कविता का समकाल/ आलोचना/ ऋषभ देव शर्मा/2011/ लेखनी/ नई दिल्ली - 110059/ 500 रुपये/ 140 पृष्ठ/ ISBN 9788192082745 |
नई कविता का पुनर्पाठ : राष्ट्रीयता का संदर्भ
राष्ट्रीय चेतना नई कविता को एक अत्यंत समृद्ध काव्य-परंपरा के रूप में प्राप्त हुई। नवजागरण और
स्वतंत्रता आंदोलन के कारण भारतेंदु युग से प्रगतिवाद तक राष्ट्रीय धारा निरंतर
प्रवाहमान दिखाई देती है। ‘तारसप्तक‘ की संक्रमणकालीन कविता भी इससे अछूती नहीं है। ‘‘प्राचीन गौरव का स्मरण, उपलब्धियों का अंकन, राष्ट्र की वर्तमान स्थिति, परतंत्र राष्ट्र को स्वतंत्र बनाने का संकल्प आदि
राष्ट्रीयता के विविध पक्षों पर अधिकांश कवियों ने कविताएँ रचीं। नए कवि ने इस
समृद्ध परंपरा का सूक्ष्म निरीक्षण कर एक ऐसे राष्ट्रीय बोध का विकास किया,
जिसमें राष्ट्र की वर्तमान स्थिति का अंकन और
निर्माण का संकल्प प्रमुख था। नए कवि के मन में राष्ट्रीय गौरव भी है और सजगता भी।‘‘
(डॉ. देवराज, नई कविता की परख,
सार्थक प्रकाशन, 2003 ई., पृ.सं. 95)।
इसमें संदेह नहीं कि सारा का सारा आधुनिक हिंदी साहित्य किसी न किसी रूप में
राष्ट्रीयता से ही जुड़कर सार्थकता प्राप्त करता है। जहाँ छायावादी कविता ने रोमानी-राष्ट्रीयता को परिपुष्ट किया है, वहीं नई कविता ने उसे नया तेवर प्रदान किया। नई कविता ने
जिस राष्ट्रीयता का विकास किया उसका अर्थ पारंपरिक सीमा से बंधा नहीं है वरन्
उसमें अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों से आगे बढ़कर राष्ट्रीयता को बौद्धिक धरातल पर
प्रतिष्ठित किया गया है। इस कविता ने राजनैतिक उथल-पुथल के बीच रूपाकार ग्रहण किया। राष्ट्रीय
संघर्ष की पृष्ठभूमि से उभरी नई कविता ने भारत-भारती को एशिया के कमल पर
स्थित जागरण की आरती के रूप में देखा -
‘‘एशिया के कमल पर तुम भारती सी
पूर्व के जनजागरण की आरती
सी
इस सदी के साथ केसर चरण
धरकर
आ गईं तुम भूमि स्वर्ग
संवारती सी
अमृत नदियों का जहाँ है सोम
संगम
यह कपूरी लौ उठी उनकी मनोरम
लौट आई देश की ज्यों गंध
गरिमा
चंद्र तन, नक्षत्र मन, ले ज्ञान संयम।‘‘
(गिरिजा कुमार माथुर,
धूप के धान)।
नई कविता की राष्ट्रीयता भौगोलिक सीमाओं तक अपने को संकीर्ण नहीं बनाती और इस
प्रकार सांप्रदायिक राष्ट्रीयता से परे अंतरराष्ट्रीयता का संस्पर्श करती दिखाई
देती है-
‘‘तेरे नायकत्व में है गतिशील मन जहाँ
सतत विराटतर होते हुए
कर्म और चिंतन की दिशा में-
उस मुक्ति-स्वर्ग में ही, मेरे पिता
जाग उठे मेरा देश।‘‘
(बालकृष्ण राव, अर्द्धशती)।
नई कविता की राष्ट्रीय चेतना राष्ट्रीय गौरव के साथ-साथ राष्ट्रीय-शर्म को भी पहचानती है। स्वातंत्र्योत्तर काल
में राष्ट्रीय विकास की असंतुलित गति के कारणों को यह कविता समझती है और व्यंग्य
से भर उठती है -
‘‘राष्ट्रीय राजमार्ग प्रादेशिक पशुः
योजना आयोग वाले करें तो
क्या करें
बिचारे उगाते हैं
आयातित रासायनिक खाद से
अंतरराष्ट्रीय करमकल्ले।‘‘
(अज्ञेय, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ)।
अज्ञेय ने ‘‘आजादी के बीस बरस‘‘
की
उपलब्धि का मूल्यांकन करते हुए कहा कि -
‘‘आजादी के बीस बरस से
बीस बरस की आजादी से
तुम्हें कुछ नहीं मिला
मिली सिर्फ आजादी।‘‘
(अज्ञेय, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ)।
सपनों के टूटने के साथ-साथ वर्गवाद और जातिवाद के पनपने से स्वतंत्र
भारत की राष्ट्रीय आत्मा और अस्मिता के घायल होने की घटना ने नए कवि को विचलित कर
दिया। सत्ता के केंद्रीकरण, सांप्रदायिकता के उभार और भ्रष्टाचार की
सर्वव्यापकता पर कविता का व्यंग्य करना उसकी राष्ट्रीय चेतना का ही एक पक्ष है -
‘‘देस रे देस
तेरे सिर पर कोल्हू
इसका भार तू कैसे ढोएगा
जिसे पेरेंगे जाट, बाम्हन
बनिया, तेली, खत्री
मौलवीं, कायथ, मसीही
जाटव, सरदार, भूमिहार, अहीर
और वे सारे घेरे के बाहर के
बेचारे जो नहीं पहचानते अपनी तकदीर।‘‘
(अज्ञेय, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ)।
मुक्तिबोध भारतीय जागरण को एशिया के जागरण का मूल मानते हैं। भारतमाता एक
वृद्ध माँ है, जिसके अंतर से एक
उल्का निकलती है और तारे टूटते हैं तो एशिया जागता है -
‘‘जब वृद्धा माँ के अंतर की
धुंधली लौ के अंतर में से
उल्का निकली, तारे टूटे
तभी एशिया जाग उठा था
छाती के भीतर की ज्वाला
जब बांकी शमशीर, हुई थी
(आंगन में तुलसी को नीरव
घर की गहरी पीर हुई थी)
तभी एशिया जाग उठा था
हिंदुस्तानी जनता का तब
लौह दंड बेलाग उठा था।‘‘
(मुक्तिबोध, भूरी-भूरी खाक धूल)।
कवि जनसंघर्ष की चेतना को पहचानता है और उसे अक्षुण्ण रखने के लिए कविता को
जनमुक्ति के अभियान से सीधे-सीधे जोड़ता है -
‘‘ओ नागात्मन
संक्रमण काल में धीर धरो
ईमान न जाने दो
तुम भटक चलो
इन अंधकार मैदानों में सर-सर करते
शत उपेक्षित भूमि में फिंके
चुपचाप छिपाए गए
शुक्र, गुरु, बुध, मंगल
कचरे की पर्तों से ढके
तुम्हें मिल जाएंगे।‘‘
(मुक्तिबोध, भूरी-भूरी खाक धूल)।
धर्मवीर भारती ने भी अपनी कविताओं में राष्ट्रीयता को मुखर अभिव्यक्ति प्रदान
की है। उनकी कविता ‘सुभाष की मृत्यु पर‘
इस
दृष्टि से उल्लेखनीय है -
‘‘किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर
धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिल्कुल शांत
और रह गया होगा जब वह
स्वर्ग-देश एकांत
खोल कफन ताका होगा तुमने
भारत की ओर।‘‘
(धर्मवीर भारती, ठंडा लोहा)।
सच ही सुभाष जैसे देशभक्त के लिए स्वर्ग का सुख नहीं, अपने देश की स्वतंत्रता अधिक महत्वपूर्ण होती है तभी तो वह
कफन खेाल कर स्वर्ग को नहीं भारत को निहारता है कि पुनः जन्म लेकर मातृभूमि की
सेवा कर सके, उसे मुक्त करने के
सपने को पूरा कर सके।
स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनैतिक स्तर पर आडंबर और व्यक्तिपूजा का क्रमशः
भयंकर प्रसार हुआ है। साथ ही, उपभोक्तावाद तथा अपसंस्कृति के आक्रमण ने भी राष्ट्र की प्रगति को पंगु बनाने
में कोर-कसर नहीं रखी है। यह आक्रमण प्रच्छन्न है और प्रत्यक्ष आक्रमण की अपेक्षा अधिक
खतरनाक है। कवि को इस खतरे का अहसास बहुत पहले हो गया था, तभी तो उसने कहा था-
‘‘ढंग है नया
लेकिन बात यह पुरानी है
घोड़ों पर रखकर या फिल्मों
में रंग कर
वे जंजीरे केवल जंजीरें ही
लाए हैं
और भी पहले वे कई बार आए
हैं।‘‘
(धर्मवीर भारती, ठंडा लोहा)।
ऐसे में राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण और संरक्षण की जिम्मेदारी
बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों पर आती है, लेकिन जैसा कि मुक्तिबोध ने देखा था-
‘‘सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन
निर्वाक्
चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके खयाल से यह सब गप है
मात्र किंवदंती
रक्तपायी वर्ग से नाभिनालबद्ध
ये सब लोग
नपुंसक भोग शिरा जालों में
उलझे।‘‘
(मुक्तिबोध, चाँद का मुंह टेढ़ा है)।
उसी क्रम में धर्मवीर भारती ने भी तल्ख लहजे में कहा-
‘‘युद्धक्षेत्र, कर्मक्षेत्र में मुझको
ढूँढ़ोगे तुम व्यर्थ
आज तो मिलूँगा मैं तुमको
पराए अंतःपुर में
चाटुकार विद्वानों, मूर्खा महिषियों
अशिक्षित विदूषकों से घिरा
हुआ
मैं जो हूँ नृपति विराट का
विश्वस्त दास
नृत्य, गीत, कविता, कलाओं का ज्ञाता
किंतु हरदम भयाक्रांत।‘‘
(धर्मवीर भारती, सात गीत वर्ष)।
राष्ट्रीय-संस्कृति को परिपुष्ट करने में हमारी असफलता ने राष्ट्रविरोधी जिस विकृति को फलने-फूलने का अवसर दिया, वह है
सांप्रदायिकता। शमशेर बहादुर सिंह सांप्रदायिक उन्माद से लगातार मरते शहरों की
बढ़ती संख्या के प्रति सही ही चिंतित हैं। ‘भारत देश की ईद: 1980 मुरादाबाद‘ जैसी कविता में जहाँ वे एक ओर ईद, मुहर्रम, होली और
शिवरात्रि जैसे त्योहारों पर भड़काए जाने वाले सांप्रदायिक दंगों के मर्म को
पहचानने का सफल प्रयास करते हैं वहीं ‘‘धार्मिक दंगों की राजनीति‘‘ जैसी कविता में इनके पीछे छिपी शक्तियों को बेनकाब करते हैं -
‘‘जो धर्मों के अखाडे़ हैं
उन्हें लड़वा दिया जाए
जरूरत क्या है कि
हिंदुस्तान पर
हमला किया जाए।‘‘
(शमशेर: काल तुझसे होड़ है मेरी)।
यही वह राष्ट्रीय खतरा था जिसके प्रति गिरिजा कुमार माथुर ने नव स्वतंत्र
राष्ट्र को 1950 में ही सावधान किया
था-
‘‘आज जीत की रात पहरुए
सावधान रहना
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना।‘‘
(गिरिजा कुमार माथुर: पंद्रह अगस्त)।
‘‘अविरल है मंजिल यह
है न आखिरी विराम
इस प्रशस्त मार्ग चले
देख देश, नगर, ग्राम।‘‘
(गिरिजा कुमार माथुर: युगारंभ)।
लेकिन हम सावधान नहीं रहे और परिणामस्वरूप हमारा राष्ट्रीय चरित्र निरंतर पतन
के गर्त में गिरता चला गया। रामराज्य और सुराज्य की कल्पना आकाश कुसुम बन गई और एक
ऐसी दमघोंटू व्यवस्था में रहने को देश विवश हो गया जिसकी कामना न हमारे पूर्वजों ने
की थी और न हमने-
‘‘और हर बार
ठोस जमीं छत से टकराता हूँ
बाहर निकलने का उपाय
अब न कोई है
मुझे बेहद प्यास लगी है
पर आसपास हत्यारे कुएँ हैं
जिनमें मैं सिर्फ गिर सकता
हूँ
घुप्प अंधेरे वाली
एक अंधी बंद दुनिया है
जो मैंने न रची थी
न माँगी थी
-वह दुनिया मेरी है।‘‘
(गिरिजा कुमार माथुर: जो बँध नहीं सका)।
भारतभूषण अग्रवाल भी इन हत्यारे कुँओं की निशानदेही करते दिखाई देते हैं। वे
एक ओर तो पूर्वजों से प्रश्न करते हैं कि -
‘‘दीप्त थीं शिखाएँ जो
धूमहीन निष्कलंक तेज की
सवारियाँ
ताम्रारुण लपटें जो पहुँचती
थीं व्योम तक
तारों के माथे भी पसीजते थे
जिनकी भभक से
तप्तालोक जिनका
हमारे इस अंधे युग पथ की आशा
था
कहाँ हैं वे
जवाब दो
तुम : ओ ज्योतिवाहियो
तुम : जिन्हें सौंपी थी इतिहास ने
वह अग्निमयी शक्ति की मंगलनिधि
तुम : ओ मेरे पूर्वजो।‘‘
(भारतभूषण अग्रवाल: ओ अप्रस्तुत मन)।
तथा दूसरी ओर अतीत-मोह से मुक्त होकर अंधकूप से निकलने की शक्ति का आह्वान करते हैं -
‘‘ बढ़े चलो, बढ़े चलो - मगर बढ़ें तो हम कहाँ?
कि रास्ता ही जब नहीं, तो डाल दें कदम
कहाँ?
हमें प्रयाण के लिए, न व्याख्यान चाहिए
पड़े हैं अंधकूप में, हमें उठान चाहिए।‘‘
(भारतभूषण अग्रवाल:
ओ अप्रस्तुत मन)।
लेकिन उठान की संभावनाएँ धूमिल हैं क्योंकि यह कार्य लोकतंत्र में जिस संस्था
के सुपुर्द किया गया था, वह राष्ट्रसेवक या राष्ट्रपोषक बनने के बजाय राष्ट्रशोषक बनकर रह गई है-
‘‘संसद भवन में शहद का एक छत्ता लगा है
जिसकी मधुमक्खियाँ फूलों से
नहीं घावों से मधु चूसती हैं
और रानी मक्खी कुछ नहीं
करती
बस मिंककोट पहनती है।‘‘
(भारतभूषण अग्रवाल: एक उठा हुआ हाथ)।
जगदीश गुप्त ने अपनी कविता में उन
स्थितियों पर व्यंग्य किया है जिनके कारण इस महान देश की महानता तक कलंकित हो रही
है-
‘‘क्या कहा कवींद्र
महामानव समुद्र है हमारा यह
देश?
रुको
अपने परिकल्पित विराट दिव्य
रूपक में
मेरा लघु स्वर भी मिल जाने
दो
क्षार से विषमता के
लहर लहर कुंठित है
स्वार्थों के पंकिल तल में
सारे मणि मुक्ता खोए हैं
भेदभाव के हिम से बूंद बूंद
ठिठुरी है।‘‘
(जगदीश गुप्त, शब्द दंश)।
नई कविता ने राष्ट्रीयता के संकटकाल में राष्ट्रीय परंपरा और राष्ट्रीय
संस्कृति के प्रति गहन आस्था का भी चित्रण किया है। जब भारत के ज्योतिर्मय तुषार किरीट पर चीन कुछ
मकोड़ों की तरह रेंगता हुआ चढ़ आया था तो कवि ने देश के आहत स्वाभिमान को जगाने और
स्वयं को राष्ट्रीय बलिदानियों की परंपरा में जोड़ने की आकांक्षा व्यक्त की थी-
‘‘काल से भी अधिक होता है भयावह
किसी आहत स्वाभिमानी देश का
जागा हुआ अभिमान।‘‘
(जगदीश गुप्त, हिमविद्ध)।
नई कविता देश के इस स्वाभिमान और देशवासियों
की इस राष्ट्रीयता आस्था के प्रति पूर्णतः निष्ठावान है, परंतु वह गौरव-गाथा के व्यामोह में इस तरह फँसने को कतई तैयार
नहीं है कि स्वातंत्र्योत्तर काल में राष्ट्रीय-शर्म के स्मारक बने
नेताओं के चरित्र की अनदेखी करे। इस कविता की राष्ट्रीय चेतना के पाठ की
परिपूर्णता के लिए यह आवश्यक है कि राष्ट्रीयता को क्षति पहुँचाने वाली राजनीति पर
व्यंग्यपूर्ण प्रहार के पाठ को भी उसमें शामिल किया जाए। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
के शब्दों में कुल किस्सा यह है कि-
‘‘घंत मंत दुई कौड़ी पावा
कौड़ी लै के दिल्ली जावा
दिल्ली हम का चाकर कीन्ह
दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह
भूसा ले हम शेर बनावा
ओह से एक दुकान चलावा
देख दुकान सब किहिन प्रणाम
नेता बनेन कमाएन नाम
नाम दिहिस संसद में सीट
ओह पर बैठ के कीन्हा बीट
बीट देख छाया खुशयाली
जनता हँसेसि बजाइस ताली
ताली से ऐसी मति फिरी
पुरानी दीवार उठी, नई दीवार गिरी।‘‘
(सर्वेश्वर, कविताएँ-2)।
2 टिप्पणियां:
राष्ट्रीयता के आकाश में इतने प्रभावी शब्द-तारे छाये हुये हैं...
@प्रवीण पाण्डेय
प्रिय भाई,
मेरा तो मानना है कि तमाम तरह के विचलनों के बावजूद हमारी कविता का मुख्य सरोकार सौ साल से राष्ट्रीयता ही है.
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