साहित्यिक रपट
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं लोकार्पण समारोह संपन्न
स्थिति और परिघटना भाषा के प्रयोजन पक्ष की नियामक हैं - प्रो. दिलीप सिंह
व्यापारिक घराने हिंदी अपनाने पर बाध्य होंगे - विनोद तिवारी
साहित्य की भाषा भी विविध रूपों में प्रयोजनवती होती है - प्रो. ऋषभदेव शर्मा
हैदराबाद, 21 अप्रैल, 2009 (प्रेस विज्ञप्ति)।
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के धारवाड केंद्र में 'प्रयोजनमूलक हिंदी के नए आयाम' विषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न हुई। इस अवसर पर संस्थान के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह की वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कृति 'हिंदी भाषा चिंतन' तथा उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय द्वारा प्रकाशित प्रो.. दिलीप सिंह और प्रो. ऋषभदेव शर्मा द्वारा संपादित ग्रंथ 'अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य' को लोकार्पित भी किया गया।
आरंभ में समारोह का उद्घाटन करते हुए 'माधुरी' के पूर्व संपादक विनोद तिवारी ने विश्वास दिलाया कि भावी विश्व की एक प्रबल भाषा के रूप में हिंदी का भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है क्योंकि तकनीकी और वैश्विक वाणिज्य के क्षेत्रों में हिंदी का निरंतर विस्तार हो रहा है। उन्होंने साहित्यिक भाषा से अधिक ध्यान प्रयोजनमूलक भाषा पर देने की माँग करते हुए कहा कि आने वाले समय में सभी व्यापारिक घरानों को हिंदी माध्यम अनिवार्य रूप से अपनाना होगा। 'अनुवाद' पत्रिका के संपादक डॉ. पूरनचंद टंडन ने विशिष्ट अतिथि के रूप में बोलते हुए अनुवाद की भूमिका पर ज़ोर दिया और कहा कि शुद्धतावाद तथा छुआछूत से बचकर ही किसी भाषा का आधुनिकीकरण और विस्तार हो पाता है।
बीज वक्तव्य में प्रो. दिलीप सिंह ने विस्तारपूर्वक अलग-अलग व्यवहार क्षेत्रों में भाषा प्रयोग की चुनौतियों की चर्चा की और कहा कि अब समय आ गया है कि प्रयोजनमूलक हिंदी के विभिन्न रूपों का विवेचन और विश्लेषण स्थितियों और परिघटनाओं के परिवर्तन के संदर्भ में किया जाए।
उद्घाटन सत्र में ही संस्थान के समकुलपति आर.एफ. नीरलकट्टी ने दूरस्थ शिक्षा निदेशालय द्वारा प्रकाशित और प्रो. दिलीप सिंह एवं प्रो. ऋषभदेव शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक 'अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य' को लोकार्पित किया। पुस्तक का परिचय देते हुए डॉ.. ऋषभदेव शर्मा ने कहा कि इसमें अनुवाद चिंतन के सभी अद्यतन और व्यावहारिक पक्षों का समावेश है।
'प्रयोजनमूलक हिंदी: ऐतिहासिक एवं सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य ' विषयक प्रथम विचार सत्र की अध्यक्षता केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पूर्व उपनिदेशक डॉ. दिनेश चंद्र दीक्षित ने की। डॉ.. सविता घुडकेवार, प्रो. तेजस्वी कट्टीमनी, डॉ.. संजय मादार, डॉ.. साजी आर कुरुप तथा डॉ. रामप्रवेश राय ने अपने शोध पत्रों में प्रयोजनमूलकता की अवधारणा का विवेचन किया तथा पिछले चार दशकों में विभिन्न प्रयोजन क्षेत्रों के विस्तार का भी जायजा लिया।
दूसरे विचार सत्र में 'प्रयोजनमूलक हिंदी और प्रिंट मीडिया' के संबंधों का विश्लेषण किया गया। इस सत्र की अध्यक्षता अंग्रेज़ी और भारतीय भाषा विश्वविद्यालय के रूसी विभाग के आचार्य डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी ने की। डॉ. सुनीता मंजनबैल ने साहित्यिक पत्रिकाओं तथा डॉ.. जी. नीरजा ने दैनिक समाचार पत्रों में फल-फूल रही प्रयोजनपरक हिंदी का सोदाहरण विवेचन प्रस्तुत किया, तो विनोद तिवारी ने फिल्म पत्रकारिता, डॉ.. पी. श्रीनिवास राव ने खेल पत्रकारिता और डॉ. बिष्णु राय ने अन्य संदर्भों की पत्रकारिता के हिंदी भाषा पर पड़नेवाले प्रभावों की चर्चा की।
'सृजनात्मक साहित्य में प्रयोजनमूलक हिंदी के संदर्भ' पर केंद्रित तीसरे विचार सत्र की अध्यक्षता गोवा विश्वविद्यालय के आचार्य डॉ. बालकृष्ण शर्मा 'रोहिताश्व' ने की। इस सत्र में प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने आलोचना, डॉ.. पी. राधिका ने कथा-साहित्य, डॉ.. बलविंदर कौर ने कविता, प्रो. अमर ज्योति ने संस्मरण तथा डॉ.. सूर्यकांत त्रिपाठी ने आत्मकथात्मक उपन्यासों की भाषा के प्रयोजनमूलक वैविध्यों की विस्तार से पड़ताल की। इससे प्रयोजनमूलक दृष्टि से सृजनात्मक साहित्य का विश्लेषण करने के विविध प्रारूप उभरकर सामने आए और यह स्पष्ट हुआ कि साहित्य भी भाषा का एक विशिष्ट प्रयोजन ही है जिसमें अलग-अलग विधाओं के प्रयोजनों के अनुरूप विशिष्ट भाषा का चयन किया जाता है तथा संदर्भ के अनुसार साहित्येतर विषयों की प्रयोजनपरक भाषा के समावेश द्वारा प्रामाणिकता की सिद्धि की जाती है।
चौथे विचार सत्र में 'प्रयोजनमूलक हिंदी के आनुषंगिक संदर्भ' की पड़ताल की गई जिसकी अध्यक्षता महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रो. आत्मप्रकाश श्रीवास्तव ने की। इस सत्र में डॉ. जयलक्ष्मी पाटिल, डॉ.. एन.लक्ष्मी, डॉ.. रेशमा नदाफ और प्रो. एस.वी.एस.एस..नारायण राजू ने कंप्यूटेशनल भाषाविज्ञान, राजभाषा, वैज्ञानिक लेखन और मीडिया लेखन के संदर्भ में उभरते हुए नए-नए भाषारूपों की विशेषताओँ पर प्रकाश डाला। विभिन्न सत्रों का संचालन प्रो. अमरज्योति, प्रो. ऋषभदेव शर्मा, प्रो. नारायण राजू, डॉ. सुनीता मंजन बैल और डॉ.. जयलक्ष्मी पाटिल ने किया।
दूसरे दिन सायंकाल आयोजित समापन समारोह की अध्यक्षता डॉ.. दिनेश चंद्र दीक्षित ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. जे.पी. डिमरी, प्रो. रोहिताश्व और राकेश कुमार मंचासीन हुए। डॉ.. रामप्रवेश राय और विनोद तिवारी ने संगोष्ठी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि इससे
व्यावहारिक भाषा संबंधी अनेक भ्रांतियों का निराकरण हुआ है तथा विभिन्न व्यवहार क्षेत्रों में हिंदी के प्रगामी प्रयोग की दिशाएँ स्पष्ट हुई हैं। उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, हैदराबाद केंद्र के आचार्य प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने संगोष्ठी का प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस अवसर पर समकुलपति आर.एफ.नीरलकट्टी ने प्रो. दिलीप सिंह की सद्यःप्रकाशित कृति 'हिंदी भाषा चिंतन' का लोकार्पण किया तथा प्रो. जे.पी. डिमरी और प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने लोकार्पित कृति के संबंध में समीक्षात्मक विचार प्रकट किए।
हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर के निधन पर श्रद्धांजलि के साथ दो दिन का यह आयोजन समाप्त हुआ।0
5 टिप्पणियां:
व्यापारिक घराने तो हिन्दी पहले से ही अपना ही रहे हैं। विविध उत्पादों पर ग्राहकों को लुभानेवाली बातें अक्सर हिन्दी में लिखी मिलती है। लेकिन यह एकतरफा व्यवहार है। हिन्दी का इस्तेमाल हिन्दीभाषी उपभोक्ताओं से लेने तक है। जहां देने की बात आती है, मसलन रोजगार, विधिक ज्ञान आदि, वहां तो बस आज भी ब्रितानी राज की तरह अंग्रेजी का ही साम्राज्य है।
ये तो होना ही है
"आरंभ में समारोह का उद्घाटन करते हुए 'माधुरी' के पूर्व संपादक विनोद
तिवारी ने विश्वास दिलाया कि भावी विश्व की एक प्रबल भाषा के रूप में
हिंदी का भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है क्योंकि तकनीकी और वैश्विक वाणिज्य के
क्षेत्रों में हिंदी का निरंतर विस्तार हो रहा है। उन्होंने साहित्यिक
भाषा से अधिक ध्यान प्रयोजनमूलक भाषा पर देने की माँग करते हुए कहा कि
आने वाले समय में सभी व्यापारिक घरानों को हिंदी माध्यम अनिवार्य रूप से
अपनाना होगा।"
बहुत ही उत्साहवर्षक, सकारात्मक व शुभ विचार है। इस पर अधिक विस्तार से विवेचन किया गया होता तो अधिक उपयोगी होता।
ऐसी संगोष्ठियों से भाषा का आधुनिकीकरण होगा और समय के साथ ऐसे शब्द जुडते जाएंगे जो तकनीकी रूप से हिंदी में उपलब्ध नहीं हैं। भाषा का सरलीकरण करने में भी ऐसा चिंतन मील का पत्थर साबित हो सकता है।
प्रो. एम.वेंकटेश्वर जी की यह टिप्पणी ई-मेल से सधन्यवाद प्राप्त :
Adaraneey Dr R Sharma ji,
I wish to congratulate you and prof Dilip Singh for the Seminar organized at Dharwar on Various aspects/dimensions of Functional Hindi and its applications. As I have seen in yr blog, which you have created with lot of efforts and sincerity, I could get an over all view of the proceedings of the entire seminar. I could read the gist of the Key Note Address delivered by Hon Prof Dilip Singh and the deliberations of other esteemed participants, who came from all over the country. There were important people like, Vinod Tiwari, DC Dixit, yourself, Prof Delip Singh himself, who must have spoken effectively on the subjects
related to the main theme of Seminar. I am much benefited by yr blog writing. You have been always projecting the activities of Sabha in yr blog which is very commendable.This blog makes me realize how much I missed, for not attending the seminar. I regret for this.
I would like to express my surprise to realize that I was not informed about the visit of Maria Nejeshya ( Huhngary )at DBHPS Hyderabad ( 27th March ). As a friend I want to know how could this be possible, when you are present in the function and the report which you have presented in yr blog is so elaborate and effective. i wish I could participate in that gathering. I have been to Hungary ( Budapest )and had interacted with few Hungarin writers in Hungary in 1998.
I request you kindly to inform me in future whenever you have such funtions. As you know, I have always been a part of such occasion.
I would like to register my admiration for you blog presentation and yr relentless involvement in academics. You have been very effective every where. Congratulations.
With good wishes, yrs sincerely,
M Venkateshwar.
On Tue, 21 Apr 2009 20:53:28 +0530 wrote
>http://rishabhuvach.blogspot.com/
-M Venkateshwar
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