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शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

गांधी जी सफलतम ब्लॉगर हुए होते : वर्धा आयोजन का भरत वाक्य



अभी ९-१० अक्टूबर २०१०  को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दो दिन का आयोजन था - हिंदी ब्लॉगिंग की आचार संहिता पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी और कार्यशाला. अपने कस्बाई काम्प्लेक्स के कारण मैं ऐसे आयोजनों से कन्नी काट जाया करता हूँ जहाँ महान व्यक्तित्व पधार रहे हों - चाहे सचमुच के या फिर भरम के. इस आयोजन के बारे में भी मन  में द्वंद्व था - जाऊँ या न जाऊँ. न जाने का जेनुइन कारण भी उपस्थित था - हमारे संस्थान में दूरस्थ माध्यम के छात्रों का संपर्क कार्यक्रम. पर मुझे इनकार करके भी जाना पड़ा - सिद्धार्थ जी [संयोजक] के आग्रह को टालना संभव नहीं था मेरे लिए. उन्होंने जब फोन पर पहला ही वाक्य कहा- 'आपके निर्णय ने तो मुझे उदास कर दिया' - तो उनकी आवाज़ से  लगा कि वे सच बोल रहे हैं, औपचारिकता नहीं निभा रहे. सोचा - जाना पड़ेगा ही शायद. और जब उन्होंने मेरे बताए सब कारणों को निरस्त करते हुए कहा - 'मैं आपका आना निश्चित मान कर चल रहा हूँ' - तो लगा, किसी ने बहुत आत्मीयता से हथेली पर उष्ण सा दबाव दिया हो. ऊपर से कविता जी के फोन और ईमेल ने मेरे लिए कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं छोडी.

दो गाड़ियों का आरक्षण कराया था. उस दिन सवेरे आठ बजे बेटी ने  स्थान कन्फर्म होने की बात कही तो मैंने सोचा - रात १० बजे वाली गाडी है,और प्रथम नवरात्र की औपचारिकताओं में लग गया. लेकिन मेरी हालत उस वक़्त शायद देखने लायक रही होगी जब मुझे बताया  गया कि गाड़ी  दिन के १० बजे है. जेट स्पीड  से तैयार होकर भागना पड़ा. भला हो उस अपरिचित भले आदमी का जिसने मुझे लिफ्ट दे दी वरना स्कूल का समय होने के कारण कोई भी ऑटो चलने को तैयार न था. इसीलिए घर से निकलते वक़्त बेटी को देवीस्वरूप मानते हुए चरणस्पर्श किए थे  और मन ही मन माँगा था  कि गाड़ी छूट न जाए. वह मेरे इस आचरण पर पहले तनिक हकबकाई , और फिर हँस दी.

गाड़ी पकड़ी गई तो  जान में जान आई. वर्धा उतरते ही शोधार्थी जोशी जी ने मुझे सहज ही चीन्ह लिया और फादर कामिल बुल्के के नाम पर स्थापित अतिथिशाला में प्रस्थापित कर दिया. उस समय वहाँ खुले में कुछ ज़ोरदार चर्चा चल रही थी. मैंने अनुमान  किया कि अवश्य ही यह 'आज की कहानी के सरोकार' पर गोष्ठी होगे जिसकी सूचना गत दिन कविता जी दे चुकी थीं. मैं शामिल नहीं था पर अच्छा लगा विद्वानों को इस तरह साहित्यचर्चा में शाम बिताते देखकर. 

गोष्ठी से छूटते ही  कविता जी आईं. मुझे उनके कुछ महीने पहले के एक्सीडेंट की जानकारी थी; फिर भी उन्हें छड़ी के सहारे धीरे धीरे संभल संभल कर चलते देखना मेरे लिए सहज नहीं था. मैं धक् से रह गया. अभिवादनादि का भी शायद मैं ठीक से उत्तर न दे पाया होऊँ, क्योंकि मेरी इच्छा हो रही थी कि आयु में बड़े होने के अधिकार के साथ उन्हें खूब डाँटूं. [पर नहीं, मैंने वापस लौटने तक भी एक बार भी उनसे उस दुर्घटना की चर्चा तक नहीं उठाई.] कविता जी अनेक वर्षों बाद इतनी प्रसन्न और उत्साहपूर्ण दिखीं  - उनकी बिटिया का रिश्ता तय हो गया है न! [ अभी कल ही की तो बात लगती है जब पहली बार घर जाने पर उसने मुझे बेहद संकोच के साथ अपनी पहली कविता दिखाई थी - और छोटी सी हथेली भी!]

सिद्धार्थ जी आए. गले मिले और प्रथम परिचय में ही इतने अपने लगे कि अब तक विस्मित हूँ. मैंने उन्हें आर्यसमाजी समझा था - उनका ब्लॉग है न 'सत्यार्थ मित्र' [ 'सत्यार्थ प्रकाश' की याद दिलाने वाला नाम.बाद में जाना कि सत्यार्थ उनके सुपुत्र का शुभनाम है.] मेरे उपवास का मज़ाक उड़ाया जा सकता है और मूर्तिपूजा के खिलाफ उपदेश भी दिया जा सकता है - इसका पूरा खतरा था. संकोच सहित मैंने भूमिका बनाई कि प्रगतिशील होते हुए भी कुछ मामलों में रूढ़िग्रस्त हूँ. पर जब उन्होंने बताया कि वे स्वयं नवरात्र का उपवास रखे हुए हैं तो दुविधा मिट गई. मुझे उन्होंने अपने आवास पर फलाहार के लिए आमंत्रित किया तो कविता जी ने लगभग चहकते हुए कहा - 'वहाँ आपको देवी के दर्शन होंगे'. और ये पंक्तियाँ लिखने का मेरा उद्देश्य इतना भर है कि यह स्वीकार करूँ कि सचमुच सिद्धार्थ जी के घर में मैंने देवी के दर्शन किए. सौभाग्यवती रचना अत्यंत सौम्य हैं - बेहद स्नेहमयी. इस  तरह उन्होंने स्वागत किया कि वात्सल्य ने मुझे औपचारिक शिष्टाचार का अतिक्रमण करने को बाध्य कर दिया - मैं हर आयु की महिला को बरसों मैडम कहते रहने का अभ्यासी हूँ पर श्रीमती त्रिपाठी को मैंने कुछ ही मिनटों में कई बार बेटी [बेटा] कहकर संबोधित किया -  खासकर जब वे और फलादि लेने के लिए आग्रह कर रही थीं .

और हाँ , याद आया - सिद्धार्थ जी ने सेब और मौसमी अपने हाथों छीले और काटे. वे बड़ी तन्मयता से यह कार्य कर रहे थे. मुझे देखते देखा तो बताने लगे कि उन्हें किसी के भी काटे फल पसंद नहीं आते. इस पर मैंने खाद्य पदार्थों के सौंदर्यशास्त्र पर एक संक्षिप्त प्रवचन दे डाला जिसे आतिथेय दंपति ने अत्यंत श्रद्धा से सुनकर अपनी सहिष्णुता का परिचय दिया. साबूदाने की खीर और सेंधा नमक से सुवासित आलू का स्वाद दिव्य था. मैं धन्यता की अनुभूति में गद्गद  था.

कुछ देर घरेलू बातचीत करके अतिथिगृह लौटने पर आलोकधन्वा जी और जय कुमार झा जी के सत्संग का लाभ लिया. आलोकधन्वा बड़े कवि हैं, लेकिन सहज मनुष्य. वेणुगोपाल जी का उल्लेख करते ही खुल पड़े.उन्हें अगले दिन  संगोष्ठी के मंच पर सुना, और शाम को कविगोष्ठी में भी.कुछ तेवरियों के अंश सुनाने का मौका मुझे भी मिला. मुझे सदा अचरज रहेगा कि इतने बड़े कवि ने तीसरे दिन विदा के समय मेरी दो पंक्तियाँ दुहराते हुए रचनाधर्म का स्मरण कराया - 'बर्फ पिघलाना ज़रूरी हो गया चूँकि / चेतना की हर नदी पर्वत दबाता है.' दरअसल उन्होंने बहुत ध्यान से सबकी कविताएँ सुनी थीं.कविता जी को तो उन्होंने विधिवत कवि घोषित  किया. प्रियंकर पालीवाल जी की कविताएँ मुझे ख़ास लगीं. हमारे कई बड़े कवियों की कविताओं के अलावा जब रवि नागर जी ने एक पाकिस्तानी कवयित्री की रचना हारमोनियम पर सुनाई - '' सीता को देखे सारा गाँव / आग पे कैसे धरेगी पाँव'' - तो मन भीतर तक भींज सा गया. मेरी इच्छा हुई एक पल को कि नागर जी को कंधे पर उठाकर गोल गोल दौडूँ. पर बात मन में ही रखनी पडी क्योंकि अपनी ताक़त का मुझे अनुमान है!

दो दिन के आयोजन में कई नए मित्र बने. शायद उन सबसे भविष्य में परोक्ष या अपरोक्ष संपर्क बना रहे. फिलहाल नाम परिगणन करना औपचारिक लगेगा. पर कई पुराने मित्र भी मिले. प्रो.कृष्ण  कुमार सिंह भी उतने ही भाव विभोर थे जितना मैं. प्रो.ए. अरविन्दाक्षन वहाँ प्रतिकुलपति हैं ,लेकिन कोच्चिं की यादों के साथ बेहद अपनेपन से बतियाए. उन्होंने ही संगोष्ठी के उद्घाटन  सत्र में सबका स्वागत किया - ह्रदय की भाषा में. विस्मय है कि कुछ मित्रों ने उनके उच्चारण में मलयालम के संस्पर्श पर विनोद किया है, यदि वे अरविन्दाक्षन जी के मौलिक और अनूदित साहित्य से परिचित होते तो उनकी टोन कुछ और होती. हिंदीवालों की हठधर्मिता  और स्वयं को बिग ब्रदर समझने की प्रवृत्ति ने पहले ही हिंदी का बहुत नुकसान कर लिया है - ब्लॉगर मित्रों को इसे जानना चाहिए. उद्घाटन कुलपति विभूति नारायण राय जी ने किया . बढ़िया बोले - दो टूक बातें, ब्लॉगर बिरादरी की अपेक्षा प्रभावित पक्षकार की तरह. मुझे अध्यक्ष के नाते उनके निकट कुछ देर बैठने का अवसर मिला तो मैंने १९८४ के नजीबाबाद के लेखक सम्मलेन की याद दिलाई जो बाबा नागार्जुन के संरक्षण में संपन्न हुआ था. इस बहाने 'उन्नयन' के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र जी का भी सन्दर्भ आ गया. 

संगोष्ठी और कार्यशाला की गतिविधि और उपलब्धि पर अलग से लिखा जा चुका  है. यहाँ इतना भर कि आयोजकों ने महात्मा  गांधी के नाम पर खड़े किए गए  हिंदी विश्वविद्यालय की परिक्रमा कराने के साथ ही सेवाग्राम स्थित बापू कुटी और पवनार स्थित विनोबा आश्रम के दर्शन की भी व्यवस्था की थी. बड़े तडके उठकर सब साथी तैयार हो गए. उत्साह सभी का देखने लायक था.खास करके प्रो.अनीता कुमार, डॉ.अजीत गुप्ता,अनूप शुक्ल, गायत्री शर्मा, सुरेश चिपलूणकर, अशोक कुमार मिश्र, अविनाश वाचस्पति , विवेक सिंह, रवींद्र प्रभात और शैलेश भारतवासी अत्यंत उत्सुक दिखे. पूरे रास्ते सभी चीख चीख कर गांधी दर्शन पर चर्चा करते रहे.सभी दोनों ऐतिहासिक स्थलों से अभिभूत थे. गांधी जी  की प्रगतिशीलता पर काफी विचार विमर्श चला और कई चिट्ठाकारों ने यह सामूहिक निष्कर्ष दिया कि - यदि गांधी जी आज के समय में  होते तो वे सफलतम ब्लॉगर हुए होते क्योंकि उन्हें जनसंचार माध्यमों की शक्ति की पहचान थी और वे इनका देशहित में सटीक उपयोग करना जानते थे.

दस अक्टूबर की सांझ बड़ी भारी थी. और भी भारी बना दिया उसे सिद्धार्थ-रचना दंपति के निश्छल शिशुवत आचरण ने. दोनों ने हर साथी के साथ खड़े होकर बीसियों फोटो खिंचवाए. हम लोग गोल दायरे में बैठे थे. वे दोनों एक एक के पीछे आकर खड़े होते और फोटो खिंचवाते. इतना ही नहीं जो मित्र अपने कमरों में थे, उनके साथ फोटो के लिए कमरे में पहुँच  गए. होगा यह आयोजन विश्वविद्यालय का , पर हमारे लिए तो यह शुद्ध रूप से सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी के परिवार का उत्सव बन गया. यहाँ तक ही बस नहीं, सबको पाथेय  के रूप में गरमागरम पूरी सब्जी का पार्सल भी दिया गया. 

सिद्धार्थ जी स्वयं स्टेशन पहुँचाने आए थे. विदा का क्षण सत्य ही भावुकता का क्षण था!   
   

22 टिप्‍पणियां:

Kavita Vachaknavee ने कहा…

बड़े सहज व आत्मीय भाव से लिखे वे पल जिन्हें कोई और लिख नहीं सकता था. वे सारभूत चीजें भी, जिन्हें रेखांकित किया जाना अनिवार्यतम है.

दूसरों के संस्मरणों में स्वयं को पाना भावुक तो कर ही देता है. मानुषी होने की शर्त यह तो न थी !

सिद्धार्थ व रचना अपने आत्मीय व्यवहार के चलते किस के स्नेह पात्र न होंगे भला? उलटे अब तो उनके परिवार का सब से छोटा सदस्य तक मोह में बाँधने के सारे तीर तरकष अपने व्यवहार में भरे विद्ध करता रहता है और प्रिय वागीशा भी.
आपने इसे लेखबद्ध कर मेरे कई भावों को शब्द दे दिए हैं मानो.

बेनामी ने कहा…

@डॉ.कविता वाचक्नवी Dr.Kavita Vachaknavee

भाव/संवेदना के बिना मैं न तो साहित्य को संभव मानता हूँ न मनुष्य को.

सिद्धार्थ-रचना दम्पति आजकल दुर्लभ होती जा रही प्रजाति के जीव हैं.

संस्मरण आपको रुचा, संस्मरणकार के लिए यह काफी है.

Unknown ने कहा…

सारगर्भित लेख और विवरण…
सभी बातों से पूर्ण सहमत

honesty project democracy ने कहा…

इस पोस्ट में आपने अपनी लेखनी विद्या से परिचय कराने के साथ-साथ सच्चे आतिथ्य को सम्मानित करने का ईमानदारी भरा प्रयास किया है जिसके लिए आप प्रशंसा के पात्र हैं ...मैं आपके भावना से सहमत हूँ ....आपसे मिलना हर किसी के लिए बेहद सुखद रहा ....

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

क्या कहूँ? पढ़कर अँखें नम हो गयीं हैं। वे दो-तीन दिन कुछ जल्दी गुजर गये।

संजय बेंगाणी ने कहा…

आपके आलेख की प्रतिक्षा थी, कुछ देर से सही मगर आयी तो सही....

विवेक सिंह ने कहा…

और स्टेशन तक आते आते हमें आपका "साव" कहने का स्टाइल बहुत अच्छा लगने लगा था ।

’ऐसा है साव’
’ये तो है साव’ आदि ।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

आपका आलेख तो सभी से अलग सा लगा. धन्यवाद.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

कलम को भावना की स्याही में डुबो कर लिखा गया संस्मरण जो किसी भी पाठक की आँखें नम कर दें सा’ब॥

Anita kumar ने कहा…

सिद्धार्थ-रचना दम्पति आजकल दुर्लभ होती जा रही प्रजाति के जीव हैं.
शतप्रतिशत सहमत
ॠषभ जी आप को जब वहां पहली बार देखा था तो आप के रोबीले व्यक्तित्व ने थोड़ा संकोच भर दिया था, लेकिन दूसरे दिन का अंत आते आते आप की संवेदनशीलता साफ़ दिख रही थी और अब ये स्नेही पोस्ट हमारे उस आकंलन की पुष्ठी कर रही है। आप ने मेरी पिछली टिप्पणी पर ध्यान दिया देख कर एक हलकी सी मुस्कान है हमारे चेहरे पर। धन्यवाद। फ़िर भी ये खुलासा करना जरूरी है कि वो टिप्पणी सिर्फ़ एक चुटकी भर थी,दंभ नहीं। आप जैसे नामचीनों महानुभावों के सामने किसी भी प्रकार का दंभ दिखाने की बेवकूफ़ी कर भी नहीं सकती। आभार

Sanjeet Tripathi ने कहा…

bahut hi sparshi sansmaran,

pure taur par sehmat hun..

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@ Suresh Chiplunkar
भाई सुरेश जी, आपकी सहमति से बल मिला.आपकी उत्साही मुद्रा को मैं भूल नहीं पाऊँगा.


@honesty project democracy
भाई झा साहब,हर विषय को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की आपकी जिद मुझे बेहद भाई - पहली मुलाकात से ही. मैंने तो बस मन की बात लिख दी है, वह किसी के सम्मान जैसी दिखे तो इसे अतिरिक्त लाभ मानूँगा.


@सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
आ.सिद्धार्थ जी, इस बीच बिरयानी वाली बहस से लेकर सत्यार्थ शंकर त्रिपाठी तक की पोस्ट बांच आया हूँ. उन दो तीन दिनों की उपलब्धि केवल भावना के ही स्तर पर नहीं ठोस विमर्श के स्तर पर भी उल्लेखनीय मानी जाएगी. कोई कुछ भी कहे, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ब्लॉगलेखन को सभी हलकों में गंभीरता से देखे जाने की ज़रूरत है - संगोष्ठी का यह संदेश स्वतः बेहद महत्वशाली है.


@संजय बेंगाणी
प्रियवर, मैं काफी देर संकोच में रहा कि ठेठ व्यक्तिगत सा अपना मनोगत चिट्ठायित करूँ कि नहीं ......आखिर लिख ही डाला.


@विवेक सिंह
हाँ तो साहब, आपने हमारा तकिया कलाम पकड़ ही लिया! मज़ा आ गया. प्यार बना रहे.


@काजल कुमार Kajal Kumar
बंधुवर,आपके कार्टून तो और भी हटकर हैं - सबसे अलग.


@cmpershad
आ.प्रसाद जी, मैं वर्धा में आपकी कमी महसूस करता रहा. अनूप शुक्ल जी और राज किशोर जी से आपकी खूब छनती. इन दोनों के चुटकी लेने के अंदाज़ पर कई बार कविता जी ने डॉ. गोपाल शर्मा जी को याद किया - यानी मौसेरे भाई!


@anitakumar
आदरणीया मैडम,रोबीले व्यक्तित्व वाली बात पर घर में मेरी खूब हँसी हुई. दरअसल मैं घर और संस्थान दोनों जगह इस बात के लिए जाना जाता हूँ कि सब मुझसे इतने परच जाते हैं कि देखने वाले को अवज्ञा जैसा लगे. हाँ, इस परचने के लिए ऊपरी कवच को खुरचने में थोडा वक़्त ज़रूर लगता है. आपको याद होगा , आपने किसी बात पर मेरे कम बोलने पर अचरज किया था; सो उसका राज़ बस इतना है कि - तावदेव शोभते मूर्खः यावत किंचिन्न भाषते! अनीता जी, मैं न तो नामचीन हूँ न महानुभाव. चूक हो गई थी, आपने संकेत करके अच्छा किया. आपके परचे की प्रतीक्षा है - ब्लॉग पर डालिएगा [चोरी का खतरा तो है!].


@Sanjeet Tripathi
भैया संजीत जी, मैंने अपनी पोस्ट जिस भले आदमी और उसकी जीवनसंगिनी को समर्पित की है, वे दोनों हैं ही इतने सदाशयतापूर्ण कि असहमत होने का विकल्प ही नहीं बचता. आप सरीखे मित्रों की सहमति से मुझे अपने आकलन की प्रामाणिकता पर भरोसा बढ़ गया है. संस्मरण ने आपको छुआ यह आपकी संवेदनशीलता है - और मेरी कृतार्थता.


अंत में यह आत्म स्वीकृति कि मैं अब तक टिप्पणियाँ करने और जवाब देने से बचता रहा हूँ. इस आयोजन से लगा कि मेरा वह आचरण शिष्टाचारसम्मत नहीं है.अर्थात यह भी तो है संगोष्ठी की उपलब्धि!

Rahul Singh ने कहा…

रोचक विवरण.

Priti Krishna ने कहा…

Lagta hai Mahatma Gandhi Hindi Vishwavidyalaya men saare moorkh wahan ka blog chala rahe hain . Shukrawari ki ek 15 November ki report Priti Sagar ne post ki hai . Report is not in Unicode and thus not readable on Net …Fraud Moderator Priti Sagar Technically bhi zero hain . Any one can check…aur sabse bada turra ye ki Siddharth Shankar Tripathi ne us report ko padh bhi liya aur apna comment bhi post kar diya…Ab tripathi se koi poonche ki bhai jab report online readable hi nahin hai to tune kahan se padh li aur apna comment bhi de diya…ye nikammepan ke tamashe kewal Mahatma Gandhi Hindi Vishwavidyalaya, Wardha mein hi possible hain…. Besharmi ki bhi had hai….Lagta hai is university mein har shakh par ullu baitha hai….Yahan to kuen mein hi bhang padi hai…sab ke sab nikamme…

Priti Krishna ने कहा…

Praveen Pandey has made a comment on the blog of Mahatma Gandhi Hindi University , Wardha on quality control in education...He has correctly said that a lot is to be done in education khas taur per MGAHV, Wardha Jaisi University mein Jahan ka Publication Incharge Devnagri mein 'Web site' tak sahi nahin likh sakta hai..jahan University ke Teachers non exhisting employees ke fake ICard banwa kar us per sim khareed kar use karte hain aur CBI aur Vigilance mein case jaane ke baad us SIM ko apne naam per transfer karwa lete hain...Jahan ke teachers bina kisi literary work ke University ki web site per literary Writer declare kar diye jaate hain..Jahan ke blog ki moderator English padh aur likh na paane ke bawzood english ke post per comment kar deti hain...jahan ki moderator ko basic technical samajh tak nahi hai aur wo University ke blog per jo post bhejti hain wo fonts ki compatibility na hone ke kaaran readable hi nain hai aur sabse bada Ttamasha Siddharth Shankar Tripathi Jaise log karte hain jo aisi non readable posts per apne comment tak post kar dete hain...sach mein Sudhar to Mahatma Handhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya , Wardha mein hona hai jahan ke teachers ko ayyashi chod kar bhavishya mein aisa kaam na karne ka sankalp lena hai jisse university per CBI aur Vigilance enquiry ka future mein koi dhabba na lage...Sach mein Praveen Pandey ji..U R Correct.... बहुत कुछ कर देने की आवश्यकता है।

Priti Krishna ने कहा…

MAHATMA Gandhi Hindi University , Wardha ke blog per wahan ke teacher Ashok nath Tripathi nein 16 november ki post per ek comment kiya hai …Tripathi ji padhe likhe aadmi hain ..Wo website bhi shuddha likh lete hain..unhone shayad university ke kisi non exhisting employee ki fake id bhi nahin banwai hai..aur unhone program mein present na rahne ke karan pogram ke baare mein koi comment nahin kia..I respect his honesty ..yahan to non readable post per bhi log apne comment de dete hain...really he is honest...Unhen salaam….

Priti Krishna ने कहा…

महोदय/महोदया
आपकी प्रतिक्रया से सिद्धार्थ जी को अवगत करा दिया गया है, जिसपर उनकी प्रतिक्रया आई है वह इसप्रकार है -

प्रभात जी,
मेरे कंप्यूटर पर तो पोस्ट साफ -साफ़ पढ़ने में आयी है। आप खुद चेक कीजिए।
बल्कि मैंने उस पोस्ट के अधूरेपन को लेकर टिप्पणी की है।
ये प्रीति कृष्ण कोई छद्मनामी है जिसे वर्धा से काफी शिकायतें हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इस ब्लॉग के संचालन के बारे में उन्होंने जो बातें लिखी हैं वह आंशिक रूप से सही भी कही जा सकती हैं। मैं खुद ही दुविधा में हूँ।:(
सादर!
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा, महाराष्ट्र-442001
ब्लॉग: सत्यार्थमित्र
वेबसाइट:हिंदीसमय

इसपर मैंने अपनी प्रतिक्रया दे दी है -
सिद्धार्थ जी,
मैंने इसे चेक किया, सचमुच यह यूनिकोड में नहीं है शायद कृतिदेव में है इसीलिए पढ़ा नही जा सका है , संभव हो तो इसे दुरुस्त करा दें, विवाद से बचा जा सकता है !

सादर-
रवीन्द्र प्रभात

Priti Krishna ने कहा…

There is an article on the blog of Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya , Wardha ‘ Hindi-Vishwa’ of RajKishore entitled ज्योतिबा फुले का रास्ता ..Article ends with the line.....दलित समाज में भी अब दहेज प्रथा और स्त्रियों पर पारिवारिक नियंत्रण की बुराई शुरू हो गई है…. Ab Rajkishore ji se koi poonche ki kya Rajkishore Chahte hai ki dalit striyan Parivatik Niyantran se Mukt ho kar Sex aur enjoyment ke liye freely available hoon jaisa pahle hota tha..Kya Rajkishore Wardha mein dalit Callgirls ki factory chalana chahte hain… besharmi ki had hai … really he is mentally sick and frustrated ……V N Rai Ke Chinal Culture Ki Jai Ho !!!

Priti Krishna ने कहा…

आज महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय , वर्धा के हिन्दी-विश्व ब्लॉग ‘हिन्दी-विश्व’ पर ‘तथाकथित विचारक’ राजकिशोर का एक लेख आया है...क्या पवित्र है क्या अपवित्र ....राजकिशोर लिखते हैं....
अगर सार्वजनिक संस्थाएं मैली हो चुकी हैं या वहां पुण्य के बदले पाप होता है, तो सिर्फ इससे इन संस्थाओं की मूल पवित्रता कैसे नष्ट हो सकती है? जब हम इन्हें अपवित्र मानने लगते हैं, तब इस बात की संभावना ही खत्म हो जाती है कि कभी इनका उद्धार हो सकता है .....
क्या राजकिशोर जैसे लेखक को इतनी जानकारी नहीं है कि पवित्रता और अपवित्रता आस्था से जुड़ी होती है और नितांत व्यक्तिगत होती है. क्या राजकिशोर आस्था के नाम पर पेशाब मिला हुआ गंगा जल पी लेंगे.. राजकिशोर जी ! नैतिकता के बारे में प्रवचन देने से पहले खुद नैतिक बनिए तभी आप समाज में नैतिकता के बारे में प्रवचन देने के अधिकारी हैं ईमानदारी को किसी तरह के सर्टिफिकेट की आवश्यकता नहीं पड़ती. आप लगातार किसी की आस्था और विश्वास पर चोट करते रहेंगे तो आपको कोई कैसे और कब तक स्वीकार करेगा ......महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय , वर्धा को अयोग्य, अक्षम, निकम्मे, फ्रॉड और भ्रष्ट लोग चला रहे हैं....मुश्किल यह है कि अपवित्र ही सबसे ज़्यादा पवित्रता की बकवास करता है.......
प्रीति कृष्ण

Priti Krishna ने कहा…

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्‍वविद्यालय वर्धा के ब्लॉग हिन्दी-विश्‍व पर २ पोस्ट आई हैं.-हिंदी प्रदेश की संस्थाएं: निर्माण और ध्वंस और गांधी ने पत्रकारिता को बनाया परिवर्तन का हथियार .इन दोनों में इतनी ग़लतियाँ हैं कि लगता है यह किसी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्‍वविद्यालय का ब्लॉग ना हो कर किसी प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे का ब्लॉग हो ! हिंदी प्रदेश की संस्थाएं: निर्माण और ध्वंस पोस्ट में - विश्वविद्यालय,उद्बोधन,संस्थओं,रहीं,(इलाहबाद),(इलाहबाद) ,प्रश्न , टिपण्णी जैसी अशुद्धियाँ हैं ! गांधी ने पत्रकारिता को बनाया परिवर्तन का हथियार- गिरिराज किशोर पोस्ट में विश्वविद्यालय, उद्बोधन,पत्नी,कस्तूरबाजी,शारला एक्ट,विश्व,विश्वविद्यालय,साहित्यहकार जैसे अशुद्ध शब्द भरे हैं ! अंधों के द्वारा छीनाल संस्कृति के तहत चलाए जा रहे किसी ब्लॉग में इससे ज़्यादा शुद्धि की उम्मीद भी नहीं की जा सकती ! सुअर की खाल से रेशम का पर्स नहीं बनाया जा सकता ! इस ब्लॉग की फ्रॉड मॉडरेटर प्रीति सागर से इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं की जा सकती !

Priti Krishna ने कहा…

महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा के ब्लॉग हिन्दी-विश्व पर २६ फ़रवरी को राजकिशोर की तीन कविताएँ आई हैं --निगाह , नाता और करनी ! कथ्य , भाषा और प्रस्तुति तीनों स्तरों पर यह तीनों ही बेहद घटिया , अधकचरी ,सड़क छाप और बाजारू स्तर की कविताएँ हैं ! राजकिशोर के लेख भी बिखराव से भरे रहे हैं ...कभी वो हिन्दी-विश्व पर कहते हैं कि उन्होने आज तक कोई कुलपति नहीं देखा है तो कभी वेलिनटाइन डे पर प्रेम की व्याख्या करते हैं ...कभी किसी औपचारिक कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करते हुए कहते हैं कि सब सज कर ऐसे आए थे कि जैसे किसी स्वयंवर में भाग लेने आए हैं .. ऐसा लगता है कि ‘ कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की अपने परिवार की छीनाल संस्कृति का उनके लेखन पर बेहद गहरा प्रभाव है . विश्वविद्यालय के बारे में लिखते हुए वो किसी स्तरहीन भांड से ज़्यादा नहीं लगते हैं ..ना तो उनके लेखन में कोई विषय की गहराई है और ना ही भाषा में कोई प्रभावोत्पादकता ..प्रस्तुति में भी बेहद बिखराव है...राजकिशोर को पहले हरप्रीत कौर जैसी छात्राओं से लिखना सीखना चाहिए...प्रीति सागर का स्तर तो राजकिशोर से भी गया गुजरा है...उसने तो इस ब्लॉग की ऐसी की तैसी कर रखी है..उसे ‘कितने बिस्तरों में कितनी बार’ की छीनाल संस्कृति से फ़ुर्सत मिले तब तो वो ब्लॉग की सामग्री को देखेगी . २५ फ़रवरी को ‘ संवेदना कि मुद्रास्फीति’ शीर्षक से रेणु कुमारी की कविता ब्लॉग पर आई है..उसमें कविता जैसा कुछ नहीं है और सबसे बड़ा तमाशा यह कि कविता का शीर्षक तक सही नहीं है..वर्धा के छीनाल संस्कृति के किसी अंधे को यह नहीं दिखा कि कविता का सही शीर्षक –‘संवेदना की मुद्रास्फीति’ होना चाहिए न कि ‘संवेदना कि मुद्रास्फीति’ ....नीचे से ऊपर तक पूरी कुएँ में ही भांग है .... छिनालों और भांडों को वेलिनटाइन डे से फ़ुर्सत मिले तब तो वो गुणवत्ता के बारे में सोचेंगे ...वैसे आप सुअर की खाल से रेशम का पर्स कैसे बनाएँगे ....हिन्दी के नाम पर इन बेशर्मों को झेलना है ..यह सब हमारी व्यवस्था की नाजायज़ औलाद हैं..झेलना ही होगा इन्हें …..

डॉ.बी.बालाजी ने कहा…

नमस्कार सर !
आज गांधी जी होते तो अवश्य सफलतम ब्लॉगर होते. इसमें कोई दो राय नहीं. आपकी लेखन शैली ह्रदयस्पर्शी है. अपुन ने कहीं सुना था -हम जिस रंग का ऐनक पहनते हैं अपने चारों ओर वही रंग दीखता है. यदि मैं इस कहावत का सहारा लूं तो कहना होगा कि आप का व्यवहार भी तो सिद्धार्थ जी जैसा ही होता है और रचना जी के समान ही मैडम का. हिंदी भारत पर आपके द्वारा प्रेषित वर्धा की यात्रा की झलक पढ़कर जाना कि कुछ महीने पहले कविता जी का एक्सीडेंट हुआ था लेकिन अभी भी उन्हें छडी लेकर चलना पड़ रहा है. मन कुछ उदास हुआ. पढ़ने के बाद चार साल पहले हुए अपने एक्सीडेंट की बात याद हो आई. माँ दुर्गा से प्रार्थना है कि वे जल्द से जल्द बिना छडी के चल-फिरने लगे.