अभी ९-१० अक्टूबर २०१० को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में दो दिन का आयोजन था - हिंदी ब्लॉगिंग की आचार संहिता पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी और कार्यशाला. अपने कस्बाई काम्प्लेक्स के कारण मैं ऐसे आयोजनों से कन्नी काट जाया करता हूँ जहाँ महान व्यक्तित्व पधार रहे हों - चाहे सचमुच के या फिर भरम के. इस आयोजन के बारे में भी मन में द्वंद्व था - जाऊँ या न जाऊँ. न जाने का जेनुइन कारण भी उपस्थित था - हमारे संस्थान में दूरस्थ माध्यम के छात्रों का संपर्क कार्यक्रम. पर मुझे इनकार करके भी जाना पड़ा - सिद्धार्थ जी [संयोजक] के आग्रह को टालना संभव नहीं था मेरे लिए. उन्होंने जब फोन पर पहला ही वाक्य कहा- 'आपके निर्णय ने तो मुझे उदास कर दिया' - तो उनकी आवाज़ से लगा कि वे सच बोल रहे हैं, औपचारिकता नहीं निभा रहे. सोचा - जाना पड़ेगा ही शायद. और जब उन्होंने मेरे बताए सब कारणों को निरस्त करते हुए कहा - 'मैं आपका आना निश्चित मान कर चल रहा हूँ' - तो लगा, किसी ने बहुत आत्मीयता से हथेली पर उष्ण सा दबाव दिया हो. ऊपर से कविता जी के फोन और ईमेल ने मेरे लिए कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं छोडी.
दो गाड़ियों का आरक्षण कराया था. उस दिन सवेरे आठ बजे बेटी ने स्थान कन्फर्म होने की बात कही तो मैंने सोचा - रात १० बजे वाली गाडी है,और प्रथम नवरात्र की औपचारिकताओं में लग गया. लेकिन मेरी हालत उस वक़्त शायद देखने लायक रही होगी जब मुझे बताया गया कि गाड़ी दिन के १० बजे है. जेट स्पीड से तैयार होकर भागना पड़ा. भला हो उस अपरिचित भले आदमी का जिसने मुझे लिफ्ट दे दी वरना स्कूल का समय होने के कारण कोई भी ऑटो चलने को तैयार न था. इसीलिए घर से निकलते वक़्त बेटी को देवीस्वरूप मानते हुए चरणस्पर्श किए थे और मन ही मन माँगा था कि गाड़ी छूट न जाए. वह मेरे इस आचरण पर पहले तनिक हकबकाई , और फिर हँस दी.
गाड़ी पकड़ी गई तो जान में जान आई. वर्धा उतरते ही शोधार्थी जोशी जी ने मुझे सहज ही चीन्ह लिया और फादर कामिल बुल्के के नाम पर स्थापित अतिथिशाला में प्रस्थापित कर दिया. उस समय वहाँ खुले में कुछ ज़ोरदार चर्चा चल रही थी. मैंने अनुमान किया कि अवश्य ही यह 'आज की कहानी के सरोकार' पर गोष्ठी होगे जिसकी सूचना गत दिन कविता जी दे चुकी थीं. मैं शामिल नहीं था पर अच्छा लगा विद्वानों को इस तरह साहित्यचर्चा में शाम बिताते देखकर.
गोष्ठी से छूटते ही कविता जी आईं. मुझे उनके कुछ महीने पहले के एक्सीडेंट की जानकारी थी; फिर भी उन्हें छड़ी के सहारे धीरे धीरे संभल संभल कर चलते देखना मेरे लिए सहज नहीं था. मैं धक् से रह गया. अभिवादनादि का भी शायद मैं ठीक से उत्तर न दे पाया होऊँ, क्योंकि मेरी इच्छा हो रही थी कि आयु में बड़े होने के अधिकार के साथ उन्हें खूब डाँटूं. [पर नहीं, मैंने वापस लौटने तक भी एक बार भी उनसे उस दुर्घटना की चर्चा तक नहीं उठाई.] कविता जी अनेक वर्षों बाद इतनी प्रसन्न और उत्साहपूर्ण दिखीं - उनकी बिटिया का रिश्ता तय हो गया है न! [ अभी कल ही की तो बात लगती है जब पहली बार घर जाने पर उसने मुझे बेहद संकोच के साथ अपनी पहली कविता दिखाई थी - और छोटी सी हथेली भी!]
सिद्धार्थ जी आए. गले मिले और प्रथम परिचय में ही इतने अपने लगे कि अब तक विस्मित हूँ. मैंने उन्हें आर्यसमाजी समझा था - उनका ब्लॉग है न 'सत्यार्थ मित्र' [ 'सत्यार्थ प्रकाश' की याद दिलाने वाला नाम.बाद में जाना कि सत्यार्थ उनके सुपुत्र का शुभनाम है.] मेरे उपवास का मज़ाक उड़ाया जा सकता है और मूर्तिपूजा के खिलाफ उपदेश भी दिया जा सकता है - इसका पूरा खतरा था. संकोच सहित मैंने भूमिका बनाई कि प्रगतिशील होते हुए भी कुछ मामलों में रूढ़िग्रस्त हूँ. पर जब उन्होंने बताया कि वे स्वयं नवरात्र का उपवास रखे हुए हैं तो दुविधा मिट गई. मुझे उन्होंने अपने आवास पर फलाहार के लिए आमंत्रित किया तो कविता जी ने लगभग चहकते हुए कहा - 'वहाँ आपको देवी के दर्शन होंगे'. और ये पंक्तियाँ लिखने का मेरा उद्देश्य इतना भर है कि यह स्वीकार करूँ कि सचमुच सिद्धार्थ जी के घर में मैंने देवी के दर्शन किए. सौभाग्यवती रचना अत्यंत सौम्य हैं - बेहद स्नेहमयी. इस तरह उन्होंने स्वागत किया कि वात्सल्य ने मुझे औपचारिक शिष्टाचार का अतिक्रमण करने को बाध्य कर दिया - मैं हर आयु की महिला को बरसों मैडम कहते रहने का अभ्यासी हूँ पर श्रीमती त्रिपाठी को मैंने कुछ ही मिनटों में कई बार बेटी [बेटा] कहकर संबोधित किया - खासकर जब वे और फलादि लेने के लिए आग्रह कर रही थीं .
और हाँ , याद आया - सिद्धार्थ जी ने सेब और मौसमी अपने हाथों छीले और काटे. वे बड़ी तन्मयता से यह कार्य कर रहे थे. मुझे देखते देखा तो बताने लगे कि उन्हें किसी के भी काटे फल पसंद नहीं आते. इस पर मैंने खाद्य पदार्थों के सौंदर्यशास्त्र पर एक संक्षिप्त प्रवचन दे डाला जिसे आतिथेय दंपति ने अत्यंत श्रद्धा से सुनकर अपनी सहिष्णुता का परिचय दिया. साबूदाने की खीर और सेंधा नमक से सुवासित आलू का स्वाद दिव्य था. मैं धन्यता की अनुभूति में गद्गद था.
कुछ देर घरेलू बातचीत करके अतिथिगृह लौटने पर आलोकधन्वा जी और जय कुमार झा जी के सत्संग का लाभ लिया. आलोकधन्वा बड़े कवि हैं, लेकिन सहज मनुष्य. वेणुगोपाल जी का उल्लेख करते ही खुल पड़े.उन्हें अगले दिन संगोष्ठी के मंच पर सुना, और शाम को कविगोष्ठी में भी.कुछ तेवरियों के अंश सुनाने का मौका मुझे भी मिला. मुझे सदा अचरज रहेगा कि इतने बड़े कवि ने तीसरे दिन विदा के समय मेरी दो पंक्तियाँ दुहराते हुए रचनाधर्म का स्मरण कराया - 'बर्फ पिघलाना ज़रूरी हो गया चूँकि / चेतना की हर नदी पर्वत दबाता है.' दरअसल उन्होंने बहुत ध्यान से सबकी कविताएँ सुनी थीं.कविता जी को तो उन्होंने विधिवत कवि घोषित किया. प्रियंकर पालीवाल जी की कविताएँ मुझे ख़ास लगीं. हमारे कई बड़े कवियों की कविताओं के अलावा जब रवि नागर जी ने एक पाकिस्तानी कवयित्री की रचना हारमोनियम पर सुनाई - '' सीता को देखे सारा गाँव / आग पे कैसे धरेगी पाँव'' - तो मन भीतर तक भींज सा गया. मेरी इच्छा हुई एक पल को कि नागर जी को कंधे पर उठाकर गोल गोल दौडूँ. पर बात मन में ही रखनी पडी क्योंकि अपनी ताक़त का मुझे अनुमान है!
दो दिन के आयोजन में कई नए मित्र बने. शायद उन सबसे भविष्य में परोक्ष या अपरोक्ष संपर्क बना रहे. फिलहाल नाम परिगणन करना औपचारिक लगेगा. पर कई पुराने मित्र भी मिले. प्रो.कृष्ण कुमार सिंह भी उतने ही भाव विभोर थे जितना मैं. प्रो.ए. अरविन्दाक्षन वहाँ प्रतिकुलपति हैं ,लेकिन कोच्चिं की यादों के साथ बेहद अपनेपन से बतियाए. उन्होंने ही संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में सबका स्वागत किया - ह्रदय की भाषा में. विस्मय है कि कुछ मित्रों ने उनके उच्चारण में मलयालम के संस्पर्श पर विनोद किया है, यदि वे अरविन्दाक्षन जी के मौलिक और अनूदित साहित्य से परिचित होते तो उनकी टोन कुछ और होती. हिंदीवालों की हठधर्मिता और स्वयं को बिग ब्रदर समझने की प्रवृत्ति ने पहले ही हिंदी का बहुत नुकसान कर लिया है - ब्लॉगर मित्रों को इसे जानना चाहिए. उद्घाटन कुलपति विभूति नारायण राय जी ने किया . बढ़िया बोले - दो टूक बातें, ब्लॉगर बिरादरी की अपेक्षा प्रभावित पक्षकार की तरह. मुझे अध्यक्ष के नाते उनके निकट कुछ देर बैठने का अवसर मिला तो मैंने १९८४ के नजीबाबाद के लेखक सम्मलेन की याद दिलाई जो बाबा नागार्जुन के संरक्षण में संपन्न हुआ था. इस बहाने 'उन्नयन' के संपादक श्रीप्रकाश मिश्र जी का भी सन्दर्भ आ गया.
संगोष्ठी और कार्यशाला की गतिविधि और उपलब्धि पर अलग से लिखा जा चुका है. यहाँ इतना भर कि आयोजकों ने महात्मा गांधी के नाम पर खड़े किए गए हिंदी विश्वविद्यालय की परिक्रमा कराने के साथ ही सेवाग्राम स्थित बापू कुटी और पवनार स्थित विनोबा आश्रम के दर्शन की भी व्यवस्था की थी. बड़े तडके उठकर सब साथी तैयार हो गए. उत्साह सभी का देखने लायक था.खास करके प्रो.अनीता कुमार, डॉ.अजीत गुप्ता,अनूप शुक्ल, गायत्री शर्मा, सुरेश चिपलूणकर, अशोक कुमार मिश्र, अविनाश वाचस्पति , विवेक सिंह, रवींद्र प्रभात और शैलेश भारतवासी अत्यंत उत्सुक दिखे. पूरे रास्ते सभी चीख चीख कर गांधी दर्शन पर चर्चा करते रहे.सभी दोनों ऐतिहासिक स्थलों से अभिभूत थे. गांधी जी की प्रगतिशीलता पर काफी विचार विमर्श चला और कई चिट्ठाकारों ने यह सामूहिक निष्कर्ष दिया कि - यदि गांधी जी आज के समय में होते तो वे सफलतम ब्लॉगर हुए होते क्योंकि उन्हें जनसंचार माध्यमों की शक्ति की पहचान थी और वे इनका देशहित में सटीक उपयोग करना जानते थे.
दस अक्टूबर की सांझ बड़ी भारी थी. और भी भारी बना दिया उसे सिद्धार्थ-रचना दंपति के निश्छल शिशुवत आचरण ने. दोनों ने हर साथी के साथ खड़े होकर बीसियों फोटो खिंचवाए. हम लोग गोल दायरे में बैठे थे. वे दोनों एक एक के पीछे आकर खड़े होते और फोटो खिंचवाते. इतना ही नहीं जो मित्र अपने कमरों में थे, उनके साथ फोटो के लिए कमरे में पहुँच गए. होगा यह आयोजन विश्वविद्यालय का , पर हमारे लिए तो यह शुद्ध रूप से सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी के परिवार का उत्सव बन गया. यहाँ तक ही बस नहीं, सबको पाथेय के रूप में गरमागरम पूरी सब्जी का पार्सल भी दिया गया.
सिद्धार्थ जी स्वयं स्टेशन पहुँचाने आए थे. विदा का क्षण सत्य ही भावुकता का क्षण था! |