हिंदी कहानी की जो युवतम कलम 21 वीं शताब्दी के पहले दशक में कालपृष्ठ पर अपने हस्ताक्षर अंकित कर रही है, पाठकों और आलोचकों ने लक्ष्य किया है कि उसकी अपनी अलग पहचान है, अपना खास अंदाज है और अपनी विशिष्ट सोच भी। इस पहचान, अंदाज और सोच के वैशिष्ट्य को वैश्विकता और स्थानीयता के सामंजस्य की तलाश के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। हिंदी कहानीकारों की यह नई पीढ़ी उत्तर आधुनिक जीवन के अनुभवों और व्यापक सूचना तंत्र की जानकारियों से लैस है।
आज का कहानीकार अनुभव और अध्ययन के मामले में देशकाल का कैदी नहीं रह गया है। तकनीक ने नगरीय परिवेश में जी रहे इन रचनाकारों को देश-दुनिया के कोने-कोने से जुड़ने की सुविधा मुहैया करा दी है। इसका अर्थ यह हुआ कि यह पीढ़ी जानकारी के स्तर पर अपने से पहली पीढ़ियों से आगे है। इस पीढ़ी को यह समझ है कि भले ही सरकारें अपनी नाकामी छिपाने के लिए आर्थिक मंदी का रोना रोएँ, भारत के आम आदमी का उससे लेना-देना नहीं है क्योंकि उसकी आजीविका तो कृषि पर आधारित है। अर्थतंत्र की समझ ने इस पीढ़ी को इस निष्पत्ति पर पहुँचाया है कि ‘‘भारतीय अर्थव्यवस्था की जड़ें पंचसितारा होटलों, महानगरों और कल कारखानों से ज्यादा खेत-खलिहानों और गाँवों में निहित है। इस देश की संरचना ऐसी है कि हम हर साल किसी-न-किसी क्षेत्र में भीषण बाढ़ और दूसरे क्षेत्र में भीषण अकाल एक साथ झेल लेते हैं। हमारी अर्थव्यवस्था ऐसे झटके प्रायः झेलती रही है।’’ (जयनंदन)। अपने समय की इस समझ को इन कहानीकारों ने अलग-अलग तरह से अभिव्यक्त किया है।
उत्तर आधुनिक विमर्शों का यह प्रभाव अवश्य है कि आज का कहानीकार किसी निष्कर्ष या समाधान की ओर नहीं जाता क्योंकि वह सब विचारधाराओं के मोह से परे हो गया है। यह समय समाधान का नहीं, समस्याओं के चित्रण और विश्लेषण का है, अर्थात् विमर्श का है। गरीबी हो या बेरोजगारी, भ्रष्टाचार हो या अत्याचार, शोषण हो या बलात्कार - सब समाचार हैं, घटनाएँ हैं। लेखक इनकी परत-दर-परत सीवनों को खोलते हैं, बखिया उधेड़ते हैं। इसीलिए विवरण आज की कथा टेकनीक का केंद्रीय सूत्र है।
आज की कहानी का कैनवास बहुत विस्तृत है। उपभोक्ता संस्कृति के तमाम पहलू उसमें अभिव्यक्ति पा रहे हैं। उपभोक्ता संस्कृति ही जैसे आज के समाज की चित्तवृत्ति है जो शिक्षा-दीक्षा, रोजगार-कैरियर, रिश्ते-नाते, परिवार और परिवेश सबको नई व्याख्या दे रही है। कहानीकार इस चित्तवृत्ति के विविध पक्षों को विविध संदर्भों में रूपायित कर रहे हैं। बनता-बिगड़ता मध्यवर्ग हो, गाँव-शहर की औरतें हों, दलित और आदिवासी हों, सबकी गतिशील छवियों और मनोदशाओं को ये कहानीकार जिस रूप में व्यक्त कर रहे हैं वह पुरानी पीढ़ियों से एकदम अलग है। इस भिन्नता या विशिष्टता का आधार है उत्तरआधुनिक या तथाकथित उदारीकरण की कोख से जन्म ले रहा वह समाज जिसके बीच रहने-जीने को आज का रचनाकार अभिशप्त है। ‘‘लोग अनुभव करते हैं कि इस समय में मानवीय संबंधों की दीर्घकालिक समर्पणशीलता टूट रही है। परंपरागत संबंधों में सबसे टिकाऊ होता था - प्रेम संबंध/स्त्री-पुरुष प्रेम और उसके बाद परिवार के अन्य सदस्यों का परस्पर प्रेम । गाँव-शहर से लेकर दुनिया के बीच बिखरा मानवीय प्रेम | वसुधा को परिवार मानता प्रेम। इस समय में संबंधों को जोड़नेवाले गहरे, सदियों से चले आए, रसायन सूखते जा रहे हैं। xxx संप्रति प्रेमी-प्रेमिकाओं के बीच सौदेबाजी होती है। यौन शुचिता आड़े नहीं आती। युवा पीढ़ी की परस्पर निकटता और फिर जासूसी, अपनी-अपनी चालों की कूटनीतिक गोपनीयता, सब कुछ जायज है। xxx भूमंडलीकरण के कर्ता-धर्ता इसी तरह यंग-नेशन बनाने वाले हैं। xxx कहानियों में ऐसे ही ढलते समाज के ब्यौरे हैं, गवाहियाँ हैं। लेखक पाठकों को सूचनाओं, जानकारियों के सहारे दूर तक ले जाता है। स्थितियों के आस-पास मंडराते हुए लेखक पाठक को स्थितियों के भीतर धँसने के लिए छोड़ता है।’’ (कमला प्रसाद)। विमर्श प्रधान ये कहानियाँ पाठक की आँख में उँगली डालकर सब कुछ दिखाती हैं। सब कुछ को दृश्य के रूप में उपस्थित करना इस समय के ज्यादातर कहानीकारों का लक्ष्य प्रतीत होता है।
इन कहानीकारों में बड़ी संख्या में महिला कथाकार भी शामिल हैं। लेकिन प्रसन्नता की बात यह है कि उन्होंने अपने स्त्री विमर्श को देह से मुक्त करने में सफलता प्राप्त कर ली है। अब वे केवल स्त्री-पुरुष संबंधों के गोपन रहस्यों की जुगाली ही नहीं करतीं, अपनी मुक्ति को समाज की मुक्ति के साथ जोड़कर देखती हैं। जीवन के विविध क्षेत्र और समाज के विविध रूप नई सदी की स्त्री कलम द्वारा सटीकता के साथ अन्वेषित किए जा रहे हैं। साथ ही एक बात और इस सारे कहानी परिदृश्य के बारे में कही जा सकती है कि ज्ञानाधारित समाज की उपज होने के कारण इस पीढ़ी की अधिकतर कहानियाँ अंतःप्रेरणाजन्य प्रतीत नहीं होतीं, निर्माण और आविष्कार जैसी लगती हैं।
इन निर्मितियों और आविष्कारों में भाषा और शिल्प की केंद्रीय भूमिका है। यदि यह कहा जाय कि आज की हिंदी कहानी की भाषा समय की माँग से नियंत्रित हो रही है, तो गलत न होगा। इन कहानियों में एक ओर तो लौकिक और देशज भाषारूप आए हैं तथा दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान की पारिभाषिकता से युक्त भाषा ने कथाभाषा में पैठ बनाई है। विवरणों की प्रामाणिकता के लिए ऐसा करना जरूरी भी है। इस सर्जना में वर्जना के लिए कोई स्थान नहीं है। एक रिपोर्टर की तरह कभी-कभी तो नृशंस और आपराधिक प्रतीत होनेवाले साक्षी भाव के साथ ये कहानियाँ अपने वक्त का ब्यौरा पेश करती हैं। भाषा में खिलंदड़ापन इन विवरणों को वक्रता प्रदान करता है। इस वक्रता की खातिर लेखक कभी प्रतीक और फैंटेसी का प्रयोग करते हैं, कभी मिथकों और लोककथाओं का सहारा लेते हैं, कभी अविश्वसनीय प्रतीत होनेवाले जादूलोक की रचना करते हैं तो कभी अतिशयोक्तियों की शरण लेते हैं। कहानी के भीतर कहानी की प्राचीन भारतीय कथाशैली भी आज के कथाकार को आकृष्ट करती है। इन सब तकनीकों का इस्तेमाल करके नाटक और फिल्म की तरह कहानियों में भी भूत, भविष्य और वर्तमान में आवाजाही की सुविधा प्राप्त की जाती है जिससे एकाधिक देशकाल एक साथ पाठक के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। इसे प्रौद्योगिकों से संपन्न औद्योगिक समाज की कथाभाषा कहा जा सकता है।
सर्वाधिक आश्वस्त करनेवाली बात यह है कि नई पीढ़ी के कहानीकार संकीर्णताओं से मुक्त है। वे ऐसा देश और समाज चाहते हैं जिसमें धर्म, भाषा, जाति, दल, लिंग और रंग जैसे भेद-भाव न हों। इसीलिए इन सबसे जुड़े हर प्रकार के पाखंड पर ये कहानीकार चोट करते हैं।
‘प्रगतिशील वसुधा’ ने अपने 79 और 80 वें अंक ‘समकालीन विशेषांक 1 और 2’ के रूप में प्रकाशित किए हैं जिनमें 21 वीं शताब्दी के इन आरंभिक वर्षों की प्रतिनिधि कहानियों को सम्मिलित किया गया है तथा इस अवधि के कथा परिदृश्य पर विस्तारपूर्वक गहरी और प्रामाणिक चर्चा की गई है। इन अंकों के अतिथि संपादक जयनंदन हैं। दोनों अंकों में कुल मिलाकर 32 कहानियाँ सम्मिलित हैं जिनमें यहाँ चर्चित विषयवस्तु और संरचना संबंधी प्रवृत्तियों को लक्षित किया जा सकता है। समकालीन कहानी परिदृश्य को जानने और समझने के लिए ‘वसुधा’ के ये दो अंक अनिवार्य सामग्री कहे जा सकते हैं।
---------------------
*प्रगतिशील वसुधा-79,80@समकालीन कहानी विशेषांक-1,2/अतिथि संपादक-जयनंदन, प्रधान संपादक - कमला प्रसाद/एम-31, निराला नगर, दुष्यंत मार्ग, भदभदा रोड, भोपाल-462 003/मूल्य: रु. 75(प्रत्येक)/पृष्ठ 368+392.
------------------------------------------------------------------