फ़ॉलोअर

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

एसवी सत्यनारायण की तेलुगु काव्यकृति ‘जीवन : एक संघर्ष’



भूमिका

 तुम्हारा पोता ही नहीं दादा! 
यहाँ आदमी ही गुम हो गया


‘जीवन : एक संघर्ष’ आंध्रप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष डॉ.एस.वी.सत्यनारायण की 50 तेलुगु कविताओं का डॉ.के.श्याम सुंदर द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद है. इस अनूदित काव्यकृति के माध्यम से हिंदी के पाठक समकालीन तेलुगु कविता के एक अत्यंत जुझारू साहित्यकार के कविकर्म से परिचित हो सकेंगे तथा उनके काव्य में निहित तेजस्विता और भावप्रवणता का साक्षात्कार कर सकेंगे. 

डॉ.एस.वी.सत्यनारायण की ये कविताएँ जीवन को एक निरंतर चलने वाला युद्ध मानती हैं जिसमें रचनाकार की प्रतिबद्धता जन के प्रति है. यह जन प्रतिबद्धता जनांदोलन और उसके पीछे निहित विचारधारा के प्रति भी है. इस प्रकार की प्रतिबद्ध रचनाओं के अभिधामूलक होने का ख़तरा सदा बना रहता है. एसवी ने इस खतरे का बखूबी सामना किया है और शैलीय उपकरणों की सहायता से वे अपनी कविता को निरा वक्तव्य होने से बचा ले गए हैं – यह उनकी नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा और कवित्व शक्ति का प्रमाण है. वस्तुतः एसवी की संवेदना अत्यंत व्यापक है. इसलिए विचार उनकी कविता को मार नहीं पाता. निस्संदेह इन कविताओं में मार्क्सवादी विचार सर्वव्यापी है. लेकिन भावुक कवि की सहृदयता उसके आवरण को फोड़कर फूट निकली है.यही कारण है कि इन कविताओं के भावबिंब पाठक को बींध जाने में समर्थ है. 

कवि की सहानुभूति हर उस व्यक्ति के साथ है जो या तो संघर्ष में है या संघर्ष में शहीद हो गया है. जीवन संघर्ष में शहीद होने वाले अनाम व्यक्ति के प्रति भी उनकी कविता में चौराहा आँसू बहाता है. माँ की ममता और करुणा कवि की स्मृति में बसी हुई है. पात्रकेंद्रित कविताओं में उनकी यह करुणा अलग ही रंग दिखाती है. जब वे तेलंगाना की वीरांगना आरुट्ला कमला देवी को तेलंगाना सशस्त्र कृषक आंदोलन में विकसित अग्निपुष्प कहते हैं तो उनकी जनचेतना और सौंदर्यचेतना एक साथ प्रतिफलित होती दिखाई देती हैं. इसी प्रकार तम्मारेड्डी सत्यनारायण को वे पिछली पीढ़ी के निबद्ध सेनानी और आज की पीढ़ी के ध्रुवतारे के रूप में याद करते हैं. ए.पुल्लन्ना रेड्डी के प्रेरणास्पद व्यक्तित्व को काव्यात्मक अभिव्यक्ति देते हुए वे उन्हें प्रतिघातियों के लिए उठी मुट्ठी, शत्रु पर असहमत योद्धा और मित्रों के लिए करदीपिका के रूप में बिंबायित करते हैं. जनकवि गद्दर पर जब जानलेवा हमला हुआ तो एसवी को ऐसा प्रतीत हुआ कि वनमाता के हृदय में उछलने वाले जलप्रपात को नेस्तनाबूद करने की कोशिश की गई है. इसी प्रकार समशील साहित्यकार पेनुगोंडा लक्ष्मीनारायण को जब वे आधुनिक कथा-सरित्सागर में अक्षर के मोतियों को बीनता देखते हैं तो उनकी आत्मीयता सहज ही गीत के रूप में फूट पड़ती है. कवि की इस आत्मीयता की बाँहें स्त्रियों, दलितों, वनवासियों और बालश्रमिकों – सब को अपने में समेटे हुए हैं. एसवी जहाँ सुंदर लड़की का अपहरण करके उसे नर्तकी बनाकर कमाई करने वाले तथा स्त्री से वेश्यावृत्ति कराने वाले व्यक्तियों की भर्त्सना करते हैं वहीं मीडिया और लेखकों को भी क्षमा नहीं करते – “तीसरा और एक है/ उसको अन्याय हुआ कह आक्रोश करता है/ बाजार चढ़ी जानकर दुखी होता है/ उसकी कई तस्वीरें खींचता है/ इंटरव्यू लेता है/ उसके चारों ओर सुंदर कहानियाँ बनाकर/ अंधेरी संकरी गलियों से/ कीर्ति, धन इकठ्ठा करता है/ ये कौन है समझ रहे हैं?/ क्षुद्र लेखक.” शिक्षा को उपाधि का धंधा बना देने वाले विश्वविद्यालय भी कवि के आक्रोश से नहीं बचे हैं – “बिना किसी प्रसव वेदना के/ डिग्री के कीड़ों को पैदा करने वाले/ हे विश्वविद्यालय!/ थोड़ा दर्द हो तो भी परवाह नहीं – बर्दाश्त कर/ बिजली के समान मेधावियों को पैदा कर.”

प्रगतिवादी रचनाकार के सरोकारों के दायरे में सहज रूप से रूस, जर्मनी, नामीबिया और क्यूबा आ जाते हैं. जर्मनी की दीवार गिरती है तो कवि साम्यवाद के रंगीन भविष्य का सपना देखता है – "तुम आँखें खोलोगे/ आँखें लाल करोगे/ फूटोगे/ प्रजा युद्धों की सृष्टि करोगे/ ऐक्य जर्मनी के हृदय पर अरुण पताका फहराओगे." निरंतर युद्धक मानसिकता के चलते कवि विधिवत युद्ध की भी वकालत करता है. जो लोग पूछते हैं कि युद्ध ने हमें क्या दिया, वर्ग संघर्ष का समर्थक कवि उन्हें बताता है कि युद्ध ने हमें लड़ने का साहस दिया है, मित्रों का आदर करने का संस्कार दिया है, शत्रु को पहचानने की चेतना दी है, हमारी सोच के ज्वालामुखी को कंपित किया है और हमारी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान की है. इसीलिए कवि आह्वान करता है - “देखो इधर आओ मित्र/ युद्ध चल ही रहा है.”

कवि एसवी को पिछली शताब्दी से यह शिकायत है कि मुट्ठियों से छूटकर दरातियाँ क्यों टूट गईं जबकि आज सर्वत्र परायीकरण और छल-छद्म ही मूल्य बन गए हैं तथा सभ्यता और संस्कृति के पाठ के अर्थ और सारांश उलट गए हैं. यही कारण है कि आज सारा वातावरण भष्ट्राचारमय है, गरीब आत्महत्या करने पर विवश है और संघर्ष के शेरों पर ग्रीन टाइगर छोड़े जा रहे हैं. अर्थात कवि की राजनीति एकदम स्पष्ट है. वह शोषित जन के सशस्त्र आंदोलनों के साथ है. लेकिन जन का साथ निभाते हुए कवि को यह देखकर हार्दिक कष्ट होता है कि हमने एक ऐसी शहरी सभ्यता का विकास कर लिया है जिसमें कोई किसी के साथ नहीं है. गाँव से शहर आए अपने गुमशुदा पोते को तलाशते हुए बूढ़े को संबोधित करते हुए एसवी कहते हैं – “तुम्हारा पोता ही नहीं दादा!/ यहाँ आदमी ही गुम हो गया/ हाँ/ आदमी गुम हो गया.” 

युवा अनुवादक डॉ.के.श्याम सुंदर ने डॉ.एस.वी. सत्यनारायण की कविताओं का संप्रेषणीय अनुवाद करने का यथाशक्ति प्रयास किया है. आशा है उनके इस कार्य की हिंदी जगत में सराहना होगी. 

शुभकामनाओं सहित 

- ऋषभदेव शर्मा 

कोई टिप्पणी नहीं: