‘‘तूँ कहाँ का है, इस जागाँ तूँ क्यों आया? इस शहर को बाट तूँ क्यों पाया? तुझे कौन दिखलाया?’’ xxx ‘‘सो उस दिलरुबा नार कूँ, दीदियाँ के सिंघार कूँ, चतुर चैसार कूँ, एक सहेली थी,भौत छबीली थी, रात रंगीली थी। नाँव उसका ज़ुल्फ़ था, लट साँवली निपट, रंग कूँ काली, घूँगर वाली।’’
दक्खिनी हिंदी के लेखक वजही (1609) द्वारा रचित गद्य के ये अंश यह सोचने पर विवश करते हैं कि यदि दक्खिनी में 17वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में गद्य का यह रूप था तो उस समय के उत्तर के हिंदी रचनाकार ऐसा गद्य क्यों नहीं लिख पाए! स्मरणीय है कि यह समय महाकवि तुलसीदास का समय है। इस प्रश्न से टकराए बिना यदि हम हिंदी साहित्य के इतिहास में खड़ी बोली के गद्य का उदय 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से मानते हैं, तो बड़ी ऐतिहासिक भूल करते हैं। कोई कड़ी है जो बीच से निकल गई है या जानबूझ कर निकाल दी गई है! इस निकली हुई कड़ी का नाम है ‘दक्खिनी’|
खड़ी बोली के साहित्य को भारतेंदु काल से आरंभ मानते हुए प्रायः यह याद कर लिया जाता है कि कभी अमीर खुसरो ने भी इस भाषा में काव्य रचना की थी परंतु उसकी कोई परंपरा न मिलने के कारण उन्हें किसी प्रवर्तन का श्रेय नहीं दिया जाता। गद्य में तो और भी खस्ता हालत है। ब्रज और राजस्थानी के गद्य की चर्चा तो मिलती है लेकिन खड़ी बोली के गद्य की कहीं गंध तक इतिहासकारों को नहीं मिल पाई है। ऐसा इसलिए है कि इतिहासकारों ने लिपि भेद के कारण दक्खिनी के साहित्य की ओर लंबे समय तक ध्यान ही नहीं दिया जबकि दक्खिनी में चैदहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक अत्यंत समृद्ध पद्य और गद्य की परंपरा प्राप्त होती है। इसका कारण यह हो सकता है कि यह काल जहाँ उत्तर भारत में ऐसी उथल-पुथल का था जिसमें साहित्य लगभग पूरी तरह धर्माश्रित और लोकाश्रित था, वहीं दक्खिन के शासक अपने समय की सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भागीदार थे और राज्याश्रय में दक्खिनी के लेखन का भरपूर पोषण हो सका।
खड़ी बोली के गद्य को भारतेंदु काल से आरंभ मानने से पहले इस तथ्य पर ध्यान देना ज़रूरी है कि दक्खिनी साहित्य के पहले साहित्यकार ख्वाज़ा बंदानेवाज गेसूदराज से आरंभ होकर दक्खिनी हिंदी की गद्य परंपरा मीराँजी, शमसुल उश्शाक, बुराहानुद्दीन जानम, औार मुल्ला वजही से होते हुए एक विस्तृत विरासत कायम करती है। यह विरासत सही मायने में खड़ी बोली की विरासत है क्योंकि दक्खिनी हिंदी और खड़ी बोली मूलतः अभिन्न हैं। यदि इस विरासत को विधिवत विश्लेषित किया जाए तो साफ हो जाएगा कि अमीर खुसरो खड़ी बोली में लिखने वाले अकेले रचनाकार नहीं थे, उनके बाद एक पूरी परंपरा थी - गद्य और पद्य दोनों की पूरी परंपरा।
यह पूछा जा सकता है कि जब अवधी और ब्रज भाषा में आध्यात्मिक और शृंगारिक साहित्य रचा जा रहा था उस समय खड़ी बोली विकास की किस दशा में थी। इसके उत्तर में याद करना होगा उन ऐतिहासिक परिस्थितियों को जिनमें अलाउद्दीन और मुहम्मद तुगलक की दक्षिण विजय के साथ उत्तर से अनेकानेक मुस्लिम सामंतों, सैनिकों और शिल्पकारों को दक्षिण आना पड़ा। इन्हीं के कारण दक्षिण में गुलबर्गा, गोलकोंडा और बीजापुर के इलाके में खड़ी बोली की कविता आरंभ हुई - यह लगभग वही समय था जब मिथिलांचल में विद्यापति की पदावली गूँज रही थी। इसका अर्थ हुआ कि खड़ी बोली काव्य परंपरा 1850 ई. के बाद अचानक नहीं फूट पड़ी,बल्कि उसकी विकासधारा विद्यापति के काल से ही समांतर प्रवाहित हो रही थी। इतना ही नहीं दक्खिन में आ बसे इन रचनाकारों ने अपनी काव्य भाषा को एकाधिक स्थलों पर विधिवत‘हिंदवी’ और ‘हिंदी’ कहा है। जैसे -
‘‘बाचा कीना हिंदवी में।’’ (अशरफ़, 1503 ई.)
‘‘यह सब बोलूँ हिंदी बोल।
पन तूँ अन भौ सेती खोल।।
ऐब न राखें हिंदी बोल।
माने तूँ चख देखें खोल।।’’ (बुरहानुद्दीन जानम, 1522 ई.)
उर्दू साहित्येतिहासकार एहतेशाम हुसैन ने बुरहानुद्दीन जानम के पिता मीरान जी के हवाले से बताया है कि उन्होंने भी अपनी भाषा को स्वयं हिंदी कहा है और यह भी लिखा है कि मेरी ये रचनाएँ उन लोगों के लिए हैं जो अरबी-फारसी नहीं जानते। अरबी-फारसी की परंपरा से जोड़ कर हिंदी की परंपरा से काट दिए गए इन विस्मृत रचनाकारों के दर्द को समझने के लिए यह रेखांकित करना ज़रूरी है कि महात्मा तुलसीदास के समकालीन कवि अब्दुल गनी ने घोषणापूर्वक कहा था कि मेरी भाषा तो हिंदवी और देहलवी है, मैं अरब और फारस की कथा नहीं जानता -
‘‘ज़बाँ हिंदवी मुझसो होर देहलवी।
न जानूँ अरब और अजम मस्नवी।।’’ (अब्दुल गनी)
यहाँ प्रसंगवश ‘हिंदवी’ शब्द की व्याप्ति को समझने के लिए यह उल्लेख किया जा सकता है कि ग़ालिब ने जब फारसी से हटकर उर्दू में काव्य सृजन आरंभ किया तो उन्होंने अपनी भाषा को उर्दू नहीं, हिंदवी कहा था।
अस्तु, दक्खिनी के गद्य-पद्य की परंपरा के विहंगावलोकन से यह बात साफ है कि‘‘हिंदी भाषा का विकास और उसमें साहित्य रचना का कार्य केवल उत्तर भारत में ही नहीं हुआ है। दक्षिण भारत की मुसलमानी रियासतों, उनके शासकों एवं उनके दरबार के तथा अन्य साहित्यकारों का भी इसमें महत्वपूर्ण हाथ है। मुसलमान फकीरों, सैनिकों और राज्य संस्थापकों के द्वारा साहित्यिक हिंदी दक्षिण भारत में पहुँची थी और पंद्रहवीं शताब्दी तक उसमें उच्च कोटि का साहित्य निर्मित होने लगा था।’’ (डॉ. धीरेंद्र वर्मा)। दुर्भाग्य यह रहा कि इस साहित्य का बड़ा भाग अभी तक भी देवनागरी लिपि में प्रकाशित नहीं है, अन्यथा खड़ी बोली की खोई हुई कड़ी की पहचान कभी की हो गई होती। इस दिशा में सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य महापंडित राहुल सांकृत्यायन का है।
यह भी ध्यान रखने की बात है कि ‘‘जब उत्तर भारत में फारसी का प्रभुत्व बना रहा तो दक्षिण में ‘दक्खिनी’ का। हिंदी ने जो कदम दक्खिनी में जमाए उन्हें फारसी हिला न सकी। सुप्रसिद्ध इतिहासकार फरिश्ता ने लिखा है कि बहमनी राज्य के दफ्तरों में हिंदी जबान प्रचलित थी और सल्तनत ने उसे सरकारी जबान का पद दे रखा था। बहमनी राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने के बाद हिंदी का यह पद उत्तराधिकार में रियासतों ने कायम रखा।’’ (डॉ. बाबूराम सक्सेना)।
यहाँ यह जानना रोचक हो सकता है कि हाब्सन-जाब्सन कोश (1886) में दक्खिनी को हिंदुस्तान की एक विचित्र बोली मानते हुए इसे ‘दक्खिनी देश की स्वाभाविक भाषा’ कहा गया है,जो देश की तत्कालीन स्वाभाविक भाषा हिंदवी अथवा हिंदी की एक शैली थी। यहाँ दक्खिनी और उर्दू के संबंध का प्रश्न भी उठना स्वाभाविक है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ‘दक्खिन’ से अभिप्राय बहमनी साम्राज्य के विभिन्न भागों से रहा है - बरार, बीदर, गोलकोंडा, अहमदनगर और बीजापुर। उत्तर भारत से आए मुसलमानों के साथ यहाँ दिल्ली से खड़ी बोली का आगमन हुआ और क्रमशः मुल्ला वजही तथा कुलीकुतुब शाह आदि के माध्यम से उसका साहित्यिक रूप भी विकसित हुआ जिसे 17वीं शताब्दी तक आते-आते ‘दक्षिण में बसे हुए उत्तर भारतीय मुसलमानों की साहित्यिक भाषा’ की प्रतिष्ठा मिल गई। ‘‘इसी काल के आसपास जब औरंगजेब के आक्रमणों के समय मुगल सेनाओं के माध्यम से दिल्ली में बोली जानेवाली हिंदुस्तानी (अथवा हिंदुस्थानी) दक्खन के इस क्षेत्र के संपर्क में आयी, तब पहले से दक्खन में बसे उत्तर भारतीय मुसलमानों में प्रचलित हिंदुस्तानी से भिन्नता को स्पष्ट करने के लिए इस परवर्ती बोली का नाम ज़बाने-उर्दू-ए-मुअल्ला (शाही डेरे की भाषा) रखा गया। बाद में इसी नाम का संक्षिप्त रूप ’उर्दू’ प्रचलन में आ गया।’’ (सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या )|
आज दक्खिनी हिंदी के नाम में निहित दक्खिन से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ भागों का अर्थ लिया जाता है जिनमें कई शताब्दियों तक संस्कृतियों और भाषाओं का ऐसा संगम होता रहा जो भारत राष्ट्र की सामासिकता का आदर्श है। यह अध्ययन का विषय है कि दक्खिनी के मध्यकालीन साहित्यिक रूप और आधुनिक व्यावहारिक रूप के निर्माण में हिंदी की बोलियों के साथ-साथ तेलुगु, मराठी और कन्नड़ की भाषिक परंपराओं का प्रभाव किस प्रकार सक्रिय रहा है।
भाषावैज्ञानिक लक्षणों के आधार पर निर्विवाद रूप से यह माना जाता है कि ‘दक्खिनी हिंदी’ वास्तव में हिंदी का ही रूप है। हिंदी की ध्वनियों के साथ फारसी की कुछ ध्वनियाँ भी इसमें शामिल हैं। खड़ी बोली की तरह स्त्रीलिंग संज्ञाओं में याँ का जुड़ना भी इसे खड़ी बोली कुल में शामिल करता है। इसमें अनेक बोलियों के शब्दों की विद्यमानता का कारण यह है कि 13 वीं से 16 वीं शताब्दी तक उत्तर से दक्षिण आनेवाले सैनिकों, साधुओं और व्यवसायियों में अधिकतर पंजाब, बांगरू प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आते थे। इनके साथ दक्षिण में आई भाषा इसीलिए अनेक बोलियों का समूह प्रतीत होती है जो पुनः सामासिकता का प्रमाण है तथा दक्खिनी हिंदी के असांप्रदायिक और राष्ट्रीय चरित्र के मूल में है। इस भाषा के रचनाकार ही वस्तुतः खड़ी बोली के प्रारंभिक प्रयोक्ता साहित्यकार थे। यदि उन्हें उर्दू के भी आदिकवि कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। ‘‘इस प्रकार खड़ी हिंदी के सर्वप्रथम कवि यही दक्खिनी कवि थे। एक ओर उन्होंने बोलचाल की कौरवी (खड़ी बोली) को साहित्यिक भाषा का रूप दिया, तो दूसरी तरफ उनकी कृतियों ने उर्दू कविता का प्रारंभ किया।’’ (राहुल सांकृत्यायन)|
अतः 14वीं शताब्दी के ख्वाज़ा बंदानेवाज़ खड़ी बोली (हिंदी और उर्दू, दोनों) के आदिकवि हैं जिन्हें अमीर खुसरो (13वीं शती) का वास्तविक उत्तराधिकारी माना जा सकता है।18वीं शताब्दी के वली को प्रायः उर्दू का पहला कवि कहा जाता है परंतु यह ध्यान में रखना होगा कि वे दक्कन में रह चुके थे और दक्खिनी की साहित्यिक परंपरा से परिचित थे अर्थात् उनके माध्यम से दक्खिनी की साहित्यिक परंपरा उर्दू के रूप में उत्तर पहुँची। यदि शुद्धतावादी आग्रहों ने विवाद न खड़े किए होते तो यह पूरी विकासधारा इस तथ्य को सहज प्रमाणित करने वाली मानी जाती कि उर्दू हिंदी की ही एक शैली है, न कि पृथक भाषा।
दक्खिनी हिंदी के साहित्य की जब भी चर्चा होगी, उसके सामासिक और धर्म निरपेक्ष स्वरूप की उपेक्षा नहीं की जा सकेगी। भाषा और संस्कृति दोनों ही स्तरों पर यह साहित्य भारतीयता से अनुप्राणित है। चाहे ऋतु वर्णन का प्रसंग हो अथवा नायिका भेद का संदर्भ, यह साहित्य संस्कृत से अपभ्रंश तक की परंपरा से जुड़ा प्रतीत होता है। कुली कुतुब शाह ने तो एक नायिका का नामकरण ही ‘हिंदी’ किया है -
‘‘रंगीली साईं, ते तूँ रंग भरी है।
सुगड़ सुंदर सहेली गुन भरी है।।
लटकना बिजली निमने उस सुहावै।
वो हिंदी छोटी बहुछंद शहपरी है।।’’ (कुली कुतुब शाह)।
इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि इन सब तथ्यों को ध्यान रखते हुए हिंदी और उर्दू साहित्य का समग्र और अखिल भारतीय इतिहास लिखा जा सके तो वह इस देश की सामासिक संस्कृति का दर्पण होगा। स्मरणीय है कि ‘दक्खिनी हिंदी काव्यधारा’ (1958) के माध्यम से महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने इस प्रकार के इतिहास लेखन का मार्ग पहले ही प्रशस्त कर दिया है। उन्होंने इस कृति में दक्खिनी हिंदी काव्यधारा को आदिकाल (1400-1500 ई.), मध्यकाल (1500-1657 ई.) और उत्तरकाल (1657-1840 ई.) में विभाजित किया है तथा दक्खिनी हिंदी के 36रचनाकारों की रचनाओं को संकलित किया है। इन रचनाकारों में शामिल हैं -
आदिकाल - बंदानेवाज़, शाह मीराँजी, अशरफ़, फ़ीरोज़, बुरहानुद्दीन जानम, एकनाथ, शाह अली और वजही।
मध्यकाल - मुहम्मद कुल्ली, अब्दुल, अमीन, गौवासी, तुकाराम, मीराँ हुसैनी, अफज़ल,मुक़ी जी, कुतुबी, अब्दुल्लाह कुतुब, सनअती, ख़ुशनूद, रुस्तमी और निशाती।
- दूसरे यह कि हिंदी, उर्दू तथा अन्य भारतीय भाषाओं के समकालीन साहित्य के साथ दक्खिनी का तुलनात्मक अध्ययन भारतीय साहित्य की संकल्पना को साकार करने के लिए बेहद ज़रूरी है।
- तीसरे यह कि दक्खिनी हिंदी के साहित्य में संस्कृत परंपरा से चली आती काव्य रूढ़ियों और अरबी-फारसी की काव्य रूढ़ियों का जो समन्वय हुआ है उसका व्यापक अनुशीलन अभी शेष है जो निश्चय ही सांस्कृतिक एकता की पुष्टि का सुदृढ़ आधार बन सकता है।
- इसी प्रकार अध्ययन की चौथी दिशा यह हो सकती है कि दक्खिनी हिंदी की भाषिक संरचना के निर्माण में हिंदी की बोलियों के साथ-साथ दक्षिण की भाषाओं के योगदान को विश्लेषित किया जाए।
2 टिप्पणियां:
आप के आलेख ने दक्खिनी हिन्दी के हिन्दी खड़ी बोली के विकास में योगदान के बारे में आँखें खोल दी हैं। आप इस बारे में और विस्तार से लिखेंगे तो जानकारी में वृद्धि होगी।
यह लेख आपकी शोधपरकता को दर्शाता है. ये तो भाषाई ज्ञान की ऐसी खदान है जिसका यूं लगता है कि अब जा कर पता चला हो.
ज्यादा समय नही हुआ जब हर दक्षिण भारतीय उत्तरभारतीय के लिये "मद्रासी" हुआ करता था. ऐसे में दक्खिनी के प्रति अनभिज्ञता और उदासीनता होना आश्चर्यचकित नही करता यां यह दुर्भाग्यपूर्ण जरूर है.
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