भूमिका
प्रेम सृष्टि की मूल शक्ति है. वही आकर्षण और चेतना का स्रोत है, मुक्त मनोभाव है. प्रेम व्यक्ति को मनुष्य और मनुष्य को देवता बनाता है. प्रेम जीवन को सार्थकता प्रदान करता है और प्रेम का अभाव जीवन को भटका देता है. सारे भाव प्रेम में से ही उपजते हैं, उसी में विलसते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं. प्रेम की यह लीला देश और काल की सीमाओं से परे देह और दैहिकता के पार मन और आत्मा की लीला है. प्रेम ऐसा अहोभाव है जो हमारे अस्तित्व पर कोमलता के किसी क्षण में गुलाब की पंखुड़ियों पर बरसती हुई ओस की बूंदों की तरह उतरता है. जब हमारे अस्तित्व पर प्रेम उतरता है तो हम रूपांतरण की प्रक्रिया से गुजरते हैं, सहज संवेदनशील हो उठते हैं. प्रेम में पाना महत्वपूर्ण नहीं होता, प्रेम में होना महत्वपूर्ण होता है. खोने-पाने का गणित व्यापारी रखा करते हैं, प्रेमीजन नहीं. प्रेम जब उतरता है तो कविता फूटती है. यह हो सकता है कि हर प्रेमी कवि न होता हो पर कविता फूटती अवश्य है. भले ही निःशब्द रह जाए.
यही विस्मयकारी अनुभव अशोक स्नेही (1954) के अस्तित्व पर भी उतरा है. स्वभावतः कविता भी फूट पड़ी है. निःशब्द नहीं सशब्द; क्योंकि अशोक स्नेही आतंरिक अनुभूतियों को कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करना जानते हैं. प्रणय के स्पंदनों को, अपरिचिता के साथ कल्पना लोक में विहार की विविध मनोदशाओं को, शब्दचित्रों में बाँधना उन्हें भली प्रकार आता है. उनके मनोजगत की सर्वथा निजी अनुभूतियों का मुकुलित और प्रस्फुटित रूप है – ‘सोनिया’. यह अनपाए प्यार की अद्भुत गाथा है.
‘सोनिया’ डॉ. अशोक स्नेही की काव्यकला का सुंदर नमूना है. इसमें कवि ने अपरिचित प्रेयसी के साथ कल्पना में रास रचाया है. मिलन और विरह के सारे अनुभव कोमल मन के झनझनाते तारों पर झेले हैं. मनवीणा के तारों की इस झंकार में कभी अप्रतिम रूप की अभ्यर्धना बज उठती है तो कभी उत्कंठित मानस की इच्छाएँ तरंगित होने लगती हैं. प्रिया का रूप कवि को प्रकृति के साथ एकाकार प्रतीत होता है और प्रकृति प्रिया के एक एक अंग में समाई लगती है. इस अपरिचित कविप्रिया के होंठ दहकते लाल टेसू हैं, नयन बहकते मस्त भँवरे हैं, अंग अंग चहकता है, चंचल चितवन दुधारी तलवार चलाती है और गालों पर अंगार खिलते हैं. यह नायिका अत्यंत कोमल है, चंचल है, मोहिनी है. कभी कवि को वह इतनी निकट लगती है कि मिलन की मन्नतें माँगकर इच्छाओं की पूर्ति का द्योतक कलावा कलाई में बाँध लेती है और रविवार की छुट्टी में कवि उसे पीपल पर नाम गोदने चलने के लिए आमंत्रित करता है; तो कभी कवि स्वयं को सम्मोहित अनुभव करता है – ऐसे हर क्षण में प्रिया अपनी नरम उँगलियों से छूकर नवरस रंग बहार का संचार करती है, काव्य की प्रेरणा बन जाती है. चरम समर्पण के क्षणों में यह कविप्रिया गंगा और माँ भी बन जाती है. वही सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक मूल्य क्षरण के बीच नई मूल्य चेतना का प्रतीक बनकर प्रकट होती है और वही सारे प्रवादों और अपवादों के बीच सहज संबल प्रदान करती है.
इसमें संदेह नहीं कि डॉ. अशोक स्नेही के जीवन में प्रेम का यह अवतरण उस मोड़ पर हुआ है जब कवि को यह अनुभव हो चुका है कि संबंधों के ताने-बाने मकड़ी के जाले हैं, जीवन समझौतों का दूसरा नाम है. ऐसी स्थिति में इस प्रेम के सहारे कवि एक समानांतर दुनिया में, सपनों के संसार में, ही मुक्ति का बोध पाता है, इस समानांतर संसार में ही घने बबूलों के जंगल, दरिंदों के दंगल, विघ्न और अमंगल को विलीन करने वाला ऐसा जादू है, जिसके लोक में पहुंचकर कवि यथार्थ जगत के समस्त दुखों से निस्तार पाता है. यह समानांतर जगत ही डॉ. अशोक स्नेही की ‘सोनिया’ का जगत है, रूप के जादू का जगत है, प्रेम का जगत है.
प्रेम के इस जादुई जगत के सृजन और प्रकाशन के लिए कवि को बधाई देते हुए मैं उनके यश की कामना करता हूँ.
12 जून 2014 - ऋषभदेव शर्मा
नजीबाबाद (यात्रा)
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