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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

विश्व स्तर पर शक्ति की भाषा बनती हिंदी

 




विश्व स्तर पर शक्ति की भाषा बनती हिंदी

  • ऋषभदेव शर्मा 


नवंबर 2022 में दुनिया की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं वाले 20 देशों के समूह जी-20 के बाली (इंडोनेशिया) में आयोजित शिखर सम्मेलन में वैश्विक राजनीति, अर्थनीति और कूटनीति की तमाम चर्चाओं से इतर जिस एक बात को खास तौर से हिंदी भाषा की वैश्विक स्वीकृति के उदाहरण के रूप देखा जा सकता है, वह रही अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता जेड तरार की सक्रिय उपस्थिति। जेड तरार हिंदी में उच्च कोटि की प्रवीणता रखते हैं। उन्होंने तमाम चैनलों को हिंदी में  साक्षात्कार दिया। अनुवादक की भूमिका तो निभाई ही। उनकी उपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि हिंदी अब विश्व स्तर पर 'शक्ति की भाषा' बन रही है। जैसे जैसे भारत विश्व की अग्रणी आर्थिक, व्यावसायिक और सामरिक ताकत बनता जा रहा है, वैसे-वैसे हिंदी को भी ताकत मिल रही है। भारत का सशक्त होना भारत की भाषा का भी तो सशक्त होना है न! हम सशक्त होंगे, तो दुनिया हमारी भाषा खुद ब खुद सीखेगी और बोलेगी। ऐसा होगा, तभी कहा जा सकेगा कि भारत ने 'भाषिक आज़ादी' हासिल कर ली है। तब भारत 'अंग्रेज़ी भाषा का उपनिवेश' नहीं रहेगा! 


समय समय पर भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा होने की हिंदी की योग्यता और संवैधानिकता को लेकर उठने वाले राजनैतिक विवादों और मतभेदों के बावजूद, समसामयिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के महत्व को रेखांकित करने की दृष्टि से पिछले दस वर्ष के भारतीय राजनीति और वैदेशिक कूटनीति के परिदृश्य का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस अवधि में कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के क्षेत्र में हिंदी ने अपनी साफ-साफ आहट दर्ज कराई है। प्रधानमंत्री द्वारा कूटनैतिक चर्चाओं और औपचारिक संबोधनों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी के व्यवहार से विश्व बिरादरी को यह संकेत मिला है कि भारत की भी अपनी राजभाषा (राष्ट्रभाषा) है और यदि वह इसके प्रयोग का आग्रही हो तो विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की इस भाषा को दुनिया को इस देश के साथ संबंधों की खातिर व्यवहार में स्वीकार करना होगा। 


भाषा यदि राष्ट्रीय गौरव का एक प्रतीक है तो यह कहना होगा कि भले ही 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में संविधान ने अधिकृत कर दिया हो, व्यवहारतः विश्व बिरादरी के बीच भारत अब तक अंग्रेज़ी ही बरतता रहा है और धिक्कारा जाता रहा है: ऐसे में यदि भारत के प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री/ अधिकारी राष्ट्रीय/ अंतरराष्ट्रीय औपचारिक अवसरों पर अपने वक्तव्य हिंदी में देने का नैतिक साहस दिखाते रहें तो इसे कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के स्तर पर हिंदी के महत्व को स्थापित करने की पहल के रूप में देखना उचित होगा। इससे हिंदी को विश्वस्तरीय संबंधों की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने के अवसर मिलेंगे तथा विदेशों में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने को बढ़ावा मिलेगा। मानवीय और मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में भी हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और जानबूझ कर इस भाषा की उपेक्षा करने वाले दूतावासों में इसे सम्मान मिलने की शुरूआत होगी। 


इस प्रकार के संकेत मिलने लगे है कि सभी देशों ने हिंदी से जुड़ने की दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है। उदाहरणार्थ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा के साथ विश्व के कई सारे बड़े देशों के विश्वविद्यालयों से हिंदी पढ़ाने की जिम्मेदारी के समझौते हुए हैं। केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा तो इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा ही रहा है। इसके अंतर्गत एक अनिवार्य पाठ्यक्रम ‘भारत परिचय’ का भी है जिसमें विशेष बल 1857 के बाद के अर्थात आधुनिक भारत पर है। अभिप्राय यह है कि आने वाले समय में विश्व स्तर पर आर्थिक-राजनैतिक परिवर्तनों के साथ हिंदी के जुड़ाव के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।


कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर प्रगति की संस्कृति से जोड़कर नए नए प्रयोजनों (फंक्शंस) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे। इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है। बीज रूप में कहना हो तो हिंदी के महत्व का आज के परिप्रेक्ष्य में पहला समसामयिक प्रयोजन क्षेत्र कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों (डिप्लोमेसी) की भाषा का है, तो दूसरा पहलू शासन (गवर्नेंस) की भाषा का। तीसरा क्षेत्र प्रतियोगिता परीक्षाओं और रोजगार दिलाने वाली भाषा का; और चौथा चुनाव तथा राजनीति की भाषा का है। हिंदी की शक्ति के पाँचवें आयाम के रूप में मीडिया की भाषा को देखा जा सकता है, जिसके अंतर्गत प्रिंट और इलेक्ट्रानिक जनसंचार माध्यमों के अलावा फिल्म और नए (सोशल) मीडिया पर हिंदी के प्रभावी प्रसार का आकलन करना होगा। सूचना उद्योग हो या मनोरंजन उद्योग, बहुभाषी होना और हिंदी का व्यवहार करना, दोनों क्षेत्रों में सफलता की गारंटी सरीखा है। इससे रंग-बिरंगी हिंदी के जो रूप सामने आ रहे हैं, वे हिंदी की लचीली और सर्वग्राही प्रवृत्ति के प्रमाण भी हैं और परिणाम भी। भाषा मिश्रण पर नाक भौं सिकोड़ने वालों को हिंदी की केंद्रापसारी प्रवृत्ति और अक्षेत्रीय व समावेशी स्वभाव को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा वे इसके बहुप्रयोजनीय स्वरूप के विकास में रोडे ही अटकाते रहेंगे। इसे भाषा के खिचड़ी हो जाने की अपेक्षा प्रयोजन-विशेष के लिए लचीलेपन के रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित होगा। अर्थात, हिंदी की पहले से विद्यमान और स्वीकृत सामाजिक शैलियाँ (हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी) अब भी अपनी जगह हैं और जीवंत प्रयोग में हैं तथा आगे भी रहेंगी, लेकिन हिंदी के जो नए रूप आज मीडिया के माध्यम से उभर रहे हैं, उन्हें भी नई शैली के रूप में स्वीकारना ज़रूरी है। उन्हें 'हिंगलिश' कहकर हिकारत की नज़र से देखना हिंदी को सीमित करना होगा। दरअसल, हिंदी की इन विविध शैलियों के प्रयोग के संदर्भ अलग-अलग हैं,  जो भाषा के बहुआयामी विकास के ही प्रतीक हैं। 


इसी से हिंदी की शक्ति का छठा आयाम भी जुड़ा हुआ है जो विज्ञापन की भाषा से संबंधित है। कहना न होगा कि उत्तरआधुनिक भूमंडलीकृत विश्व वस्तुतः भूमंडीकृत विश्व है। इस भूमंडी या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के जितने बड़े हिस्से को कोई भाषा संबोधित कर सके वह उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है। हिंदी विज्ञापन भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और अरब देशों तक के उपभोक्ता को और साथ ही दुनिया भर में बसे भारतवंशियों को संबोधित और आकर्षित करने में सक्षम हैं; क्योंकि दुनिया भर में हिंदी समझने वालों की तादाद सर्वाधिक नहीं तो सर्वाधिक के आसपास अवश्य है। अतः ग्लोबल मीडिया और बाज़ार दोनों की भाषा की दृष्टि से अब कोई हिंदी को नकार नहीं सकता। 


यहीं हिंदी भाषा की शक्ति का सातवाँ बिंदु सामने आता है जिसका संबंध ज्ञान, विज्ञान और विमर्श की भाषा से है। भाषिक प्रयुक्तियों, तकनीकी शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी का भंडार अकूत है, लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को स्वीकार न करने के कारण सभी भारतीय भाषाओं सहित हिंदी के प्रयोक्ता संदेह, संशय और हीन भावना के शिकार हैं। अब नई 'राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020' के तहत भारतीय भाषाओं को उच्च और तकनीकी शिक्षा तक अपनाने की जो शुरूआत हुई है, उसके मार्ग में बाधाएँ ज़रूर हैं, लेकिन क्रमशः स्वीकार्यता बढ़ना भी तय है।  समाज को अंग्रेजीपरस्त औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आकर स्वतंत्र लोकशाही जैसा आचरण सीखना होगा और बुद्धिजीवियों को ‘निजभाषा’ के व्यवहार से जुड़े आत्मगौरव को अर्जित करना होगा। आज ज्ञान-विज्ञान-विमर्श के हर पक्ष को व्यक्त करने में हिंदी समर्थ हो चुकी है। पर जाने हमारे बुद्धिजीवी अपनी भाषा के व्यवहार में कब समर्थ होंगे? कहना न होगा कि भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करने के प्रावधान इस दृष्टि से अत्यंत महतवपूर्ण हैं। 


हिंदी की शक्ति का आठवाँ आयाम भारत की संपर्कभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के 'थ्री-डाइमेंशनल' प्रकार्य से आगे बढ़कर 'फोर्थ डाइमेंशन' के रूप में विश्वभाषा बनकर उभरने से संबंधित है। इसका एक पक्ष तो राजनैतिक और कूटनैतिक है – संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में। विश्व हिंदी सम्मेलनों के बार बार ज़ोर देने का असर यह हुआ है कि सरकार इस ओर सचेत हुई है। इसी का परिणाम है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हिंदी भाषा को अपनी भाषाओं में शामिल कर लिया है। संयुक्त राष्ट्र के 1946 में पारित प्रस्ताव 13 (1) के तहत कहा गया है कि संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्य को तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जब तक कि दुनिया के लोगों को इसकी जानकारी नहीं हो जाती। इसी उद्देश्य के तहत अब हिंदी भाषा को भी संयुक्त राष्ट्र की भाषाओं में तो शामिल कर लिया  गया है, परंतु उसका संयुक्त राष्ट्र की 'आधिकारिक भाषा' बनना अभी बाकी है। लेकिन विश्वभाषा का दूसरा पक्ष शुद्ध रूप से व्यावहारिक है। व्यवहारतः आने वाले समय में वे भाषाएँ ही विश्वभाषा के रूप में टिकेंगी जिनमें बाज़ार की भाषा और कंप्यूटर की भाषा के रूप में टिके रहने की शक्ति होगी। बाजार की चर्चा पहले ही की जा चुकी है, रही कंप्यूटर की बात, तो आज यह जगजाहिर हो चुका है कि हिंदी कंप्यूटर  के लिए और कंप्यूटर  हिंदी के लिए नैसर्गिक मित्रों जैसे सहज हो गए हैं। हिंदी के कंप्यूटर-दोस्त होने के कारण तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियाँ अब ऐसे उपकरण और कार्यक्रम लाने को विवश हैं जो हिंदी-दोस्त हों। दरअसल हिंदी ने साबित कर दिया है कि वह ‘दोस्त भाषा’ है – मीडिया की दोस्त, बाजार की दोस्त, कंप्यूटर की दोस्त। 


इस प्रकार एक सशक्त विश्वभाषा के रूप में भी अपने प्रकार्य को निभाने में हिंदी निरंतर अग्रसर है। इतना ही नहीं, वह कॉर्पोरेट जगत के दरवाज़े पर भी आ खड़ी हुई है तथा अंदर प्रवेश करने के लिए नया 'सोशियो-टेक्नोलॉजिकल' अवतार ले चुकी है। यही नहीं, अनुवाद-उद्योग की भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में अत्यंत संभावनाशील और समर्थ भाषा के तौर पर अपने महत्व के नौवें आयाम को छू रही है। 


इसके अलावा अपने जन्म से ही साहित्य और संस्कृति की भाषा के तौर पर स्वयंसिद्ध सामर्थ्य आज भी हिंदी की प्रामाणिकता की दसवीं दिशा है, जिसके द्वारा वह विश्व मानवता के भारतीय आदर्श को परिपुष्ट करती है। इसी से जुड़ा है हिंदी भाषा की शक्ति का ग्यारहवाँ आयाम, जो राष्ट्रीय अस्मिता और निजभाषा के गौरव से संबंधित है। कहना न होगा कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है, वह भारतीय अस्मिता का पर्याय है – हम चाहे कितनी ही मातृबोलियों और मातृभाषाओं का व्यवहार करते हों, हिंदी उन सबमें निहित हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनकर उभरती है। 


निस्संदेह, हिंदी के महत्व के और भी अनेक आयाम हैं, लेकिन वे सब इस विराट आयाम में समा सकते हैं। वस्तुतः ‘निजभाषा उन्नति’ से जुड़े राष्ट्रीय गौरव के बोध के बिना हृदय की वह पीड़ा मिट ही नहीं सकती जिसके दंश का अनुभव करके कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पराधीन देश को अहसास कराया था कि ‘बिन निजभाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल!’ हिंदी भाषा की इस शक्ति का बारहवाँ आयाम इसकी विश्व के अनेक देशों में प्रवासी भारतवंशियों के माध्यम से सजीव उपस्थिति से निर्मित होता है, जिसके अनेक उप-आयाम हैं। उनकी चर्चा फिर कभी। अभी इतना ही कि हिंदी हर लिहाज से वैश्विक स्तर पर शक्ति की भाषा के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है। 000


  • प्रो. ऋषभदेव शर्मा, 


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