अनुवाद/अनुवादक के संकट के बारे में 'समकालीन भारतीय साहित्य' के एक समीक्षा-लेख के बहाने आरम्भ की गई चर्चा में कुछ और मित्रों/विद्वानों के विचार प्राप्त हुए हैं.
चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद जी अंग्रेजी से हिन्दी में शौकिया तौर पर सार-संक्षेप जैसा ''स्वच्छंद'' अनुवाद करते रहते हैं. उन्होंने टिप्पणी की है -
जिस प्रकार लेखक को लेखन की आज़ादी होती है, उसी प्रकार उस लेखन पर समीक्षक/आलोचक को अपना मत जताने की भी आज़ादी होती है। तभी तो अदना सा लेखक महान बन जाता है और अच्छा लेखक भी दब जाता है। रही बात अनुवाद की, यह सही है कि जैसा बच्चन जी चाहते थे कि अनुवादक अपनी मातृभाषा में अनुवाद करे तो वह स्तरीय हो सकता है। लक्ष्य भाषा की आत्मा को पकडना भी अनुवादक का कर्तव्य है। अनुवादक अपनी मातृभाषा से इतर भाषा में अनुवाद कर रहा हो तो अच्छा हो कि प्रो. वेंकटेश्वर जी की राय पर चले और अपना अनुवाद किसी उस मातृभाषा के विद्वान से vetting करा लें। पर इसके लिए शायद उसे कुछ खर्च भी करना पडेगा - पर यह मानसिकता बनी हुई हो कि सब हम लें और आप काम करें तो अनुवाद के स्तर से compromise करना ही पडे़गा। क्या यह compromise उच्चित है, इस पर बहस हो सकती है।
होमनिधि शर्मा अनुभवी अनुवादक और हिंदी अधिकारी हैं ,दोटूक बात कहने के लिए जाने जाते हैं . उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया विपत्र से उपलब्ध कराई है -
पंडित जी नमस्कार,
' अनुवाद का संकट' भेजने के लिए धन्यवाद. श्री जे एल रेड्डी का शुक्रिया कि उन्होंने इन कृतियों को न केवल पढ़ा बल्िक उस पर सही और सटीक समीक्षा भी की. इस साहस के लिए वे साधुवाद के हकदार हैं क्योंकि मैं समझता हूँ समीक्षा के लिए साहस जरूरी है (स्मरण होगा कि पिछले वर्ष एक सेमिनार में आपकी सत्राध्यक्षता में एक प्रोफेसर साहब मंच से अनाप-शनाप बोले जा रहे थे और मजबूरन मुझे उन्हें बीच में रोकना पड़ा था.). वास्तव में अनुवाद के क्षेत्र में इस तरह के 'सेल्फ प्रोक्लेम्ड' विशेषज्ञ काफी समय से अपना काम चला रहे हैं. हम अधिकतर उन्हें प्रोत्साहित करने के चक्कर में चुप रह जाते हैं. यह चुप्पी एक दिन महँगी पड़ जाती है. 'गोलकोण्डा दर्पण' में काव्यानुवाद के अनेकों ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे. ''नये मामू से नकटे मामू भले' आज सम्मानित आधिकारिक विषय विशेषज्ञ हैं. और अधिक न कहते हुए कि बस सभी अनुवादकर्मी इस समीक्षा से सीख लें तो साहित्य और सृजन दोनों की श्रीवृद्धि होगी.
होमनिधि शर्मा
डॉ. बी. बालाजी ने अपने विपत्र में अनूदित पाठ की सृजनात्मकता और स्वाभाविकता की ओर ध्यान दिलाया है -
महोदय,
अनुवाद के संकट संबंधी चर्चा रोचक और लाभकारी लगी. इस सिलसिले में.....मुझे भी कुछ कहना है :
१. किसी भी भाषा के साहित्य लेखन में और उसके अनुवाद के कार्य में सृजनात्मकता की अपेक्षा की जाती है.साहित्य के अनुवादक पर बड़ी जिम्मेदारी होती है क्योंकि अनुवाद तो पुनर्लेखन होता है.अनुवाद करते समय बड़ी सतर्कता से मूल भाषा की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को लक्ष्य भाषा के पाठक के समक्ष इस तरह से रखना होता है कि पढ़ने के बाद उसे पढ़ी हुई सामग्री अपनी लगे. यदि किसी कारण वश ऐसा नहीं हो पाता है तो यह निश्चित है कि अनूदित पाठ में कुछ छूट रहा है.
२. इस में भी कोई दो राय नहीं है कि अनुवाद करना कोई आसान कम नहीं है.लेकिन चुनौती पूर्ण काम ही तो प्रशंसा का पात्र बनता है. समकालीन भारतीय साहित्य (पत्रिका ) में प्रकाशित कुछ अनूदित कहानियों को पढ़कर मुझे लगा कि कुछ छूट रहा है.
३. एक और विशेष बात मैं यहाँ उस समीक्षा की करना चाहता हूँ जिसमें प्रसिद्ध अनुवादक रेड्डी जी द्वारा अनूदित पुस्तक की चर्चा की गई है. यदि समीक्षक अनुवाद को पढ़कर यह कहे कि उसमें कुछ छूट रहा है तो वह कोई अस्वाभाविक बात नहीं कह रहा है. इस बात को समीक्षक दूसरे रेड्डी जी ने उदाहरण देकर स्पष्ट भी कर दिया है.और,उन्होंने जो सुझाव दिया है,वह स्वागत करने योग्य है. उनके सुझाव के अनुसार अनुवादक यदि अपनी अनूदित सामग्री को अपने किसी साथी या सहृदयी मूल भाषा के जानकर से चर्चा करके जहाँ आवश्यकता हो वहाँ थोड़ा बहुत फेर बदल कर भी लें तो कोई बड़ा अनर्थ नहीं होगा,बल्कि अनूदित सामग्री में निखार आजायेगा.उसमें मूल भाषा की सामग्री की तरह स्वाभाविकता आजायेगी.
४. यदि अनुवादक यह समझता हो कि मैं बड़ा विद्वान हूँ,बड़ा अनुवादक हूँ, मुझे किसी अन्य की सलाह की आवश्यकता नहीं है तो वही बात होगी कि "बड़ा भया तो क्या भया जैसे पेड़ खजूर "
- डॉ. बी. बालाजी
और हाँ जिनसे यह चर्चा आरम्भ हुई थी उन शांता सुन्दरी जी का भी विपत्र मिला है. लिखती हैं -
aadaraneey sharma ji,Mail ke liye bahut dhanyavaad. aur bhee pratikriyayen shaayad aayengee.dilli se vaapas aakar dekhoongi abhee to 4 din baad delhi jaa rahee hun...aag lagee phulvaaree ke liye puraskar grahan karne ke liye.saath hee ek aur khabar (khush) sunee hai ki Saleem ke mool upanyas ko bhee june mahine me puraskaar diya jane waala hai.26th ke baad phir aapko likhoongee.aapne is vishay ko blog me charcha ke liye rakhaa, yeh dekhkar achha laga... bahas me, ho sakta hai mai bhee kood pdoon!!!shubhkamnaon ke saath...शांता सुंदरी
इसी प्रकार प्रो.एम. वेंकटेश्वर सारी बातों पर अपनी पैनी नज़र गड़ाए हुए हैं .प्रोत्साहन देते हुए कहते हैं -
Adaraneey Rishabh dev jI,
I have seen the attachment and read the views of other readers also.It is a good effort to involve other intellectuals also who can freely ( boldly ) express their genuine views on such matters of academic interests. you have provided a platform. Congratulations.
yrs M Venkateshwar.
देखें और साथी क्या कहते हैं आगे. प्रतीक्षा है.
2 टिप्पणियां:
सब्यसाची मिश्र ने टिप्पणी भेजी है -
#1 by Sachi - 18 May, 2009 1:18 PM
मैं भी एक अनुवादक हूँ, और स्पेनी भाषा से हिंदी भाषा भाषा में अनुवाद करता हूँ. मैंने कई स्पेनी पुस्तकों का स्पेनी से हिंदी अनुवाद स्पेनी दूतावास के सहयोग से किया है.
आज तक मेरे अन्दर यह सामर्थ्य नहीं आ पाई है की मैं हिंदी रचनाओं का स्पेनी में अनुवाद कर सकूँ. अनुवाद मातृभाषा में ही सुन्दर होता है.
अनुवाद अपने आप में एक वृहत रचना प्रक्रिया है, जिसमे दो भाषाओं, समाजों और संस्कृतियों को एक सतह पर लाना होता है, ताकि अनुवाद पढने वाले को एक सीमा से बाहर जाकर अनुवाद न लगे., फिर ऊपर से ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी होता है.
अब एक नयी समस्या भी आ चुकी है, बड़े बड़े अनुवादक फ़ुट नोट देने से बचना चाहते हैं. वे उसे मूल टेक्स्ट में ही समायोजित करने पर जोड़ दे रहे हैं. ऐसे ही कोई अनुवादक सीखता है.
मेरे लिए तो हर रचना अपने आप में सीखने की एक नयी प्रक्रिया है. पाठकों का सहयोग भी मिलता है, जो आपको बहुत कुछ सिखा देता है.
बस इतना ही, बाकि आप सभी जानकार हैं, विशेष मैं क्या कहूँ..
http://www.blogger.com/profile/04099227991727297022
चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद ने लिखा है -
#2 by cmpershad - 19 May, 2009 2:21 AM
जैसा कि होमनिधि शर्मा जी ने कहा है नये[नहीं] मामू से नकटे मामू सही या अंधों में काना राजा, कोई भी पढा-लिखा व्यक्ति अनुवाद साधारणतय कर सकता है पर उसे साहित्यिक अनुवाद की श्रेणी में नहीं ही रखा जा सकता। इसीलिए मैं अपने अनुवाद को ‘स्वच्छंद’ अनुवाद कहता हूं क्योंकि मुझे अपनी सीमाओं का अहशास है। समस्या वहां आ जाती है जब नकटे मामू को सुंदर मामू कहा जाता है। एक पुरानी कहावत है- मुड़वा मूड चंदन का टीका, बाप कहे मेरा मुडवा ही नीका। अनुवाद के क्षेत्र में अब यही हो रहा है कि कोई कुछ पुस्तकों का अनुवाद कर लेता है, उस भाषा के अच्छे अनुवादकों की कमी के कारण उसे पुरसकारों से नवाज़ा जाता है [जब की अच्छे विद्वान ऐसे पुरस्कारों से वंचित रहते हैं], अच्छे दाम भी मिलते है और वह अपनेआप को महान अनुवादक समझने लगता है।
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