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मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

तेलुगु काव्य 'धरती माँ' :सुद्दाला अशोक तेजा


भूमिका 
धरती माँ / तेलुगु कविताओं का हिंदी अनुवाद /
रचनाकार - सुद्दाला अशोक तेजा /
अनुवादक - एम. रंगय्या /
 एमेस्को बुक्स, हैदराबाद-29 /
2014 / 144  पृष्ठ  / 90 रूपए. 


समकालीन तेलुगु कविता का फलक अत्यंत विस्तीर्ण और पहुँच अत्यंत पैनी है. यह कविता अपने चारों ओर के घटनाचक्र के प्रति अत्यंत सजग होने के साथ साथ मनोभावों और भावोद्वेलनों के प्रति भी पूरी ईमानदार है. यह देखकर विस्मय होता है कि तेलुगु कविता प्रकृति और पर्यावरण के प्रति मनुष्य की जिम्मेदारी को रेखांकित करने में कोई कोरकसर नहीं उठा रखती – भले ही इसमें कवित्व की क्षति का ख़तरा भी हो. उसके लिए कला से अधिक महत्वपूर्ण है जीवनराग. इस जीवनराग की बहुविध अभिव्यक्ति करते हुए आज की तेलुगु कविता कभी जल तो कभी वायु, या कभी पृथ्वी, और कभी आकाश से स्वयं को संबद्ध करके अभिव्यंजना के नए मुहावरे की तलाश करती है. तेलंगाना के प्रतिष्ठित सिने कवि सुद्दाला अशोक तेजा ने भी अपने इस कविता संग्रह ‘धरती माँ’ की साठ कविताओं में पर्यावरण विमर्श का ऐसा ही नया व्यंजना-मुहावरा तलाश करने की कोशिश की है. 

‘धरती माँ’ की कविताएँ इस सनातन विश्वास से संप्रेरित प्रतीत होती हैं कि पृथ्वी माँ है और हम उसकी संतान हैं. पृथ्वी की यह गरिमा वेदों से चलकर रामायण-महाभारत से होती हुई कवि अशोक तेजा तक पहुँची है. वैदिक ऋषि ने अत्यंत उल्लासपूर्वक 'पृथिवी सूक्त' रचा था, जो मनुष्य जाति की अब तक की श्रेष्ठतम कविताओं में परिगणित है. धरती माँ के प्रति वैसी मुग्धता, निष्ठा और दायित्व भावना आज के मनुष्य में कहाँ? कवि उसी पावन संबंध की खोज कर रहा है. इस खोज में उसे धरती माँ, अपनी माँ और वन माँ एक ही वात्सल्य की विस्तीर्ण व्यंजनाएँ प्रतीत होती हैं. पृथ्वी और मनुष्य के इस संबंध ने ही सभ्यता एवं संस्कृति का आविष्कार और विकास किया है. पृथ्वी सारी प्रकृति को धारण करती है. संरक्षण देती है. पृथ्वी मनुष्य को वह ऊर्जा प्रदान करती है जिसके बल पर वह जीवन का युद्ध लड़ता है, जीतता है. जीवन के इस युद्ध में मनुष्य ने अनेकानेक आविष्कार किए हैं, यंत्र निर्मित किए हैं. कवि मानव सभ्यता के पूरे विकास को यंत्रों के इस रूपक के माध्यम से व्याख्यायित करते हुए इस सत्य का प्रतिपादन करता है कि श्रम ही वेद है और मानव जीवन का वास्तविक सौंदर्य श्रमसीकर में है, स्वेद में है.

सभ्यता और संस्कृति की पड़ताल करते हुए कवि अशोक तेजा ने धरती का स्तवन उसके जाये वृक्ष-लता- गुल्मों, वन-पर्वत-नदियों की आराधना के रूप में अत्यंत प्रभावी शैली में किया है. कवि का हृदय यह देखकर चीत्कार कर उठता है कि जो मानव संस्कृति मूलतः प्रकृति-निर्भरा थी. वह यांत्रिकता के चरम उत्कर्ष से उपजी अंधी उपभोक्ता संस्कृति के कारण विकृत होकर प्रकृति-विरोधी हिंसक और विध्वंसक बन गई है. वृक्षों और वनों के प्रति ममता तथा धरती और प्रकृति के प्रति पूज्य भाव जगाने की कोशिश करने वाली ये कविताएँ तथाकथित उत्तरआधुनिक बाजारवादी और युद्धक मनुष्य जाति को चेतावनी देती हुई प्रतीत होती हैं. मनुष्य का अस्तित्व पृथ्वीग्रह के अस्तित्व के साथ नाभिनालबद्ध है. पृथ्वी मिटेगी तो मनुष्य भी मिटेगा. मनुष्य को बचना है तो पृथ्वी को बचाना होगा. पृथ्वी को बचाने का एक ही रास्ता है कि उसके प्रति पूज्य बुद्धि पुनः स्थापित हो. सही अर्थ में आज के बुद्धिवादी मनुष्य को धरती के प्रति माँ जैसा भावात्मक संबंध पुनः स्थापित करना होगा. इसी के लिए कवि नई पीढ़ी को उद्बोधित करता है कि वह पृथ्वी का दोहन करने की प्रवृत्ति से गुरेज करे और अपने राष्ट्र ही नहीं संपूर्ण पृथ्वी गृह की रक्षा के लिए उठ खड़ा हो. 

धरती माँ की रक्षा केवल भूमि, जल और पर्यावरण आदि की रक्षा से ही नहीं जुड़ी है, बल्कि इसका संबंध लोक संस्कारों की रक्षा से भी  है. स्त्री जाति का सम्मान भी इसी का एक पक्ष है. बच्चों की सुरक्षा के बिना पृथ्वी के भविष्य की रक्षा भला कैसे की जाती है. यही कारण है कि कवि सुद्दाला अशोक तेजा लोक के विभिन्न उपादानों, खेतीबाड़ी, गीत-संगीत, रिश्ते-नाते और गाँव-घर के प्रति गहरा लगाव रखते हैं. वे कन्या भ्रूण हत्या को अमानुषिक मानते हैं,  मातृत्व को व्यक्तित्व की परिपूर्णता समझते हैं,  स्त्री को अमृत का पर्याय घोषित करते हैं और अर्धांगिनी को नमन करते हैं.  मनुष्य और मनुष्य के बीच जाति, धर्म, लिंग अथवा अन्य किसी भी प्रकार के भेदभाव को वे पृथ्वी की रक्षा में बाधक मानते हैं. उन्हें ऐसे परिवर्तन की आकांक्षा है जो मनुष्य की जीत के लिए जीवन से भरे गीत से उत्प्रेरित हो और सृष्टि यजन में प्रत्येक नागरिक की समिधा से परिपुष्ट हो. अभिप्राय यह है कि कवि अशोक तेजा परस्पर आत्मीयता से परिपूर्ण ऐसे भूमंडल की कल्पना करते हैं जिसमें प्रकृति और मनुष्य साहचर्य भाव से निवास करें. भोग्य और भोक्ताभाव से नहीं. 

21वीं शताब्दी के दूसरे दशक में आज जब समस्त भूमंडल बाजारवाद की आंधी में उड़ा जा रहा है और मनुष्य के हाथ से मनुष्यता का साथ छूटा जा रहा है, ऐसे में ये कविताएँ अत्यंत आश्वस्तिकर हैं, क्योंकि ये कविताएँ भटके हुए मानव शिशु की उंगली धरती माँ के हाथ में थमाना चाहती है. 

तेलुगु की उत्कृष्ट कविताओं को हिंदी समाज के समक्ष प्रस्तुत करने का स्तुत्य उद्यम सुप्रतिष्ठित कवि और अनुवादक डॉ. एम. रंगय्या ने अत्यंत निष्ठापूर्वक किया है. डॉ. एम. रंगय्या बहुभाषाविद साहित्य साधक हैं और कविताओं के मर्म को पहचान कर पूरी सावधानी के साथ लक्ष्यभाषा पाठ रचते हैं. ‘धरती माँ’ के प्रति उनकी यह आराधना सफल हो, इसी शुभकामना के साथ ..... 



28 अप्रैल 2014                                                                                     - डॉ. ऋषभदेव शर्मा

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