ख़लिश / प्रवीण प्रणव / 2016 / गीता प्रकाशन, हैदराबाद / 149 रु. / 144 पृष्ठ |
सूखी
आँखों में लरजती पानी की बूँदें
‘ख़लिश’ युवा कवि प्रवीण प्रणव का यूँ तो पहला कविता संग्रह है लेकिन
साहित्य सृजन के क्षेत्र में वे लंबे समय से सक्रिय हैं. साहित्य और संगीत में प्रवीण प्रवीण उत्तर
आधुनिक तकनीकी युग के कवि हैं लेकिन उनकी संवेदना की जड़ें परंपरा में गहरी जुडी
हुई हैं. यह भी कहा जा सकता है कि प्रवीण प्रणव की कविताएँ ‘ग्लोबल’ जमाने में संवेदना के क्षरण के प्रतिवाद के रूप में ‘लोकल’ को प्रस्तुत करने वाली कविताएँ हैं. यह
स्थानीयता कवि ने यादों के सहारे आयत्त की है. यदि यह कहा जाए कि उनके इस संग्रह
की अनेक कविताओं का बीज-शब्द ‘याद’ है तो अतिशयोक्ति न होगी.
यह याद प्रेम सहित विभिन्न संबंधों की याद है जो कंप्यूटर के पंखों पर बैठकर उड़े
जा रहे मनुष्य के दामन से छूट रहे हैं. यह याद उस गाँव और लोक की है जो नगर और
महानगर में लाकर रोप दिए गए कवि-मन में निरंतर बजता रहता है. यह याद उस साहित्यिक
संस्कार की है जिसका निर्माण पौराणिक मिथकों से लेकर ग़ालिब और गुलज़ार तक ने किया है.
इन कविताओं में समकालीन, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ अपनी पूरी तल्खी के
साथ दृष्टिगोचर होता है. साथ ही, कवि का अभिप्रेत ‘यूटोपिया’ भी आकार लेता दिखाई
देता है.
‘खलिश’ कई तरह की है. उसके कई स्रोत हैं. रूमानी भावबोध और उसका टूटना
युवा मन की पहली और व्यापक खलिश हो सकती है. आलोचक भले ही कवियों को अतीतजीवी कहते
रहें, लेकिन अतीत की यादें ही जीवन को रसमय बनाए रखने के लिए काफी हुआ करती हैं. इसीलिए
कवि चाहकर भी खंडित प्रणय-अनुभूति की स्मृति से बाहर नहीं आना चाहता. इन स्मृतियों
में कवि ने बहुत कुछ समेटकर रखा है – ख़त में लिखी इबारत के अलावा मोरपंख, गुलाब और
पीपल का पत्ता. ये स्मृतियाँ ही मानो काव्य-प्रेरणा हैं. पीपल का पत्ता भले ही
पीला पड़ चुका हो, गुलाब भले ही दब-कुचल
गया हो, मोरपंख भी भले ही सूख गया हो, पर इनके साथ जुडी यादें कवि के मानस में
रिश्तों की ताजगी को सहेजकर रखे हुए हैं. रिश्तों के प्रति कवि का यह आग्रह इस
संग्रह की कविताओं में बार-बार दिखाई देता है. काव्य-नायक शाम हुए दिल की झिर्री
को जरा सा खोलता ही है कि तेज हवा का झोंका बेला की भीनी खुशबू के साथ प्रियतमा की
याद लिए चला आता है. प्रिय को मालूम है, जो चले गए हैं वे आएँगे नहीं; फिर भी आत्मदया
उपजाने को सिगरेट और शराब के सहारे वह देवदास बनता है - “इस उम्मीद में कि/ कभी लौट आओगी तुम/ रोकोगी
मुझे, टोकोगी मुझे/ समझाओगी/ ताने दोगी”. पारो नहीं आती पर उसके प्यार की निशानी
कचनार बनकर फूलती है. प्रेमपात्र का नाम अपने हाथों की लकीरों में लिखने की चाह
लिए प्रेमी बार-बार मिलन के दृश्यों को याद करता है और चिरागों की लौ दिल को जलाती
रहती है. नायिका का भीगे बालों को झटकना और धानी ओढनी को मुंडेर पर टँगी छोड़ जाना
नायक की प्रिय स्मृतियाँ हैं. साथ गुजारी शामें भी इस स्मृतिकोश में हैं. आकर्षण,
दर्शन, मिलन, प्रणय-निवेदन, संयोग और फिर वियोग, प्रेम की यह पूरी गाथा बार-बार
दोहराई जाने पर भी नई-नई सी लगती है. ये तमाम यादें ही कविता के बीज हैं – “सूखी आँखों में लरजती हैं पानी की
बूँदें, कुछ याद आते ही,/ कुछ जल के दिल में भाप बना है, आज आँखों से होगी बरसात
|”
इस संग्रह में बहुत सी रचनाएं ग़ज़ल के शिल्प में हैं और कुछ रचनाएं गीत
के शिल्प में भी हैं. लेकिन कवि प्रणव इन दोनों ही विधाओं के चौखटे में बंधे हुए
नहीं हैं. उनकी गजलें बड़ी सीमा तक रीतिमुक्त गजलें प्रतीत होती हैं. गीत पर भी यह
बात लागू है. इसके बावजूद इन गीतों और गजलों की आकर्षण शक्ति इनमें विद्यमान सहज
प्रवाह और लयात्मकता में निहित है. काव्य और संगीत के संस्कार का पता प्रवीण की
रचनाओं में पारंपरिक ग़ज़ल-भाषा की उपलब्धता से भी चलता है. रक़ीब, खता, गिरेबान, गुनाहगार,
गुलिस्तां, आशिक़, पैमाना, बुलबुल, सय्याद, दामन, मसीहा, सितमगर, ख्व़ाब, दफ़न, वफ़ा,
आँखें, उल्फ़त, आरज़ू, कश्ती, भँवर, इश्क, जुगनू, चाँद, कँवल, जुल्फ़, रूह – जैसी शब्दावली इसका प्रमाण है.
सामाजिक-राजनैतिक यथार्थ के अंकन के प्रति कवि प्रवीण प्रणव की प्रतिबद्धता
इस संग्रह के घोष वाक्य से ही उजागर होनी शुरू हो जाती है - “सियासत में जो नेक होता दिल सियासतदानों
का/ न जाने कितनी उजड़ी बस्तियां, आज भी आबाद होतीँ.” भारतीय लोकतंत्र की यह त्रासदी है कि
सरकारें बदलती हैं लेकिन गरीब जनता के हालात नहीं बदलते. आम आदमी की इस नादानी पर
कवि विस्मय करंता है कि वह लोककथाओं की तरह ‘दिन फिरने’ की आस रखता है. जब कवि यह
कहता है कि प्रतिदिन अनचाहे ही अखबार में केवल अशुभसूचक समाचार पढ़ने पड़ते हैं तो
वह हमारे समय के चेहरे के बदनुमा दाग दिखा रहा होता है. विकास के सारे सपने और
आश्वासन इसलिए अधूरे हैं कि भ्रष्टाचार को जीवन-मूल्य के रूप में स्वीकृति मिल गई
है – ‘मुफ्त
में खुलता नहीं दरवाजा किसी खजाने का’. झूठ मानो हमारा राष्ट्रीय चत्रित बन गया है. हम अपने बच्चों के
समक्ष भी पाखंडपूर्ण आचरण करने से बाज़ नहीं आते. बच्चे हालाँकि हमारे हर झूठ को अपने
भोलेपन के साथ जी लेते हैं, लेकिन हमारे पास उन्हें देने के लिए थोड़ा सा समय तक
नहीं होता. ऐसे में यदि रिश्ते-नाते मशीनी होते जा रहे हैं तो क्या किया जाय.
अपराधबोध स्वाभाविक है – ‘मेरे समय को तरस जाएँ मेरे बच्चे / ऐसी ज़िंदगी का बोझ अब सर पे नहीं
लिया जाता’. इस सामाजिक यथार्थ का आर्थिक पहलू और भी विसंगतिपूर्ण है. एक तरफ वे
करोड़ों ऑंखें हैं जिनमें केवल दो जून की रोटी के सपने हैं तो दूसरी ओर वे
गिने-चुने महामहिम हैं जो लक्ष्मी-पति हैं. अर्थात इस आर्थिक विषमता का एक सिरा
राजनैतिक व्यवस्था के साथ जुड़ा है. पूरा का पूरा व्यवस्था-तंत्र जनता को लूटने का
तंत्र बन गया है. नेता लुटेरे बन गए हैं और सियासत के घोड़े सदियों से ढाई घर चलते
आ रहे हैं – ‘माना
लुटेरे सीख लेते हैं हुनर, राजनेता बन जाने का/ ख़ामोशी से हम मान भी लेते हैं
सरपरस्ती उनकी,/ बस यही बात दिल को खलती है/ सियासत सदियों से ढाई कदम की चाल चलती
है’.
अभिप्राय यह है कि प्रवीण प्रणव हमारे समय के तमाम युवा रचनाकारों की
तरह वर्तमान से असंतुष्ट और रुष्ट कवि हैं. उनका असंतोष और रोष उनकी पूरी पीढ़ी का
असंतोष और रोष है. लेकिन प्रणव की अभिव्यक्ति प्रणाली की विशेषता इस बात में हैं
कि वे इस असंतोष और रोष को नारा नहीं बनने देते, बल्कि पूरी संजीदगी के साथ
वर्तमान की शल्यक्रिया करते हुए अपनी अभिप्रेत व्यवस्था का सपना देखते हैं. इसके लिए वे प्रतीक और मिथक का
कवि-सुलभ मार्ग खोजते हैं. प्रतीक और मिथक के सहारे वे ऐसी काव्य-भाषा गढ़ते हैं जो
उनकी अभिव्यक्तियों को राजनैतिक बयान होने से बचा लेती है. गिद्ध और बुलबुल, अमृत, यक्ष-प्रश्न, सफ़ेद
गुलाब, लाजवंती, सफ़ेद कपड़ों वाला फ़रिश्ता, कचनार, अभिमन्यु, रेल की पटरियाँ,
मरीचिका, अहिल्या, चकोर और चाँद, ज़न्नत आदि ऐसे ही प्रतीक और मिथक हैं जिन्होंने
इन कविताओं को अभिधात्मक होने से बचाया है और लाक्षणिकता से युक्त ध्वनि-काव्य
बनाने में सहयोग किया है. कविताओं की कथात्मकता और व्यंगात्मकता भी अनेक स्थानों
पर ध्यान खींचती है.
अंत में
यह कहना जरूरी है कि भले ही आज का कवि अभिव्यक्ति पर अंकुश और व्यापक असहिष्णुता
के दौर में जीने को अभिशप्त है, तथापि प्रवीण प्रणव जैसे नए रचनाकार को यह घोषणा
करते हुए संतोष है कि – ‘हर जुल्म पे आँखें मूंदी हमने शाह के दरबार में, / कलम था खुद्दार
मेरा, दरबारी नहीं हुआ’. यह शुभ संकेत है कि इस पीढ़ी का रचनाकार न तो अतिरिक्त आवेश में है और
न ही अतिरिक्त अवसाद में. अपने समय की
विरूप सच्चाइयों को पहचानने वाला कवि आशान्वित है कि अमावस के बावजूद पूर्णिमा
अवश्य आयेगी और आतंक के साए को चीर देगी –
‘मुझे
उम्मीद है अगली पूरनमासी तक
मेरा फिर
से एक आशियाँ होगा
और
तुम्हारा दामन पाक-साफ़
उसके बाद
दहशतगर्द कभी लौट के नहीं आएँगे
जलाने को
मेरा आशियाँ, तुम्हारा दामन
आमीन’
‘ख़लिश’
के प्रकाशन के अवसर पर कवि को अनंत शुभकामनाएं !
3 नवम्बर, 2015
-ऋषभदेव शर्मा
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