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शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010
गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010
रूसी साहित्यकार चेखव के १२ नाटकों के ६ भारतीय भाषाओं में अनुवाद हेतु कार्यशाला
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मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार समारोह संपन्न
दाएँ से - प्रो. हरिनारायण शर्मा, डॉ. हरिश्चंद्र विद्यार्थी, मोदलि नागभूषण शर्मा, पुल्लेल श्रीरामचंद्रुडु, पोत्तूरि वेंकटेश्वर राव, विद्यानाथ शास्त्री और डॉ. पेरिशेट्टी श्रीनिवास राव । वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक पुरस्कार समारोह संपन्न हैदराबाद, 17अक्तूबर, 2010 . प्रतिष्ठित हिंदी सेवी स्व. वेमूरि आंजनेय शर्मा के 94वें जयंती समारोह के अवसर पर श्री वेमूरि आंजनेय शर्मा स्मारक ट्रस्ट द्वारा वर्ष 2010 के स्मारक पुरस्कार प्रदान किए गए। जयंती एवं पुरस्कार समारोह यहाँ रवींद्र भारती में प्रबंधक न्यासी प्रो. वेमूरि हरिनारायण शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। इस अवसर पर वरिष्ठ तेलुगु पत्रकार पोत्तूरि वेंकटे श्वर राव मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। स्मरणीय है कि ट्रस्ट द्वारा प्रति वर्ष तेलुगु साहित्य, हिंदी साहित्य और अभिनय जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए दस-दस हजार रुपये के तीन नकद पुरस्कार एवं प्रशस्ति पत्र प्रदान किए जाते हैं। इस वर्ष तेलुगु साहित्य के लिए यह पुरस्कार 83 वर्षीय वरिष्ठ साहित्यकार महामहोपाध्याय डॉ. पुल्लेल श्रीरामचंद्रुडु को प्रदान किया गया, जिन्होंने तेलुगु तथा संस्कृत साहित्य को अपनी मौलिक तथा अनूदित रचनाओं से सुसंपन्न किया है । हिंदी साहित्य के लिए इस वर्ष ‘राष्ट्र नायक’ पत्रिका के संपादक 75 वर्षीय डॉ. हरिश्चंद्र विद्यार्थी को हैदराबाद में हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता के उन्नयन के लिए दिया गया। इसी प्रकार प्रसिद्ध तेलुगु रंगकर्मी 75 वर्षीय डॉ. मोदलि नागभूषण शर्मा को अभिनय जगत में योगदान के लिए पुरस्कृत किया गया। इसके अतिरिक्त न्यास की ओर से विभिन्न छात्र-छात्राओं को 'प्रतिभा पुर स्कार' और ‘सरस्वती पुरस्कार’ भी वितरित किए गए। आरंभ में मुख्य अतिथि पोत्तूरि वेंकटेश्वर राव ने मट्टपर्ति वीरांजनेयुलु द्वारा चित्रित वेमूरि आंजनेय शर्मा के विशाल तैलचित्र को लोकार्पित किया। इस अवसर पर संबोधित करते हुए पोत्तूरि वेंकटेश्वर राव ने कहा कि वेमूरि आंजनेय शर्मा ने अपना पूरा जीवन हिंदी की सेवा और भारतीय भाषाओं के बीच समन्वय के कार्य के लिए समर्पित कर दिया, अतः वे सही अर्थों में दक्षिण और उत्तर के सामाजिक-सांस्कृतिक सेतु के निर्माता थे। डॉ. पोत्तूरि ने आंजनेय शर्मा जी द्वारा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के माध्यम से राष्ट्रीय अखंडता और सामासिक संस्कृति के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों का स्मरण करते हुए उन्हें नई पीढ़ी के लिए अनुकरणीय और आदर्श बताया। पुरस्कृत विद्वानों को समर्पित किए गए प्रशस्ति पत्रों का वाचन विद्यानाथ शास्त्री, कृष्णमूर्ति और ज्योत्स्ना कुमारी ने किया। समारोह का संचालन डॉ. पेरिशेट्टी श्रीनिवास राव ने किया। |
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
गांधी जी सफलतम ब्लॉगर हुए होते : वर्धा आयोजन का भरत वाक्य
अभी ९-१० अक्टूबर २०१० को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दो दिन का आयोजन था - हिंदी ब्लॉगिंग की आचार संहिता पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी और कार्यशाला. अपने कस्बाई काम्प्लेक्स के कारण मैं ऐसे आयोजनों से कन्नी काट जाया करता हूँ जहाँ महान व्यक्तित्व पधार रहे हों - चाहे सचमुच के या फिर भरम के. इस आयोजन के बारे में भी मन में द्वंद्व था - जाऊँ या न जाऊँ. न जाने का जेनुइन कारण भी उपस्थित था - हमारे संस्थान में दूरस्थ माध्यम के छात्रों का संपर्क कार्यक्रम. पर मुझे इनकार करके भी जाना पड़ा - सिद्धार्थ जी [संयोजक] के आग्रह को टालना संभव नहीं था मेरे लिए. उन्होंने जब फोन पर पहला ही वाक्य कहा- 'आपके निर्णय ने तो मुझे उदास कर दिया' - तो उनकी आवाज़ से लगा कि वे सच बोल रहे हैं, औपचारिकता नहीं निभा रहे. सोचा - जाना पड़ेगा ही शायद. और जब उन्होंने मेरे बताए सब कारणों को निरस्त करते हुए कहा - 'मैं आपका आना निश्चित मान कर चल रहा हूँ' - तो लगा, किसी ने बहुत आत्मीयता से हथेली पर उष्ण सा दबाव दिया हो. ऊपर से कविता जी के फोन और ईमेल ने मेरे लिए कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं छोडी. दो गाड़ियों का आरक्षण कराया था. उस दिन सवेरे आठ बजे बेटी ने स्थान कन्फर्म होने की बात कही तो मैंने सोचा - रात १० बजे वाली गाडी है,और प्रथम नवरात्र की औपचारिकताओं में लग गया. लेकिन मेरी हालत उस वक़्त शायद देखने लायक रही होगी जब मुझे बताया गया कि गाड़ी दिन के १० बजे है. जेट स्पीड से तैयार होकर भागना पड़ा. भला हो उस अपरिचित भले आदमी का जिसने मुझे लिफ्ट दे दी वरना स्कूल का समय होने के कारण कोई भी ऑटो चलने को तैयार न था. इसीलिए घर से निकलते वक़्त बेटी को देवीस्वरूप मानते हुए चरणस्पर्श किए थे और मन ही मन माँगा था कि गाड़ी छूट न जाए. वह मेरे इस आचरण पर पहले तनिक हकबकाई , और फिर हँस दी. गाड़ी पकड़ी गई तो जान में जान आई. वर्धा उतरते ही शोधार्थी जोशी जी ने मुझे सहज ही चीन्ह लिया और फादर कामिल बुल्के के नाम पर स्थापित अतिथिशाला में प्रस्थापित कर दिया. उस समय वहाँ खुले में कुछ ज़ोरदार चर्चा चल रही थी. मैंने अनुमान किया कि अवश्य ही यह 'आज की कहानी के सरोकार' पर गोष्ठी होगे जिसकी सूचना गत दिन कविता जी दे चुकी थीं. मैं शामिल नहीं था पर अच्छा लगा विद्वानों को इस तरह साहित्यचर्चा में शाम बिताते देखकर. गोष्ठी से छूटते ही कविता जी आईं. मुझे उनके कुछ महीने पहले के एक्सीडेंट की जानकारी थी; फिर भी उन्हें छड़ी के सहारे धीरे धीरे संभल संभल कर चलते देखना मेरे लिए सहज नहीं था. मैं धक् से रह गया. अभिवादनादि का भी शायद मैं ठीक से उत्तर न दे पाया होऊँ, क्योंकि मेरी इच्छा हो रही थी कि आयु में बड़े होने के अधिकार के साथ उन्हें खूब डाँटूं. [पर नहीं, मैंने वापस लौटने तक भी एक बार भी उनसे उस दुर्घटना की चर्चा तक नहीं उठाई.] कविता जी अनेक वर्षों बाद इतनी प्रसन्न और उत्साहपूर्ण दिखीं - उनकी बिटिया का रिश्ता तय हो गया है न! [ अभी कल ही की तो बात लगती है जब पहली बार घर जाने पर उसने मुझे बेहद संकोच के साथ अपनी पहली कविता दिखाई थी - और छोटी सी हथेली भी!] सिद्धार्थ जी आए. गले मिले और प्रथम परिचय में ही इतने अपने लगे कि अब तक विस्मित हूँ. मैंने उन्हें आर्यसमाजी समझा था - उनका ब्लॉग है न 'सत्यार्थ मित्र' [ 'सत्यार्थ प्रकाश' की याद दिलाने वाला नाम.बाद में जाना कि सत्यार्थ उनके सुपुत्र का शुभनाम है.] मेरे उपवास का मज़ाक उड़ाया जा सकता है और मूर्तिपूजा के खिलाफ उपदेश भी दिया जा सकता है - इसका पूरा खतरा था. संकोच सहित मैंने भूमिका बनाई कि प्रगतिशील होते हुए भी कुछ मामलों में रूढ़िग्रस्त हूँ. पर जब उन्होंने बताया कि वे स्वयं नवरात्र का उपवास रखे हुए हैं तो दुविधा मिट गई. मुझे उन्होंने अपने आवास पर फलाहार के लिए आमंत्रित किया तो कविता जी ने लगभग चहकते हुए कहा - 'वहाँ आपको देवी के दर्शन होंगे'. और ये पंक्तियाँ लिखने का मेरा उद्देश्य इतना भर है कि यह स्वीकार करूँ कि सचमुच सिद्धार्थ जी के घर में मैंने देवी के दर्शन किए. सौभाग्यवती रचना अत्यंत सौम्य हैं - बेहद स्नेहमयी. इस तरह उन्होंने स्वागत किया कि वात्सल्य ने मुझे औपचारिक शिष्टाचार का अतिक्रमण करने को बाध्य कर दिया - मैं हर आयु की महिला को बरसों मैडम कहते रहने का अभ्यासी हूँ पर श्रीमती त्रिपाठी को मैंने कुछ ही मिनटों में कई बार बेटी [बेटा] कहकर संबोधित किया - खासकर जब वे और फलादि लेने के लिए आग्रह कर रही थीं . और हाँ , याद आया - सिद्धार्थ जी ने सेब और मौसमी अपने हाथों छीले और काटे. वे बड़ी तन्मयता से यह कार्य कर रहे थे. मुझे देखते देखा तो बताने लगे कि उन्हें किसी के भी काटे फल पसंद नहीं आते. इस पर मैंने खाद्य पदार्थों के सौंदर्यशास्त्र पर एक संक्षिप्त प्रवचन दे डाला जिसे आतिथेय दंपति ने अत्यंत श्रद्धा से सुनकर अपनी सहिष्णुता का परिचय दिया. साबूदाने की खीर और सेंधा नमक से सुवासित आलू का स्वाद दिव्य था. मैं धन्यता की अनुभूति में गद्गद था. कुछ देर घरेलू बातचीत करके अतिथिगृह लौटने पर आलोकधन्वा जी और जय कुमार झा जी के सत्संग का लाभ लिया. आलोकधन्वा बड़े कवि हैं, लेकिन सहज मनुष्य. वेणुगोपाल जी का उल्लेख करते ही खुल पड़े.उन्हें अगले दिन संगोष्ठी के मंच पर सुना, और शाम को कविगोष्ठी में भी.कुछ तेवरियों के अंश सुनाने का मौका मुझे भी मिला. मुझे सदा अचरज रहेगा कि इतने बड़े कवि ने तीसरे दिन विदा के समय मेरी दो पंक्तियाँ दुहराते हुए रचनाधर्म का स्मरण कराया - 'बर्फ पिघलाना ज़रूरी हो गया चूँकि / चेतना की हर नदी पर्वत दबाता है.' दरअसल उन्होंने बहुत ध्यान से सबकी कविताएँ सुनी थीं.कविता जी को तो उन्होंने विधिवत कवि घोषित किया. प्रियंकर पालीवाल जी की कविताएँ मुझे ख़ास लगीं. हमारे कई बड़े कवियों की कविताओं के अलावा जब रवि नागर जी ने एक पाकिस्तानी कवयित्री की रचना हारमोनियम पर सुनाई - '' सीता को देखे सारा गाँव / आग पे कैसे धरेगी पाँव'' - तो मन भीतर तक भींज सा गया. मेरी इच्छा हुई एक पल को कि नागर जी को कंधे पर उठाकर गोल गोल दौडूँ. पर बात मन में ही रखनी पडी क्योंकि अपनी ताक़त का मुझे अनुमान है! दो दिन के आयोजन में कई नए मित्र बने. शायद उन सबसे भविष्य में परोक्ष या अपरोक्ष संपर्क बना रहे. फिलहाल नाम परिगणन करना औपचारिक लगेगा. पर कई पुराने मित्र भी मिले. प्रो.कृष्ण कुमार सिंह भी उतने ही भाव विभोर थे जितना मैं. प्रो.ए. अरविन्दाक्षन वहाँ प्रतिकुलपति हैं ,लेकिन कोच्चिं की यादों के साथ बेहद अपनेपन से बतियाए. उन्होंने ही संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में सबका स्वागत किया - ह्रदय की भाषा में. विस्मय है कि कुछ मित्रों ने उनके उच्चारण में मलयालम के संस्पर्श पर विनोद किया है, यदि वे अरविन्दाक्षन जी के मौलिक और अनूदित साहित्य से परिचित होते तो उनकी टोन कुछ और होती. हिंदीवालों की हठधर्मिता और स्वयं को बिग ब्रदर समझने की प्रवृत्ति ने पहले ही हिंदी का बहुत नुकसान कर लिया है - ब्लॉगर मित्रों को इसे जानना चाहिए. उद्घाटन कुलपति विभूति नारायण राय जी ने किया . बढ़िया बोले - दो टूक बातें, ब्लॉगर बिरादरी की अपेक्षा प्रभावित पक्षकार की तरह. मुझे अध्यक्ष के नाते उनके निकट कुछ देर बैठने का अवसर मिला तो मैंने १९८४ के नजीबाबाद के लेखक सम्मलेन की याद दिलाई जो बाबा नागार्जुन के संरक्षण में संपन्न हुआ था. इस बहाने 'उन्नयन' के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र जी का भी सन्दर्भ आ गया. संगोष्ठी और कार्यशाला की गतिविधि और उपलब्धि पर अलग से लिखा जा चुका है. यहाँ इतना भर कि आयोजकों ने महात्मा गांधी के नाम पर खड़े किए गए हिंदी विश्वविद्यालय की परिक्रमा कराने के साथ ही सेवाग्राम स्थित बापू कुटी और पवनार स्थित विनोबा आश्रम के दर्शन की भी व्यवस्था की थी. बड़े तडके उठकर सब साथी तैयार हो गए. उत्साह सभी का देखने लायक था.खास करके प्रो.अनीता कुमार, डॉ.अजीत गुप्ता,अनूप शुक्ल, गायत्री शर्मा, सुरेश चिपलूणकर, अशोक कुमार मिश्र, अविनाश वाचस्पति , विवेक सिंह, रवींद्र प्रभात और शैलेश भारतवासी अत्यंत उत्सुक दिखे. पूरे रास्ते सभी चीख चीख कर गांधी दर्शन पर चर्चा करते रहे.सभी दोनों ऐतिहासिक स्थलों से अभिभूत थे. गांधी जी की प्रगतिशीलता पर काफी विचार विमर्श चला और कई चिट्ठाकारों ने यह सामूहिक निष्कर्ष दिया कि - यदि गांधी जी आज के समय में होते तो वे सफलतम ब्लॉगर हुए होते क्योंकि उन्हें जनसंचार माध्यमों की शक्ति की पहचान थी और वे इनका देशहित में सटीक उपयोग करना जानते थे. दस अक्टूबर की सांझ बड़ी भारी थी. और भी भारी बना दिया उसे सिद्धार्थ-रचना दंपति के निश्छल शिशुवत आचरण ने. दोनों ने हर साथी के साथ खड़े होकर बीसियों फोटो खिंचवाए. हम लोग गोल दायरे में बैठे थे. वे दोनों एक एक के पीछे आकर खड़े होते और फोटो खिंचवाते. इतना ही नहीं जो मित्र अपने कमरों में थे, उनके साथ फोटो के लिए कमरे में पहुँच गए. होगा यह आयोजन विश्वविद्यालय का , पर हमारे लिए तो यह शुद्ध रूप से सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी के परिवार का उत्सव बन गया. यहाँ तक ही बस नहीं, सबको पाथेय के रूप में गरमागरम पूरी सब्जी का पार्सल भी दिया गया. सिद्धार्थ जी स्वयं स्टेशन पहुँचाने आए थे. विदा का क्षण सत्य ही भावुकता का क्षण था! 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गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010
'स्वतंत्र वार्ता' में वर्धा ब्लॉगर संगोष्ठी
ब्लॉगरों को अपनी लक्ष्मण रेखा खुद बनानी होगी - विभूति नारायण राय
ब्लॉगिंग सबसे कम पाखंडवाली विधा है - आलोक धन्वा
आभासी दुनिया भी वास्तविक दुनिया का विस्तार है - ऋषभ देव शर्मा
वर्धा,11 अक्टूबर।
हबीब तनवीर प्रेक्षागृह में
किया। आरंभ में सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने नए अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में उभरी ब्लॉगिंग की विधा की अनंत संभावनाओं और उससे जुड़े खतरों की ओर इशारा करते हुए ब्लॉग लेखन के संबंध में आचार-संहिता विषयक विचार-विमर्श की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला।
तदुपरांत स्वागत भाषण में हिंदी विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति प्रो.अरविंदाक्षन ने कहा कि ऐसे कार्यक्रमों में यूजीसी और मानव संसाधन विकास मंत्रालय के प्रतिनिधियों और अधिकारियों को भी आमंत्रित करना चाहिए, जिससे वे जान सकें कि यह विश्वविद्यालय केवल साहित्य और उत्सवधर्मिता का ही केंद्र नहीं है, बल्कि हिंदी को तकनीक से भी जोड़ने को प्रयासरत है। जब उन्होंने कहा कि मैं आप सबका स्वागत हृदय की भाषा में कर रहा हूँ तो सभागार करतलध्वनि से गूँज उठा.
उद्घाटन वक्तव्य देते हुए कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि इंटरनेट ने राष्ट्रों की बंदिशों को तोड़ा है। उन्होंने आगे कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो उत्तर आधुनिक विस्फोट हुआ है, वह इंटरनेट से ही संभव हो सका है; लेकिन हम यहाँ दो दिनों के लिए इसलिए भी उपस्थित हुए हैं कि हम इस बात पर बहस कर सकें कि इस माध्यम ने हमें एक खास तरह की स्वच्छंदता तो नहीं दे दी है! उन्होंने प्रश्न उठाया कि अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कहीं हम यह तो नहीं भूल रहे हैं कि हम सारी सीमाएँ तोड़ रहे हैं और दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचा रहे हैं। राय का मानना था कि तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करना तथा निहित स्वार्थ की सिद्धि के किए ब्लॉग के माध्यम का दुरुपयोग करना चिंतनीय विषय है। उन्होंने यह जोड़ा कि किसी कानून द्वारा नियमित किए जाने के बजाय हमें ऐसा लगता है कि हर एक ब्लॉगर को अपनी लक्ष्मण-रेखा खुद बनानी होगी। वी.एन.राय ने आगे कहा कि एक समझदार और सभ्य समाज के लिए जरूरी है कि उसके नागरिक अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खींचें ताकि ऐसी स्थिति न आए कि राज्य को सेंसर लगाने की दिशा में सोचना पड़े।
‘मधुमती’ की पूर्व संपादक कथाकार डॉ.अजित गुप्ता ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि ब्लॉगिंग त्वरित विचारों के त्वरित प्रस्तुतीकरण की विधा है। उन्होंने राज्य की ओर से किसी आचार संहिता के लागू किए जाने की तुलना में ब्लॉगरों की पंचायत बनाने का सुझाव दिया जो आम नियंत्रण के सिद्धांत बना सकती है। उन्होंने हिंदी ब्लॉग जगत की कुछ बहसों के संदर्भ में कहा कि यदि मैं स्त्री संबंधी बात कहती हूँ तो यह ध्यान रखना होगा कि पुरुष भी इसे सुन रहे हैं। उन्होंने चिट्ठों का समग्र संकलन करनेवाले एग्रीग्रेटरों से अनुरोध किया कि वे अश्लील, खराब, बेनामी और भद्दी भाषा में लिखने वालों को समझाइश दें और उनको अनुशासित करें।
लंदन से आई हुईं कवयित्री और लेखिका डॉ. कविता वाचक्नवी ने आचार संहिता की आवश्यकता और उससे जुड़े तमाम मुद्दों पर विस्तृत चर्चा की और कहा कि चिट्ठाकारी रूपी माध्यम के विस्तार के साथ साथ शायद आनेवाले समय में आचार संहिता की आवश्यकताएँ बढ़ेंगी। उन्होंने यह भी कहा कि खराब से खराब व्यक्ति को अच्छी चीज का आधिपत्य दीजिए वह उसे खराब कर देगा, और अच्छे व्यक्ति को खराब से खराब चीज दे दीजिए वह उसे अच्छा कर देगा। डॉ.वाचक्नवी ने भी साफ तौर पर माना कि आचार संहिता को आरोपित नहीं किया जा सकता और सुझाव दिया कि आप यह कर सकते हैं कि अनाचार पर दंड का विधान कर दें। उन्होंने कहा कि वे ब्लॉगरों से संयम और उदात्तता की उम्मीद करती हैं ताकि स्वच्छंदता और अराजकता न फैले। सस्ती लोकप्रियता और निरंकुशता से बचने की सलाह देते हुए
डॉ.
कविता वाचक्नवी ने याद दिलाया कि हमारे लिए ब्लॉग मनोविलास नहीं बल्कि अपनी भाषा, लिपि, साहित्य और संस्कृति को बचाने का युद्ध है.
प्रस्तुत किए। उन्होंने ब्लॉगिंग को विस्मयकारी विधा बताते हुए इस माध्यम को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की वकालत की। आलोक धन्वा ने ब्लॉगिंग की तुलना रेल के चलन से करते हुए बताया कि शुरुआत में जैसे रेल यात्रा करने से लोग डरते थे लेकिन आज यह हमारी आवश्यकता बन गई है वैसे ही शायद अभी ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में इसके प्रति हिचक है लेकिन आने वाले समय में यह जन समुदाय की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकती है। आलोकधन्वा ने अपने वक्तव्य में आगे कहा कि हम आजकल सबसे कठिन दौर से गुजर रहे हैं। इतना कठिन समय, पहले कभी नहीं रहा; द्वितीय विश्व युद्ध और अन्य संकटों से भी अधिक कठिन समय के दौर से हम गुजर रहे हैं जिसमें लोकतंत्र के लिए बहुत कम जगह बची है। आचार संहिता की बात करते हुए उन्होंने कहा कि समय और समाज की नैतिकता ही अभिव्यक्ति की नैतिकता हो सकती है। दुनिया कैसे बेहतर बने, इस दिशा में प्रयास करने वाली आचार संहिता ही ब्लॉगिंग की आचार संहिता हो सकती है। उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि ब्लॉगिंग सबसे कम पाखंडवाली विधा है।
'भड़ास मीडिया डॉट कॉम’ के यशवंत सिंह ने भी आचार संहिता की अवधारणा का विरोध किया और अनामी तथा बेनामी ब्लॉगरों के समर्थन में अपनी बात रखी। उन्होंने यहाँ तक कहा कि हमें आज आचार संहिता बनाने वालों की आचार संहिता पर विचार करना चाहिए। इस अवसर पर हिंदी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के प्रो.अनिल कुमार राय ने कहा कि जहाँ आधुनिक संचार माध्यम समाप्त होते हैं वहाँ से नव माध्यम के रूप में ब्लॉग संचार की शुरुआत होती है जिसमें कोई संपादक नहीं होता अतः यदि पाठकों की टिप्पणियों को माडरेशन किया जाएगा तो वह एक संपादक की उपस्थिति के समान ही होगा।
संचार विभाग के विभागाध्यक्ष अनिल कुमार राय ने धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा - जहाँ आधुनिक संचार माध्यम समाप्त होते हैं वहाँ से इसकी शुरुआत होती है। यदि हम टिप्पणियों का माडरेशन करने लगे तो फ़िर यह तो एक संपादक की उपस्थिति ही हुई।
देश भर से आए लगभग 25 ब्लॉगरों ने उद्घाटन सत्र के बाद चार समूहों में आचार संहिता के विविध आयामों पर अलग अलग गहन चर्चा की जिसके निष्कर्षों को दूसरे दिन परिचर्चा सत्र में प्रस्तुत किया गया।
दूसरे दिन के प्रथम सत्र में सर्वप्रथम विश्वविद्यालय के सामूहिक ब्लॉग हिन्दी-विश्व का लोकार्पण कुलपति के हाथों संपन हुआ. उल्लेखनीय है कि उक्त ब्लॉग डॉ. कविता वाचक्नवी के निर्देशन और सहयोग से बनाया गया है और प्रीति सागर को ब्लॉग का मोडरेटर नियुक्त किया गया है. उदयपुर से आई हुईं डॉ अजित गुप्ता के लघुकथा संग्रह का लोकार्पण भी कुलपति विभूतिनारायण राय के करकमलों द्वारा संपन्न हुआ.
परिचर्चा सत्र में ब्लॉगरों ने अपने विचार व्यक्त किए। शुरूआत सुरेश चिपलूणकर ने की और बताया कि दूसरे के ब्लॉग पर टिप्पणी करना सबसे अच्छा तरीका है ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचने के लिए। उन्होंने तथ्यात्मक बातें लिखने और सामग्री स्रोत का लिंक देने पर जोर दिया. हर्षवर्धन त्रिपाठी ने कहा कि आप जो भी लिखें पूरी बात पक्की जानकारी से लिखें । उन्होंने विस्फोट, मोहल्ला, भड़ास, अर्थकाम. काम का उदाहरण देते हुए बताया इन ब्लॉगों को उद्यमिता के माडल के रूप में लिया जाना चाहिए। रवींद्र प्रभात ने शालीन भाषा के प्रयोग को सर्प्रथम आचार का दर्ज़ा दिया तथा सकारात्मक बने रहने के लाभ गिनवाए। अविनाश वाचस्पति ने कहा कि आचार संहिता की बात अगर न भी मानें तो मन की बात माननी चाहिए और ऐसी बातें करने से बचना चाहिए जिससे लोगों को बुरा लग सकता हो । प्रवीन पांडेय ने अतियों से बचने की सलाह दी और गायत्री शर्मा ने नामी ब्लॉगों का उदाहरण देते हुए ब्लॉग की सामाजिक उपयोगिता के बारे में अपनी बात कही। यशवंत सिंह ने माना कि हिंदी पट्टी को लोग अतियों में जीने के कारण या तो अराजक हो जाते हैं या फिर बेहद भावुक. उन्होंने गालियों और गप्पों के बजे तथ्यात्मक लेखन को पुष्ट करने की ज़रूरत बताई।
भोपाल के चर्चित ब्लॉगर रवि रतलामी ने ''इन्टरनेट के नवीनतम प्रयोग और "ब्लॉगिंग के आवश्यक पहलू'' विषय पर टेली कॉन्फ्रेसिंग के जरिये भी कार्यशाला को संबोधित किया और प्रतिभागियों के प्रश्नों के उत्तर दिए उल्लेखनीय है कि इस अवसर पर पंजीकृत पचास से अधिक प्रशिक्षुओं को कंप्यूटर पर हिंदी और यूनिकोड में काम करने तथा ब्लॉग बनाने का व्यावहारिक प्रशिक्षण संजय
बेंगाणी
और शैलेश भारतवासी द्वारा दिया गया। इसके अतिरिक्त प्रथम दिन की संध्या कवि सम्मेलन के नाम समर्पित रही जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा ने की तथा संचालन डॉ.कविता वाचक्नवी ने किया। दूसरे दिन की प्रातः बेला में सभी अतिथि ब्लॉगरों ने सेवाग्राम स्थित महात्मा गांधी की कुटी तथा विनोबा भावे के पवनार आश्रम का भ्रमण किया।
इस आयोजन का सर्वाधिक उपादेय पक्ष यह रहा कि साइबर-अपराध और तत्संबंधी कानूनों के मर्मज्ञ विद्वान (सुप्रीम कोर्ट) अधिवक्ता पवन दुग्गल ने विस्तार से इंटरनेट की संभावनाओं और सीमाओं के वैधानिक पक्ष पर प्रकाश डाला और चिट्ठाकारों की जिज्ञासाओं का समाधान किया। समापन सत्र में कुलपति विभूति नारायण राय के हाथों प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र दिए गए। पूरे समारोह का संयोजन आतंरिक संपरीक्षा अधिकारी सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने अत्यंत सुरुचिपूर्ण शैली में किया।
श्री राकेश, श्री राजकिशोर, श्री आलोक धन्वा, ऋषभदेव शर्मा, प्रो. प्रियंकर पालीवाल, डॉ.कविता वाचक्नवी, डॉ. अजित गुप्ता, श्री अनूप शुक्ल, डॉ.अशोक कुमार मिश्र, श्री रवीन्द्र प्रभात, प्रो. अनीता कुमार, श्री सुरेश चिपलूनकर, डॉ.महेश सिन्हा, श्री संजय बेंगाणी, श्री प्रवीण पाण्डेय, श्री अविनाश वाचस्पति, श्री जाकिर अली रजनीश, श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी, श्री संजीत त्रिपाठी, श्रीमती रचना त्रिपाठी, श्री यशवंत सिंह, श्री विवेक सिंह, श्री जय कुमार झा, श्री शैलेश भारतवासी, श्री विनोद शुक्ला, सुश्री गायत्री शर्मा, श्री विषपायी, आदि की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की. खचाखच भरे सभागार में अध्यापकों, विद्यार्थियों, विभिन्न विभागों के सहयोगियों, देश के अनेक भागों से अपने संस्थान द्वारा कार्यशाला में भाग लेने हेतु नियुक्त अनेक राजभाषा अधिकारियों/ अध्यापकों आदि की उपस्थिति ने भी कार्यक्रम को भव्य व सार्थक बनाया.

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