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गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

भारत की जातीय स्मृति में बसी भर्तृहरि की मुक्तक कविता

- ऋषभ देव शर्मा


स्मितेन भावेन च लज्जयाभिया
पराङगमुखै अर्ध कटाक्ष वीक्षणैः 
वचोभिरीर्ष्या कलहेन लीलया 
समस्त भावै खलु बंधनं स्त्रियः 

[मुस्कान से/ प्रणय भाव से/ लज्जा से/ कातरता से/ कुछ-कुछ तिरछी चितवन से/ मुँह फेरकर निरखने से/ अंग भंगिमाओं से/ - इन सभी से/ मन को बाँध लेती हैं रमणियाँ.] (शृंगार शतक)



न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतर वाद चंचवः 
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषिता 

[न तो हम नट हैं, न गायक, न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे, और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है, फिर हमें राजाओं से क्या लेना-देना?] (नीति शतक) 


यूयं वयं वयं यूयं इत्यासीन मतिरावयोः 
किं जातम् अधुना येन – यूयं यूयं वयं वयं 

[तुम हम थे और हम तुम थे – यह हमारी और तुम्हारी बुद्धि थी. आज क्या हो गया कि हे मित्र! तुम तुम हो और हम हम हैं.] (वैराग्य शतक) 

भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः 

तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः
कालो न यातो वयमेव याताः 
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः 

[हमने भोग नहीं भोगे, बल्कि भोग ने ही हमें भोगा है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गए हैं; काल व्यतीत नहीं हुआ, हम ही व्यतीत हुए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं !] (वैराग्य शतक)


जीवन और जगत की विविध गहन अनुभूतियों को सूक्ति और सुभाषित के रूप में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले कवियों में भर्तृहरि अनन्य हैं. उन्होंने मुक्तक रचकर महाकवियों जैसा देशकाल का अतिक्रमण करने वाला यश पाया है. उनके शृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक भारतीय साहित्य के सिरमौर काव्यों में परिगणित हैं. उनकी जीवनबिद्ध रचनाएँ शिष्ट जन और लोक सामान्य में समान रूप में समादृत हैं. वस्तुतः वे क्रांतदर्शी मनीषी परिभू स्वयंभू सर्जक हैं. उनकी रचनाएँ मुक्तक काव्य का प्रतिमान हैं. अपने आप में संपूर्ण या अन्यनिरपेक्ष उनके ये मुक्तक पूर्वापर प्रसंग निरपेक्ष रहकर रस चर्वणा का सामर्थ्य प्रमाणित करते हैं. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन मुक्तामणियों में महाकाव्य का सा अर्थगाम्भीर्य और गीति काव्य जैसी अनुभूतिप्रवणता का सघन संगठित रूप समाया हुआ है जिसका स्रोत जीवनानुभव की प्रामाणिकता में निहित है. 

भर्तृहरि कौन थे? कब विद्यमान थे? उनके जीवन में कैसे कैसे मोड़ आए, गए? उनकी कविता में इतनी ध्रुवांतस्पर्शी विरोधाभासी विविधता क्यों है? ऐसे अनेक प्रश्न लंबे समय से विद्वानों को उद्वेलित करते रहे हैं. इन प्रश्नों के सुनिश्चित उत्तर फिर भी हमारे पास नहीं है. हमारे पास हैं पुराणों से लेकर लोक प्रचलित किंवदंतियों तक फैली हुई अनके कथाएँ. हमारे पास है विक्रमादित्य का इतिहास. हमारे पास है ‘वाक्यपदीय’ जैसा व्याकरण और भाषाविज्ञान का गूढ़ग्रंथ. इन सबके साक्ष्यों को जोड़कर भर्तृहरि की जो एक छवि बनती है वह ईसा की पहली शताब्दी के पूर्व से लेकर तीसरी शताब्दी तक की अवधि में कभी हुए किसी निजंधरी कथा के लोकनायक जैसी छवि है. यह लोकनायक राजा भी है, संन्यासी भी. भोगी भी है और नीतिकार भी. योगी भी है और वैयाकरण भी. प्रेमी भी है और भक्त भी. अभिप्राय यह है कि भर्तृहरि असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान रहे होंगे. और उन्होंने अपने जीवन में विविध प्रकार के अनुभव अर्जित किए होंगे जिनका प्रतिफलन उनके मुक्तक काव्य में हुआ है. 

यहाँ प्रसंगवश उस लोकगाथा की चर्चा भी आवश्यक है जिसने भर्तृहरि को राजा से संन्यासी बना डाला. कहा जाता है कि “एक बार किसी योगी ने भर्तृहरि को एक दिव्य फल दिया, जिसके खाने से अक्षय यौवन प्राप्त किया जा सकता था. भर्तृहरि अपनी पिंगला रानी को अपने से अधिक प्यार करते थे. अतः उन्होंने यह फल अपनी रानी को ही दे दिया. किंतु रानी एक अन्य पुरुष से प्रेम करती थी, अतः उसने वह फल अपने प्रेमी को दे दिया. उसका वह प्रेमी किसी वेश्या के प्रेम में डूबा हुआ था; अतः उसने वह फल वेश्या को दे दिया. उस वेश्या के हृदय में राजा भर्तृहरि के प्रति अत्यधिक सम्मान और प्रेम था. अतः उसने वह फल भर्तृहरि को समर्पित कर दिया. राजा ने उस फल को पहचान लिया और उसके संबंध में पूछताछ करके अपनी रानी के प्रेम संबंधों को जान लिया. जब रानी को यह पता चला कि राजा उसके अवैध प्रेम व्यापार को जान गए हैं तो उसने महल पर से कूद कर आत्महत्या कर ली.” इस घटना से राजा भर्तृहरि का मन सांसारिकता से विमुख हो गया और उन्होंने अपने छोटे भाई को राज्य सौंपकर वन की राह ले ली. स्मरणीय है कि अनुश्रुति के अनुसार भर्तृहरि के ये अनुज ही उज्जैन के सम्राट विक्रामादित्य हैं जिन्होंने कालांतर में विक्रम संवत का प्रवर्तन किया. भर्तृहरि के मोहभंग के अंतर्साक्ष्य के रूप में यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है – यां चिंतयामि सततं मयि सा विरक्ता/ सापि अन्यं इच्छति जनं स जनोन्य सक्तः / अस्मतकृते च परिशुष्यति काचिदन्या/ धिक् ताम् च तं च मदनं च इमां च मां च. (मैं सतत जिसका चिंतन करता हूँ वह मुझसे विरक्त तथा अन्य के प्रति अनुरक्त है. वह भी किसी और को चाहता है जबकि वह अन्या मेरे प्रति चिंतित है. - उसे और उसे, कामदेव को, इसे और मुझे धिक्कार है.)

यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि भर्तृहरि का समय भारतीय समाज और संस्कृति के इतिहास में एक प्रकार से संक्रमण का समय था. (बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः/ अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्विद्वान लोग ईर्ष्या से भरे हैं, राजा लोग गर्व से चूर हैं और अन्य लोग अज्ञान के मारे हुए हैं, इसलिए उपयोग के अभाव में सुभाषित मेरे अंगों में ही जीर्ण-शीर्ण हो गया.) उस समय राजतंत्र कमजोर पड़ रहा था और सामंत वर्ग के माध्यम से इस देश में नई सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था पनप रही थी. उस समय के विविध अंतर्विरोध ही प्रकारांतर से भर्तृहरि के परस्पर विरोधाभासी व्यक्तित्व के आयामों के प्रतीक हैं. सत्ता, संन्यास, व्याकरण, साहित्य. लोक और शास्त्र सब यहाँ आकर अपने अपेन ढंग से भर्तृहरि के कवि मानस को पुष्ट करते हैं. कहीं न कहीं भोग के यथार्थ को उजागर करने वाला भर्तृहरि का यह काव्य मानवीय संबंधों के पतन से ग्रस्त आज के मूल्यमूढ़ समाज के लिए संभवतः इसीलिए प्रासंगिक है कि उस काल और इस काल की सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताएँ किसी न किसी रूप में एक जैसी हैं. 

इसमें संदेह नहीं कि भर्तृहरि बेहद संवेदनशील और अद्भुत कल्पनाशक्ति से संपन्न प्रातिभ कवि थे. उन्होंने कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने वाली समाहार शक्ति तो अर्जित की ही थी, अत्यंत सूक्ष्म भावों को सहज पारदर्शी अभिव्यक्ति प्रदान करने की कला में भी वे निष्णात थे. उन्होंने यह जान लिया था कि मनुष्य के जीवन की कृतार्थता धन संचय में नहीं कविता, कला और संगीत की उन तरंगों से एकाकार होने में है जो उसे राग-द्वेष से मुक्त करके उसके भीतर की सात्विकता को उद्रिक्त करती हैं. इसीलिए उन्होंने साहित्य, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति को पशु की श्रेणी में रखा है और यह माना है कि सामान्य व्यक्ति से लेकर राजा और राज्य तक के लिए कलाओं की सिद्धि अनिवार्य आवश्यकता है. भर्तृहरि हिंदी के कवि तुलसीदास और अंग्रेजी के कवि पोप की भांति कठिन विषय की सरल अभिव्यक्ति में माहिर मर्मस्पर्शी सहज कवि माने गए हैं. उन्होंने अपने काव्य में सांसारिक जीवन की विसंगतियों, विकृतियों और क्षुद्रताओं के नग्न यथार्थ को खोलकर रख दिया है. इस अर्थ में वे घोर यथार्थवादी प्रतीत होते हैं. लेकिन इस यथार्थ चित्रण का उद्देश्य मनुष्य में निहित सात्विक और उदात्त तत्वों को जागृत करना है जो उन्हें उच्च जीवन मूल्यों के प्रतिष्ठापक आदर्शवादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए पर्याप्त है. 

लगभग दो हजार से अधिक वर्षों से भर्तृहरि का काव्य भारतीय साहित्यकारों को प्रेरित करता आ रहा है. यदि यह कहा जाए कि अपने शतकों के माध्यम से लोक में व्याप्त होकर भर्तृहरि भारत की जातीय स्मृति के अनिवार्य अंग बन चुके हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी. कालिदास (जो संभवतः भर्तृहरि के समकालीन थे या उनके तुरंत बाद हुए थे) से लेकर आधुनिक काल तक के कवियों की उक्तियों में पग पग पर भर्तृहरि की सूक्तियों के प्रतिफलन को खोजा जा सकता है. खासतौर से हिंदी का मध्यकालीन मुक्तक काव्य तो उनके प्रति ऋणी है ही. यही कारण है कि आज के समय में भी उनके शतकों को समकालीन काव्य शैली मैं ढालकर नए नए काव्यानुवाद सामने आ रहे हैं. कुछ दशक पूर्व ओंकारनाथ श्रीवास्तव द्वारा ‘वैराग्य शतक’ का अत्यंत मनोरम हिंदी काव्यानुवाद प्रस्तुत किया गया था, तो इधर के वर्षों में राजेश जोशी ने ‘नीति शतक’ का बेहद मार्मिक काव्यानुवाद प्रस्तुत करके भर्तृहरि की प्रासंगिकता को रेखांकित किया ही है, आज की कविता को अपनी परंपरा के साथ जोड़ने का भी महत्कार्य किया है. 

अंत में, राजेश जोशी द्वारा किए गए ‘नीति शतक’ के अनुवाद के कुछ अंश यहाँ बिना टिप्पणी के उद्धृत किए जा रहे हैं जिन्हें हमने <नई बात.ब्लागस्पाट.इन> से साभार ग्रहण किया है – 


महामूर्ख 


मगर की दाढ़ से मणि निकाल कर
ला सकता है आदमी
मचलती लहरों में तैरता 
समुद्र पार कर सकता है आदमी.
आदमी फूलों की माला–सा पहन सकता है
सर पर क्रोधित सांप को
पर नहीं बदल सकता वह
महामूर्ख का मन ! 


रेत को पेर कर 


रेत को पेर कर 
तेल निकाल सकता है आदमी
मरीचिका में भी
पी सकता है पानी
बुझा सकता है प्यास.
शायद !
भटक-भटकाकर आदमी 
खोज कर ला ही सकता है
सींग ख़रग़ोश के.
पर नहीं बदल सकता
ख़ुश नहीं कर सकता वह
महामूर्ख का मन. 


एक दुष्ट को 


एक दुष्ट को 
मीठी मीठी बातों से
लाना रास्ते पर?
यानि
नाजुक मृणाल के डोरों से बांधकर
रोकने की कोशिश करना हाथी को
हीरे को छेदने की कोशिश 
शिरीष के फूलों की नोक से
यानी
समुद्र को मीठा करने की कोशिश 
शहद की एक बूंद से !


पतन 


उतरी स्वर्ग से पशुपति के मस्तक पर
पशुपति के मस्तक से उतरी
ऊंचे पर्वत पर
उतरी ऊंचे पर्वत से
नीचे धरा पर
पृथ्वी से उतर कर 
समुद्र में समा गई गंगा.
विवेकहीन मनुष्य का
इसी तरह सौ तरह 
होता है पतन. 


दवा 


बुझाया जा सकता
आग को पानी से
छाते से रोका जा सकता है
धूप को.
नुकीले अंकुश से मदमत्त हाथी को
और गाय और गधे को
किया ही जा सकता है बस में
पीट-पाट कर.
रोग की दवाओं से
और ज़हर को उतारा जा सकता है
मंत्रों से.
बताई है शास्त्रों ने हर चीज़ की दवा
पर दवा कोई नहीं 
कोई नहीं है दवा
महामूर्ख की. 


बिना सींग और पूंछ वाला जानवर 


बिना सींग और पूंछ वाला 
जानवर है वह
वह जो शून्य है
साहित्य कला और संगीत से
बिना घास खाए
जो जीता है वह
तो यह भाग्य ही है
इस धराधाम के जानवरों का ! 


संग 


दुर्गम पहाड़ों में 
वनचरों के साथ साथ
घूमना अच्छा.
पर बैठना अच्छा नहीं 
मूर्खों के साथ साथ
इन्द्र-भवन में भी.


मणियों का क्या दोष 


जिस राजा के राज में
भटकते हों निर्धन ऐसे कवि
कविता जिनकी सुंदर 
शास्त्रों के शब्दों सी
कविता जिनकी ज़रूरी
बहुत ज़रूरी शिष्यों के वास्ते
तो राजा ही है मूर्ख
समर्थ है विद्वान तो बिना धन के भी
हक़ है उसे करे निन्दा
अज्ञानी जौहरी की
गिरा दिया है जिसने मूल्य मणियों का 
इसमें दोष क्या है भला मणियों का !


राहु 


वृहस्पति और पांच छह ग्रह 
और भी हैं
आकाश गंगा में
पर किसी से नहीं लेता दुश्मनी मोल
वह पराक्रमी राहु
पर्व में वह ग्रसता है 
सिर्फ़ तेजस्वी सूर्य और चंद्रमा को
जबकि सिर्फ़
सिर ही बचा है 
उसकी देह में.


कांचन 


बस धनवान ही हैं कुलीन 
धनवान ही हैं पण्डित 
वही है
सारे शास्त्रों और गुणों का भण्डार
वही है सुंदर
वही है दिखलौट
सारे गुण क्योंकि
बसते हैं कांचन में ! 


कल्पतरू 


हे राजन
दुहना है अगर तुम्हें
इस पृथ्वी की गाय को
तो पहले हष्ट-पुष्ट करो
इस लोक रूपी बछड़े को
अच्छी तरह पाला पोषा जाए
जब इस लोक को
तभी फलता फूलता है
भूमि का यह कल्पतरू. 


ओ चातक 


ओ चातक ! 
घड़ी भर को
ज़रा कान देकर सुनो मेरी बात
बहुत से बादल हैं आकाश में
पर एक से नहीं हैं
सारे बादल
कुछ हैं बरसते
जो भिगो डालते हैं सारी पृथ्वी को
और कुछ हैं जो
सिर्फ़ गरजते ही रहते हैं लगातार
ओ मित्र
मत मांगो हर एक से दया की भीख ! 


दोस्ती 


दूध ने दे डाला सारा दूधपन
अपने से मिले पानी को
गर्म हुआ जब दूध
पानी ने जला डाला अपने को 
आग में.
दोस्त पर आयी जब आफ़त
तो उफ़न कर गिरने लगा दूध भी
आग में.
पानी से ही हुआ वह फिर शांत
ऐसी ही होती है दोस्ती
सच्ची और खरी.


आफ़तें 


हाथ से फेंकी गई गेंद
फिर उछलती है
टप्पा खा कर
आफ़तें स्थायी नहीं होतीं
अच्छे लोगों की. 


गंजा 


धूप ने तपा डाली 
जब चांद गंजे को
तो छाया की तलाश में
पहुंचा वह एक ताड़ के नीचे 
ताड़ से गिरा फल 
और तड़ाक से फोड़ दिया
उसने गंजे का सर
जहां कहीं जाता है भाग्य का मारा
आफ़तें साथ साथ जाती हैं
उसके. 


ललाट पर लिखी 


करील पर न हों पत्ते
तो बसंत का क्या दोष
नहीं टिपे उल्लू को दिन में 
तो सूरज का क्या दोष
पानी की धार न गिरे चातक के मुंह में
तो बादल का क्या दोष
बिधना ने जो लिख दी है ललाट पर
कौन मेट सकता है उसे ! 


कर्म 


ब्रह्माण्ड का घड़ा रचने को
जिसने कुम्हार बनाया ब्रह्मा को
दशावतार लेने के जंजाल में 
डाल दिया जिसने विष्णु को
रुद्र से भीख मंगवाई जिसने
हाथ में कपाल लेकर
जिसके आदेश से हर रोज़
आकाश में चक्कर लगाता है सूर्य,
उस कर्म को 
नमस्कार !
नमस्कार ! 


राजपाट क्या है 


लाभ, लाभ क्या है
गुनियों की संगत है लाभ.
दुख, दुख क्या है
संग, मूर्खों का संग है दुख,
हानि, हानि क्या है
समय चूकना है हानि.
क्या है, क्या है निपुणता.
धर्म और तत्व को जानना है निपुणता
कौन है, कौन है वीर
वीर है, जो जीत ले इंद्रियों को
प्रेयसी, प्रेयसी कौन है
पत्नी, पत्नी ही है प्रियतमा
धन, धन क्या है
ज्ञान, ज्ञान ही है धन
सुख, सुख क्या है
यात्रा, यात्रा ही है सुख;
तो फिर राजपाट क्या है !!

मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

तेलुगु काव्य 'धरती माँ' :सुद्दाला अशोक तेजा


भूमिका 
धरती माँ / तेलुगु कविताओं का हिंदी अनुवाद /
रचनाकार - सुद्दाला अशोक तेजा /
अनुवादक - एम. रंगय्या /
 एमेस्को बुक्स, हैदराबाद-29 /
2014 / 144  पृष्ठ  / 90 रूपए. 


समकालीन तेलुगु कविता का फलक अत्यंत विस्तीर्ण और पहुँच अत्यंत पैनी है. यह कविता अपने चारों ओर के घटनाचक्र के प्रति अत्यंत सजग होने के साथ साथ मनोभावों और भावोद्वेलनों के प्रति भी पूरी ईमानदार है. यह देखकर विस्मय होता है कि तेलुगु कविता प्रकृति और पर्यावरण के प्रति मनुष्य की जिम्मेदारी को रेखांकित करने में कोई कोरकसर नहीं उठा रखती – भले ही इसमें कवित्व की क्षति का ख़तरा भी हो. उसके लिए कला से अधिक महत्वपूर्ण है जीवनराग. इस जीवनराग की बहुविध अभिव्यक्ति करते हुए आज की तेलुगु कविता कभी जल तो कभी वायु, या कभी पृथ्वी, और कभी आकाश से स्वयं को संबद्ध करके अभिव्यंजना के नए मुहावरे की तलाश करती है. तेलंगाना के प्रतिष्ठित सिने कवि सुद्दाला अशोक तेजा ने भी अपने इस कविता संग्रह ‘धरती माँ’ की साठ कविताओं में पर्यावरण विमर्श का ऐसा ही नया व्यंजना-मुहावरा तलाश करने की कोशिश की है. 

‘धरती माँ’ की कविताएँ इस सनातन विश्वास से संप्रेरित प्रतीत होती हैं कि पृथ्वी माँ है और हम उसकी संतान हैं. पृथ्वी की यह गरिमा वेदों से चलकर रामायण-महाभारत से होती हुई कवि अशोक तेजा तक पहुँची है. वैदिक ऋषि ने अत्यंत उल्लासपूर्वक 'पृथिवी सूक्त' रचा था, जो मनुष्य जाति की अब तक की श्रेष्ठतम कविताओं में परिगणित है. धरती माँ के प्रति वैसी मुग्धता, निष्ठा और दायित्व भावना आज के मनुष्य में कहाँ? कवि उसी पावन संबंध की खोज कर रहा है. इस खोज में उसे धरती माँ, अपनी माँ और वन माँ एक ही वात्सल्य की विस्तीर्ण व्यंजनाएँ प्रतीत होती हैं. पृथ्वी और मनुष्य के इस संबंध ने ही सभ्यता एवं संस्कृति का आविष्कार और विकास किया है. पृथ्वी सारी प्रकृति को धारण करती है. संरक्षण देती है. पृथ्वी मनुष्य को वह ऊर्जा प्रदान करती है जिसके बल पर वह जीवन का युद्ध लड़ता है, जीतता है. जीवन के इस युद्ध में मनुष्य ने अनेकानेक आविष्कार किए हैं, यंत्र निर्मित किए हैं. कवि मानव सभ्यता के पूरे विकास को यंत्रों के इस रूपक के माध्यम से व्याख्यायित करते हुए इस सत्य का प्रतिपादन करता है कि श्रम ही वेद है और मानव जीवन का वास्तविक सौंदर्य श्रमसीकर में है, स्वेद में है.

सभ्यता और संस्कृति की पड़ताल करते हुए कवि अशोक तेजा ने धरती का स्तवन उसके जाये वृक्ष-लता- गुल्मों, वन-पर्वत-नदियों की आराधना के रूप में अत्यंत प्रभावी शैली में किया है. कवि का हृदय यह देखकर चीत्कार कर उठता है कि जो मानव संस्कृति मूलतः प्रकृति-निर्भरा थी. वह यांत्रिकता के चरम उत्कर्ष से उपजी अंधी उपभोक्ता संस्कृति के कारण विकृत होकर प्रकृति-विरोधी हिंसक और विध्वंसक बन गई है. वृक्षों और वनों के प्रति ममता तथा धरती और प्रकृति के प्रति पूज्य भाव जगाने की कोशिश करने वाली ये कविताएँ तथाकथित उत्तरआधुनिक बाजारवादी और युद्धक मनुष्य जाति को चेतावनी देती हुई प्रतीत होती हैं. मनुष्य का अस्तित्व पृथ्वीग्रह के अस्तित्व के साथ नाभिनालबद्ध है. पृथ्वी मिटेगी तो मनुष्य भी मिटेगा. मनुष्य को बचना है तो पृथ्वी को बचाना होगा. पृथ्वी को बचाने का एक ही रास्ता है कि उसके प्रति पूज्य बुद्धि पुनः स्थापित हो. सही अर्थ में आज के बुद्धिवादी मनुष्य को धरती के प्रति माँ जैसा भावात्मक संबंध पुनः स्थापित करना होगा. इसी के लिए कवि नई पीढ़ी को उद्बोधित करता है कि वह पृथ्वी का दोहन करने की प्रवृत्ति से गुरेज करे और अपने राष्ट्र ही नहीं संपूर्ण पृथ्वी गृह की रक्षा के लिए उठ खड़ा हो. 

धरती माँ की रक्षा केवल भूमि, जल और पर्यावरण आदि की रक्षा से ही नहीं जुड़ी है, बल्कि इसका संबंध लोक संस्कारों की रक्षा से भी  है. स्त्री जाति का सम्मान भी इसी का एक पक्ष है. बच्चों की सुरक्षा के बिना पृथ्वी के भविष्य की रक्षा भला कैसे की जाती है. यही कारण है कि कवि सुद्दाला अशोक तेजा लोक के विभिन्न उपादानों, खेतीबाड़ी, गीत-संगीत, रिश्ते-नाते और गाँव-घर के प्रति गहरा लगाव रखते हैं. वे कन्या भ्रूण हत्या को अमानुषिक मानते हैं,  मातृत्व को व्यक्तित्व की परिपूर्णता समझते हैं,  स्त्री को अमृत का पर्याय घोषित करते हैं और अर्धांगिनी को नमन करते हैं.  मनुष्य और मनुष्य के बीच जाति, धर्म, लिंग अथवा अन्य किसी भी प्रकार के भेदभाव को वे पृथ्वी की रक्षा में बाधक मानते हैं. उन्हें ऐसे परिवर्तन की आकांक्षा है जो मनुष्य की जीत के लिए जीवन से भरे गीत से उत्प्रेरित हो और सृष्टि यजन में प्रत्येक नागरिक की समिधा से परिपुष्ट हो. अभिप्राय यह है कि कवि अशोक तेजा परस्पर आत्मीयता से परिपूर्ण ऐसे भूमंडल की कल्पना करते हैं जिसमें प्रकृति और मनुष्य साहचर्य भाव से निवास करें. भोग्य और भोक्ताभाव से नहीं. 

21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में आज जब समस्त भूमंडल बाजारवाद की आंधी में उड़ा जा रहा है और मनुष्य के हाथ से मनुष्यता का साथ छूटा जा रहा है, ऐसे में ये कविताएँ अत्यंत आश्वस्तिकर हैं, क्योंकि ये कविताएँ भटके हुए मानव शिशु की उंगली धरती माँ के हाथ में थमाना चाहती है. 

तेलुगु की उत्कृष्ट कविताओं को हिंदी समाज के समक्ष प्रस्तुत करने का स्तुत्य उद्यम सुप्रतिष्ठित कवि और अनुवादक डॉ. एम. रंगय्या ने अत्यंत निष्ठापूर्वक किया है. डॉ. एम. रंगय्या बहुभाषाविद साहित्य साधक हैं और कविताओं के मर्म को पहचान कर पूरी सावधानी के साथ लक्ष्यभाषा पाठ रचते हैं. ‘धरती माँ’ के प्रति उनकी यह आराधना सफल हो, इसी शुभकामना के साथ ..... 



28 अप्रैल 2014                                                                                     - डॉ. ऋषभदेव शर्मा

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

सोनिया

16/11/2014 को कादंबिनी क्लब, हैदराबाद द्वारा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के सभागार में आयोजित समारोह में अरुणाचल प्रदेश की युवा लेखिका डॉ. जोराम यालाम नाबाम ने नजीबाबाद के वरिष्ठ कवि डॉ. अशोक स्नेही  की काव्यकृति ''सोनिया'' का लोकार्पण किया. इस अवसर पर प्रो. देवराज [वर्धा] और डॉ. अहिल्या मिश्र [हैदराबाद] ने कवि को बधाई दी तथा प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने लोकार्पित प्रेमकाव्य के अंशों का वाचन किया. प्रकाशक अमन कुमार त्यागी ने 'सोनिया' की समीक्षा प्रस्तुत की तथा डॉ. अशोक स्नेही ने फोन-वार्ता करते हुए सबके प्रति आभार व्यक्त किया.


भूमिका


प्रेम सृष्टि की मूल शक्ति है. वही आकर्षण और चेतना का स्रोत है, मुक्त मनोभाव है. प्रेम व्यक्ति को मनुष्य और मनुष्य को देवता बनाता है. प्रेम जीवन को सार्थकता प्रदान करता है और प्रेम का अभाव जीवन को भटका देता है. सारे भाव प्रेम में से ही उपजते हैं, उसी में विलसते हैं  और उसी में लीन हो जाते हैं. प्रेम की यह लीला देश और काल की सीमाओं से परे देह और दैहिकता के पार मन और आत्मा की लीला है. प्रेम ऐसा अहोभाव है जो हमारे अस्तित्व पर कोमलता के किसी क्षण में गुलाब की पंखुड़ियों पर बरसती हुई ओस की बूंदों की तरह उतरता है. जब हमारे अस्तित्व पर प्रेम उतरता है तो हम रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरते हैं, सहज संवेदनशील हो उठते हैं. प्रेम में पाना महत्वपूर्ण नहीं होता, प्रेम में होना महत्वपूर्ण होता है. खोने-पाने का गणित व्यापारी रखा करते हैं, प्रेमीजन नहीं. प्रेम जब उतरता है तो कविता फूटती है. यह हो सकता है कि हर प्रेमी कवि न होता हो पर कविता फूटती अवश्य है. भले ही निःशब्द रह जाए. 

यही विस्मयकारी अनुभव अशोक स्नेही (1954) के अस्तित्व पर भी उतरा है. स्वभावतः कविता भी फूट पड़ी है. निःशब्द नहीं सशब्द; क्योंकि अशोक स्नेही आतंरिक अनुभूतियों को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करना जानते हैं. प्रणय के स्पंदनों को, अपरिचिता के साथ कल्पना लोक में विहार की विविध मनोदशाओं को, शब्दचित्रों में बाँधना उन्हें भली प्रकार आता है. उनके मनोजगत की सर्वथा निजी अनुभूतियों का मुकुलित और प्रस्फुटित रूप है – ‘सोनिया’. यह अनपाए प्यार की अद्भुत गाथा है. 

‘सोनिया’ डॉ. अशोक स्नेही की काव्यकला का सुंदर नमूना है. इसमें कवि ने अपरिचित प्रेयसी के साथ कल्पना में रास रचाया है. मिलन और विरह के सारे अनुभव कोमल मन के झनझनाते तारों पर झेले हैं. मनवीणा के तारों की इस झंकार में कभी अप्रतिम रूप की अभ्यर्धना बज उठती है तो कभी उत्कंठित मानस की इच्छाएँ तरंगित होने लगती हैं. प्रिया का रूप कवि को प्रकृति के साथ एकाकार प्रतीत होता है और प्रकृति प्रिया के एक एक अंग में समाई लगती है. इस अपरिचित कविप्रिया के होंठ दहकते लाल टेसू हैं, नयन बहकते मस्त भँवरे हैं, अंग अंग चहकता है, चंचल चितवन दुधारी तलवार चलाती है और गालों पर अंगार खिलते हैं. यह नायिका अत्यंत कोमल है, चंचल है, मोहिनी है. कभी कवि को वह इतनी निकट लगती है कि मिलन की मन्नतें माँगकर इच्छाओं की पूर्ति का द्योतक कलावा कलाई में बाँध लेती है और रविवार की छुट्टी में कवि उसे पीपल पर नाम गोदने चलने के लिए आमंत्रित करता है; तो कभी कवि स्वयं को सम्मोहित अनुभव करता है – ऐसे हर क्षण में प्रिया अपनी नरम उँगलियों से छूकर नवरस रंग बहार का संचार करती है, काव्य की प्रेरणा बन जाती है. चरम समर्पण के क्षणों में यह कविप्रिया गंगा और माँ भी बन जाती है. वही सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक मूल्य क्षरण के बीच नई मूल्य चेतना का प्रतीक बनकर प्रकट होती है और वही सारे प्रवादों और अपवादों के बीच सहज संबल प्रदान करती है. 

इसमें संदेह नहीं कि डॉ. अशोक स्नेही के जीवन में प्रेम का यह अवतरण उस मोड़ पर हुआ है जब कवि को यह अनुभव हो चुका है कि संबंधों के ताने-बाने मकड़ी के जाले हैं, जीवन समझौतों का दूसरा नाम है. ऐसी स्थिति में इस प्रेम के सहारे कवि एक समानांतर दुनिया में, सपनों के संसार में, ही मुक्ति का बोध पाता है, इस समानांतर संसार में ही घने बबूलों के जंगल, दरिंदों के दंगल, विघ्न और अमंगल को विलीन करने वाला ऐसा जादू है, जिसके लोक में पहुंचकर कवि यथार्थ जगत के समस्त दुखों से निस्तार पाता है. यह समानांतर जगत ही डॉ. अशोक स्नेही की ‘सोनिया’ का जगत है, रूप के जादू का जगत है, प्रेम का जगत है. 

प्रेम के इस जादुई जगत के सृजन और प्रकाशन के लिए कवि को बधाई देते हुए मैं उनके यश की कामना करता हूँ. 

12 जून 2014                                                                                                         - ऋषभदेव शर्मा 
नजीबाबाद  (यात्रा)                                                                                                     

शनिवार, 22 नवंबर 2014

'बा-बेला'

दो शब्द

यह सृष्टि प्रेम की लीलाभूमि है. प्रेम ही वह तंतु है जो सृष्टि के विभिन्न पात्रों को परस्पर जोड़ता है – चाहे वे जड़ या चेतन हों, चाहे वे पशु या मनुष्य हों, चाहे वे जलचर या नभचर हों, अथवा चाहे वे स्त्री और पुरुष हों. सृष्टि में विविधता है, अनेकरूपता है, समानताएँ और असमानताएँ हैं. इन सबके संबंधों के ताने-बाने को रचने वाली शक्ति प्रेम ही है. प्रेम को पनपने के लिए संवेदनशीलता चाहिए होती है. केवल अपने आप में रमा रहने वाला कोई भी प्राणी प्रेम नहीं कर सकता. प्रेम के लिए अहं का विगलित होना और आत्म का विस्तार होना मूलभूत आवश्यकता है. संवेदनशीलता किसी भी प्राणी को अहं की अंधेरी सुरंग के दबाव से मुक्त करके आत्मविस्तार की उजली धूप का प्रसार प्रदान करती है. प्रेम तत्व के जागने से आत्मा के आवरण तड़क कर टूट जाते हैं. यह प्रेम ही पशु को मनुष्य और मनुष्य को देवता बनाता है. प्रेम मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाता है और प्रेम छिन जाए तो जीवन नष्ट हो जाता है. यही कारण है कि प्रेम – संयोग और वियोग – का चित्रण सदा से साहित्य के केंद्र में रहा है, आज भी है और आगे भी रहेगा. प्रेम के साथ जुड़ी हुई पीड़ा इस विषय को कभी बासी नहीं होने देती. सब प्रेम कथाएँ बड़ी सीमा तक एक जैसी होती हैं. फिर भी बार बार कही-सुनी जाती हैं, लिखी-पढ़ी जाती हैं. 

हैदराबाद के कवि-कथाकार देवा प्रसाद मयला ने भी एक और प्रेमकथा लिखी है. वे बाल साहित्य की रचना में विशेष रुचि लेते हैं इसलिए अपनी यह प्रेमकथा उन्होंने टार्जन और जंगल बुक आदि के शिल्प में गढ़ने का प्रयास किया है. सृष्टि की आदि प्रेमकथा पक्षी और मनुष्य की प्रेमकथा रही है. देवा प्रसाद मयला की प्रेमकथा वनमानुष और मानवी की प्रेमकथा है जिसमें कई प्रचलित ऐसी लोककथाओं की अनुगूंजें भी सुनाई पड़ती हैं जिनमें पशु और मनुष्य के बीच संवेदना के तंतु प्रेम का संसार रचते हैं. देवा प्रसाद ने एक ऐसे वनमानुष की कल्पना की है जो कबीलाई युद्ध में अपने सब प्रियजन को खो चुका है. उसके लक्ष्यहीन जीवन को तब नई दिशा मिल जाती है जब वह एक लकडबग्घे के चंगुल से एक असहाय लड़की को बचाता है. जटायु भले ही रावण से सीता को न बचा पाया हो पर यहाँ उसकी याद अवश्य आती है. किसी अन्य लोक के प्राणी से उर्वशी की रक्षा करने वाला पुरूरवा भी यहाँ याद आता है. दरअसल उर्वशी और पुरूरवा की प्रेम कहानी ही सृष्टि की पहली ऐसी प्रेमकथा है जिसमें उड़ने वाले प्राणी और मनुष्य का प्रेम दर्शाया गया है. देवा प्रसाद की प्रेमगाथा में वनमानुष बचाई हुई लड़की का रखवाला बन जाता है क्योंकि वह भी सर्वथा अकेली है. दोनों के बीच साहचर्यजनित संवेदनामूलक उत्सर्गपरक राग का उदय होता है. दोनों एक दूसरे के लिए भावनात्मक जरूरत बन जाते हैं. 

वह प्रेमकथा ही क्या जिसमें संयोग घटित न होते हों. ऐसे संयोग जो वियोग का कारण बनें. मनुष्य कन्या और वनमानुष के अपारिभाषित संबंध पर भी संयोग की मार पड़ती है और मनुष्य कन्या एक दिन गायब हो जाती है. यहाँ फिर अभिशप्त उर्वशी का अंतर्धान होना याद आता है. यह भी याद आता है कि अनेक वर्षों तक बाल लीलाएँ करने औए रास लीला रचाने के बाद गोपियों के मध्य से कृष्ण भी अंतर्धान हो गए थे. प्रेम की यह परिणति कथा में करुणा और त्रास को उत्पन्न करती है. द्रवित हृदय लिए वनमानुष जंगल जंगल, पर्वत पर्वत अपने खोए हुए प्यार को खोजता है. संपूर्ण प्रकृति बिंब प्रतिबिंब भाव से इस प्रेमलीला में बराबर की साझेदार है. इसीलिए संयोग में प्रफुल्लित रहने वाला बन भी वियोग में वनमानुष के साथ धीरे धीरे सूख जाता है. मर जाता है. मीरा की कामना थी कि सारा शरीर भले ही कौए नोच नोचकर खा जाएँ लेकिन पिया मिलन की आस से भरे दो नेत्र बचे रहें. वन और वनमानुष का भी अंत कुछ ऐसा ही है. कहीं कोई लघु मरुद्यान शेष है तो वह मनुष्य कन्या के आने की राह देख रहा है. 

देवा प्रसाद मयला ने ‘बा-बेला’ के रूप में एक रोचक प्रेमकथा रची है जो बच्चों को भी पसंद आएगी और बड़ों को भी. रचनाकार के लेखन में निखार की शुभकामना के साथ इस कृति के प्रकाशन पर मैं उन्हें हार्दिक बधाई देता हूँ. 

22 नवंबर 2014 -                                                                                                                    ऋषभदेव शर्मा

सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

[नया ज्ञानोदय] हमारी बुआ


मूल तेलुगु कविता – शिखामणि 
हिंदी अनुवाद – ऋषभ देव शर्मा


  


उसका कोई गाँव नहीं था, बस झोंपडपट्टी थी
उसका कोई नाम नहीं था, केवल जाति हुआ करती थी
कोई सुख नहीं था उसके हिस्से, बस मेहनत थी
वह हमारी बुआ थी – तुम उसकी कहानी सुनोगे ?

बुआ कोई आम औरत नहीं थी;
पपीते के पेड़ सा लंबा–ऊंचा कद  
पीछे को न मुडती  नदी सी चाल;
सरू के पेड़ की तरह आसमान को चुनौती देती
हमारी बुआ
कसकर कोंछा मारे
हाथ में हँसिया उठाए
खेतों को जाती तो लगता
काली नागिन चली जा रही है - फन फैलाए!

बुआ का रंग काला था – पक्का काला;
पके ढेरों जामुनों का काला रंग
जुती हुई काली मिट्टी का आबनूसी काला रंग
खेतों के बीच नालियों में खिले काले कुमुदों का काला रंग !

और उसके माथे की वह लाल बिंदी;
ताजी पकी लाल मिर्च के ढेर सी सुर्ख लाल!

बुआ का रंग काला था,
पर मन एकदम गोरा – तरबूज के फूल सा
एकदम नरम – सेमल की रुई सा
एकदम शीतल – रात के मांड सा !


सृष्टि के आरंभ में जन्मी थी हमारी बुआ
उसके बाद ही कामकाज पैदा हुआ,
मनुष्य भर नहीं थी हमारी बुआ
कामकाज का आदिम औज़ार थी.

पिछवाड़े रीठे के पेड़ पर सुस्ताते कव्वे
पौ फटते हमारी बुआ से वक्त पूछते
और जब वह आँगन बुहार कर
झाडू वाला हाथ ऊपर उठाती
तो अनुशासित ढंग से परे हट जाते
बादलों के टुकड़ों समेत आकाशगंगा के तारे;
भौंचक रह जाती भोर - साफ़ सुथरे आँगन को निहार !

पनघट पर जाती बुआ
तो छोटी छोटी मछलियों की तरह
चार सीढ़ियों नीचे से पानी मचलने लगता,
चूमने लगता बुआ के पैरों की उँगलियाँ बार बार !

बरसात के आते ही
बरसी अनबरसी बदलियों के टुकड़े
खुशी और गम से पिघले बिना
चुपचाप तैरते थे बुआ की कजरारी आँखों में !

रोपाई के वक्त एक पौधा रोपती बुआ
अपनी तर्जनी के पोरुवे से
तो सारे खेत लहलहा उठते
पाल्मूरू [महबूबनगर] के विशाल वटवृक्ष [पिल्लल मर्रि] की तरह;
बुआ फिर भी खेत में खड़ी दीखती ठुट्ट की तरह !
होते होंगे सुबह और शाम सूरज के वास्ते
पर कभी न था आराम धनुषवत कमेरी बुआ के वास्ते !

ग्रामदेवता के कल्याणोत्सव में
और बच्चों के दोपहरी भोजन के कार्यक्रम में
अचानक फूट पड़ते पक्षपात की तरह
बुआ के घिस चुके चांदी के कड़ों से
लाख बुझी बुझी सी झांकती थी.!

जीवन भर बुआ बस बोझा ढोती रही;
चावल की ढाई मन की बोरी की उसके आगे क्या बिसात थी?

मैं सोचता हूँ
नारियल को अपनी जंघाओं से सटाकर
तीन वार में छील डालने वाली
हमारी बुआ ने  [भेदभाव ग्रस्त] कारमचेडू में जनम क्यों नहीं लिया?
गाँव से मनमुटाव होने पर
आँचल में पिसी मिर्च और हाथ में लालटेन लिए
रात रात भर नदी किनारे चौकीदारी में घूमती
हमारी बुआ ने [अन्याय ग्रस्त] चुंडूर में जनम क्यों नहीं लिया?

मैं सोचता हूँ
हमारी बुआ को
कल नहीं, आज होना चाहिए था!!

['प्रसार भारती' के 'राष्ट्रीय कवि सम्मलेन -2013' के लिए अनूदित]

नया ज्ञानोदय, अक्टूबर 2014. 
पृष्ठ: 162 - 163


मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

अद्यतन जनसंचार माध्यम : साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य






द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी : 18 तथा 19 अक्टूबर 2014 
श्री सिद्धरामेश्वर महाविद्यालय, कमलनगर, कर्नाटक 

बीज भाषण : डॉ. ऋषभदेव शर्मा 

अद्यतन जनसंचार माध्यम : साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य

1.

साहित्यिक-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में अद्यतन जनसंचार माध्यमों के स्वरूप, कार्यप्रणाली और प्रभाव पर विचार करने से सबसे पहले यह स्पष्ट होता है कि मीडिया हमारी भाषा को प्रभावित कर रहा है. यह प्रभाव दो प्रकार का है – 

(i)
विभिन्न जनसंचार माध्यम नई भाषा गढ़ रहे हैं. 

इस भाषा का मुख्य लक्षण है – भाषा मिश्रण. 

इसमें अंग्रेजी का हस्तक्षेप सबसे ज्यादा है और लगातार बढ़ रहा है. 

रोमन लिपि में और नागरी लिपि में अंग्रेजी शब्द, वाक्यांश, वाक्य, उक्तियाँ मीडिया की भाषा के अनिवार्य अंग बन गए हैं. 

बहुत बार तो हिंदी को भी रोमन लिपि में लिखकर हम खुश हो लेते हैं कि हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है. 

(ii)
स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट : प्रभु जोशी 

मीडिया पहले से चली आ रही हमारी भाषा परंपरा को विस्थापित करके इस गढ़ी गई भाषा को स्थापित करने की कोशिश करता दिखाई देता है = यूथ कल्चर की छलिया आनंद (मैनिपुलेटिड प्लेज़र) की भाषा 

इसमें संदेह नहीं कि भाषा का स्वभाव परिवर्तनशील होता है. परंतु इसके बावजूद उसकी एक सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा होती है. यह परंपरा उन शब्दों, अभिव्यक्तियों और भाषिक व्यवहारों में निहित होती है जिन्हें कोई भाषा समाज सैकड़ों-हजारों वर्षों की यात्रा में विकसित, अर्जित और नई पीढ़ी को संक्रमित करता है. 

अतः जब हम कहते हैं कि कोई भाषा परंपरा विस्थापित की जा रही है तो इसका अर्थ होता है कि उस परंपरा में जुड़े ज्ञान को विस्थापित किया जा रहा है. 

सांस्कृतिक चेतना को विस्थापित किया जा रहा है. 

खतरा यह है कि परंपराहीन भाषा के तथाकथित बहुवचनीय रूप के स्थापित होने से विस्थापन से उत्पन्न सांस्कृतिक शून्य भरता दिखाई नहीं देता क्योंकि इस नई गढ़ी गई भाषा की अपनी कोई संस्कृति नहीं है. 

इसमें संदेह नहीं कि एक केंद्रापसारी और सार्वदेशिक जनभाषा होने के कारण हिंदी की प्रकृति विभिन्न भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की रही है जो इसकी बहुत बड़ी ताकत है. लेकिन जनसंचार माध्यमों ने जिस प्रकार हिंदी भाषा के अंग्रेजीकरण की मुहिम चला रखी है उसमें तो हिंदी की प्रकृति ही गायब है

सवाल यह है कि यह कौन तय करेगा कि मिश्रण कितने प्रतिशत होना चाहिए. यह निर्धारण न सहज है न संभव. 

जनसंचार माध्यम इस कृत्रिम भाषा के प्रति अपने उपभोक्ता की रुचि पैदा कर रहे हैं और उस रुचि का भरण पोषण भी कर रहे हैं. अर्थात माँग और आपूर्ति दोनों पर इन्हीं का कब्जा है. 

यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि इस गढ़ी गई भाषा का प्रयोग न करने वाले लोग पिछड़े हुए हैं, उनका ज्ञान सीमित है. 

स्ट्रेटजी ऑफ लैंग्वेज शिफ्ट – क्रियोलीकरण की प्रक्रिया 

(1) स्मूथ डिस्लोकेशन ऑफ वोक्यूब्लरि (मूल भाषा के शब्दों का धीरे धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन) – Students, Parents, Teachers, Exams, Opportunity, Entrance, Sunday, India, Ordinary 

(2) Final assault on a Language (अंतिम हमला : लिपि बदलना) .


2.

 दूसरी बात बाजार और उसकी रीति-नीति के आक्रमण से जुड़ी है. 

जनमाध्यमों का व्यापक प्रचार-प्रसार ज्ञान, मनोरंजन और लोक शिक्षा में सहायक होना चाहिए था. लेकिन विज्ञापन और प्रतिष्ठानी प्रायोजन पर निर्भर होने के कारण मीडिया लगभग पूरी तरह से बाजार का उपकरण बन गया है. 

एफ एम रेडियो/ ज्ञान और परिष्कार का बड़ा साधन/ स्तरहीन फूहड़ कार्यक्रमों की बाढ़ 

सांस्कृतिक विकास के रास्ते में आने वाले प्रश्नों से बचना आज के चतुर चालाक मीडिया की पहचान बन गया है. 

आज सांस्कृतिक विकास की भी इनकी गढ़ी हुई परिभाषा प्रौद्योगिकी केंद्रित परिभाषा है. अर्थात उन्नत प्रौद्योगिकी माने उन्नत संस्कृति! संस्कृति में निहित उन्नत मनुष्यता को इस उन्नत प्रौद्योगिकी ने विस्थापित कर दिया. 

प्रौद्योगिकी केंद्रित और मीडिया द्वारा प्रायोजित सांस्कृतिक विकास की संकल्पना प्रतिक्षण परिवर्तन की संकल्पना है. उपयोग करो और फेंको. स्थायित्व के लिए कोई जगह नहीं. न व्यापार-व्यवसाय में, न राजनीति-कूटनीति में और न ही रिश्ते-नाते और प्रेम संबंधों में. 

तमाम राजनेता बड़ी बेशर्मी से रोज यह दोहराते हैं – राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. सच तो यह है कि राजनीति में ही नहीं मीडिया और बाजार की संस्कृति में कुछ भी स्थायी नहीं होता. विवाह और तलाक भी नहीं. 

इसी सबको समाचारों, बहसों, विज्ञापनों, नाटकों, यथार्थ प्रदर्शनों (रियालिटी शो) और फिल्मों के माध्यम से पुनः पुनः प्रचारित-प्रसारित किया जाता है. परिणामस्वरूप हमारे जीवन में यथार्थ के स्थान पर आभासी यथार्थ पहले स्थान पर आ गया है. 

मीडिया के सहारे बाजार ने हमारे जीवन और चिंतन को आक्रांत कर लिया है. 

आज उत्पादन और उत्पाद महत्वपूर्ण नहीं है. सर्विस महत्वपूर्ण है. आज का उपभोक्ता वस्तुओं को आफ्टर सेल सर्विस की सुविधा के आकर्षक विज्ञापन के आधार पर खरीदता है. अर्थात सर्विस सेक्टर हावी हो गया है. 

धमकी भरा आशावाद : सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी ! : बाजार में आगे!

सेवा प्रदाता आपके घर के दरवाजे पर डिलीवरी से लेकर सर्विस तक के लिए प्रस्तुत है. यानी एक नई तरह का बाजार अब हर घर के भीतर कई कई मोबाइल सेटों, टीवी चैनलों और इंटरनेट नमक नए जनसंचार माध्यम के रूप में 24 घंटे यही आवाज लगाता रहता है – बेचो, बेचो, बेचो ....... खरीदो, खरीदो, खरीदो... ऐसा नहीं लगता कि हम घर में रहते हैं और कभी कभी बाजार जाते हैं. अब तो हम बाजार में रहते हैं और घर कब पहुँचेंगे पता नहीं. 

मेले में भटके होते तो कोई घर पहुंचा देता;
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आएँगे. (दुष्यंत कुमार) 

3.

सांस्कृतिक संकट : 

संस्कृति का काम है विकास को स्थायित्व प्रदान करना और उसे अपनी परंपरा से जोड़ना. 

बाजार आश्रित मीडिया जिस विकास को प्रचारित करता है उसमें इन दोनों चीजों (स्थायित्व और परंपरा) के लिए कोई जगह नहीं है. वह ‘पॉपुलर कल्चर’ के नाम पर एक ऐसी संस्कृति गढ़ रहा है जिसमें स्मृति के लिए भी कोई स्थान नहीं है. यही करण है कि 21वीं शताब्दी की तमाम नई फिल्में बिजनेस तो करोड़ों का करती हैं लेकिन अगली फिल्म के आते ही पुरानी और कालातीत हो जाती हैं. जिस तरह एक बार पढ़े जाने के बाद अखबार और उसकी ख़बरें बासी हो जाती हैं. विचार नहीं; वाचालता.

ब्राडकास्टिंग इन थर्ड वर्ल्ड (ई-काट्ज और जी. बेबल) : 

जनसंचार में घुसकर सूचना साम्राज्यवादियों ने अपनी धूर्त सांस्कृतिक राजनीति की कुटिलता द्वारा तीसरी दुनिया की ‘भाषा’ और ‘संस्कृति’ को तहस-नहस कर दिया है. 

वाचाल : डी जे/ आरजे/ एंकर : हर चीज को मस्ती, मजा, Fun बना दें, कामुकता से जोड़ दें. 

मीडिया सनसनी और उत्तेजना की क्षणजीवी संस्कृति की रचना करता है. जबकि साहित्य का लक्ष्य कालजयी संस्कृति को रचना होता है. आज खतरा यह पैदा हो गया है कि साहित्य और संस्कृति का स्थान मीडिया के उत्पाद लेते जा रहे हैं. 

प्रभु जोशी : गालियों की नई पैकेजिंग – इडियट, बास्टर्ड, मदर .... फकर (YUPIES की भाषा) + तमीजदार हिंदी बोलने वाला = मसखरी + अभद्र व लंपट भाषा = युवा अभिव्यक्ति का आदर्श 

मीडिया द्वारा खड़े किए गए इस विभ्रम (इल्यूशन) को पहचानकर सत्वोद्रेक पर आधारित साहित्य तथा मनुष्य की चेतना को औदात्य प्रदान करने वाली संस्कृति का पोषण आज की जरूरत है. 



4.

आभासी दुनिया और कॉर्पोरेट सेक्टर

मीडिया चमक-दमक से भरी जिस तरह आभासी दुनिया की रचना कर रहा है वह वास्तव में कॉर्पोरेट जगत के हथियार के रूप में काम कर रहा है. कॉर्पोरेट कल्चर में संयम, सब्र, संतोष जैसी प्रवृत्तियों को पिछड़ापन माना जाता है. इसका बीज शब्द इच्छा, डिज़ायर या विल है. 

कॉर्पोरेट संस्कृति तृष्णाओं को बढ़ाने में विश्वास रखती है. भूख को बढ़ाने में विश्वास रखती है. (प्यास बढ़ाओ – Limca - करीना कपूर का विज्ञापन – Limca) 

यहाँ सब कुछ तड़क-भड़क से भरा हुआ, महँगा और ललचाने वाला है. कॉर्पोरेट जीवनशैली फिल्मों की तरह जीने में यकीन रखती है. विज्ञापन के बल पर तमाम खर्चीली चीजों का अंबार लगा लेना, किसी वस्तु के नए संस्करण के आते ही पुराने को फेंक देना, मोबाइल-टीवी-कार तक तो ठीक है पर यदि यही मानसिकता मित्रता, प्रेम, रिश्ते-नातों और परिवार के सदस्यों पर भी लागू की जाने लगे तो स्थिति कितनी भयावह हो सकती है इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. 

नृत्य : रतिक्रिया के पेल्विक जेस्चर्स : फूहड़ भौतिकता : डांस इंडिया डांस/ कॉमेडी नइट्स विद कपिल. घूंसे और बल्ले के प्रहार के साथ ‘देश बदल रहा है, वेश कब बदलोगो 

क्षणिक रोमांच या सनसनी में विश्वास करने वाले, इंटरनेट के प्रयोक्ता को व्यापक सामाजिक संबद्धता के यथार्थ से काटकर मोबाइल या कंप्यूटर की स्क्रीन पर सिमटी हुई (मुठ्ठी में आई हुई). आभासी दुनिया के विभ्रम में फंसाने वाले इस अद्यतन जनसंचार माध्यम को जाने किसने ‘सोशल मीडिया’ नाम दे दिया? यह ‘सोशल’ शब्द का भ्रामक प्रयोग है. 

आधुनिकता के दौर में धर्म और संस्कृति को रिलीजन और कल्चर जैसे गलत पर्याय दिए गए. उत्तरआधुनिक दौर में न्यू मीडिया को ‘सोशल’ जैसा गलत विशेषण दिया जा रहा है. जबकि इसका चरित्र ही ‘एंटी सोशल’ है. व्यापक समाज से काटकर जो हमें माध्यम की हदों में बाँध दे वह सोशल कैसे हो सकता है? 

इसका समाजीकरण पाखंड भर है. मोबाइल और इंटरनेट के जरिए जंतरमंतर पर बाबा रामदेव या अन्ना हजारे भीड़ तो इकट्ठी कर सकते हैं लेकिन महात्मा गांधी जैसे जान पर खेल जाने वाले स्वयंसेवक तैयार नहीं कर सकते. 

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए
लहू लुहान नज़ारोँ का ज़िक्र आया तो
शरीफ़ लोग उठे दूर जाके बैठ गए (दुष्यंत) 

5.

अंत में 

मैं तीन बातें अत्यंत संक्षेप में कहना चाहूँगा - 

(i)
बाजार और कॉर्पोरेट के हाथ में खेलता हुआ मीडिया हमारी सामाजिक सांस्कृतिक विरासत को छिन्न-भिन्न करने पर आमादा है. अभद्र और अश्लील के प्रति समाज आश्चर्यजनक रूप से सहिष्णु होता जा रहा है जो बेहद खतरनाक संकेत है. 

(ii)
मीडिया की तात्कालिकता ने मनुष्य की संवेदनाओं को भी क्षणिक बना दिया है. हिंसा, क्रोध, घृणा, आक्रामकता और नग्नता के पल पल परिवर्तित रूपों ने एक खास तरह की पारस्परिक असहिष्णुता पैदा की है. लोकतंत्र के नारे तो हम लगाते हैं लेकिन प्रतिपक्ष की किसी भी आवाज का गला घोंटने के लिए हम किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह असहिष्णुता बाजार संस्कृति की देन है. और इसकी परिणति तानाशाही और आतंकवादी प्रवृत्तियों में दिखाई दे रही है. सब व्यवस्थाएँ आज ऊपर ऊपर से लोकतांत्रिक लगती हैं लेकिन भीतर से सबका चरित्र अधिनायकवादी है. 

(iii)
संस्कृति का हाशियाकरण. 

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन : 9 : जनसंचार माध्यम : बदलता परिदृश्य

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए  कुछ  सामग्री तैयार  की है.

आज नवीं किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन - 9


दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन : 8 : नाटक का रूपांतरण

राजीव गांधी विश्वविद्यालय, रोनो हिल्स, ईटानगर, अरुणाचल प्रदेश.

स्नातकोत्तर प्रयोजनमूलक हिंदी डिप्लोमा के छात्रों को प्रश्नपत्र ''दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन'' पर संबोधित करने के लिए  कुछ  सामग्री तैयार  की है.

आज आठवीं किस्त .....

दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन -8

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

स्त्री बहनापे की ‘एक नई पहचान’

मीडिया और स्त्री का संबंध बहुरूपी है. मीडिया ने स्त्री को भरपूर जगह दी है. वहाँ स्त्री एक सजग संप्रेषणकर्मी के रूप में उपस्थित है. सूचनाओं के कवरेज से लेकर विवेचन-विश्लेषण तक – पूरी बौद्धिकता के साथ अपनी पहचान को रेखांकित करती हुई. वहाँ स्त्री हर तरह की मनोरंजन सामग्री के रूप में मौजूद है और उपभोक्ता वस्तुओं को बेचने से लेकर भावभंगिमा और सौदर्य तक का बाजार लगाए हुए है. वहाँ स्त्री खास तरह के पारिवारिक मेलोड्रामा में बेहद लाउड ढंग से मानो अग्रप्रस्तुत है – कभी रोती-चिल्लाती हुई, कभी गाली से लेकर भाषण तक देती हुई, कभी अविश्वसनीय ढंग से दबी कुचली तो कभी अविश्वसनीय ढंग से आकाश में उड़ती. किस्साकोताह यह कि मीडिया पर आगे-पीछे-दाएँ-बाएँ-ऊपर-नीचे-भीतर-बाहर सर्वत्र स्त्री स्त्री स्त्री है – स्त्री न हुई वैदिक ऋषि की गाय हो गई ! बेशक, ये स्त्रियाँ वैदिक ऋषियों की गायें ही हैं जो उपभोक्तावादी संचार क्रांति के नाम पर दशों दिशाओं में हाँक दी गई हैं. इससे यह तो पता चलता है कि मीडिया ने स्त्री की नई छवि बनाई है. वह स्त्री के प्रति संवेदनशील हुआ है. वहाँ स्त्री का वर्चस्व बढ़ रहा है. पर इसमें भी दो राय नहीं कि मीडिया की स्त्री ‘भारत की स्त्री’ नहीं है. 

ऐसे में जब कोई टीवी सीरियल भारतीय स्त्री की किसी निजी समस्या को लेकर सामने आता है तो पिछले कई दशकों में बनाई (या बिगाड़ी गई) भारतीय स्त्री की यह टीवी छवि टूटती है कि स्त्रियाँ स्वभावतः शंकालु और षड्यंत्री होती हैं. भारतीय सोप शृंखलाओं ने पिछले दशकों में व्यापक मध्यवर्गीय स्त्री दर्शकों को बाँधे रखने के लिए एक कथारूढ़ि के रूप में यह मिथ विकसित किया है कि पुरुष स्वभावतः मूर्ख और स्त्रियाँ स्वभावतः षड्यंत्रकारी होती हैं. सोनी टीवी पर 23 दिसंबर 2013 से दिखाया जा रहा धारावाहिक ‘एक नई पहचान’ भारतीय स्त्री की ‘पहचान’ की समस्या को तो रेखांकित करता ही है, इस मिथ को भी तोड़ता है. 

‘एक नई पहचान’ देखते समय तेलुगु की प्रसिद्ध कहानी ‘ईगा’ याद हो आई जिसमें घर लीपते-लीपते अपना नाम भूल जाने वाली मक्खी की लोक कथा की तरह घर परिवार को सँवारते-सँवारते अपना नाम खो देने वाली एक स्त्री की बेचैनी और नाम याद आने पर मिलने वाली खुशी का मार्मिक चित्रण किया गया है. घर-गृहस्थी में अपने अस्तित्व को पत्नी और माँ के गरिमामय संबोधनों के सहारे लगभग मिटा देने वाली आम भारतीय गृहिणी को मिलता क्या है? उसके त्याग और समर्पण का मूल्य परिवार किस तरह चुकाता है? उसकी पहचान मिटाकर ! उसे उपदेश देकर ! दुत्कार कर ! बात-बात पर ताने देकर – तुम्हें आता क्या है? तुम जानती क्या हो? तुम्हें क्या पता पैसा कैसे कमाया जाता है? एक काम भी कभी ढंग से किया है तुमने? क्या करती रहती हो चौबीसों घंटे? अर्थात न उसके श्रम का कोई मूल्यांकन है न प्रेम का. न उसके उत्पादन का कोई महत्व है न आत्मदान का. लेकिन जिम्मेदारी हर चीज की उसी पर. सास-ससुर की, पति परमेश्वर की, बेटे-बेटी की, रिश्ते-नातों की – सबकी देखभाल उसी को करनी है पर श्रेय उसे किसी का नहीं मिलता. कर्तव्यकर्म है सब – करती रहो सिर झुकाए. इस पुरुषवादी दृष्टिकोण को इस सीरियल में सुरेश मोदी नामक उद्योगपति के आचरण द्वारा दर्शाया गया है तो गाय स्वरूपा भारतीय अबला की छवि उसकी पत्नी शारदा के व्यक्तित्व में रूपायित की गई. शारदा को न अपने व्यक्तित्व का पता है न व्यक्तिगत गुणों का. जबकि सुरेश के परिवार ही नहीं व्यापार की भी धुरी वही है. वह पटोला साड़ियों पर अनुपम कारीगरी की माहिर है – इसीलिए तो सुरेश की मिल का नाम ‘शारदा टेक्सटाइल्स’ है. पुरुष का यह स्त्रीपूजक मुखौटा तब बड़ा नकली लगता है जब घर में वह इसी परम पूज्य स्त्री को प्रतिक्षण मानसिक प्रताड़ना देता है. 

शारदा के प्रति सुरेश का व्यवहार घरेलू हिंसा के उस रूप को भली प्रकार उभारता है जो स्त्री को आत्महीनता, आत्मदया और अपराधबोध से भरकर उसके व्यक्तित्व को कुचल देता है. लेकिन स्थिति का व्यंग्य यह है कि सुरेश स्त्री शिक्षा के लिए भी काम करता है. इसके लिए उसे सम्मानित भी किया जाता है. अर्थात दोहरा आचरण. लेकिन एक समय वह भी आता है जब सुरेश को स्त्री शिक्षा प्रोत्साहन हेतु स्वयं शारदा के हाथों पुरस्कृत किया जाता है. सुरेश इस अवसर पर मुक्त कंठ से शारदा की प्रशंसा करता है तो स्वाभाविक है कि वह कृतज्ञता भाव से भर उठती है. पर इस सच्चाई का क्या करें कि घर की सारी व्यवस्था शारदा के पढ़ने जाने की शुरूआत करते ही बिगड़ जाती है – इसीलिए तो सुरेश पकी उम्र में शारदा के पढ़ने का विरोधी है. इस द्वंद्व के द्वारा धारावाहिक यह उभारता है कि पत्नी के व्यक्तित्व के क्षरण और निर्माण दोनों में पति की बड़ी भूमिका होती है. बहू साक्षी इस बात को समझती है और समय समय पर सुरेश की सदाशयता को जगाने का गाहेबगाहे प्रयास करती रहती है. साक्षी के माध्यम से इस धारावाहिक ने स्त्री बहनापे का तो प्रखर रूप उभारा ही है, टीवी धारावाहिकों के इस मिथ को भी तोड़ा है कि स्त्री सदा ही स्त्री की शत्रु होती है. यही कारण है कि यह सीरियल गृहिणियों को ही नहीं नई रोशनी की लड़कियों को भी पसंद आ रहा है. 

स्मरणीय है कि जय मेहता प्रोडक्शन्स द्वारा निर्मित ‘एक नई पहचान’ वस्तुतः प्रसिद्ध लेखिका वर्षा अदाल्जा द्वारा लिखित गुजराती नाटक ‘शारदा’ का आधिकारिक रूपांतर है. शारदा और साक्षी सास-बहू हैं लेकिन उनका संबंध अंतरंग सखियों जैसा है जो वस्तुतः सामाजिक परिवर्तन की वांछित दिशा का द्योतक है. स्त्री सशक्तीकरण और स्त्री शिक्षा द्वारा घरेलू स्त्री की एक नई पहचान निर्मित करने वाली इस गाथा में साक्षी प्रगतिशील नई स्त्री है और शारदा पारंपरिक स्त्री. शारदा जाने कितनी कलाओं में प्रवीण है लेकिन सुशिक्षित अथवा भली  प्रकार साक्षर नहीं है. नामकरण की विडंबना देखिए कि सरस्वती का नाम वहन करने वाली शारदा कंपनी के कागजों पर हस्ताक्षर नहीं कर सकती, अंगूठा लगाती है. धोखा खा जाती है. करोड़ों का नुकसान. परिणाम पुनः पुनः तिरस्कार. साक्षी भी लेकिन केवल तटस्थ भाव की ‘साक्षी’ नहीं है. उसे मालूम है – नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध (दिनकर). उसका पात्र रचते हुए यह ध्यान में रखा गया है कि जो स्त्रियाँ साक्षर हैं, सुशिक्षित हैं, मुक्त हैं, स्वावलंबी हैं उनका कर्तव्य है कि वे अशिक्षा, निरक्षरता, परनिर्भरता और गुलामी के पर्दों में कैद अपनी अन्य बहनों को शृंखला की इन परंपरागत कड़ियों से मुक्त करने का प्रयास करें. (द्रष्टव्य : शृंखला की कड़ियाँ : महादेवी वर्मा). और साक्षी इसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. कहना न होगा कि वह टीवी की दुनिया का एक नया क्रांतिकारी स्त्री चरित्र है जो किसी रजनी, तुलसी और पार्वती की तरह लाउड हुए बिना बड़ी सहजता परंतु दृढ़ता से स्त्री की अस्मिता के लिए आग्रहपूर्वक सामने आती है और शारदा के रूप में मानो कि स्त्री बहनापे की नई इमेज खड़ी करती है. 

दैनिक धारावहिक है तो रोज नई नई चीजें उभरकर सामने आती हैं लेकिन अच्छा यह है कि सारी कड़ियाँ इस एक अंतःसूत्र में पिरोई हुई हैं कि यदि स्त्री के साथ स्त्री खड़ी हो जाए – एकजुट होकर, तो स्त्री जाति को एक नई परिभाषा मिल सकती है. बेशक इस धारावाहिक में घरेलू तानों-उलाहनों से छिदी हुई स्त्री अस्मिता का शिक्षा के सहारे कायाकल्प करने की जिद पिछले दिनों आई फिल्म ‘इंग्लिश-विंगलिश’ की याद दिलाती है लेकिन इस धारावाहिक की स्थितियाँ उससे भिन्न है, और उपचार भी. आगे आगे देखिए होता है क्या ! 

[उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की अर्द्धवार्षिक पत्रिका 'बहुब्रीहि' के दूसरे अंक  - जनवरी जून 2014 - में प्रकाशित यह मीडिया-समीक्षा 14 अप्रैल 2014 को  लिखी गई थी इसलिए इसमें उस समय तक की ही कड़ियों का ज़िक्र है.तब से अब तक 'एक नई पहचान' में अनेक नए मोड आ चुके हैं..... उनकी चर्चा कभी फिर.... यदि अवसर मिला तो.]

गांधी और हिंदी के साथ 'अपुङ' की चुस्की



अरुणाचल प्रदेश, ३० सितंबर २०१४.
आज दोइमुख स्थित सरकारी महाविद्यालय में जाने का अवसर मिला. प्रसंग था ''हिंदी-गांधी और राष्ट्रीय एकता'' विषयक 'दिशा विन्यास कार्यशाला'. स्नातक स्तर के छात्र-छात्राओं ने हिंदी में नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, भाषण और गीत-संगीत से महात्मा गांधी की प्रासंगिकता और अरुणाचल प्रदेश में हिंदी की सहज व्याप्ति का तो बोध कराया ही, शिक्षा और रोजगार की समस्या पर फिर से सोचने को बाध्य भी किया. अरुणाचली हिंदी की संप्रेषणशक्ति भी महसूस की. सचमुच, प्राध्यापकों और छात्रों  ने जी-जान से तैयारी की थी. मैं उन सबके प्रति नतमस्तक हूँ. 
अरुणाचल टाइम्स ने इस समारोह की रिपोर्ट देते हुए लिखा है -
Hindi Divas and Gandhi Jayanti

DOIMUKH, Sep 30: 

Blending the events of Hindi Divas and Gandhi Jayanti, the department of Hindi, Government College Doimukh today organized ‘Hindi-Gandhi Aur Rashtriya Ekta’ programme to acknowledge the importance of Hindi language and also to commemorate the birth anniversary of Mahatma Gandhi, here at its college premises.

Addressing the gathering, Director of Higher and Technical Studies Joram Begi said that the success of Hindi language in the state can be understood with the fact that the highest numbers of National Eligibility Test (NET) qualifiers are Hindi students.
However, stating that Hindi no doubt have given a common platform for communication among different tribes of Arunachal Pradesh, Begi added that due importance should also be given to respective indigenous dialects so that it survives, especially by youths.
Begi also appealed them to participate in the mass cleanliness drive, which has been initiated under ‘Swachh Bharat Abhiyan’ across the state, by cleaning their college surroundings and also their respective residential areas.
Further stating that the most important thing that India needs now is cleanliness, Begi urged the students and faculties present to give their contribution towards cleanliness drive which he opined would be an honest tribute to Mahatma Gandhi.
Professor Rishabha Deo Sharma of Hyderabad who attended the programme as special guest said that regionally spoken Hindi like that of Mumbai, Kolkata, Hyderabad, Arunachal and others, though may not be grammatically sound but should be adopted and given equal recognition as it make Hindi language as national language in true sense.
The main attraction of the programme was the creative satirical statement on educational scenario of the state, delivered in a form of street play titled ‘Jahan Shiksha Ki Buniyad Nahi Hai’. The street play was performed by a group of 44 students which was led by assistant professor Tai Togung, department of Hindi, Government College Doimukh.

कार्यक्रम के बाद दोइमुख की एक स्थानीय नेत्री और जिला परिषद की सदस्य के आवास पर विशिष्ट सांस्कृतिक भोज की व्यवस्था थी. ''टी टोटलर हूँ'' बताकर आतिथेय का मान रखने को ''अपुङ'' की एक चुस्की अपुन ने भी भरी. पता नहीं कि ऐसा स्वाद कभी और किसी पदार्थ का अपने अनुभव में आया हो!? शायद नहीं... अर्थात एक अलग स्वाद. बड़े स्नेह से पूछ-पूछ कर मातृभाव से उन लोगों ने भोजन कराया - मुझ शाकाहारी के लिए भी अनेक प्राकृतिक पदार्थ थे. तृप्ति हुई. आनंद आया.

अपुङ  के बारे में खोजने पर यह जानकारी मिली -
Apo (drink)
From Wikipedia, the free encyclopedia

Apo or Apung is a rice beer. It is popular among the tribes in the North East Indian states of Arunachal Pradesh and Assam. It is prepared by fermentation of rice. It is generally distributed among the participants in a bamboo shoot.[1]
The Nyishi people, who form the major part of the local tribal population in Nirjuli, celebrate Nyokum annually. They serve the local drink, Apung made by fermentation of rice. The Nyishi people offer the drink, every time they drink it, to the spirits (wiyus) by letting few drops of it fall on the ground.[2]
[चित्र सौजन्य - तादो नाबाम]