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रविवार, 26 फ़रवरी 2023

(पुस्तक) कोई नारी मन से पूछे


भूमिका

सिंधी और हिंदी दोनों भाषाओं में एक जैसी सफल साहित्य सर्जना  के लिए समग्र हिंदी जगत में समादृत प्रवासी साहित्यकार देवी नागरानी (ज. 1941, कराची) को कविता, कथा, निबंध और अनुवाद जैसे विविध क्षेत्रों में प्रभूत लेखन के लिए खासी पहचान मिली है। प्रस्तुत कृति "कोई नारी मन से पूछे"  (2022 : India Netbooks) में उन्होंने विभिन्न  विचारोत्तेजक आलेखों के माध्यम से स्त्री-मन से जुड़े विविध पक्षों का विमर्शात्मक  खुलासा किया है।

दरअसल स्त्री विमर्श की एक बड़ी समस्या यह  है कि बहुत बार वह नारेबाजी में उलझ कर स्त्री-मन से दूर हो जाता है।  देवी नागरानी ने इसीलिए अपने समस्त विमर्श के केंद्र में स्त्री के मन को रखा है। यह मन जो बार-बार पूछता है कि मैं कौन हूँ और क्यों हूँ! यह मन जो बार बार महसूसता है पुरुष प्रधान व्यवस्था के भीतर प्राप्त संत्रास को और भोगता है निर्वासन को! यह मन जो सुंदर सुगठित तन के भीतर बुझा बुझा सा किसी कोने में पड़ा रहता है!  दूसरों की जली कटी सुनता है, घुट घुट कर मर मर कर जीवनशैया पर अपने अस्तित्व की चिता जलते हुए देखने को विवश है! इस प्रश्नाकुल नारी मन की ही अभिव्यक्तियाँ हैं प्रस्तुत संकलन के सारे आलेख। ये आलेख कहीं विचारात्मक लगते हैं, कहीं भाव प्रवणता जगाते हैं, कहीं इनमें संस्मरणात्मकता  आ जाती है तो कहीं ये विवेचन और विश्लेषण का सहारा लेते हैं। इन सब प्रविधियों का उपयोग करके देवी नागरानी अपनी देखी भाली दुनिया की प्रामाणिक स्त्री का विश्वसनीय वृत्त रचने का सफल प्रयास करती हैं।

देवी नागरानी ने जब आँख खोली तो भारत-पाक विभाजन के अनचाहे किंतु कारुणिक दृश्य देखे। विभाजन की विभीषिका के शिकार सिंधी शरणार्थी के रूप में देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाना,  उखड़ी हुई जड़ों को नई जमीन में रोपना और पोसना कितना पीड़ादायक अनुभव रहा होगा, इसे वही जानता है जिसने वह पीड़ा भोगी है और देवी नागरानी वही भोक्ता हैं। उनके लेखन में शरणार्थी की पीड़ा सहानुभूति नहीं स्वानुभूति से आई है।  आज भी वे इस प्रश्न का उत्तर खोजती हैं कि आखिर उनके जैसे परिवारों को हिंसा, अनाचार और अत्याचार किस गुनाह के कारण भोगने पड़े। गुनाह राजनीति करती है और सजा आम जनता को भोगनी पड़ती है। यह सत्य उन्होंने अपने अस्तित्व पर झेल कर जाना है। इसीलिए उनके मन का वह विभाजन जनित दर्द उनके लेखन में गाहे-बगाहे छलकता रहता है। आज भी उनका मन इस प्रश्न के उत्तर के लिए तड़पता और कलपता है कि आखिर मेरा असली देश कौन सा है! विस्थापन और उससे जुड़ी पीड़ा और नई पहचान की तलाश की जद्दोजहद को उनके लेखन में मार्मिक अभिव्यक्ति मिली है।

लेखिका ने विभाजन के बाद सिंधी लेखिकाओं के साहित्य में संघर्ष को विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से भली प्रकार उकेरा है। खास बात यह भी उभर कर आती है कि अस्तित्व और पहचान के इस संघर्ष में स्त्री रचनाकारों का आपसी नारी-बहनापा बहुत कारगर भूमिका निभाता है। इसी के सहारे इन लेखिकाओं ने कलम के बल पर सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने और समाज को बदल डालने का बीड़ा उठाया तथा मर्द की सत्ता और पाखंडी वृत्ति को चुनौती देते हुए अपने होने को महसूस कराया। इसी से प्रेरित होकर देवी नागरानी समस्त नारी विमर्श के संबंध में इस प्रश्न को केंद्रीय  बनाती हैं कि क्या स्त्री को हकीकी जीवन में वह मान-सम्मान प्राप्त है जिसकी वह हकदार है!  जब तक एक भी स्त्री अपने इस  हक से महरूम है, तब तक स्त्री-मुक्ति के सारे अभियान अधूरे हैं। इसीलिए उनका स्त्री-मन यह महसूस करता है कि औरत का वजूद हर पल सलीब पर चढ़ता है और नया जन्म प्राप्त करता है। इसमें संदेह नहीं कि स्त्री का यह नया जन्म शिक्षा से ही ऊर्जस्वित हो सकता है। आज भी स्त्री बहुत बार अपने आप को जिंदगी की लड़ाई में जब-जब एकाकी पाती है, तब-तब शिक्षा ही उसे नई जमीन तोड़ने को प्रेरित करती है। लेखिका ने अनेक स्थलों पर इस बात के लिए भी अफसोस जाहिर किया है कि औरतें आमतौर पर अपनी बनाई दीवारों में बंद रह जाती हैं। फिर भी उन्हें संतोष है कि पुरानी पगडंडियों को लाँघ कर आज की स्त्री उन तमाम नए क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है, जिन्हें कभी उसके लिए निषिद्ध और केवल मर्दो के लिए आरक्षित समझा जाता था।

बेशक वे दीवारें जो औरतों को तोड़नी हैं, अलग अलग तरह की हैं और बेहद मजबूत हैं, लेकिन औरतें किस तरह इन्हें तोड़ती हैं, देवी नागरानी ने इसे अमृता प्रीतम के बहाने बहुत अच्छी तरह विवेचित किया है। पगडंडियों का पैरहन पहनने वाली सारा शगुफ्ता भी एक तरह से उन्हीं का संघर्षी अवतार है। यहीं लेखिका इस विमर्श को भी उभारती हैं कि औरत के दिल के तहलके से औरत ही सलीके से वाकिफ हो सकती है। इसी अनुभव का विस्तार भारतीय नारी के बरक्स अतिया दाऊद को रखकर किया गया है। लेखिका पाठक को यह महसूस कराने का सफल प्रयास करती हैं कि अगर गली कूचों से आती औरतों की आवाजों को अनसुना किया जाता रहा, तो ऐसा भी हो सकता है कि वे अपने हक में न्याय के लिए हाथ भी न उठा पाएँ और तब समाज में आत्महत्याओं का ऐसा दौर आ सकता है जो स्वयं समाज को मरण के द्वार पर ला खड़ा करे! लेकिन लेखिका गाहे-बगाहे यह भी ध्यान दिलाती हैं कि  महिलाओं की ललकार आज कहीं इकलौती नहीं है। यानी कोई स्त्री अकेली या अधूरी नहीं है। वह अपनी इकाई-परिपूर्णता में समग्र समाज से जुड़ी है। फर्क बस इतना है कि उसे पुरुषवादी मानसिकता अब और बर्दाश्त नहीं! इस बात को लेखिका ने अनेक भाषाओं की कवयित्रियों के साक्ष्य से बखूबी स्थापित किया है।

कितना सही कहा है देवी नागरानी ने कि नारी मन यकसाँ होता है। उसके दर्द की परिभाषा एक सी होती है। चाहे वह हिंद में हो, सिंध में हो या प्रवास में। प्रवासी होते हुए भी अपने देश की धड़कन को हर भारतीय नारी सीने में लिए होती है। दूरी के बावजूद  कोई खबर अपने भाई, बेटे, बेटी, बहन या किसी अजन्मे अणु की आती है, तो मन में एक ज़लज़ला सा उठता है! कहना ही होगा कि देवी नागरानी की यह किताब उसी ज़लज़ले का रचनात्मक परिणाम है!

अंततः यही कि अपनी इस कृति के माध्यम से देवी नागरानी यह आवाज भी बुलंद करती हैं कि समाज हो या संविधान, नारी को घर के बाहर और भीतर उसका सही सम्मान और हक मिलना ही चाहिए। अंत में भी घूम फिर कर लेखिका इसी प्रश्न पर आती हैं कि नई सदी की नारी की दुनिया में सब कुछ है- उसका घर, परिवार, नाते, रिश्ते, समाज, संसार; लेकिन वह स्वयं कहाँ है? पुरुष अपनी सर्वश्रेष्ठता और महानता से जुड़ी 'मेल डोमिनेंस' से बाहर निकले, यही आज के समाज के लिए बेहतर होगा। यही इस कृति का संदेश है।

इस वैचारिक और भावप्रवण कृति के प्रकाशन के अवसर पर लेखिका को हार्दिक शुभकामनाएँ! मुझे विश्वास है कि साहित्य जगत में इस कृति को भरपूर स्नेह और सम्मान मिलेगा!!

- ऋषभदेव_शर्मा
पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा,
हैदराबाद।
rishabhadeosharma@yahoo.com


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