले में प्रो.एम. वेंकटेश्वर जी के साथ विजयवाडा यात्रा का अनुभव विशिष्ट रहा. पहली बात तो यह कि वे हैदराबाद से विजयवाडा तक अपनी कार से ले गए. वापसी भी वैसे ही. सारथी वे थे और साथी डॉ. राधेश्याम शुक्ल. पूरे रास्ते दोनों के संस्मरणों की खूब जुगलबंदी चली. मैं खर्राटों की ताल देता रहा.....बीच बीच में कोई शेर ज़रूर चस्पां करता रहा उनकी अनुभवजनित सूक्तियों पर.....जताने को कि जाग रहा हूँ....कोई मुझे सोया हुआ न समझे.
दूसरी बात यह कि आतिथेय परिवार के अत्यंत धार्मिक और श्रद्धालु होने के कारण हम लोगों को विजयवाडा और मछलीपत्तनम के एकाधिक महिमाशाली मंदिरों का दर्शन लाभ अयाचित ही हो गया. संभवतः कोई पुण्य उदय हुआ होगा. तभी तो संयोग देखिए कि जिन तिथियों में (! से 3 जुलाई 2012 तक) हम वहाँ थे उन्हीं तिथियों में ऐतिहासिक कनकदुर्गा मंदिर में वार्षिक शाकम्भरी उत्सव चल रहा था. हमारे लिए यह दृश्य विस्मयकारी था कि प्रतिमा से लेकर पूजासामग्री तक सर्वत्र शाक -भाजी का अद्भुत साम्राज्य था. इतनी हरी सब्जियां!. हम लोग ठहरे दंभी बौद्धिक कोटि के जीव. लगे बहसने कि यह टनों साग-भाजी हज़ारों गरीबों का पेट भरने के काम आ सकती थी - यों बरबाद की जा रही है - यह् तो आपराधिक विनाशलीला है. थोड़ी देर में सिर हल्का हुआ तो सौंदर्यबोध का कीड़ा कुलबुलाया. लगे सराहने कि क्या कला है कि भिन्डी और बैंगन से देवी और हाथी रच दिए गए हैं - करेले से ओम. थोडी और खोपड़ी ठंडी हुई तो लोक और उसका विश्वास सूझ आया - और यह भी कि जब शास्त्र और लोक टकराएं तो लोक ही अनुकरणीय है. अभिप्राय यह कि ''यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं ना करणीयं ना करणीयं'' का स्मरण करते हुए हम लोग भक्ति की कृष्णा (विजयवाडा कृष्णा नदी पर बसा हुआ है) में बह चले. छोड़ दिया अपने आप को उसी भावधारा में जो उस पूरे परिसर में हर ओर से उमड़ रही थी. सच में लगा जैसे शाकम्भरी देवी की कृपा बरस गई, हम भीगते रहे ; तब तक भी जब मल्लेश्वर स्वामी (शिव) का अभिषेक संपन्न हुआ. अर्चकों ने दर्शनोपरांत आशीर्वाद स्वरूप हम लोगों को जो अंगवस्त्र प्रदान किया था उसे डॉ वेंकटेश्वर जी और डॉ. शुक्ल जी तो कई घंटे बाद तक भी धारण किए रहे - फब भी खूब रहे थे.
अब हम लोग दुर्गा सप्तशती की चर्चा कर रहे थे. शुक्ल जी ने ग्यारहवें अध्याय में देवी का वरदान याद दिलाया-
''फिर जब पृथ्वी पर सौ वर्ष के लिए वर्षा रुक जाएगी और पानी का अभाव हो जाएगा.......उस समय मैं अपने शरीर से उत्पन्न शाकों द्वारा समस्त संसार का भरण पोषण करूँगी. जब तक वर्षा नहीं होगी तब तक वे शाक ही सबके प्राणों की रक्षा करेंगे. ऐसा करने के कारण पृथ्वी पर शाकम्भरी के नाम से मेरी ख्याति होगी [ शाकम्भरीति विख्यातिं तदा यास्याम्यहं भुवि]"..
मैंने भी अपना किताबी ज्ञान बघारा और मूर्तिरहस्य की ओर उनका ध्यान खींचा. ठीक ठीक श्लोक उस समय याद नहीं थे. अब पुस्तक में मेरे सामने हैं. माँ शाकम्भरी का दर्शन आप भी कीजिए-
"शाकम्भरी नीलवर्णा नीलोत्पल विलोचना .गम्भीर्नाभिस्त्रिवलीविभूषिततनूदरी.सुकर्कश समोत्तुंग वृत्त पीन घनस्तनी.मुष्टिं शिलीमुखापूर्णं कमलं कमलालया .पुष्प पल्लव मूलादि फलाढ्यं शाक संचयं.काम्यानंतर्सैर्युक्तं क्षुत्तृण्मृत्युभयापहम् .कार्मुकं च स्फुरत्कान्ति बिभ्रती परमेश्वरी.शाकम्भरी शताक्षी सा सैव दुर्गा प्रकीर्तिता".
द्रष्टव्य -सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में स्त्री विमर्श लोकार्पित
LOKARPAN OF 'SURENDRA VARMA KE NAATAKON MEN STREE VIMARSH'
2 टिप्पणियां:
उत्कृष्ट पोस्ट |
बधाई ||
भगवान करे, धन-धान्य शाक-सब्जी से धरा सदा पल्लवित रहे..
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