प्रारंभिक रचनाएँ : नामवर सिंह /
(सं) भारत यायावर/
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली /
पृष्ठ – 248 /
मूल्य – रु. 450/-
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“हिमगिरि पार फूटा प्रात !
प्राण की ओ निर्झरी !
गिरि पार फूटा प्रात !
किरण रंजित शिखर सतरंगी
लपट से जल उठे हैं
चाँदनी के दीप में पुखराज
सौ-सौ बज उठे हैं
घाटियों में अलस तरल प्रमाद गलिता रात !”
दुनिया उन्हें आलोचक के रूप में जानती है. लेकिन वे मूलतः कवि हैं. आप चाहें तो उनकी आलोचना को भी कविता की तरह पढ़ सकते हैं. अगर कचरा साफ़ करने का नागरिक धर्म उन्होंने न अपना लिया होता तो आज हम उन्हें शिखरस्थ सृजनशील साहित्यकार के रूप में जानते.
हमारा अभिप्राय डॉ.नामवर सिंह से है जिनकी सृजनात्मक साहित्यचेतना का अकाट्य प्रमाण हमारे सामने है. भारत यायावर के संपादन में प्रकाशित नामवर सिंह की ‘प्रारंभिक रचनाएँ’ (2013) उनके प्रारंभिक लेखन की बानगी तो हैं ही, “इनके द्वारा हम नामवर सिंह के साहित्यिक विकास की जड़ों को भी पहचान सकते हैं और उनके प्रारंभिक साहित्य जीवन के भावबोध एवं विचारों की भी पड़ताल कर सकते हैं.” (पृ.6).
इस पुस्तक के पहले खंड में कविताएँ संकलित हैं; और जैसा कि कभी त्रिलोचन ने लिखा था – नामवर सिंह की पुस्तक-पगी आँखें प्रकृति और जीवन के अछूते दृश्यों का चित्र भी दिखा सकती हैं, यह उनका पाठक पहली ही नजर में पहचान जाएगा. एक कवि के रूप में नामवर जी के मुख्य सरोकार प्रकृति, प्रेम और जन से जुड़े हैं. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी साहित्य के साथ ही लोक जीवन के रस में रची हुई है उनकी काव्यचेतना. इसीलिए वे अपने गीतों में प्रसाद के साथ ओज गुण को भली प्रकार साध पाते हैं जिससे एक युवा कवि के मन में दहकती आग का पता चला है – “सिंधु थी, देवापगा थी / किंतु था न प्रवाह उनमें / हिंद था, हम थे, न थी पर / वह दहकती दाह हममें / पर उठा तुमने दिया उर-सिंधु में वह ज्वार !” (पृ.24/ राजर्षि). महात्मा गांधी के निधन पर तमाम भाषाओं में जाने कितना कुछ लिखा गया लेकिन युवा कवि नामवर ने आग और प्रकाश का जो उड़ता हुआ बिंब रचा वह अछूता है – “मुँद गईं लपट की पंखड़ियाँ / उड़ गया ज्योति का हंस मुक्त / फैला सहस्र दिन की पांखें/ छा गया, किंतु वसुधा वियुक्त.” (पृ.39/ आदित्य पुरुष गांधी). कवि की सौंदर्यदृष्टि का पसारा इतनी दूर तक है कि चंद्रमा के चित्रण की सारी परंपरा के पार जाकर वह दिन में उगे चाँद को भी इस रीझ के साथ देख लेती है कि – “बादल के टुकड़े सा दिन के / तीसरे पहर में उगा चाँद.” (पृ.45/ तिर रही धान की लहरों पर). दरअसल यह दृष्टि हमारे उस किसान की दृष्टि है जिसे किरणों की पिचकारियों के बीच झुर्रियों भरा सिवान कुम्हड़े के फूल सा विहंस उठता (पृ.44/ सुनहरा विहान) दिखाई देता है.
काव्यभाषा लय, ताल, छंद - सब पर कवि नामवर का अनन्य अधिकार प्रतीत होता है. और बिंबविधान ! कुछ कहने की अपेक्षा एक विहंगावलोकन उचित होगा – क्यों जल जल, घुल घुल, रो रोकर, तड़प तडप रह जाता बादल?/ लह लह लह लहराती घासों पर छम छम नाच रहा है पानी/ फुफकारते हुए ब्रजेश नाग पर उठो / छलकती है नयन में उठ उठ हृदय की बात / गिरि गिरि के दीप जला साँझ जा रही / दिन का वह ऐरावत दूर जा रहा गिरि पथ, कर में रवि-कमल विनत, सुरभि आ रही ! / जोत का जल पोंछती सी छाँह, धूप में रह रह उभर आए / फागुनी शाम अंगूरी उजास, बतास में जंगली गंध का डूबना/ पारदर्शी नील जल में सिहरती शैवाल / विजन गिरि पथ पर चटकती पत्तियों का लास / पकते गुड़ की गरम गंध ले सहसा आया मीठा झोंका.
दूसरे खंड में विविध विधाओं की गद्य रचनाएँ हैं – एक कहानी, सात आलोचनात्मक निबंध, दो रम्य रचनाएँ, एक व्यक्ति चित्र और तीन समीक्षाएँ. ये सभी रचनाएँ प्रमाणित करती हैं कि 25 की उम्र तक नामवर जी ने गद्य और आलोचना की अपनी शैली विकसित कर ली थी जो पहले के गद्यकारों से अलग है – अध्ययन की प्रौढ़ता, अनुभव की प्रामाणिकता, विचार की स्पष्टता, प्रतिपादन की निर्भ्रांतता, मूल्यांकन की विवेकशीलता, भाषा की अर्थगर्भता और शैली की व्यंजकता. ‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ शीर्षक रम्य रचना वर्षा ऋतु पर एक और ललित निबंध भर नहीं है. इस अभिनव मेघदूत में राजनीति का गहरा बोध है. ‘कहानी की कहानी’ भी युवा रचनाकार के जनवादी रुझान में रची पची है. कथानायक का नाम ही अत्यंत व्यंजनापूर्ण है – खरपत्तू. आलोचना और समीक्षा में दो टूक बात करने की सफाई ध्यान खींचती है – गोस्वामी जी का रामराज्य व्यावहारिक सत और आनंद का प्रतीक है जिसमें समाज की रक्षा और मंगलकामना निहित है. (पृ.71) / शुक्ल जी आधुनिक पुनरुत्थान युग के चरम उत्कर्ष की उपज थे. वे ‘निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीपशिखोदय’ कहे जा सकते हैं. (पृ. 85) / कविता ऐसी लिखनी है जिसके चारों ओर तथाकथित काव्यात्मकता का कोई आवरण न हो. वह इतनी पारदर्शी हो कि हम कविता को न देखें, जो कविता में है सीधे उसी को देखें. (पृ.99) / चित्रांकन चाहे प्रकृति का हो, चाहे मन की किसी अनिर्वचनीय भावना का, अज्ञेय उसमें माहिर हैं. (पृ.102) / निस्संदेह सामाजिक यथार्थवाद की सच्ची कविता लोक काव्य से ही उत्पन्न और विकसित होगी. (पृ.117) / भोगना ही काफी नहीं है, जानना और समझना भी जरूरी है. शांतिप्रिय के दृष्टिकोण में इसी दूसरे पक्ष की कमी है. (पृ.122).
तीसरा खंड है ‘बकलम खुद’ - इसी नाम से 1951 में प्रकाशित संग्रह के कुल 17 व्यक्तिव्यंजक निबंध. त्रिलोचन ने इन्हें निर्वैयक्तिक वैयक्तिकता, चुनौती, संयत व्यंग्य और आत्मीत्यता के लिए उल्लेखनीय माना था. इन निबंधों में वाग्मिता की प्रखरता और चुटकी लेने का अंदाज खास तौर पर ध्यान खींचता है – इस युग में प्रायः स्थान रिक्त करने के लिए ही कहा जाता है. पूर्ति के लिए तो केवल मैं ही कह रहा हूँ. (... के कर कमलों में.) / मैं नहीं चाहता कि पुस्तक की खाली कनात के बाहर खड़ी होकर भूमिका विचित्र अंगी-भंगी के साथ भीतरी तमाशे की महिमा गा गाकर टिकट बेचे. (भूमिका). / कभी कभी यह थंडर ताला इतनी साहित्यिक रुचि वाला साबित होता है कि राष्ट्रभाषा के द्वार पर भी अपने आप लटक जाता है. (अब हम स्वतंत्र है) / जिनके पास चाँदी की आँखें नहीं हैं उन कवियों को इस पतझर में भी वसंत कैसे दिखाई पड़ रहा है? (मदन महीपजू को बालक बसंत).
हिंदी जगत को संपादक भारत यायावर और राजकमल प्रकाशन के प्रति आभारी होना चाहिए कि उन्होंने आलोचक नामवर सिंह की विराटता की ओट में जाने कब से ओझल पड़ी कविमना युवा नामवर की रस में भींजती तस्वीर सामने लाकर धर दी है.
और अंत में, पाठकों के आत्मविमर्श हेतु ‘लड़ते हैं मगर हाथ में तलवार भी नहीं’ का यह अंश ...
“देखा गया कि देशी जबानें सब-की-सब कट चुकी थीं लेकिन विदेशी जबान न जाने कैसे साफ-साफ बच गई थी और उसमें कहीं भी लहू नहीं लगा था – बल्कि वह तो हँस रही थी. अंत में लंबी जबान को घायल तथा युद्ध-अपराधी समझकर 15 वर्ष के लिए वनवास दे दिया गया और सर्वसम्मति से यही तय रहा कि चूँकि विदेशी जबान सबसे स्वस्थ, सुंदर और सबल है, इसलिए तब तक राज-रानी उसे ही बनाया जाए ! सबने उससे हाथ मिलाया, टीका किया. मनोरंजन का अंत गंभीर निर्णय के रूप में प्रकट हुआ !”
भास्वर भारत/ जुलाई 2013 / पृष्ठ 50.
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