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मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

[समीक्षा] बादल की चिट्ठी में 'पीड़ा से संवाद'

पीड़ा से संवाद/ (दोहा संग्रह)/
डॉ. श्याम मनोहर सिरोठिया / 2015/
 नवदीप प्रकाशन, दिल्ली-110092/
 88 पृष्ठ/ 225 रुपये. 


‘पीड़ा से संवाद’ छंदोबद्ध कविता और गीति परंपरा के सिद्ध-सुजान हस्ताक्षर डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया का नवीनतम दोहा-संग्रह है. कवि श्याम मनोहर के ये दोहे मनुष्य के अंतर्बाह्य जीवन के समस्त आयामों को अपने परिवृत्त में समेटते हैं और जगत के स्वभाव तथा व्यवहार पर मार्मिक टिप्पणियाँ करते हुए सहज सांकेतिक संदेश भी देते चलते हैं. इन दोहों के भीतर से कवि का जो व्यक्तित्व झांकता दिखाई देता है वह मूलतः एक संवेदनशील मनुष्य का व्यक्तित्व है जिसकी संवेदना विश्वव्यापिनी है. इसीलिए इन दोहों में कवि जिस पीड़ा से रूबरू और संवादरत है तथा जिस पीड़ा से ये दोहे अपने पाठक का साक्षात्कार कराते हैं, वह निजी और एकाकी पीड़ा नहीं है बल्कि ‘जन की पीर’ है. पीड़ा से संवाद तभी संभव है जब भोक्ता द्रष्टा बन जाए और निज तथा पर के भेद से परे लोक की पीड़ा का निदान लोक के मंगल के उद्देश्य से करना चाहे. युगों से जन के कवि इसीलिए पीड़ा से संवाद करते जागते आए हैं कि पीड़ा से मुक्ति का कोई मार्ग मिल सके जिसे वे अपने समय के मनुष्यों को दे सकें ताकि इस धरती पर जीवन को बेहतर और सुखकर बनाया जा सके.  डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया की काव्य साधना भी इसी महत सदुद्देश्य को समर्पित है. ‘पीड़ा से संवाद’ के दोहों के फलक की व्यापकता इसका प्रमाण है.

दोहा मूलतः हिंदी का जातीय छंद है जिसे लोक परंपरा द्वारा स्वीकृति के बाद क्लासिक परंपरा में शिखर स्थान प्राप्त है. दोहा रचना सरल प्रतीत होते हुए भी अत्यंत चुनौतीपूर्ण कर्म है. मात्राओं की गणना और तुकों का निर्वाह तो यांत्रिक क्रिया हो सकती है लेकिन एक मनोदशा, भाव, संवेदना, विचार, तर्क, संदेश को  इस छोटे से शिल्प में इस प्रकार समाहित करना कि अभिव्यक्ति में अर्थगांभीर्य, संक्षिप्तता, संपूर्णता, चमत्कार, व्यंजना और प्रेषणीयता जैसे वे गुण सन्निहित हों जो किसी उक्ति को सूक्ति बना देते हैं. मेरा मानना है कि इस रूप में दोहे की सिद्धि के लिए किसी भी शब्दकर्मी को लंबी साधना करनी पड़ती है. ‘पीड़ा से संवाद’ से गुज़रते हुए आपको लगेगा कि कवि श्याम मनोहर सीरोठिया ने वह साधना की है और तब सिरजा गया है यह बहुआयामी संवाद.

इस बहुआयामी संवाद में सबसे पहले कवि ने मन से मन की बात कराई है क्योंकि बाहरी संवादों से पहले भीतरी संवाद ज़रूरी है. मन से मन की बात आत्मसाक्षात्कार का प्रयास और स्व को सर्व से जोड़ने की काव्यात्मक प्रक्रिया है, नाभि में छिपी कस्तूरी की खोज है. यह कस्तूरी जब तक नहीं मिलती तब तक मन का हिरन बेचैन रहता है. कस्तूरी जब मिल जाती है, बेचैनी तब भी रहती है क्योंकि कस्तूरी की मुक्ति उसके होने या मिलने में नहीं, उसकी सुगंध के दिशाओं में व्यापने में है. कवि इसीलिए  प्रेम को कंजूस के धन की तरह सहेज रखने और उसकी पहरेदारी को नहीं कहता बल्कि प्रेम की पीड़ा से अनजाने आधुनिक विश्व को प्रेम बांटने का संदेश देता है. एक संवेदनशील सामाजिक प्राणी होने के नाते कवि को चारों ओर ऐसे लोगों की भीड़ देखकर बहुत पीड़ा होती है जिनके चेहरे मुखौटों से इस तरह ढंके हैं कि उनका वास्तविक चरित्र सदा पर्दे में रहता है. ऐसे लोग न तो रिश्ते-नातों की मर्यादा मानते हैं, न कथनी-करनी की एकता निभाते हैं और न ही कभी अपनी ओर मुड़कर देखते हैं. ऐसे लोगों की संबंधहीन और अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए गलाकाट स्पर्द्धा में लिप्त भीड़ कवि को विचलित करती है और वह ऐसे एक अदद साधारण आदमी को खोजने लगता है जिसकी सूरत और सीरत में कोई फाँक न हो. वह कहीं दीखता है तो कवि प्रफुल्लित हो उठता है. ऐसा ही व्यक्ति टी दोस्ती के काबिल है न! वरना वह दोस्ती भी क्या दोस्ती जिसमें दोस्तों के बीच पारदर्शिता न हो, पर्देदारी हो! समता के धरातल पर सुख-दुःख का उन्मुक्त आदान-प्रदान करने वाले समशील दोस्तों को कवी आवाज़ देता है कि आएं और सपनों को साकार करें. कवि की ऐसी उक्तियों में व्यक्तित्व निर्माण और जीवन संघर्ष में सफलता के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने की प्रेरणा निहित है. जीवन संघर्ष में सफलता के लिए निरंतर प्रयत्नशीलता का संदेश देने के साथ ही दोहाकार यह भी स्मरण कराता चलता है कि समय बड़ा अनमोल है. समय के मूल्य की पहचान इसलिए भी ज़रूरी है कि इससे प्रत्यक्ष जगत की परिवर्तनशीलता और क्षणिकता का बोध होता है. यह बोध यदि सकारात्मक को तो व्यक्ति स्वार्थ से ऊपर उठकर उपकार में संलग्न होता है. कवि ऐसे समाज का सपना देखता है जिसमें सब परस्पर उपकार के स्नेह्सूत्र में आबद्ध हैं तथा कलमकार समाज को उद्बोधित करने की जिम्मेदारी निभाता है – विदूषक बनकर मनोरंजन करता नहीं घूमता. कवि को आलोचकों और निंदकों की भी पहचान है लेकिन सृजन को वह इससे प्रभावित नहीं होने देना चाहता. अपने समय और समाज से जुडाव का जीवंत प्रमाण देते हुए कवि डॉ. सीरोठिया जल-जंगल-ज़मीन के पीड़ापूर्ण प्रश्नों से भी सार्थक संवाद करते हैं और व्यक्ति व व्यवस्था से भी ऐसा करने की मांग करते हैं. इतने व्यापक सामाजिक सरोकारों वाले कवि को जब कभी ऐकांतिकता की आवश्यकता प्रतीत होती है तो वह मन की अबूझ तरंगों पर अजानी दिशाओं की ओर भी निकल जाता है और वहां से भी दोहों के अमोल मोती खोज लाता है. इन सब तथ्यों के प्रमाणस्वरूप इस संग्रह के हर पृष्ठ से उदाहरण दिए जा सकते हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं करूंगा. बल्कि कवि डॉ. श्याम मनोहर सीरोठिया के केवल एक दोहे के माध्यम से आपको इन दोहों के आस्वादन हेतु आमंत्रित करता हूँ –
बादल की चिठियाँ पढ़ें, बूँदें आँगन बीच.
खुशियाँ आईं पाहुनी, भेंटो हृदय उलीच..

आज बस इतना ही. शेष फिर कभी.

शुभकामनाओं सहित
-    ऋषभदेव शर्मा
पूर्व प्रोफ़ेसर-अध्यक्ष, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद.
आवास : 208 – ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर,
रामंतापुर, हैदराबाद -500013.

मोबाइल : 08121435033

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