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गुरुवार, 2 अगस्त 2012

27 तेलुगु महिला कथाकारों का 'गुलदस्ता' लोकार्पित


अभी उस दिन 25 जुलाई 2012 (बुधवार) की शाम 27 महिला कथाकारों की तेलुगु कहानियों के हिंदी अनुवाद ''गुलदस्ता'' को लोकार्पित करने के लिए वयोवृद्ध  तेलुगु लेखिका डॉ. वासा प्रभावती के आग्रह पर श्री त्यागराय गान सभा (चिक्कड़पल्लि, हैदराबाद) में जाना हुआ. अध्यक्षता प्रो. पी. माणिक्यांबा ने की. पुस्तक का परिचय डॉ. आर. राज्यलक्ष्मी ने कराया. अनुवाद के बारे में इन कहानियों की अनुवादक  श्रीमती आर. शांता सुंदरी बोलीं. लोकार्पणकर्ता अर्थात अपुन का जीवनवृत्त पढ़ कर सुनाया श्रीमती वाराणसी नागलक्ष्मी ने और सत्कार किया श्रीमती गंटि भानुमति ने. आत्मीय अतिथि के रूप में डॉ. कला वेंकट दीक्षितलु ने भी अपने उदगार प्रकट किए. खास बात यह कि यह समस्त गतिविधि तेलुगु भाषा में चली ... अपुन के लोकार्पण-व्याख्यान के अलावा: लेकिन मंच और श्रोतागण [सभागार भरा हुआ था]  के रेस्पोंस से यह प्रमाणित हो गया कि वहाँ उपस्थित अधिकतर लेखक-लेखिकाओं को मेरी हिंदी  आराम से समझ में आ गई थी. [मैं तो प्रायः तेलुगु को संस्कृत शब्दावली के सहारे अनुमान के आधार पर समझने का प्रयास किया करता हूँ].


'गुलदस्ता' में तेलुगु लेखिकाओं की कई पीढियां एक साथ उपस्थित हैं - डॉ.मालती चंदूर से तुरगा जयश्यामला तक. मैंने सोचा था कि इसमें शामिल सारी कहानियां स्त्री विमर्श वाली होंगी क्योंकि इसे डॉ. वासा प्रभावती की अध्यक्षता में संचालित ''महिला चैतन्य साहित्य सांस्कृतिक संस्था -  लेखनी'' द्वारा संकलित-संपादित किया गया है. परंतु पढ़ने पर पता चला कि ऐसा नहीं है बल्कि इन कहानियों के सरोकार स्त्री के साथ साथ मनुष्य और मनुष्यता की रक्षा से जुड़े हुए तथा अत्यंत व्यापक हैं. भूमंडलीकरण और बाजारीकरण पर ''बाज़ार का खेल'' जैसी वासा प्रभावती की कहानी बहुत सरल लेकिन बहुत मार्मिक है. संकलन की कई कहानियाँ वृद्धावस्था विमर्श पर केंद्रित हैं तो कुछ में पर्यावरण विमर्श केंद्र में है. स्त्री के प्रति घरेलू हिंसा से लेकर लैंगिक भेदभाव तक पर इन लेखिकाओं की नज़र है. एड्स जागरूकता से लेकर बाल मजदूरी तक को यहाँ निस्संकोच कथ्य बनाया गया है; सामाजिक कुरीतियाँ और जातिभेद तो हैं ही. 


लोकार्पण-वक्तव्य में इन तमाम बातों  के साथ मुझे यह कहना भी ज़रूरी लगा कि ऐसी सामग्री के भाषांतरण द्वारा ही सचमुच अनुवादक दो भाषा-समाजों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक सेतु का निर्माण करते हैं. आर. शांता सुंदरी का हिंदी और तेलुगु दोनों के मुहावरे पर विलक्षण अधिकार है इसीलिए  इस पुस्तक को पढते समय प्रायः यह नहीं लगता कि अनुवाद पढ़ रहे हैं.इन कहानियों के माध्यम से हिंदी समाज को बहुत स्वाभाविक ढंग से तेलुगु समाज के रीति रिवाज, संस्कार पद्धति, खानपान, वेशभूषा, लोकाचार, स्थान नामों और व्यक्ति नामों के बारे में आधारभूत जानकारी मिलती चलती है और यह्समझ गहरी होती चलती है कि भाषा-भूषा के कुछ सामान्य अंतर  के होते हुए भी हम सब भारतीयों का मानस एक जैसे तत्वों से निर्मित है. निश्चय ही यह बोध हमारी राष्ट्रीय आत्मा का विस्तार करता है; और इसीलिए ये कहानियाँ केवल तेलुगु की नहीं भारतीय साहित्य की उपलब्धि कही जा सकती हैं.

25 जुलाई 2012  को  'लेखनी' द्वारा प्रकाशित हिंदी में अनूदित तेलुगु कहानियों के संकलन 'गुलदस्ता' के लोकार्पण समारोह के अवसर पर लोकार्पणकर्ता और मुख्य अतिथि ऋषभ देव शर्मा के सम्मान का चित्र.
बाएँ से -
कला वेंकट दीक्षितलु , गंटि भानुमति, आर शांतासुंदरी, ऋषभ देव शर्मा, पी माणिक्याम्बा, आर राज्यलक्ष्मी एवं वासा प्रभावती

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

संस्कृत का पूर्वज्ञान ही कन्नड समझने में सहारा बनता है, हमारे लिये भी..

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

भारत की भाषाओं के गुलदस्ते के सभी फूल महकेंगे तभी गुल्दस्ता भी महकता रहेगा !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

पोस्ट बाँचकर आपकी, हुआ यह आभास।
भारतीय भाषाएँ तो, होती जग में खास।
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रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ!

RISHABHA DEO SHARMA ऋषभदेव शर्मा ने कहा…

@प्रवीण पाण्डेय ,
@रविकर फैजाबादी ,
@सुशील,
@डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण),

आभारी हूँ.

प्रेम बना रहे.