22 मार्च 2012 को पश्चिम गोदावरी [आंध्र प्रदेश] के जनपद मुख्यालय एलुरु जाना हुआ. ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व का शहर. गाँधी जी के नमक आंदोलन में यहाँ के नागरिकों ने इतना बढ़ चढ कर हिस्सा लिया था कि लोग इसे तमिलनाडु के वेलुरु से अलग पहचानने के लिए नमक-वेलुरु कहने लगे. वैसे एलुरु का एक अर्थ सप्त-सरिता निकलता है जो इस तथ्य का द्योतक है कि कभी यहाँ सात नदियाँ बहती थीं. अब भी गोदावरी और कृष्णा द्वारा सिंचित इस क्षेत्र को आंध्र के चावल का कटोरा कहकर मान दिया जाता है.
हिंदी प्रचार आंदोलन में भी एलुरु का स्थान महत्वपूर्ण है. गाँधी जी द्वारा दीक्षित हिंदी प्रचारकों ने उनकी चरणधूलि से पावन स्थल पर हिंदी विद्यालय की स्थापना की. पी सत्यनारायण, वेमूरि आंजनेय शर्मा और शीर्ल ब्रह्मय्या जैसे पुरोधा हिंदी प्रचारकों के इस कर्मक्षेत्र में जाने का अवसर मुझे बीएसएनएल के राजभाषा अधिकारी बी. विश्वनाथाचारी के आग्रहवश अनायास ही मिल गया.
हिंदी प्रचार आंदोलन में भी एलुरु का स्थान महत्वपूर्ण है. गाँधी जी द्वारा दीक्षित हिंदी प्रचारकों ने उनकी चरणधूलि से पावन स्थल पर हिंदी विद्यालय की स्थापना की. पी सत्यनारायण, वेमूरि आंजनेय शर्मा और शीर्ल ब्रह्मय्या जैसे पुरोधा हिंदी प्रचारकों के इस कर्मक्षेत्र में जाने का अवसर मुझे बीएसएनएल के राजभाषा अधिकारी बी. विश्वनाथाचारी के आग्रहवश अनायास ही मिल गया.
बी. विश्वनाथाचारी ने नंदिराजू सुब्बाराव कृत तेलुगु नाटक 'अक्षरम' का 'अक्षर' शीर्षक से हिंदी में अनुवाद किया है - प्रकाशित किया है. उनकी जिद थी कि लोकार्पण मेरे हाथों हो. अपने युवा लेखक मित्र पेरिसेट्टी श्रीनिवास राव ने यात्रा की जिम्मेदारी ले ली तो मैं साथ हो लिया. स्लीपर बस में खाली पेट खूब हिलना-डुलना हुआ; पर यात्रा दोनों ओर की ठीक-ठाक ही रही. एलुरु में पारंपरिक ढंग से स्वागत-सत्कार और अभिनंदन हुआ - दो दो बार. मैं तो बड़े संकोच में पड़ गया. दरअसल सवेरे तो पुस्तक-लोकार्पण का कार्यक्रम रहा ही; शाम को बीएसएनएल में तेलुगु-हिंदी कवि-सम्मलेन का भी आयोजन हुआ. युगादि पर्व की पूर्व वेला होने के कारण युगादि पर ही कविताएँ पढ़ी गईं. संयोगवश मैंने पिछले ही दिन इस स्थिति का पूर्वानुमान कर कुछ तुकबंदी कर डाली थी - उसने इज्ज़त बचा ली.
आचार्य जी और राजा राव जी ने वापसी की बस पकड़ने से पहले दो मंदिरों में दर्शन भी करा दिए. दतात्रेय मंदिर और लघु तिरुपति मंदिर. बहुत अच्छा लगा. साहित्ययात्रा तीर्थयात्रा भी बन गई. दोनों ही मंदिर भव्य भी हैं और शांतिमय भी. और हाँ मंदिर के सामने पार्क में यों तो निर्जल उपवास करते मगरमच्छ महाशय व महाकच्छप महोदय ने भी ध्यान खींचा पर फोटो हमने भगवान बुद्ध की ही प्रतिमा के सामने खिंचवाई.
मित्रों का यह निश्छल आतिथ्य सदा याद रहेगा!
3 टिप्पणियां:
सांस्कृतिक और साहित्यिक आदान प्रदान संवर्धन में सहायक हैं।
खूबसूरत
इस तरह के आयोजन भाषा और संस्कृति को जोड़ने में सहायक होते है इस तीर्थ यात्रा साहित्य यात्रा के साथ परिवार यात्रा भी जुड़ जाए तो आनंद
दुगना हो जाए
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