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शनिवार, 21 जनवरी 2012

पारनंदि निर्मला का ‘खुला आकाश’

पारनंदि निर्मला (1950) को सतत हिंदी सेवा और साहित्य सृजन के लिए पहचाना जाता है. वे तेलुगु और हिंदी भाषा और साहित्य की मर्मज्ञ विदुषी  हैं और लगभग दो सौ से अधिक कहानियों – कविताओं का अनुवाद कर चुकी हैं. प्रभूत अनुवाद  कार्य के साथ साथ वे विभिन्न विधाओं में मौलिक साहित्य सृजन के लिए भी जानी जाती हैं. ‘खुला आकाश’(2010) उनके विभिन्न विधाओं के मौलिक सृजन का समेकित संकलन है. इसमें उनकी 25 कहानियाँ, 1 नाटक, 32 कविताएँ, 10 लेख और 1 समीक्षा सम्मिलित हैं. 

‘खुला आकाश’ की कहानियाँ लेखिका के अपने आसपास के परिवेश के यथार्थ पर आधारित हैं तथा मानवीय संबंधों में मिठास की खोज को समर्पित हैं. लेखिका ने यह लक्षित किया है कि समाज में प्रतिष्ठा का आधार पद और उपाधि होने के कारण चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के मन में कुंठाएं पनपती रहती हैं. (छुट्टियों के पैसे). लेखिका का ध्यान रोजमर्रा की कठिनाइयों और अव्यवस्था की ओर भी गया है. (ये निजी बसें, ये सरकारी बसें). वास्तव में सामान्य नागरिक क़ानून और व्यवस्था संबंधी गडबडियों से इतना परेशान है कि भीतर ही भीतर उबलता रहता है. हद तो तब हो जाती है जब भ्रष्टाचार से लड़ने का हौसला दिखानेवाला व्यक्ति स्वयं मध्यमार्ग की तरह भ्रष्टाचार को ही अपना लेता है. (टोकन नंबर - 20). धार्मिक आस्थाओं का शोषण करने वाले पाखंडी तथाकथित भगवानों पर भी एक कहानी में व्यंग्य किया गया है. (वेंकटेश्वर : मिताई गोरंगो). ‘दोष किसका?’ में बड़े साहस के साथ लेखिका ने बलात्कार और उससे जुड़े अनुभव की द्वंद्वात्मकता को उभारा है. शंकर स्वीकार करता है कि पहले दिन तो उसने अवश्य बलात्कार किया था लेकिन उसके बाद के दिनों में स्वयं लक्ष्मी ने पहल की थी. इस पर लेखिका की यह व्यंजनापूर्ण टिप्पणी देहधर्म और नैतिकता के द्वंद्व में तथाकथित नैतिकता के खोखलेपन को प्रकट करती है कि “मुझे उसका चेहरा तपती धरती सा लगा जिसे बारिश की बौंछार की प्रतीक्षा रहती है. एक बूँद गिरने मात्र से ही सौंधी सुगंध फैलाकर अपनी प्यास जाहिर करती है. शायद लक्ष्मी ने भी....” (दोष किसका?). मनुष्यता आज भी जीवित है, इसे ‘वेक्यूम क्लीनर’ का आधार बनाया गया है. इसी प्रकार ‘वे दो आँखें’ में यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य अपने दुष्कर्मों का फल अवश्य भोगता है. लेखिका ने आदर्श और यथार्थ का समावेश करके भी कई अच्छी कहानियाँ बुनी हैं. ‘देवत्व’, ‘मे गाड ब्लेस यू’ और ‘ए सेल्यूट टू प्रेम’ ऐसी ही कहानियाँ हैं. 

‘आप भी सीखिए’ एक छोटा नाटक है. इसमें लेखिका ने इस अनुभव जनित वास्तविकता को उभारा है कि कुछ लोग हद दर्जे के कमीने और कृतघ्न होते हैं. उनसे सदव्यवहार करने वाला स्वयं ही मूर्ख सिद्ध होता है. इस नाटक में ऐसे व्यक्तियों के व्यवहार के खोखलेपन और धूर्तता भरी विनम्रता की ओर भी इशारा किया गया है. 

लेख संबंधी खंड में विविध अवसरों पर लिखे गए अलग अलग प्रकार के आलेख शामिल हैं.' हिंदी तेलुगु : खट्टे-मीठे अनुभव', 'नागरी : उद्भव एवं विकास', 'अंग्रेजी की दासता से मुक्त हो हिंदी' जैसे निबंधों में लेखिका का भाषा विषयक दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है. वे मानती हैं कि हिंदी को और लचीला बनाने की जरूरत है तथा  इसके लिए उसमें विभिन्न प्रदेशों के ही नहीं लोकप्रिय विदेशी शब्दों को भी जोड़ा जा सकता है. “हिंदी में भी सभी भाषाओं के शब्दों को मिलाकर उसे समृद्ध किया जा सकता है. अन्य भारतीय भाषाओं की लोककथाओं, परंपराओं और मान्यताओं को हिंदी में स्थान दिया जाए तभी समस्त देशवासी अपने अपने क्षेत्र की भाषा का अपनापन हिंदी में महसूस करेंगे और हिंदी सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा बन पाएगी.” 

अब आइए ज़रा कविता खंड को भी देख लें. कवयित्री ‘मेरी पहचान’ के बहाने स्त्री की रचनाधर्मिता को रेखांकित करती हैं – “है यही मेरी पहचान/ रेंगता बच्चा, चहकती चिड़िया/ जीवतत्व को धारण किया बीज/ और अंकुरित करने वाली धरती का हर कोना.” दुःख की सर्वत्र व्यापिनी अनुभूति को अलग अलग संवेदनाओं के माध्यम से अभिव्यंजित करते हुए उन्होंने कहा है – “पक्षी का कलरव रुदन गीत सा लगता है/ पेड़ों के हिलते पत्ते करुण कथा कहते से लगते हैं/ फूल रंग गंध विहीन और फीके से लगते हैं/ रात काली और कराल सी लगती है.” उनकी मान्यता है कि जीवन बहुत छोटा है इसे रूटने और रुलाने में नहीं खोना चाहिए. इसी प्रकार उनका सकारात्मक जीवन दर्शन इस मान्यता से भी  व्यक्त होता है कि मेरे गीतों को सुनने के लिए अनेक श्रोता भले न हों, कोई एक सहृदय भर हो तो काफी है. ‘आधी रात में है चमकता सूरज’ जैसे उलटबांसीनुमा शीर्षक वाली कविता में मित्रों और संबंधियों के विश्वासघात पर व्यंग्य किया है तो ‘तब मेरी सबसे बड़ी मौत हुई’ में एक स्त्री के जीवन में मृत्यु के बार बार घटित होने की शोकांतिका को शब्दबद्ध किया गया है जिसका क्लाइमेक्स है – “तब फिर एक बार मेरी मौत हुई, जब डाक्टर ने कहा/ अब कभी मैं माँ नहीं बन सकती/ क्योंकि खाई थी गोलियाँ डाक्टर के सलाह के बिना/ बच्चा न पैदा करने की/ इस बार एक बड़ी मौत हुई मेरी/ मैं बचपन से अब तक मरती ही रही -/ कभी बच्ची, कभी छात्रा, कभी कुंआरी और/ कभी सुहागन पर अब./ मेरी सबसे बड़ी मौत हुई.” 

इस प्रकार ‘खुला आकाश’ पारनंदि निर्मला की कारयित्री प्रतिभा की बहुविध उड़ान का दस्तावेज है. उनकी इस सारस्वत साधना से हिंदी साहित्य की संपन्नता में वृद्धि हुई है. साहित्य जगत में एक अनुवादक के इस मौलिक अवदान को यथोचित सम्मान मिलेगा, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए.

खुला आकाश / पारनंदि निर्मला/ 2010 (प्रथम प्रकाशन)/ आकाश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, ई – 10/663, उत्तरांचल कालोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बार्डर, गाजियाबाद – 201 102 / पृष्ठ – 255 / मूल्य – रु.495.00

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

निर्मलाजी को अतिशय बधाईयाँ, इस खुले आकाश में साहित्य की सार्थक उड़ानें छिपी हैं।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

इस समीक्षा को पढ़कर यह तो निश्चित हो ही गया कि आप मुँह-देखी समीक्षा करने वालों से अलग प्रतिबद्ध समीक्षक हैं। आज, जब समीक्षक पारनन्दि निर्मला जैसे श्रमशील शब्द-साधकों की ओर न देखकर लाभप्रद लेखकों की चापलूसी में फँसे नजर आते हैं, तब आप पर नि:संदेह गर्व होता है और समीक्षा की गरिमा बचे रहने की आश्वस्ति मिलती है। दीदी पारनन्दि को बधाई व आपको धन्यवाद।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बढिया विवेचन किया है एक बहुआयामी रचनाकार की रचनाओं को लेकर... धन्यवाद सर जी॥