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रविवार, 3 जून 2012

देहरी : ऋषभ देव शर्मा की 35 स्त्रीपक्षीय कविताएँ


देहरी [स्त्रीपक्षीय कविताएँ]
कवि : ऋषभ देव शर्मा
प्रकाशक : लेखनी, सरस्वती निवास, यू - ९, सुभाष पार्क,
नज़दीक सोलंकी रोड, उत्तम नगर, नई दिल्ली - 110059.
[फोन : 011-25333263/64]
संस्करण : 2011
मूल्य : 250 रुपए 

पुस्तक का ऑनलाइन लिंक : ''देहरी''
संवेदना यदि कविता का उत्स है तो ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ संवेदनापरक अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाएँगी. कुछ कविताओं में संवेदना की स्मृतिजन्य उपस्थिति में भावुकता भी दिखलाई पड़ती है. यह ख़ास इसलिए है कि भावुकता प्रकट करने वाली भाषिक अभिव्यंजना आज की कविता से क्रमशः दूर होती जा रही है. 

कहने को तो ये कविताएँ स्त्रीवादी कविताएँ हैं; और अपनी विषयवस्तु में हैं भी. लेकिन ये स्त्री के इर्द गिर्द आकर ही ठहर नहीं गई हैं. इनमें पारिवारिक संरचना के बदलते स्वरूप की परख है, सामाजिक ढाँचे और मूल्यों के विघटन की आवाज़ है. पुराकथाओं के जरिये पुरुष-स्त्री संबंधों की, और स्त्री की, यातनागाथा की अभिव्यक्ति जैसे घटक भी इस तरह मिलाए हुए हैं कि इनमें स्त्री एक अलग इकाई की तरह नहीं बल्कि धुरी की तरह चित्रित है गोकि उसकी शोषणक्रिया के अनुष्ठान कम ही बदल पाए हैं. कविताएँ इन्हें बदलना चाहती हैं. जो कविताएँ स्त्री की ओर से प्रथमपुरुष में लिखी गई हैं, उनमें बदलाव की यह तड़प अधिक मुखर है. 

स्त्री की अनेक छवियाँ इन कविताओं में उभरी हैं. आदिवासी से लेकर घर परिवार की, महानगरों की, गाँवों-कस्बों की स्त्रियों की - घुटन, भीतर भीतर पक रही अनपूरी चाहें जब उनकी ललकार और चुनौती में बदलती हैं तो यह अलग-अलग कविताओं का संग्रह प्रबंध काव्य का गठन पाता सा लगता है. 

कवि ने अनुभूत ही लिखा है इसलिए हर कविता सच्ची है. झूठ इनमें इतना ही है जितना आए बिना कोई अच्छी कविता बनती भी नहीं. 

'देहरी' संग्रह की कविताएँ देहरी के भीतर वाली स्त्री के अनेक रूपों का चित्र खींचती हैं और देहरी के बाहर निकल सकने की उसकी इच्छाओं और इसके बावज़ूद नागपाश की तरह जो सामजिक रूढ़ियाँ उसे जकड़े हुए हैं उन्हें तोड़ने की और देहरी के भीतर जाने और फिर बाहर न निकल पाने की एकतरफा आमद को इस संग्रह की कविताएँ दृढ़ता से नकारती हैं. (पुस्तक के फ्लैप पर प्रकाशित वक्तव्य).


                                                                                              
-प्रो. दिलीप सिंह
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,चेन्नै-600 017

यह पुस्तक पीडीएफ फॉर्मेट में निम्नलिखित लिंक पर  सहेजी गई है - 

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आभार, पढ़ते हैं..

शैलेश भारतवासी ने कहा…

12-13 कविताएँ पढ़ पाया। 'जितने बंधन, उतनी मुक्ति' कविता बहुत अच्छी लगी। अच्छा संग्रह बन पड़ा है। युवा कवियों को भी पढ़ना चाहिए।