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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

स्त्री के औदात्य से आलोकित ‘नयन दीप’




शांति अग्रवाल (1941) सामाजिक अभिरुचि संपन्न घरेलू महिला हैं। पढ़ने और घूमने के शौक ने उन्हें कविता और कहानी लेखन की ओर प्रेरित किया। पिछले कई वर्षों से उनकी कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, जिन्हें पाठकों का पर्याप्त स्नेह मिला है। उन्होंने अपनी रुचि के विषयों से जुड़ी कहानियाँ लिखीं हैं और विविध प्रकार की घटना और पात्र सृष्टि द्वारा अपने सामाजिक सरोकार को व्यंजित किया है। ये घटनाएँ और पात्र इतने स्वाभाविक हैं कि पाठक अपने परिवेश में इनकी जीवंत उपस्थिति महसूस कर सकता है। अलग-अलग अवसरों पर लिखी गर्इं उनकी कहानियाँ ‘नयन दीप’ (2009) में संकलित होकर सामने आई हैं। शांति अग्रवाल को नारी मन की गहराइयों को उकेरने में अच्छी सफलता मिली है। उनकी नारी परिस्थितियों के वात्याचक्र में सुख दुःख झेलती हुई वह साधारण नारी है जो न तो कभी हार मानती है और न कभी किसी का बुरा चाहती है - चाहती है तो बस बुरे हालात को बदलना। इसी में उसका औदात्य निहित है। यह नारी कई तरह की यातनाएँ भी झेलती है। यातना तो भारतीय स्त्री की नियति ही है। तभी तो ‘बेटी का प्यार’ की
''उर्मि बचपन से अब तक यही सुनती आई है दादी के मुँह से, बुआ से, कि वह मनहूस है, भाई को खाकर वह इस दुनिया में आई है। होश संभाला तबसे उर्मि ने जाना था, मम्मी को ब्याह के बहुत सालों बाद माँ बनने का सौभाग्य मिला था, दादी की प्रताड़ना, रिश्ते-नाते वालों की बोली-ठोली सुन सुनकर मम्मी बहुत ही डिप्रेशन में रहती थी। और जब माँ बनी तो जुड़वाँ बच्चे होने वाले थे।''
उर्मि के साथ ही एक बेटे का भी जन्म हुआ था जो जन्मते ही मर गया। उर्मि बच गई थी, यह किसी के लिए भी हर्ष का विषय नहीं था। इससे क्या फर्क पड़ता है कि आज के समय बेटियाँ भी उसी तरह माता पिता का सहारा बनती हैं जिस तरह बेटा? पर नहीं, उर्मि ने अपनी योग्यता सिद्ध करके दिखाई और तब कहीं जाकर उसे अपने माँ-बाप का प्यार नसीब हो पाया। समाज बदल रहा है पर बहुत धीमी गति से। लेखिका ने इस धीमी गति को ही दिखाने की कोशिश की है। ‘विश्वास’ की शीला भी यह महसूस करती है कि
''हम औरतें कितनी भी आगे बढ़ जाएँ, इस साइन्स के जमाने में भले ही हम सुनीता विलियम्स और कल्पना चावला की भाँति स्पेस में उड़ान भर लें लेकिन रहेंगे हम दूसरे श्रेणी के ही।''
समाज में स्त्री की इस दोयम दर्जे की नागरिकता से ये कहानियाँ बिना किसी नारेबाजी के इस तरह चुपचाप टकराती हैं जैसे कोई छोटी सी हथौड़ी से बार-बार प्रहार करके किसी पुरानी दीवार को तोड़ने की कोशिश कर रहा हो। यही शांति अग्रवाल की ताकत है। अत्यंत कारुणिक ढंग से ‘एक कटोरी दूध’ में धार्मिक अंधविश्वास पर चोट की गई है। ऐसा धर्म कर्म किस काम का जिसकी खातिर मूर्ति के ऊपर तो एक सौ आठ कलश दूध चढ़ा दिया जाए और घर की नौकरानी का नवजात शिशु दूध के लिए तरसता मर जाए? घोर यथार्थ और अमानुषिकता को सामने रखनेवाली यह कहानी इस संग्रह की श्रेष्ठ कहानियों में मानी जाएगी। ‘आतंक का साया’ इस भ्रम का खंडन करती है कि मुसलमान अनिवार्य रूप से आतंकवादी होता है। लेखिका के आदर्श के भी इस कहानी में दर्शन होते हैं। ‘नया सवेरा’ दलित विमर्श और स्त्री विमर्श दोनों दृष्टियों से अत्यंत महत्वपूर्ण कहानी है। इधर कुछ दशकों से उभरे वृद्धावस्था विमर्श को भी इसमें देखा जा सकता है। कहीं-कहीं हल्की सी अस्वाभाविकता के बावजूद यह कहानी एक उम्रदराज अकेली स्त्री के संघर्ष की ही नहीं, समाज को दिशा देने की भी कहानी है। दलितों के बहाने आदिवासियों की पंचायत जैसा जो परिवेश लेखिका ने रचा है वह भी अत्यंत विश्वसनीय और प्रासंगिक है। सुखद परंतु कारुणिक अंत इस कहानी को कहानी कला की दृष्टि से भी उत्कृष्ट बना देता है। लेखिका ने अपने आदर्श की स्थापना भी की है और यथार्थ की क्रूरता को भी अंत में भोथरा होने से बचाया है -
‘‘ललिता गाँव के लिए राम बनकर आई थी, अहिल्या का उद्धार करने। भोर का सूर्य एक नई रोशनी लेकर उदय हो रहा था। माँ सरस्वती की मूर्ति आश्रम में स्थापित होकर नई आभा से दमक रही थी। इस नए प्रकाश के साथ ललिता ने सदा के लिए आँखें बंद कर लीं। अक्षर ज्ञान और कर्म चेतना के साथ गाँव में नया सवेरा हो चुका था। अब गाँव में कन्याओं का ब्याह भी होगा।’
वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से ‘नया सवेरा’ इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी हैअतः इसे ही इस पुस्तक की शीर्षककथा होना चाहिए था , इसमें संदेह नहीं। अन्य कहानियों में भी लेखिका ने समाज की अपनी समझ और संबंधों के यथार्थ को इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि पाठक द्रवित हो उठता है। ‘दत्तक पिता’ में पापा भवानी मिश्र का वृद्धाश्रम में देहांत हो जाता है और बेटा फोटो लिए उन्हें खोजता रह जाता है ; और अपने पाप बोध से मुक्त होने के लिए अन्य वृद्ध को पिता के रूप में गोद लेता है। ‘परदेसी पंछी’ में भाभी परदेस गए अमर के बच्चे की किलकारी सुनने के लिए तरसती रह जाती है - बस वफादार कुत्तों की भौं भौं ही सुनाई देती है। कुत्ते वफादार हैं - गोद में आकर बैठ जाते हैं, बच्चे पंछी हैं - बिराने देसों उड़ जाते हैं! अन्यत्र भी लेखिका ने वृद्धों के प्रति बढ़ रहे उपेक्षा भाव, रिश्तों में पड़ती जा रही दरार, संस्कारों के पतन, अनाथाश्रम के नारकीय जीवन, राजनीति की अमानुषिकता, हर उम्र की औरत पर घर और बाहर हो रहे अत्याचार, मनुष्य और मनुष्य के बीच प्रायः पसरी रहनेवाली विवशता, मनुष्य के दोहरे चरित्र और नियति के न्याय को कथारचना का आधार बनाया है और जीवन मूल्यों की प्रति अपनी आस्था प्रदर्शित की है। कुछ कहानियों में ग्रामीण परिवेश और आंचलिक भाषा ने अच्छा प्रभाव उत्पन्न किया है। संकलन की शीर्षक कहानी ‘नयन दीप’ वर्ग मैत्री की कहानी है जिसमें निम्नवर्ग अपने साथ हुए उच्च वर्ग के दुर्व्यवहार को क्षमा करके अंततः आत्मदान का आदर्श स्थापित करता है। यह आदर्श संभवतः लेखिका को तमाम अमानुषिक वर्ग भेदों का समाधान प्रतीत होता है। यदि वास्तव में समाज इतना सदाशयपूर्ण हो जाए तो यह दुनिया मनुष्य के रहने की बेहतर जगह बन जाए! 
नयन दीप/
शांति अग्रवाल/
2009/
कादंबिनी क्लब, हैदराबाद, 93-सी, राजसदन, वेंगलराव नगर, हैदराबाद-500 038/
पृष्ठ 104/
मूल्य रु. 100.

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

घायल की गति घायल ही जाने! उसी प्रकार स्त्री की भावनाओं को लेखिका के अलावा और कौन व्यक्त कर सकता है। घरेलू महिला है और देखने की दृष्टि, तो और अधिक सुक्षमता से देख सकती है जिसका प्रमाण आपकी इस समीक्षा से मिलता है।