भाषा रूपों का अध्ययन करने की आधुनिक प्रणालियों में एक यह मान कर चलती है कि प्रयोजनवती होकर ही कोई भाषा व्यापक प्रचार-प्रसार को प्राप्त होती है. ये प्रयोजन मोटे तौर पर दो प्रकार के हो सकते हैं.एक हैं सामान्य प्रयोजन ,जैसे दैनंदिन व्यवहार में वार्तालाप द्वारा विचारों का आदान -प्रदान . इन प्रयोजनों की सिद्धि के लिए प्रयुक्त भाषा को 'सामान्य प्रयोजनों की भाषा' कहा गया है. दूसरे प्रकार का सम्बन्ध विशिष्ट व्यवहार क्षेत्र में प्रयुक्त भाषा रूपों से है, जैसे अलग अलग विज्ञान शाखाओं में अलग अलग भाषा रूप का प्रयोग होता है अथवा कार्यालय या प्रशासन के कामकाज को अंजाम देने के लिए खास तरह के भाषाप्रयोग में दक्ष होना ज़रूरी होता है. अलग अलग प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले इन विशिष्ट भाषा रूपों को 'विशिष्ट प्रयोजनों की भाषा ' या प्रयोजनमूलक भाषा कहा जा सकता है.किसी प्रयोजनक्षेत्र की भाषा के वैशिष्ट्य के आधार पर उसकी प्रयुक्ति [रजिस्टर] का निर्धारण होता है. प्रयुक्ति विशेष के अभ्यास द्वारा उस क्षेत्रविशेष या ज्ञानशाखाविशेष के भाषिक व्यवहार में दक्ष हुआ जा सकता है. यहाँ यह भी साफ़ करना उचित होगा कि सामान्य प्रयोजन की भाषा को निष्प्रयोजन या प्रयोजनातीत नहीं कहा जा सकता ,बल्कि वह भी प्रयोजनाधारित एक प्रकार ही है. इसी तरह ललित या साहित्यिक भाषा को भी अलगाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह कहना अधिक सटीक होगा कि साहित्य भी एक विशिष्ट प्रयोजन है तथा उसकी अपनी अनेक प्रयुक्तियाँ और उपप्रयुक्तियाँ हैं.
यहाँ तनिक रुक कर भारत के स्वातंत्र्योत्तर भाषिक परिवेश पर विचार करें तो पाते हैं कि यद्यपि भारत में राजभाषा के रूप में जनभाषाओं के प्रयोग का लम्बा इतिहास रहा है ,तथापि ब्रिटिश काल में उन्हें अपदस्थ करके अंग्रेजी को कार्यालय, प्रशासन और शिक्षा की भाषा बना दिया गया . ऐसा करना सर्वथा अवैज्ञानिक था परन्तु भारतीयों को गुलाम बनाए रखने के लिए ऐसा किया गया था. अतः स्वतंत्रताप्राप्ति के साथ ही यह आशा जगी कि अब भारत की राजभाषा हिंदी होगी.संविधान ने हिंदी को भारत संघ की राजभाषा घोषित कर भी दिया. लेकिन जहाँ जहाँ जिन जिन प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता था वहां वहां उन उन प्रयोजनों के लिए देश भर में हिंदी के प्रयोग को संभव बनाने की चुनौती आज भी हमारे सामने विद्यमान है. कार्यालयों में, व्यवसायों में, शिक्षालयों में और न्यायालयों में जब तक हिंदी प्रतिष्ठित नहीं हो जाती तब तक यही समझना चाहिए कि यह देश भाषिक तौर पर आजाद नहीं हुआ है. इस भाषिक आजादी को हासिल करने के लिए विविध प्रयोजनों की हिंदी के व्यापक अध्ययन और प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है.
संभावनाओं से परिपूर्ण व्यवहार क्षेत्र के रूप में राजभाषाक्षेत्र अर्थात कार्यालय और प्रशासन का अपना महत्व है ,लेकिन लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ के रूप में पत्रकारिता ने हिंदी की विविध प्रयुक्तियों को लोकप्रिय बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई है. आज यदि खेल के मैदान से लेकर राजनीति के मैदान तक और व्यापर-वाणिज्य से लेकर कम्प्युटर के भूमंडलीय स्वरूप तक को सहेजने में हिंदी के विविध प्रयोजनमूलक रूप सक्षम दिखाई दे रहे हैं तो इसका श्रेय बड़ी सीमा तक हिन्दी पत्रकारिता को जाता है क्योंकि उसने राजकाज, शिक्षा,न्यायव्यवस्था और अन्य अनेक क्षेत्रों में राजभाषा हिंदी की घोर उपेक्षा के बावजूद जनभाषा के रूप में उसकी व्यापक जनसंचार की शक्ति को पहचाना तथा नित-नूतन प्रसार पाते ज्ञानाधारित समाज की स्थापना में हिंदी को समृद्ध करते हुए स्वयं समृद्धि प्राप्त की.
वस्तुतः हिंदी के प्रयोजनमूलक रूपों के सन्दर्भ में पत्रकारिता की हिंदी के वैशिष्ट्य को समझना समसामयिक संचारयुग मेंअत्यंत प्रासंगिक विषय है. इसीलिए नीलम कपूर और सुनीता भाटिया ने अपनी पुस्तक ''प्रयोजनमूलक हिंदी और पत्रकारिता''[२००७] में इस विषय का सांगोपांग विवेचन किया है जो भाषा और पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं वरन सामान्य अध्येता के लिए भी रोचक और उपयोगी है.
>ऋषभ देव शर्मा*प्रयोजनमूलक हिंदी और पत्रकारिता ,
नीलम कपूर एवं सुनीता भाटिया ,
कान्ती पब्लिकेशन्स ,ए - ५०७/१२, साउथ गांवडी एक्सटेंशन , दिल्ली - ११००५३,
२००७, ४९५ रुपए ,सजिल्द. ३५० पृष्ठ .
--Posted By कविता वाचक्नवी to "हिन्दी भारत" at 4/04/2009 06:42:00 PM
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