- ऋषभ देव शर्मा
स्मितेन भावेन च लज्जयाभिया
पराङगमुखै अर्ध कटाक्ष वीक्षणैः
वचोभिरीर्ष्या कलहेन लीलया
समस्त भावै खलु बंधनं स्त्रियः
[मुस्कान से/ प्रणय भाव से/ लज्जा से/ कातरता से/ कुछ-कुछ तिरछी चितवन से/ मुँह फेरकर निरखने से/ अंग भंगिमाओं से/ - इन सभी से/ मन को बाँध लेती हैं रमणियाँ.] (शृंगार शतक)
न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतर वाद चंचवः
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषिता
[न तो हम नट हैं, न गायक, न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे, और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है, फिर हमें राजाओं से क्या लेना-देना?] (नीति शतक)
यूयं वयं वयं यूयं इत्यासीन मतिरावयोः
किं जातम् अधुना येन – यूयं यूयं वयं वयं
[तुम हम थे और हम तुम थे – यह हमारी और तुम्हारी बुद्धि थी. आज क्या हो गया कि हे मित्र! तुम तुम हो और हम हम हैं.] (वैराग्य शतक)
भोगाः न भुक्ताः वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः
[हमने भोग नहीं भोगे, बल्कि भोग ने ही हमें भोगा है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गए हैं; काल व्यतीत नहीं हुआ, हम ही व्यतीत हुए हैं; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं !] (वैराग्य शतक)
जीवन और जगत की विविध गहन अनुभूतियों को सूक्ति और सुभाषित के रूप में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाले कवियों में भर्तृहरि अनन्य हैं. उन्होंने मुक्तक रचकर महाकवियों जैसा देशकाल का अतिक्रमण करने वाला यश पाया है. उनके शृंगार शतक, नीति शतक और वैराग्य शतक भारतीय साहित्य के सिरमौर काव्यों में परिगणित हैं. उनकी जीवनबिद्ध रचनाएँ शिष्ट जन और लोक सामान्य में समान रूप में समादृत हैं. वस्तुतः वे क्रांतदर्शी मनीषी परिभू स्वयंभू सर्जक हैं. उनकी रचनाएँ मुक्तक काव्य का प्रतिमान हैं. अपने आप में संपूर्ण या अन्यनिरपेक्ष उनके ये मुक्तक पूर्वापर प्रसंग निरपेक्ष रहकर रस चर्वणा का सामर्थ्य प्रमाणित करते हैं. यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि इन मुक्तामणियों में महाकाव्य का सा अर्थगाम्भीर्य और गीति काव्य जैसी अनुभूतिप्रवणता का सघन संगठित रूप समाया हुआ है जिसका स्रोत जीवनानुभव की प्रामाणिकता में निहित है.
भर्तृहरि कौन थे? कब विद्यमान थे? उनके जीवन में कैसे कैसे मोड़ आए, गए? उनकी कविता में इतनी ध्रुवांतस्पर्शी विरोधाभासी विविधता क्यों है? ऐसे अनेक प्रश्न लंबे समय से विद्वानों को उद्वेलित करते रहे हैं. इन प्रश्नों के सुनिश्चित उत्तर फिर भी हमारे पास नहीं है. हमारे पास हैं पुराणों से लेकर लोक प्रचलित किंवदंतियों तक फैली हुई अनके कथाएँ. हमारे पास है विक्रमादित्य का इतिहास. हमारे पास है ‘वाक्यपदीय’ जैसा व्याकरण और भाषाविज्ञान का गूढ़ग्रंथ. इन सबके साक्ष्यों को जोड़कर भर्तृहरि की जो एक छवि बनती है वह ईसा की पहली शताब्दी के पूर्व से लेकर तीसरी शताब्दी तक की अवधि में कभी हुए किसी निजंधरी कथा के लोकनायक जैसी छवि है. यह लोकनायक राजा भी है, संन्यासी भी. भोगी भी है और नीतिकार भी. योगी भी है और वैयाकरण भी. प्रेमी भी है और भक्त भी. अभिप्राय यह है कि भर्तृहरि असाधारण प्रतिभाशाली विद्वान रहे होंगे. और उन्होंने अपने जीवन में विविध प्रकार के अनुभव अर्जित किए होंगे जिनका प्रतिफलन उनके मुक्तक काव्य में हुआ है.
यहाँ प्रसंगवश उस लोकगाथा की चर्चा भी आवश्यक है जिसने भर्तृहरि को राजा से संन्यासी बना डाला. कहा जाता है कि “एक बार किसी योगी ने भर्तृहरि को एक दिव्य फल दिया, जिसके खाने से अक्षय यौवन प्राप्त किया जा सकता था. भर्तृहरि अपनी पिंगला रानी को अपने से अधिक प्यार करते थे. अतः उन्होंने यह फल अपनी रानी को ही दे दिया. किंतु रानी एक अन्य पुरुष से प्रेम करती थी, अतः उसने वह फल अपने प्रेमी को दे दिया. उसका वह प्रेमी किसी वेश्या के प्रेम में डूबा हुआ था; अतः उसने वह फल वेश्या को दे दिया. उस वेश्या के हृदय में राजा भर्तृहरि के प्रति अत्यधिक सम्मान और प्रेम था. अतः उसने वह फल भर्तृहरि को समर्पित कर दिया. राजा ने उस फल को पहचान लिया और उसके संबंध में पूछताछ करके अपनी रानी के प्रेम संबंधों को जान लिया. जब रानी को यह पता चला कि राजा उसके अवैध प्रेम व्यापार को जान गए हैं तो उसने महल पर से कूद कर आत्महत्या कर ली.” इस घटना से राजा भर्तृहरि का मन सांसारिकता से विमुख हो गया और उन्होंने अपने छोटे भाई को राज्य सौंपकर वन की राह ले ली. स्मरणीय है कि अनुश्रुति के अनुसार भर्तृहरि के ये अनुज ही उज्जैन के सम्राट विक्रामादित्य हैं जिन्होंने कालांतर में विक्रम संवत का प्रवर्तन किया. भर्तृहरि के मोहभंग के अंतर्साक्ष्य के रूप में यह श्लोक प्रायः उद्धृत किया जाता है – यां चिंतयामि सततं मयि सा विरक्ता/ सापि अन्यं इच्छति जनं स जनोन्य सक्तः / अस्मतकृते च परिशुष्यति काचिदन्या/ धिक् ताम् च तं च मदनं च इमां च मां च. (मैं सतत जिसका चिंतन करता हूँ वह मुझसे विरक्त तथा अन्य के प्रति अनुरक्त है. वह भी किसी और को चाहता है जबकि वह अन्या मेरे प्रति चिंतित है. - उसे और उसे, कामदेव को, इसे और मुझे धिक्कार है.)
यहाँ यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि भर्तृहरि का समय भारतीय समाज और संस्कृति के इतिहास में एक प्रकार से संक्रमण का समय था. (बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः/ अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम् – विद्वान लोग ईर्ष्या से भरे हैं, राजा लोग गर्व से चूर हैं और अन्य लोग अज्ञान के मारे हुए हैं, इसलिए उपयोग के अभाव में सुभाषित मेरे अंगों में ही जीर्ण-शीर्ण हो गया.) उस समय राजतंत्र कमजोर पड़ रहा था और सामंत वर्ग के माध्यम से इस देश में नई सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक व्यवस्था पनप रही थी. उस समय के विविध अंतर्विरोध ही प्रकारांतर से भर्तृहरि के परस्पर विरोधाभासी व्यक्तित्व के आयामों के प्रतीक हैं. सत्ता, संन्यास, व्याकरण, साहित्य. लोक और शास्त्र सब यहाँ आकर अपने अपेन ढंग से भर्तृहरि के कवि मानस को पुष्ट करते हैं. कहीं न कहीं भोग के यथार्थ को उजागर करने वाला भर्तृहरि का यह काव्य मानवीय संबंधों के पतन से ग्रस्त आज के मूल्यमूढ़ समाज के लिए संभवतः इसीलिए प्रासंगिक है कि उस काल और इस काल की सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताएँ किसी न किसी रूप में एक जैसी हैं.
इसमें संदेह नहीं कि भर्तृहरि बेहद संवेदनशील और अद्भुत कल्पनाशक्ति से संपन्न प्रातिभ कवि थे. उन्होंने कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाने वाली समाहार शक्ति तो अर्जित की ही थी, अत्यंत सूक्ष्म भावों को सहज पारदर्शी अभिव्यक्ति प्रदान करने की कला में भी वे निष्णात थे. उन्होंने यह जान लिया था कि मनुष्य के जीवन की कृतार्थता धन संचय में नहीं कविता, कला और संगीत की उन तरंगों से एकाकार होने में है जो उसे राग-द्वेष से मुक्त करके उसके भीतर की सात्विकता को उद्रिक्त करती हैं. इसीलिए उन्होंने साहित्य, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति को पशु की श्रेणी में रखा है और यह माना है कि सामान्य व्यक्ति से लेकर राजा और राज्य तक के लिए कलाओं की सिद्धि अनिवार्य आवश्यकता है. भर्तृहरि हिंदी के कवि तुलसीदास और अंग्रेजी के कवि पोप की भांति कठिन विषय की सरल अभिव्यक्ति में माहिर मर्मस्पर्शी सहज कवि माने गए हैं. उन्होंने अपने काव्य में सांसारिक जीवन की विसंगतियों, विकृतियों और क्षुद्रताओं के नग्न यथार्थ को खोलकर रख दिया है. इस अर्थ में वे घोर यथार्थवादी प्रतीत होते हैं. लेकिन इस यथार्थ चित्रण का उद्देश्य मनुष्य में निहित सात्विक और उदात्त तत्वों को जागृत करना है जो उन्हें उच्च जीवन मूल्यों के प्रतिष्ठापक आदर्शवादी कवि के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए पर्याप्त है.
लगभग दो हजार से अधिक वर्षों से भर्तृहरि का काव्य भारतीय साहित्यकारों को प्रेरित करता आ रहा है. यदि यह कहा जाए कि अपने शतकों के माध्यम से लोक में व्याप्त होकर भर्तृहरि भारत की जातीय स्मृति के अनिवार्य अंग बन चुके हैं तो कोई अतिशयोक्ति न होगी. कालिदास (जो संभवतः भर्तृहरि के समकालीन थे या उनके तुरंत बाद हुए थे) से लेकर आधुनिक काल तक के कवियों की उक्तियों में पग पग पर भर्तृहरि की सूक्तियों के प्रतिफलन को खोजा जा सकता है. खासतौर से हिंदी का मध्यकालीन मुक्तक काव्य तो उनके प्रति ऋणी है ही. यही कारण है कि आज के समय में भी उनके शतकों को समकालीन काव्य शैली मैं ढालकर नए नए काव्यानुवाद सामने आ रहे हैं. कुछ दशक पूर्व ओंकारनाथ श्रीवास्तव द्वारा ‘वैराग्य शतक’ का अत्यंत मनोरम हिंदी काव्यानुवाद प्रस्तुत किया गया था, तो इधर के वर्षों में राजेश जोशी ने ‘नीति शतक’ का बेहद मार्मिक काव्यानुवाद प्रस्तुत करके भर्तृहरि की प्रासंगिकता को रेखांकित किया ही है, आज की कविता को अपनी परंपरा के साथ जोड़ने का भी महत्कार्य किया है.
अंत में, राजेश जोशी द्वारा किए गए ‘नीति शतक’ के अनुवाद के कुछ अंश यहाँ बिना टिप्पणी के उद्धृत किए जा रहे हैं जिन्हें हमने <नई बात.ब्लागस्पाट.इन> से साभार ग्रहण किया है –
महामूर्ख
मगर की दाढ़ से मणि निकाल कर
ला सकता है आदमी
मचलती लहरों में तैरता
समुद्र पार कर सकता है आदमी.
आदमी फूलों की माला–सा पहन सकता है
सर पर क्रोधित सांप को
पर नहीं बदल सकता वह
महामूर्ख का मन !
रेत को पेर कर
रेत को पेर कर
तेल निकाल सकता है आदमी
मरीचिका में भी
पी सकता है पानी
बुझा सकता है प्यास.
शायद !
भटक-भटकाकर आदमी
खोज कर ला ही सकता है
सींग ख़रग़ोश के.
पर नहीं बदल सकता
ख़ुश नहीं कर सकता वह
महामूर्ख का मन.
एक दुष्ट को
एक दुष्ट को
मीठी मीठी बातों से
लाना रास्ते पर?
यानि
नाजुक मृणाल के डोरों से बांधकर
रोकने की कोशिश करना हाथी को
हीरे को छेदने की कोशिश
शिरीष के फूलों की नोक से
यानी
समुद्र को मीठा करने की कोशिश
शहद की एक बूंद से !
पतन
उतरी स्वर्ग से पशुपति के मस्तक पर
पशुपति के मस्तक से उतरी
ऊंचे पर्वत पर
उतरी ऊंचे पर्वत से
नीचे धरा पर
पृथ्वी से उतर कर
समुद्र में समा गई गंगा.
विवेकहीन मनुष्य का
इसी तरह सौ तरह
होता है पतन.
दवा
बुझाया जा सकता
आग को पानी से
छाते से रोका जा सकता है
धूप को.
नुकीले अंकुश से मदमत्त हाथी को
और गाय और गधे को
किया ही जा सकता है बस में
पीट-पाट कर.
रोग की दवाओं से
और ज़हर को उतारा जा सकता है
मंत्रों से.
बताई है शास्त्रों ने हर चीज़ की दवा
पर दवा कोई नहीं
कोई नहीं है दवा
महामूर्ख की.
बिना सींग और पूंछ वाला जानवर
बिना सींग और पूंछ वाला
जानवर है वह
वह जो शून्य है
साहित्य कला और संगीत से
बिना घास खाए
जो जीता है वह
तो यह भाग्य ही है
इस धराधाम के जानवरों का !
संग
दुर्गम पहाड़ों में
वनचरों के साथ साथ
घूमना अच्छा.
पर बैठना अच्छा नहीं
मूर्खों के साथ साथ
इन्द्र-भवन में भी.
मणियों का क्या दोष
जिस राजा के राज में
भटकते हों निर्धन ऐसे कवि
कविता जिनकी सुंदर
शास्त्रों के शब्दों सी
कविता जिनकी ज़रूरी
बहुत ज़रूरी शिष्यों के वास्ते
तो राजा ही है मूर्ख
समर्थ है विद्वान तो बिना धन के भी
हक़ है उसे करे निन्दा
अज्ञानी जौहरी की
गिरा दिया है जिसने मूल्य मणियों का
इसमें दोष क्या है भला मणियों का !
राहु
वृहस्पति और पांच छह ग्रह
और भी हैं
आकाश गंगा में
पर किसी से नहीं लेता दुश्मनी मोल
वह पराक्रमी राहु
पर्व में वह ग्रसता है
सिर्फ़ तेजस्वी सूर्य और चंद्रमा को
जबकि सिर्फ़
सिर ही बचा है
उसकी देह में.
कांचन
बस धनवान ही हैं कुलीन
धनवान ही हैं पण्डित
वही है
सारे शास्त्रों और गुणों का भण्डार
वही है सुंदर
वही है दिखलौट
सारे गुण क्योंकि
बसते हैं कांचन में !
कल्पतरू
हे राजन
दुहना है अगर तुम्हें
इस पृथ्वी की गाय को
तो पहले हष्ट-पुष्ट करो
इस लोक रूपी बछड़े को
अच्छी तरह पाला पोषा जाए
जब इस लोक को
तभी फलता फूलता है
भूमि का यह कल्पतरू.
ओ चातक
ओ चातक !
घड़ी भर को
ज़रा कान देकर सुनो मेरी बात
बहुत से बादल हैं आकाश में
पर एक से नहीं हैं
सारे बादल
कुछ हैं बरसते
जो भिगो डालते हैं सारी पृथ्वी को
और कुछ हैं जो
सिर्फ़ गरजते ही रहते हैं लगातार
ओ मित्र
मत मांगो हर एक से दया की भीख !
दोस्ती
दूध ने दे डाला सारा दूधपन
अपने से मिले पानी को
गर्म हुआ जब दूध
पानी ने जला डाला अपने को
आग में.
दोस्त पर आयी जब आफ़त
तो उफ़न कर गिरने लगा दूध भी
आग में.
पानी से ही हुआ वह फिर शांत
ऐसी ही होती है दोस्ती
सच्ची और खरी.
आफ़तें
हाथ से फेंकी गई गेंद
फिर उछलती है
टप्पा खा कर
आफ़तें स्थायी नहीं होतीं
अच्छे लोगों की.
गंजा
धूप ने तपा डाली
जब चांद गंजे को
तो छाया की तलाश में
पहुंचा वह एक ताड़ के नीचे
ताड़ से गिरा फल
और तड़ाक से फोड़ दिया
उसने गंजे का सर
जहां कहीं जाता है भाग्य का मारा
आफ़तें साथ साथ जाती हैं
उसके.
ललाट पर लिखी
करील पर न हों पत्ते
तो बसंत का क्या दोष
नहीं टिपे उल्लू को दिन में
तो सूरज का क्या दोष
पानी की धार न गिरे चातक के मुंह में
तो बादल का क्या दोष
बिधना ने जो लिख दी है ललाट पर
कौन मेट सकता है उसे !
कर्म
ब्रह्माण्ड का घड़ा रचने को
जिसने कुम्हार बनाया ब्रह्मा को
दशावतार लेने के जंजाल में
डाल दिया जिसने विष्णु को
रुद्र से भीख मंगवाई जिसने
हाथ में कपाल लेकर
जिसके आदेश से हर रोज़
आकाश में चक्कर लगाता है सूर्य,
उस कर्म को
नमस्कार !
नमस्कार !
राजपाट क्या है
लाभ, लाभ क्या है
गुनियों की संगत है लाभ.
दुख, दुख क्या है
संग, मूर्खों का संग है दुख,
हानि, हानि क्या है
समय चूकना है हानि.
क्या है, क्या है निपुणता.
धर्म और तत्व को जानना है निपुणता
कौन है, कौन है वीर
वीर है, जो जीत ले इंद्रियों को
प्रेयसी, प्रेयसी कौन है
पत्नी, पत्नी ही है प्रियतमा
धन, धन क्या है
ज्ञान, ज्ञान ही है धन
सुख, सुख क्या है
यात्रा, यात्रा ही है सुख;
तो फिर राजपाट क्या है !!
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