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मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

[समीक्षा] आदिवासी और दलित विमर्श : दो शोधपूर्ण कृतियाँ


धरती के असली मालिक वे नहीं हैं जो इसका दोहन और उपभोग करने को सबसे बड़ा पराक्रम मानते हुए स्वयं को अहंकारपूर्वक वीर घोषित करते हैं बल्कि वे आदिवासी हैं जो धरती को अपनी माँ मानते हैं और अपने पूरे जीवन को धरती माता के प्रसाद की तरह ग्रहण करते हैं. तथाकथित आधुनिक सभ्य समाजों और आदिवासी समुदायों के बीच धरती से संबंध मानने का यह अंतर ही दो अलग-अलग जीवन दृष्टियों को जन्म देता है. सभ्यता के उच्च शिखरों का स्पर्श करता हुआ मनुष्य प्रकृति से दूर होता जाता है और इस तरह केवल भूमंडल ही नहीं समग्र पर्यावरण तथा स्वयं मनुष्य के अस्तित्व को खतरे में डालता चला जाता है. दूसरी ओर वे समुदाय हैं जिन्हें हम जनजाति कहते हैं वे अबाध उपभोग की दौड़ लगाने वाली सभ्यता की दृष्टि से भले ही हाशिए पर रह गए हों लेकिन उन्होंने धरती सहित संपूर्ण प्रकृति के साथ अपना रागात्मक संबंध टूटने नहीं दिया है. जल, जंगल और जमीन के साथ बंधे अपने अदृश्य स्नेहसूत्र की रक्षा की खातिर वे आज भी अपनी जान पर खेल जाने को तत्पर रहते हैं. इन निसर्गजीवी सीधे सच्चे आनंदमय प्राणियों को सही अर्थों में संस्कृति के जन्मदाता माना जाना चाहिए इन्होंने ही लोक की सारी सांस्कृतिक संपदा को आज भी सहेज-संभाल कर रखा हुआ है. इनके मौखिक साहित्य में वे तमाम जीवन मूल्य संरक्षित हैं जो सही अर्थ में मनुष्य की आत्मा के उन्नयन के लिए आवश्यक होते हैं. तथाकथित सभ्य समाज इन जनजातियों और आदिवासियों को या तो रहस्य रोमांच की दृष्टि से देखने का आदी रहा है या इनके श्रम और प्रेम का शोषण करने का अभ्यस्त रहा है या फिर इन्हें अपराधी और गुलाम बनाकर इनका नाश करने पर उतारू रहा है. इसमें इतिहास और संस्कृति पर शोध करने वालों का भी कम हाथ नहीं रहा है. कभी कभी तो ऐसा लगता है कि उन्होंने ही सहज मानवों के इन समूहों की बर्बर और जंगली छवि गढ़ने में मुख्य भूमिका निभाई है और इन्हें हाशिए पर पड़ा रहने को विवश किया है. राजनीति का भी इस षड्यंत्र में बराबर का हाथ रहा है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है. आदिवासी विमर्श मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास में जबरदस्ती अनुपस्थित दर्ज किए गए आदिवासियों और जनजातीय समूहों की उपस्थिति को रेखांकित करने वाला विमर्श है भले ही इसके लिए आपको अपने अब तक के पढ़े-लिखे इतिहास को सिर के बल खड़ा करना पड़े. 

डॉ. इसपाक अली (1963) ने हिंदी में आदिवासी साहित्य(2014) शीर्षक अपने शोधपूर्ण ग्रंथ के माध्यम से एक तरफ तो यह दर्शाया है कि हिंदी के साहित्यकार हाशियाकृत आदिवासी समाजों के प्रति असंवेदनशील नहीं रहे तथा दूसरी ओर यह प्रतिपादित किया है कि मौखिक साहित्य या लोक साहित्य के रूप में प्रस्फुटित होने वाली आदिवासी जन की सहज अभिव्यक्तियाँ अब लिखित साहित्य के रूप में भी प्रकट होकर आ रही हैं, पाठक जगत को विस्मित कर रही हैं और आदिवासी अस्मिता का नया चेहरा निर्मित कर रही हैं. सहज भाषा-बानी में ढली हुई आदिवासी अभिव्यक्तियाँ आदिवासी समाजों की रीति-नीति और मूल्यबोध की प्रामाणिक जानकारी देने में समर्थ हैं. स्वयं जिए हुए जीवन की यह प्रामाणिकता आदिवासी साहित्य को परम विश्वसनीयता तो प्रदान करती ही है, उसकी पीड़ा और यातना का प्रभावी पाठ भी रचती है. यह पाठ उस साहित्य के पाठ के पुनर्पाठ का भी निकष बनता है जिसकी रचना आदिवासी रचनाकारों से पहले के हमारे संवेदनशील साहित्यकार करते रहे हैं. अभिप्राय यह है कि आदिवासी विमर्श किसी भी प्रकार उन साहित्यकारों को खारिज नहीं करता जिन्होंने स्वयं आदिवासी समूह का सदस्य न होते हुए भी आदिवासी समाज और जनजातियों के जीवन यथार्थ को साहित्य का विषय बनाया. कहना ही होगा कि ये दोनों गोलार्ध मिलकर ही आदिवासी विमर्श के पूरे मंडल का निर्माण करते हैं. 

‘हिंदी में आदिवासी साहित्य’ में विद्वान लेखक ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक भारतीय आदिवासी समुदायों के जीवन की विशेषताओं को सामने रखते हुए उनकी समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया है. यह ग्रंथ इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास में आदिवासी साहित्य के विविध संदर्भों को खोजकर यहाँ विवेचित किया गया है. लेखक ने आदिवासी और दलित साहित्यों के अंतर को भी तर्कपूर्वक समझाया है और आदिवासी साहित्य के नवोन्मेष के संदर्भ में उसके मूल्यों और सरोकारों को सोदाहरण स्थापित किया है. 

संभवतः यह ग्रंथ विस्तार से आदिवासी जीवन केंद्रित हिंदी उपन्यासों और कहानियों का विवेचन-विश्लेषण करने वाला अपनी प्रकृति का पहला ग्रंथ है जिसमें आज तक प्रकाशित कृतियों की खोजखबर शामिल है. इसमें संदेह नहीं कि आदिवासी विमर्श का यह खजाना डॉ. इसपाक अली ने गहरे पानी पैठकर खोजा है. आदिवासी जीवन केंद्रित हिंदी कविताओं विषयक सामग्री इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन पड़ी है. इसीलिए निस्संदेह यह ग्रंथ हिंदी साहित्य के विमर्शकारों, अध्येताओं, शोधकर्ताओं, अध्यापकों और पाठकों, सभी के लिए बहुआयामी उपयोगिता वाला ग्रंथ सिद्ध होगा. 

इसी क्रम में डॉ. इसपाक अली का एक और ग्रंथ प्रकाशित हुआ है – ‘दलित आत्मकथाएँ और उपन्यास : शोषण और संघर्ष’ (2015). काफी समय तक यह भ्रम बना रहा कि आदिवासी विमर्श और दलित विमर्श अलग नहीं है. लेकिन जैसा कि हमने अभी कहा है, डॉ. इसपाक अली इन दोनों की पृथकता के तर्क से सहमत है. दरअसल आदिवासी समूह आधुनिकता, औद्योगीकरण और प्रौद्योगिकी के कंधों पर चढ़कर आई सभ्यता की दौड़ में पीछे रह गए समूह अवश्य है परंतु इस अर्थ में वे दलित समूहों से एकदम भिन्न है कि भारतीय संदर्भ में दलित हमारे समाज के उस दबे कुचले अंश का नाम है जो वर्णव्यवस्था और जातिप्रथा की रूढ़ियों के कारण दमन, शोषण और तिरस्कार ही नहीं झेलता आया है बल्कि अस्पृश्य मानी जाने वाली जाति विशेष में जन्म लेने के कारण सहज मानवाधिकारों से भी वंचित रहा है. डॉ. इसपाक अली ने दलित विमर्श के अवलोकन बिंदु से हिंदी के दलित लेखकों की आत्मकथाओं और औपन्यासिक कृतियों का गहन विशलेषण किया है तथा उनके शोषण और संघर्ष की प्रामाणिक पहचान की है. उन्होंने यह सब पहचान पड़ताल इस साहित्य मं अभिव्यंजित ‘दालित्य’ के आधार पर की है क्योंकि यही वह मूल्य है जो दलित साहित्य को अब तक के ललित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र की परिधि के बाहर स्वतंत्र पहचान देता है. दलितों ने शताब्दियों तक जो अमानवीय जीवन जिया और यंत्रणाएँ झेली, उनके बावजूद यदि 20वीं–21वीं शताब्दी में वे शिक्षा, सम्मान और सत्ता प्राप्त कर रहे हैं तथा अपनी पीड़ा और क्रोध को सीधी चोट करने वाली अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं, तो इसे लंबे समय तक हाशिए पर रहने को विवश किए गए दलित समुदाय की बड़ी उपलब्धि माना जाना चाहिए.
इसमें संदेह नहीं कि आदिवासी विमर्श और दलित विमर्श ने साहित्य को नया लोकतांत्रिक विस्तार प्रदान किया है. साहित्य में अपना अपना स्पेस ढूँढ़ती हुई आदिवासियों और दलितों की आवाजों का सही समय पर सही नोटिस लेने के लिए डॉ. इसपाक अली साधुवाद के पात्र हैं.     
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Ø  हिंदी में आदिवासी साहित्य/ डॉ. इसपाक अली/ साहित्य संस्थान, ई-10/660, उत्तरांचल कॉलोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बॉर्डर, गाजियाबाद/ 2014/ पुष्ठ 272/ मूल्य – रु. 154
Ø  दलित आत्मकथाएँ और उपन्यास : शोषण तथा संघर्ष/ डॉ. इसपाक अली/ साहित्य संस्थान, ई-10/660, उत्तरांचल कॉलोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बॉर्डर, गाजियाबाद/ 2015/ पृष्ठ – 240/ मूल्य – रु. 600   
-    ऋषभदेव शर्मा
      

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