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रविवार, 8 जनवरी 2012

तेलुगु नाटक 'अक्षर' : अनूदित पाठ की भूमिका

शुभाशंसा

अनुवाद समाज के लिए उतना ही जरूरी है जितनी भाषा. भाषा के बिना किसी समुदाय के सदस्य जिस प्रकार संवादहीन हो सकते हैं उसी प्रकार अनुवाद के अभाव में भिन्न समुदायों का परस्पर संवाद संभव नहीं है. इसलिए अनुवाद एक ऐसी बहुभाषिक गतिविधि है जो अलग अलग भाषा समुदायों के बीच संवाद सेतु बनाती है. प्रसन्नता की बात है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच परस्पर अनुवाद की इस गतिविधि के कारण अलग अलग भाषा समुदायों के बीच आपसी समझ का विकास हो रहा है. अनुवाद के माध्यम से यह बात भी पुष्ट होती है कि विभिन्न भाषाओं के साहित्य के मूलभूत मानवीय सरोकार एक समान हैं. आज के समय में जीवन मूल्यों का क्षरण दयनीय अवस्था तक पहुँच गया है और आम आदमी भ्रष्टाचार के जाले में बुरी तरह फँसकर छटपटा रहा है. इस क्रूर यथार्थ को सभी भारतीय भाषाओं के लेखक शिद्दत से महसूस कर रहे हैं और अभिव्यक्त कर रहे हैं. श्री बी.विश्वनाथाचारी द्वारा अनूदित श्री नंदिराजु सुब्बाराव का तेलुगु नाटक ‘अक्षर’ भी इसका अपवाद नहीं है.

‘अक्षर’ एक प्रयोगशील नाटक है जिसे नुक्कड़ नाटक के रूप में भी खेला जा सकता है. इसके केंद्र में लुटा पिटा आम आदमी है. समाज का जो विशिष्ट वर्ग है, भद्र लोक है वह सब प्रकार की सुख सुविधाओं से संपन्न है. दूसरी ओर आम आदमी सब प्रकार की सुख सुविधाओं से वंचित है. आर्थिक अभावों के कारण वह पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम जैसी जिंदगी बसर करने को मजबूर है. फिर भी चाहता है कि अपनी अगली पीढ़ी को बेहतर जिंदगी दे सके, आजादी मुहैया करा सके. लेकिन उसकी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं हो पाती. वह अपने बेटे को अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाता इसलिए बेटा बेरोजगार रह जाता है. बेटी के लिए दूल्हों के बाजार में ऊँचा दहेज नहीं दे पाता इसलिए वह अभिशप्त जीवन भोगती है. पत्नी के लिए अपने अंग बेचकर भी कुछ साँसें नहीं खरीद पाता इसलिए वह दम तोड़ देती है. रिश्ते नातों की व्यर्थता, शिक्षा, प्रशासन, चिकित्सा जैसी संस्थाओं के पतन और उपभोक्तावाद के विषैले प्रभाव को इस नाटक में व्यंग्य के माध्यम से पूरी तल्खी के साथ उभारा गया है. घर की तलाश करता आम आदमी अंत तक असफल रहता है. निस्संदेह यह संवेदना केवल तेलुगु भाषा और आंध्र प्रदेश तक सीमित नहीं है बल्कि सारे भारत की कमोबेश यही कहानी है.

इस अनुवाद के माध्यम से हिंदी के पाठक तेलुगु नाटक की समसामयिक चिंता से रू-ब-रू होंगे. साथ ही इसमें निहित व्यंग्य उन्हें विचलित भी करेगा. ऐसा मेरा विश्वास है.

मूल लेखक और अनुवादक को इस कृति के प्रकाशन के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएँ.


७.१.२०११ 

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

संस्कृति की साहित्यिक क्षमता समझने का सशक्त माध्यम है अनुवाद..

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अच्छी समीक्षा। नुक्कड नाटक के काम आएगी तो हैदराबाद के ही रही अन्य रंगमंच कर्मियों के लिए भी यह उपयोगी होगी।