समकालीन संवेदना एवं रचनाधर्मिता
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‘समकालीन रचनाधर्मिता‘ के ‘समकालीन संवेदना‘ के साथ रिश्तों
की चर्चा को रचनाधर्मिता के बिंदु से शुरू करना चाहें तो यों कहा जा सकता
है कि जीवन में रस की तलाश रचना का धर्म है जिसे सौंदर्य-सृजन भी कहा जा सकता है। इस सृजनात्मक
खोज में रचनाकार को समकालीनता का निर्वाह भी करना होता है और अतिक्रमण भी - उसकी
यात्रा डूबकर पार उतरने जैसी है - पानी में रहकर भी पानी का दाग़ न लगने जैसी नहीं।
रचनाधर्म न तो समय का अनुकरण करके निभ सकता है और न तिरस्कार करके ही, दोनों में सहयोग और संतुलन की अपेक्षा सदा बनी रहती है। अपने समय को
पूरी ऊर्जा के साथ जीने वाली रचनाधर्मिता ही समकालीनता का प्रमाण देते हुए उसका
अतिक्रमण कर सकती है। तभी वह आत्म के विस्तार को इस प्रकार उपलब्ध कर पाती है कि
रचनाकार के माध्यम से ‘सब‘ की आत्मस्थितियों का अंकन और ‘सब‘
की प्रश्नाकुलता का सहसंवेदन समानुभूति के धरातल पर
संभव हो सके। उदाहरण के लिए आज का रचनाकार जब समकालीन राजनीति और समाज के संबंधों
पर दृष्टिपात करता है, उनके बीच से गुजरता
है तो उसे एक ओर तो राजनैतिक दुरभिसंधियों की व्याख्या करना आवश्यक जान पड़ता है
जिसके लिए वह सपाटबयानी और विवरणात्मकता का खतरा उठाकर भी अपनी रचना में
वर्णनात्मकता को प्रश्रय देता दीखता है
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‘‘समय गुजर जाता है
जैसे सरकारी वसूली के लिए साहब दौरे पर
फिलहाल सूखा है
इसलिए वसूली स्थगित
पिटने पर आदमी के बेहोश होने पर
जैसे पीटना स्थगित।‘‘
(विनोद कुमार शुक्ल, रायपुर बिलासपुर संभाग)।
जबकि दूसरी ओर समकालीन राजनीति की दुष्चरित्रता
की यह पहचान उसके भीतर अरुचि और जुगुप्सा जगाती है जिसकी अभिव्यक्ति आक्रोश और व्यंग्य
के माध्यम से स्वाभाविक प्रतीत होती है। तंत्र की विराटता के समक्ष व्यक्ति की
साधनहीनता और तटस्थता के खतरे को देखते हुए समकालीन रचनाधर्मिता आज ही नहीं,
बल्कि आज जैसे हर संकट काल में - संघर्षशीलता को बचाए
रखने की चुनौती का सामना करने के लिए अभिव्यक्ति के नए उपकरणों की खोज करती है और
पुराने उपकरणों पर नई धार रखती है-
‘‘गायब हो जाएगा
यदि नमक बाजार से
समुद्र दुश्मनों के कब्जे़ में भी होगा
हम थोड़ा-सा बचा रखेंगे नमक
अपने पसीनों में
अपने रक्त में
अपने आँसुओं में
आखिरी दिनों तक।‘‘
(विनोद दास, नमक)।
इक्कीसवीं
शताब्दी में हिंदी कविता में एक बार फिर कथात्मकता, छंद
और लय की वापसी को रचनाधर्म के इसी अभियान के हिस्से के रूप में देखा जा सकता है।
इसमें
संदेह नहीं कि साहित्य की सार्थकता संवेदना का विस्तार करने में निहित है, तभी वह संस्कृति का अंग बन पाता है। संवेदना का इतना विस्तार हो कि
स्व-पर के भेद विलीन हो जाएँ और व्यक्ति अपनी उपलब्धि का लोक की खातिर
विसर्जन करते हुए आत्मदान को तत्पर हो सके -
‘‘जो लिखते हैं कविताएँ
और करते हैं प्यार
वो धरती को थोड़ा और चौड़ा करते हैं
थोड़ा और गहरा
थोड़ा और नम।‘‘
(विश्वनाथ प्रसाद तिवारी/बेहतर दुनिया के लिए)।
संवेदना के विस्तार का यह मार्ग निवृत्ति और
विरक्ति का नहीं, उपलब्धि और आत्मदान का मार्ग है। निवृत्ति
यदि अविकारी पुरुष का धर्म है तो संवेदना विकारी प्रकृति का गुण; और रचना इन
दोनों के बीच आवाजाही का उभयमुखी मार्ग, कर्मयोग!
संवेदना ही वह शक्ति है जिसके सहारे साहित्य समाज में निरंतर चलनेवाली अमानवीकरण
की प्रक्रिया के विरुद्ध सार्थक हस्तक्षेप करता है। आज साहित्यिक रचनाधर्मिता की
प्रासंगिकता को बार-बार प्रश्नांकित किया जा रहा है परंतु साहित्य का ऐसा
कोई विकल्प अभी तक नहीं खोजा जा सका है जो समकालीन जगत को अमानवीकरण के विरुद्ध
सुरक्षा प्रदान कर सके - जीवन और प्रेम के शाश्वत मूल्यों को विकसित कर सके। इस सुरक्षा और
विकास के धर्म का निर्वाह करने के लिए रचनाकार की संवेदना आज भी सामाजिक संरचना के
साथ लगातार टकराती और नए सपने सिरजती चल रही है। चित्तवृत्तियों के निरंतर
जड़ीभूत बिखराव के बीच रचनाधर्मिता उनके संश्लेषण और समन्वय द्वारा संवेदना को मानवजाति
का सुरक्षा कवच बनाती है। कालगति के साथ बदलती लोक की चित्तवृत्ति और संवेदना को
आत्मसात करते हुए अपनी अभिव्यक्ति को उसके अनुरूप ढाल कर ही रचनाधर्म का निर्वाह
किया जा सकता है। इसी से कृति में समकालीनता का समावेश
होता है। वर्तमान समय में जबकि निस्संगता का संक्रमण मनुष्यता को निरंतर आत्महत्या
के लिए प्रेरित कर रहा है, संवेदनशीलता और
भावुकता की प्रतिष्ठा अपरिहार्य प्रतीत होने लगी है, तभी
रचनाकार ‘प्रामाणिक रूप में व्यक्तिगत‘ होने के साथ-साथ ‘मार्मिक रूप में
सार्वभौम‘ हो सकता है। यही समकालीन संवेदना के
संदर्भ में रचनाधर्मिता की सार्थकता होगी।
किसी भी समय की समकालीन संवेदना का निर्माण
व्यक्ति, वर्तमान संदर्भ में रचनाकार, के अपने अनुभवों से होता है। उत्तरआधुनिकता के आज के
दौर में संवेदना के स्तर पर रचनाकार पश्चिम और पूर्व के संस्कारों के टकराव को झेल
रहा है। एक समय था कि बड़े जोर-शोर से विराट के विरुद्ध लघु के व्यक्तित्व
को रचनाधर्मिता की केंद्रीय चिंता के रूप में मान्यता दी गई थी और क्रमश: लघुचेतना को
ही मानवचेतना का पर्याय बना दिया गया। इधर कुछ दशकों से हर केंद्र के
टूटने की चर्चाएँ जोरों पर हैं तथा हाशिए के नाम पर स्त्री विमर्श, दलित
विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, पर्यावरण विमर्श तथा काव्य और कथा
के स्थान पर आत्मकथा, संस्मरण, जीवनी, साक्षात्कार और यात्रावृत्त की प्रतिष्ठा की बातें की जा रही हैं।
रचनाधर्मिता को मनुष्यता और साहित्य के खंडसत्यों के रूप में इनका वरण करने के लिए
कहना पूर्णसत्य के साक्षात्कार से इंकार करने जैसा है। इसीलिए यह देखने में आया है
कि विगत दशकों में किसी भी कथित परिधिगत विमर्श से जुड़ी रचनाधर्मिता आरंभ में विस्फोट का
आभास देने के बाद क्रमश: पूर्णतर होने की खातिर केंद्रीय सरोकारों से संबंद्ध हो गई है। नए
रचनाकार को उपेक्षित और बंजर पड़ी ज़मीनें तो तोड़नी ही पड़ती हैं। इसी से यह तय होता है कि उसका अपने समय के साथ
कैसा संबंध है -
‘‘उसके बारे में कविता करना
हिमाकत की बात होगी
और वह मैं नहीं करूँगा
मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आएँ और मेरे साथ सीधे
उस आग तक चलें
उस चूल्हे तक जहाँ वह पक रही है
एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ
समूची आग को गंध में बदलती हुई
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक वस्तु
वह पक रही है।‘‘
(केदारनाथ सिंह, रोटी)।
रचनाधर्मिता की पूर्णता तभी है जब वह रचना और
समय के संबंध के उन बिंदुओं को भी उभारे जहाँ विरोध और असामंजस्य है, अन्यथा बेहतर जीवनस्थितियों की खोज के रूप में रस की खोज का उद्देश्य संपन्न नहीं
हो सकता। समकालीनता से असहमति को दृढ़ शब्दों में व्यक्त करने से ही समकालीन
रचनाधर्मिता की पुष्टि होती है। यह असहमति ही रचनाकार को अपना एक प्रतिसंसार रचने
को प्रेरित करती है, एक अधिक संगत और
सामंजस्यपूर्ण समाज का स्वप्न देखने को प्रेरित करती है।
समकालीन
संवेदना को काल के पार ले जाने वाला तत्व परंपरा को उसकी देन के रूप में रेखांकित
किया जाता है। देने से पहले जरूरी है यह जानना कि परंपरा से प्राप्त क्या हुआ है।
यदि आज का रचनाकार परंपरा को कुछ देना चाहता है तो वह ऐसा परंपरा से कटकर कदापि
नहीं कर सकता। परंपरा उसे श्रुति और स्मृति के रूप में प्राप्त हुई है अर्थात्
मिथकों तथा इतिहासवृत्तों के रूप में। साहित्य में अतीत की वर्तमानता के ये दो
सृजनात्मक उपकरण हैं: और वर्तमान को भविष्य तक भी ये ही ले जाएँगे। अतः समकालीन संवेदना और
रचनाधर्मिता श्रुति और स्मृति के प्रति उदासीन नहीं हो सकती।
साहित्य यदि संवेदना का विस्तारक है तो आज भी
उसकी मूलभूत चिंता व्यक्ति, वर्ग या वर्ण न होकर
मनुष्य है। इस चिंता का एक आयाम है मनुष्य का प्रकृति के साथ संबंध अथवा परिवेश। परिवेश के प्रति समकालीन संवेदनशीलता एक ओर जहाँ पेड़,
चिड़िया, झरने
और पर्यावरण के माध्यम से व्यक्त हो रही है, वहीं
गाँव और शहर के बीच रचनाकार के मन की सतत आवाजाही संस्कृति और सभ्यता के विविध तत्वों
के विरोधों में सामंजस्य की तलाश का प्रतीक है –
‘‘अभी-अभी धरती की नाभि खोल जो बाहर आया
कौन जानता कितनी सदियों यह पृथ्वी की नस नाड़ी में
घूमा
जीवन के आरंभ से लेकर आज अभी तक
धरती को जो रहा भिगोए
वही पुराना जल यह अपना
पहली ही पहली बार हमने तुमने देखा झरना
झरते जल को देख हिला
अपने भीतर का भी
जल।‘‘
(अरुण कमल, झरना)।
मनुष्य
और मनुष्य के संबंधों को आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में देखने
के साथ-साथ घर-परिवार और रिश्ते-नातों के अमानवीकरण के कारणों की पड़ताल
समकालीन संवेदनशीलता की चिंता का दूसरा आयाम है जिसकी रचनात्मक परिणति स्त्री, माँ, बहन, लड़की,
पिता और घर के प्रति जागरूकता के रूप में सामने आ
रही है -
‘‘लहर लहर पर
डोल रहा, पर
खेल रहा है
अपना घर,
बादल मत गरजो-बरसो
चट्टानों से
लगता है डर
x x x
घर रचाया था
हथेली पर किसी ने
उंगलियों से,
आँसुओं से धुल
मेहंदियाँ
धूप में फीकी हुई।‘‘
(कविता वाचक्नवी, घर)।
इस चिंता का तीसरा आयाम पूरी तरह मानसिक है जो एक
ओर प्रेम से जुड़ता है और दूसरी ओर अध्यात्म से -
‘‘ईश्वर एक लाठी है
जिसके सहारे अब तक चल रहे हैं पिता
मैं जानता हूँ कहाँ कहाँ
दरक गई है उनकी कमज़ोर लाठी
रात में जब सोते हैं पिता
लाठी के अंदर चलते हैं घुन
वे उनकी नींद में पहुँच जाते हैं।‘‘
(स्वप्निल, ईश्वर एक लाठी
है)।
इसी का संबंध मनुष्य के अस्तित्व बोध से है।
व्यक्तिगत और वर्गगत अस्मिताओं के टकराव तथा लोकतंत्र और युद्ध की समस्या के प्रति
रचनाकार की जागरूकता इसी का प्रमाण है। मनुष्य, उसके परिवेश और अस्तित्व से संबंधित इन समस्त चिताओं
को रचना में ढालने के लिए सृजनात्मक कल्पना की आवश्यकता होती है जिसके
लिए गहन जीवनानुभव और साक्षात्कार चाहिए। साहित्य के नाम पर लिखित और मुद्रित
शब्दों के भंडार में यदि मानवचेतना को ऊर्जा का संस्कार देने की संभावनाएँ न दीख
रही हों, तो समझना चाहिए कि समकालीन रचनाकार के
अपने अनुभव और साक्षात्कार में अभी कुछ अपरिपक्वता है -
‘‘बुनियादी हैं आपके सरोकार
जैसे इस दुनिया की नींव में धंसाए हुए
हवा, पानी,
धूप, कुछ भी उन तक नहीं
पहुँचता
इतिहास के पन्ने चाटने वाले
नमक से भी अपरिचित हैं आप।‘‘
(मंगलेश डबराल, सरोकार)।
समकालीनता जब पक जाती है तो अपनी ‘साखी‘ आप देती है। रचनात्मक परिपक्वता आने पर
रचनाकार में नैतिक साहस आता है जिसके सहारे वह रूढ़ियों पर चोट करता है - भले ही वे
रूढ़ियाँ नैतिकता की ही क्यों न हों!
रूढ़ियाँ
समकालीनता की भी हैं। स्मृतिविहीनता हमारे समय की एक ऐसी ही रूढ़ि है जो सारी समकालीनता को
वायवीय और सारे आक्रोश को प्रलाप बना देती है। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श ने
स्मृतिविहीनता से ग्रस्त होकर खूब गलतबयानी की है। डिस्पोजे़बल कल्चर की उपभोगवादी
दृष्टि समकालीनता की दूसरी ख़तरनाक रूढ़ि है जिसका प्रचार उदारवादी व्यवस्था के नाम
पर तेजी से हो रहा है और मनुष्य तथा उसके परिवेश के बीच की संवेदनशीलता छीजती जा
रही है। इस रूढ़ि का केंद्र है बाज़ार, जिसका तोड़ है
परिवार। बाज़ार ने नई तरह की पाखंड-प्रियता को जन्म दिया है जिससे वचन और कर्म में
भयंकर दूरी पैदा हो गई है। झूठ बोलना और दादागिरी करना, विश्वासघात करना और
उपदेश देना सामाजिक और राजनैतिक आचरण की नई
अंतरराष्ट्रीय रूढ़ियाँ हैं जिन्हें निर्लज्जता की ही संज्ञा दी जा सकती है।
सामाजिक घृणा, आतंक और हिंसा के माहौल में जब लोक और
लोकतंत्र का अस्तित्व खतरे में पड़ा हुआ हो, तब
सामाजिक न्याय और मानवाधिकार की दुहाई भी समकालीन संवेदना को रूढ़िग्रस्त बना सकती
है। बौद्धिक निर्भीकता के ह्रास के कारण ये नई रूढ़ियाँ पनप रही हैं।
समकालीन रचनाधर्मिता के समक्ष साहित्य की जो नई रूढ़ियाँ हैं उनमें व्यक्तिगत
स्वतंत्रता और सामाजिक दायित्व में विरोध, स्वानुभूति
और सहानुभूति में विरोध, परिधि
और केंद्र में विरोध, सृजन और
संचार में विरोध - जैसी रूढ़ियाँ प्रमुख हैं। एक रूढ़ि साहित्य की वाचिक परंपरा और
मुद्रित शब्द के विरोध की भी है जिसके कारण समकालीन साहित्य पठनीयता के संकट से
घिरा हुआ प्रतीत होता है।
अंत में, कुछ चर्चा उन
बिंदुओं की भी की जा सकती है जो समकालीन रचनाधर्मिता की विश्वसनीयता के बिंदु हो
सकते हैं। इसमें संदेह नहीं कि आज का मनुष्य जानकारियों के घटाटोप से आक्रांत है,
इसलिए रचना में संवेदना की तनिक सी भी अपर्याप्तता या दुर्बलता उसे
अस्वीकार्य बना सकती है। यों रचना की शक्ति का पहला बिंदु है संवेदना
की गहनता और परिपक्वता, जिससे मानव अनुभूति
की प्रामाणिकता की पुनः स्थापना हो सके। सृजन शक्ति का दूसरा बिंदु
है लोकचित्त की पहचान का। समकालीन रचनाकार को लोकचित्त में बसे बिंबों और विश्वासों से
तादात्म्य स्थापित करना होगा अन्यथा प्रेषणीयता की समस्या और भी जटिल हो जाएगी। समकालीन
रचनाधर्मिता की ऊर्जा का तीसरा बिंदु विचार है, पंरतु
यह भी सत्य है कि यदि संवेदना में न ढल सके तो विचार साहित्य का विलोम सिद्ध होता
है। समकालीन रचनाधर्मिता के समक्ष विचार को संवेदना में ढालने की चुनौती
उपस्थित है और इसका समाधान तभी संभव है जबकि रचनाकार यह ध्यान रखे कि वह जीवनरस का
खोजी और सौंदर्य का अन्वेषक है। ऐसा करके वह स्थानीयता और तात्कालिकता के बावजूद
सार्वभौमता और विश्वदृष्टि को साध सकता है। साहित्यिक ऊर्जा का चौथा और सबसे महत्वपूर्ण
बिंदु है - नई भाषा की तलाश का बिंदु। जब जब
साहित्य भाषा जड़ीभूत होती है तब तब रचनाकार अपनी भाषिक संवेदना को संपन्नतर बनाने
के लिए लोकभाषा की शरण में जाता है। आज भी समकालीन संवेदना और रचनाधर्मिता को
देसीपन के इसी संस्कार की आवश्यकता है।