समकालीन तेलुगु कवियों में अग्रगण्य डाì.एन.गोपी (1950) ने "जलगीत' (2005) में पर्यावरण के प्रति जागरूकता का संदेश दिया है। यह धारणा 27 गीतों वाली इस लंबी कविता की मूल प्रेरणा है कि आधुनिक सभ्यता ने पृथ्वी पर जल संकट पैदा किया है, Êजसका मूल कारण जनसंख्या-वृÊद्ध के साथ-साथ प्रदूषण-वृÊद्ध है। कवि ने इस वैज्ञानिक तथ्य को अपना प्रस्थान Ëबदु बनाया है कि बर्फ भूगोल के संतुलन का एक आधार है, Êजस पर पर्यावरण-प्रदूÊषत से दबाव बढ़ता है। वह बर्फ पिघल गया तो जलप्लावन होगा और धरती का अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसलिए कवि ने "काìस्मिक जल' से "प्रदूषण जल' तक की यात्रा करते हुए जल की आत्मा का आविष्कार करने का प्रयास किया है। वे पाठकों में जलस्पृहा लाना चाहते हैं।
एन.गोपी के तेलुगु "जलगीत' को हिंदी में उपलब्ध कराया है अनुवादक प्रो. मÊण (पी.माÊणक्यांबा) ने। शब्द चयन से लेकर अनूदित पाठ की लय और गति तक से यह प्रकट होता है कि अनुवादक ने हिंदी भाषा के मुहावरे को पकड़ने में सफलता प्राप्त की है। संस्कृत साहित्य के संस्कार ने भी अनुवाद को औदात्य प्रदान किया है।
पानी की महत्ता के समक्ष कवि नतमस्तक है। पानी उनके लिए मानो ब्रह्म के सदृश है। पानी का नाम सुनते ही सरबसर भीग जाते हैं। पानी कहते ही तर जाते हैं। पनियारे प्राणी नित नए पानी से प्रतिभाÊसत हो जाते हैं। कवि को लगता है पानी के रूप में तीन परमाणुओं से मनहर मोती आंगन में झर आया है और हथेली में अनंत जलराÊश लहरों की हलचल के उछाह में Êगर पड़ी है। (वैसे पुस्तक में लहरों के हलचल "की' उछाह छपा है, Êजसे सुधारकर पढ़ा जा सकता है)।
आकाश और पृथ्वी के आद्यËबब और मिथक के एक भाग के रूप में जल मनुष्य की स्मृति का अंग रहा है। जल बरसता है तो धरती हरी-भरी फसलों से संपन्न होकर मातृत्व का सुख प्राप्त करती है। जल की बूंद जीवन की बूंद है। कवि उसे टेरता है -
"तुम्हारे स्पशÇ मात्र से
वसुंधरा बनी नित्य सद्य प्रसूता
तुम जहाÄ भर गए
वह हर जलाशय
एक गर्भाशय हो गया है
किन सुदूर गगनों ने भेजा
उपहार प्रकाश के रूप में तुम्हें?'' (पृष्ठ - 14)
जल वर्षा के रूप में आता है और धरती की आयु में इजाफा कर जाता है। समुद्र की रस भरी गगरी नित्य गर्भवती-सी है। समुद्र कवि को सदानीरा नदियों की प्रतीक्षा करने वाले योगी जैसा प्रतीत होता है, Êजसका द्रव सीमा तोड़ने पर उपद्रव कर देता है। पर्वतों, बादलों, नदियों और समुद्रों से एक निरंतर जल-चक्र बनता है, सूर्य का ज्वाला नेत्र Êजसका साक्षी है।
जल को कवि ने अजर-अमर माना है। उसके अनेक मुखौटे हैं, वह कभी मरता नहीं। पैर कटने पर जम जाता है, तो हिम बन जाता है। जल पंचभूत के संतुलन का आधार है। मनुष्य जब इस संतुलन का अतिक्रमण करता है, तो जल जल नहीं रहता और आग आग नहीं रहती। कवि जल को स्त्री रूप में संबोधित करता है -
"ज्वालाओं को
अपने पेट में Êछपाये
हे जल! तुम अब भी
ममतामयी माÄ-सी हो
इसलिए तुममें इतनी दीप्ति है
अग्नि अपने उग्र रूप में
Êशखाएं खोलकर
जीभ फैलाकर नृत्य करे तो
करुणा की कोरों से बचाने .....
अग्नि की जोड़ीदार वायु
पानी में मग्न हो गई।'' (पृष्ठ - 25)।
कवि ने यह स्पष्ट किया है कि "जलगीत' कोई वैज्ञानिक रचना नहीं है, बल्कि विज्ञान की भूमिका पर अंकुरित दाशÇनिकता एवं मानवता से समन्वित कविता है। इसीलिए वे पानी को दो पदार्थों का कसा हुआ आËलगन मानते हैं। बूंद के मन की गहराई और आंसू की रासायनिक प्रÊक्रया सभी में पानी की माया है। सागर को पलकों से बांध दें तो आंसू बन जाता है। जल-संकट के समय आंसुओं को प्रयोगशाला में भेजना होगा और पसीने की बूंदों से अÊभष्ोक करना होगा। वस्तुत: पानी आत्मप्रक्षालन करने वाला प्रबोध गुरु है। उसकी अनेक भाषाएं हैं -
""नमी उसकी गोदी है
नमी का दुपट्टा ओढ़ने पर
धूप का दिल थोड़ा नरम हो जाता है।'' (पृष्ठ - 39)।
Êजस घड़े में पानी भरा जाता है, उसे नमी का दान नीर से ही मिलता है। कवि ने साहित्य और दशÇन की सारी संभावनाएÄ पानी में साकार होती देखी हैं। पानी को जानना ही स्वयं को जानना है (पृष्ठ - 45), लेकिन मनुष्य इस जानने के क्रम में ही बादलों के थनों से धार बन बरसते क्षीर में विष घोल रहा है। प्रगति के बहाने मनुष्य ने पानी को दुगÈध और गंदलेपन से भर दिया है तथा समस्त सृष्टि के संगीत को बेसुरा कर दिया है। नि¶चय ही -
"यह प्रदूषण शताब्दी है
यह शताब्दी है जल के दंश की।'' (पृष्ठ - 48)।
वस्तुत: यही आधुनिक मनुष्य की त्रासदी है और "जलगीत' इसी के निराकरण का काव्यात्मक अÊभयान है। कवि को लगता है कि -
"धरती मां मौत की चारपाई पर अंतिम सांसें Êगन रही है,
जमीन पर घास ही नहीं उगती तो काNाWाों पर कविता कहां से आएगी?'' (पृष्ठ - 51)।
इससे आरंभ होता है वास्तविक संकट क्योंकि -
"जलहीनता
जन्म देती है योद्धाओं को
जलहीनता
क्रूरता में प्राण फूंकती है
जलहीनता
आश्रयदाता के प्राणों को डस लेती है।'' (पृष्ठ - 53) ।
ऐसी स्थिति में पानी आग में बदल जाता है। कवि जल की राजनीति की भत्र्सना करते हैं। जल का स्वामित्व किस प्रकार युद्धों का कारण बनता है, इसे भी कवि ने समझा और समझाया है। पानी की अनंत शÊक्त को जो देश अपने कब्जे में करना चाहते हैं, वे अस्तित्व मात्र के शत्रु हैं। मानव निर्मित इस संकट का ही परिणाम है कि गंगा जलशय्या पर नीरस पड़ी हुई है। तालाब कंकाल बन गए हैं। कवि का प्र¶न है -तालाबों को किसने चुरा लिया? जल-संकट से उबरने के लिए वे एक उदार नीति का प्रस्ताव रखते हैं -
"आओ
नदियों के दिलों को मिलाए
तालाबों की शालों को ओढ़ाकर।'' (पृष्ठ -78) ।
कवि को यह मालूम है कि संस्कृति को सारी दिशाओं में प्रसारित करने वाला समुद्र विश्व-राजदूत है। लेकिन प्र¶न यह है कि आज समुद्र दु:खी क्यों है? उसकी नींद उड़ाने वाला कौन है? सीमारहित असीम जल-राÊश को सीमाएं बनाकर कौन प्रदूÊषत कर रहा है? पानी पर आधिपत्य जमाने वाली इन सौदागर ताकतों का सामना करना है तो पूरी धरती को जंगलों की हरी-भरी छतरियों से ढाÄपना होगा। वृक्ष जल के अकाल से मनुष्य को बचा सकते हैं, क्योंकि -
"कोई भी साथ नहीं देता,
अंत के तुलसी जल के अलावा
विदाई का जल शायद यही है,
नश्वर जीवन में
अनश्वर ऐश्वर्य नीर ही है
जंगलों में Êछपा पानी
आड़े दिनों में काम में आता।''
आज फिर कवि को भगीरथ की प्रतीक्षा है। यह भगीरथ जल के मंदिर बनाएगा और पानी के सौदागरों की साÊजश को नाकाम कर देगा। कवि को यह बर्दा¶त नहीं है कि पानी को पैसों में Êगना जाए, लेकिन दुनिया भर में ऐसा ही हो रहा है। समुद्रों, नदियों, झीलों, झरनों, तालाबों, कुओं और वनों के होते हुए भी हम पीने के पानी का अकाल झेल रहे हैं और मुनाफाखोर ताकतें पानी बेचकर अपनी पूंजी बढ़ा रही हैं। कवि दÊक्षण अमेरिका के छोटे से देश बोलिविया का उदाहरण देते हुए चेताते हैं कि जल को दीवारों में बांधा तो जन का तापमान बढ़ जाएगा।
अंतिम गीत में स्वयं जल बोलता है। जल को क्षोभ है, क्योंकि अमृत के बंटवारे के दिन से ही वह पक्षपात की राजनीति का Êशकार हो गया था। आज भी बुÊद्धमान मनुष्य की स्वार्थपरता जल के टुकड़े-टुकड़े कर रही है। जल बहुत दु:खी है, क्योंकि मनुष्य ने उसके साथ भीषण दुव्र्यवहार किया है। जल नदी बनकर पैर टूटने तक दौड़ा, लेकिन मनुष्यों ने उसके सभी अंगों पर आधिपत्य कर नगर बसा दिए और जंगलों की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी। जल का विनाश ही मानो मानवीय विकास का भूषण बन गया। जल आर्तनाद करता है -
"मेरा मूल्य जानो! मेरी कीमत समझो
मुझे प्रदूÊषत करते
फिर शुद्ध करते
फिर शुद्ध करते, मुझे
दुकान का सौदा मत बनाओ
पहले अपने हृदयों को
शुद्ध करो।'' (पृष्ठ - 103)।
मानव हृदय को शुद्ध करने का संदेश देने वाली यह कविता जहाÄ एक ओर उत्तर आधुनिक भूमंडलीकृत परिवेश के वास्तविक संकट को काव्य-चेतना के केंद्र में प्रतिष्ठित करती है, वही दूसरी ओर मानवीय संवेदना और खांटी लोक की रागात्मकता के स्त्रोतों को भी पुनराविष्कृत करती है। लोक संस्कार और जनांदोलन के बल पर ही "जल गीत' "जन गीत' के रूप में बदल सकता है। नि¶चय ही एन.गोपी का "जल गीत' आज की कविता की बदलती हुई चिंता का प्रतीक है। कवि का सौंदर्यबोध इस चिंता को कवित्व प्रदान करता है -
"आसमान का मन रेÊगस्तान में क्यों बदल गया ?
आसमान भी
बादल-वचन देकर
क्यों मुकुर गया?
मेघों की भी - इतनी उपेक्षा
पहाड़ों के वक्षस्थल पर झुक
Êजम्मेदारी ही भूल गए!
देखिए, उधर!
पानी कहीं
प्यास कहीं।''
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जल गीत (लंबी कविता)/तेलुगु मूल : डाì. एन. गोपी/अनुवाद : डाì. माÊणक्यांबा/प्रकाशक संस्थान, 4715/21, दयानंद मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली - 110 002/प्रथम संस्करण : 2005/मूल्य : 100/- / पृष्ठ - 104
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