फ़ॉलोअर

रविवार, 10 जून 2012

याद आता रहा सर्वेश्वर का 'सुहागिन का गीत'


सप्ताह भर से अधिक के लिए धारवाड [कर्नाटक] जाना पड़ा. दो दिन तो मन प्रसन्न रहा - हैदराबाद की सिर फोडती गर्मी से राहत जो मिली थी. सुहानी शामें. बूंदाबांदी. पर अपने मन का खाना नहीं मिलता जी वहाँ. ऊपर से विभागीय अप्रिय चीज़ों से पैदा होने वाला तनाव. खैर! 

शाम को चिन्न बसवेश्वर मंदिर के अहाते में बैठना अच्छा लगता था. दिन-दिन भर लंबी बैठकी से स्पोंडिलाइटिस और कमर दर्द का उभरना साधारण बात थी, लेकिन साथी प्राध्यापक डॉ. राजकुमार नाइक [कोप्पल,कर्नाटक] ने सगे भाई की तरह मेरा ख़याल रखा. मेरा रोम-रोम उन्हें आशीष देता है! 

मेरा अनुभव रहा है कि मुझे सदा अच्छे लोग ज्यादा मिले हैं और इसलिए अच्छाई में मेरा अटूट विश्वास है. पर कटु अनुभव भी कम नहीं हैं - लोग अकारण आपके पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं. लेकिन फिलहाल जाने दीजिए उन्हें. 

मैं तो यह कह रहा था कि जब इस धारवाड-प्रवास में बोर हुआ तो बार-बार सर्वेश्वर का ''सुहागिन का गीत'' याद आता रहा. अभी देखा तो नेट पर मिल गया. लीजिए उद्धृत है-


चले नहीं जाना बालम

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम

ड्योढी पर पहले दीप जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझको
मंदिर के घंटे, शंख और घड़ियाल बजे
पूजा की सांझ-संझौती गाने दो मुझको
उगने तो दो पहले उत्तर में ध्रुवतारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडंडी पर जल-फूल-दीप धर आने दो
चरणामृत जाकर ठाकुर जी का लाने दो

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम

यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

बेले की पहले ये कलियाँ खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गाँठ पड़ी
रजनीगंधा से ज्वार-सुरभि को आने दो
इस नीम ओट से ऊपर उठने दो चन्दा
घर के आँगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो तुम मुझको बंद कपाट ज़रा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो

यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम

यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

चुप रहो ज़रा सपना पूरा हो जाने दो
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो
खामोश धरा, आकाश, दिशायें सोयीं हैं
तुम क्या जानो क्या सोच रात भर रोयीं हैं
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो
मिटने दो आँखों के आगे का अंधियारा
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो

यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम

2 टिप्‍पणियां:

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

इस पोस्ट को पढने के बाद जो मेरे मन में आया सादर समर्पित :
लगता है कवि ह्रदय होने का ही परिणाम है कि आप अधिक संवेदनशील हैं. आप किसी भी बात की, प्रतिक्रया भी तुरंत देते हैं. ऐसा न होने पर बेचैन रहते हैं. अपने साथियों की, मित्रों की प्रसंसा करते नहीं थकते. सकारात्मक सोच आपको अन्यों से अलग करती है. जहाँ जाएंगे पारिवारिक वातावरण बनाएँ, यह आपकी खूबी है. मेरी इस बात को सर्वेश्वर की ही पंक्तियों से स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ, आशा है मैं सही दिशा में हूँ:
" कौन कह रहा बंजारों-सा यह जीवन बेकार है
मैं सबका हूँ सब मेरे हैं, सबसे मुझको प्यार है.
चाँद और तारों की छत है
दिशा-दिशा दीवार है,
सारी धरती मेरा आँगन
पूरब-पश्चिम द्वार है,
बहुत बड़ी जिम्मेदारी है बहुत बड़ा परिवार है,
सबके हित मधुकरी हमारी, सबके लिए सितार है."

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

उदासी और खिन्नता साहित्यिक रूप ले ले तो भी स्वीकार है..