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शुक्रवार, 29 जून 2012

दर्द से जन्मी हुई वैदिक ऋचाएँ


विनीता शर्मा के गीत 

श्रीमती विनीता शर्मा [ज. 27 जून 1938] हैदराबाद की वरिष्ठतम और श्रेष्ठ कवयित्री हैं. उन्होंने गीतों के माध्यम से मानव मन की कोमल संवेदनाओं को सुरुचिपूर्ण कलात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने में महारत हासिल की है. उनके गीतों में आरंभ से अंत तक दर्द की एक सूक्ष्म रेखा सी कौंधती रहती है. और इस कौंध में जीवनानुभूति के विविध पक्ष रह रह कर चमकते दिखाई देते हैं. प्रतीक्षा, स्मृति, उपालंभ, प्रवंचना, मिलन, बिछोह और आत्मदान से लेकर आत्मविस्तार तक के विभिन्न रंगों को कवयित्री ने अत्यंत कुशलता से विविध छंदों, रूपकों, प्रतीकों और बिंबों की रेखाओं के सहारे सजाया है.

कवयित्री ने गीत को ऐसी सहज संवेदना का पर्याय माना है जो दर्द से जन्म लेती है और वेद की ऋचा बन जाती है. अर्थात गीत की यह यात्रा पीडा की अनुभूति से अध्यात्म के औदात्य तक की यात्रा है. स्मृति इस यात्रा का पाथेय है और लोक सहयात्री – “’किसी कवि ने कहा करुणा कलित हो चंद छंदों में/ बनी सत् प्रेरणा सद्भावना समवेत ग्रंथों में/ वनों में रम रहे ऋषि ने कहा जो वेद वाणी में/ वो बचपन में सुनी हमने कभी माँ से कहानी में/ विगत में ताड़ पत्रों पर लिखी जातक कथाएँ हैं/ समय की मान्यताएँ है.’''

स्मृति विनीता जी के गीतों में बार बार अलग अलग रूप में आती है. कभी जब कोई बीती सी याद मेघ बन बरसती है तो पोर पोर डूब जाता है और मन सराबोर हो जाता है. इन यादों में चाँद सितारों से भरा वह खुला खुला आँगन है जिसमें रात किरण की डोर थामकर धीरे से उतरती है और सपनों के फूल सिरहाने छोड़ जाती है. याद जब आती है तो आँखों में शब्दों के साए डूब जाते हैं. इस प्रेम व्यापार में संपूर्ण प्रकृति बिंब प्रतिबिंब भाव से कवयित्री के साथ शामिल है. नीले आकाश में बिखरी श्वेत आकृतियाँ श्याम वर्ण होने लगती हैं, चातक की दर्द भरी प्यासी पुकार सुनकर बादल की आँखों में आँसू भर आते हैं. ये आँसू रिमझिम बौछार बनकर बरसते हैं तो मोर मस्ती में पंख फैला देते हैं. आकाश और पृथ्वी का यह शाश्वत प्रणय इन गीतों में कई रूपों में व्यक्त हुआ है. कवयित्री को स्मृति की अपनी धरोहर से बहुत प्यार है. इसीलिए वे चाहती हैं कि कालजयी यादों का दर्पण न टूटे – ‘“कितनी भी गर्द गिरे/ इतनी मिल जाए मुझे/ यादों की छोटी सी/ उम्र ठहरने लगे/ आओ तुम फिर शायद/ मिलने के माध्यम से/ प्यार संवरने लगे.’” दरअसल ये स्मृतियाँ ही गीत की पृष्ठभूमि बनती हैं. भले ही गुजरा हुआ कोई लम्हा लौटकर न आता हो तब भी एक एक लम्हे की उंगली पकड़कर उम्र के सोपान चढ़ना क्या कभी भूलने की चीज है? ये लम्हे ही तो हमारी संवेदना के साक्षी होते हैं और जब कभी कोई विषम अनुभूति हमें रुलाती है तो ये ही सांत्वना के शब्द कहते हैं, गोद में लेकर सुलाते हैं. याद कभी तीली की तरह जलती है तो अतीत किसी भूले गीत सा करवट लेता दिखाई देता है. मधुर स्मृतियाँ किसी शुभकामना संदेश की तरह आकर शांत सोए मन को जगाती हैं – “’तुम्हारी याद की अनुगूंज से/ मेरे हृदय में हरकतें होती रहें/ भले परछाइयाँ ही हों/ किसी के साथ का अहसास तो देती रहें.”’ प्रणय की ये सुधियाँ गूँगी संवेदनाओं को गीतों के स्वर प्रदान करती हैं और आँखों में सपने उगाती हैं – “’आओ इस यात्रा के नए शिला लेख लिखें / सदियों तक आएँ जो इन्हें पढ़ें देख सकें.”’

विनीता शर्मा के गीतों में लोकानुभव से उत्पन्न सूक्तियाँ मोतियों की तरह जड़ी हुई हैं. स्त्री और पुरुष जब परस्पर आत्मीयता में बंधी पारिवारिक इकाई के स्थान पर वर्ग बन जाते हैं तो वैचारिक छलना का जन्म होता है (जिस घड़ी आप हम वर्ग में बदल गए/ व्यक्ति को विचार के मानदंड छल गए). ज़मीन पर चाँद की चाह हादसों को जन्म देती है (किंतु जब जमीन पर चाँद चाहने लगे/ हसरतों की गोद में हादसे मचल गए). प्रार्थना मन की अंतर्मुखी अनुभूति और आत्मा का अर्थवाची आचमन होती है (प्रार्थना अंतर्मुखी अनुभूति मन की, आत्मा का अर्थवाची आचमन है). प्रेम की प्रथम अभिव्यक्ति लज्जा के माध्यम से होती है (लाज के उस एक झीने आवरण से/ बिन कहे सब कुछ बताना/ प्यार का पहला चरण है), हरियाली इस बात का प्रमाण है कि पत्थर के भीतर भी नमी हो सकती है. (कुछ तो नमी होगी पत्थर के सीने में/ देखो तो हरे-हरे पौधे उग आए हैं). यह अनुभव अनेक स्थलों पर उद्बोधन में भी ढलता है – ‘पीछे जो छूट गया वह अतीत मत खोजो / खुशबू जो बिखर गई सिमट जाय मत सोचो.’

इन गीतों में पीड़ा अनेक रूपों में व्यक्त हुई है. लोक से चुने गए उपमानों और प्रतीकों के सहारे कवयित्री ने पीड़ा का जो पाठ बुना है वह विप्रलंभ से लेकर करुणा और ममता तक व्याप्त है. इस पाठ में व्यक्ति के साथ साथ समाज, लोक और लोकतंत्र की पीड़ा भी सिमट आई है. यह भी पीड़ा का एक रूप है कि कभी स्वयं को अपनी पीड़ा समझ में नहीं आती तो कभी दूसरे हमारी पीड़ा को पहचान नहीं पाते – ‘हम समझ पाए नहीं कौन सा वह दर्द था / जो हमें तड़पा गया और तर्पण मौन था.’ कवयित्री के लिए गीत मानो पीड़ा की ही सहज अभिव्यक्ति है. ‘शोकः श्लोकत्वमागतः’ को वे अपने ढंग से कुछ इस तरह पुनः रचती हैं – ‘मन में कुछ हुक हुई वाणी फिर मूक हुई/ आँखों में पीड़ा के छंद तिरने लगे/ क्षण भर में आँसू बन बूँद बूँद गिरने लगे.’ पीड़ा का यह साम्राज्य मन से लेकर प्रकृति पर्यंत फैला है. हवाओं में पानी का अहसास होते ही कवयित्री समझ जाती है कि बदलियाँ ज़रूर रोई होंगी या फिर कहीं किसी का दिल टूटा होगा अथवा कोई वसुधा खो गई होगी. प्रेम की पीर और मिलन की स्मृतियाँ सोने भी तो नहीं देतीं – ‘दर्द की सिलवट हटे तो नींद आ जाए मुझे/ याद फिर करवट न ले तो नींद आ जाए मुझे.’ पर यहाँ इस पीर से मुक्त होना ही कौन चाहता है. विनीता शर्मा की पीड़ा इतनी सकारात्मक है कि वह अवसाद और मृत्यु की ओर कभी नहीं जाती बल्कि आशा और जिजीविषा का वरण करने नई जीवन ऊर्जा में पर्यवसित होती है. नींद नहीं आती तो न आए, रतजगा कर लेंगे, दीपावली हो जाएगी – ‘उस अमावस की अंधेरी रात को रोशन बनाने/ आज फिर जलते दियों का रतजगा है./ कह रहे हैं अग्नि को साक्षी बनाकर/ सूर्य सा संकल्प लेकर हम जलेंगे/ साथ रहता एक दूजे के निरंतर/ हम तिमिर से भोर होने तक लड़ेंगे/ आज की इस रात आता है कोई आशीष देने/ उस प्रतीक्षा पर्व को पावन बनाने/ आज फिर जलते दियों का रतजगा है.’

ऐसा नहीं कि प्रवंचना, पराजय, व्यर्थता और मृत्युबोध इन गीतों में नहीं है. अवश्य है लेकिन अनुभवों में तपा और पका हुआ मन अब इन सबसे विचलित नहीं होता बल्कि एक संन्यस्त साक्षी भाव से जीवन और जगत को देखता है. प्रेम और विरह, विश्वास और छलना, स्वप्न और मरीचिका, आस्था और भ्रम, संबंध और अनुबंध के द्वंद्वों को भरपूर जी चुका मन अब जीवन के चरम क्षण का स्वागत करने को भी सहज भाव से प्रस्तुत है – ‘दिन बीता साँझ ढली/ धुंधलाए गाँव-गली/ तारों संग रात चली/ लगने ही वाला अब/ सपनों का मेला है/ आओ हम लौट चलें/ जाने की बेला है.’ पीड़ा कितनी ही गहरी हो और अंधेरा कितना ही सघन क्यों न हो, अदम्य जिजीविषा उससे मुक्ति के प्रति आश्वस्त है. उसे प्रतीक्षा है नई सुबह की – ‘है प्रतीक्षा जब सुबह की धूप छनकर आयगी/ रात सी गहरी व्यथा कंधों उठा ले जाएगी/ फिर नयन में स्वप्न के झूले पड़ेंगे/ दूरगामी प्रिय रंगीले हो गए हैं/ आज मेरे गीत गीले हो गए हैं.’ और जब यह प्रतीक्षा पुरेगी तो पुरवाई मेघ की गगरी उठाए चली आएगी. प्रेम का बादल इस तरह बरसेगा कि अंतर-बाहर सब तरबतर हो जाएगा. ऐसा आनंद बरसेगा कि तृप्ति और मुक्ति एक साथ घटित होंगी. यह परिघटना प्रेम की पीर को अध्यात्म के अनुभव में बदल देगी – ‘आज ठंडक है हवाओं में/ हवाएं मेघ की गगरी/ उठाकर चल पडी हैं/ अब न हम प्यासे रहेंगे/ इस धरा पर -/ तृप्ति की संभावना के घर/ कोई खिड़की खुली है.’ तृप्ति की यह संभावना उस चिर सामीप्य और सायुज्य की भूमिका का निर्माण करती है जब सारी पीड़ा अपनेपन की गर्मी से पिघल जाएगी – ‘जब अंतरतम अकुलाता हो/ मन पीड़ा से भर जाता हो/ बिन बोले तुम्हें बुलाता हो/ तुम अपनेपन की गर्मी से मेरी पीड़ा को पिघलाना.’

कहने का अभिप्राय यह है कि विनीता शर्मा के गीतों में जीवन के विविध अनुभव, संवेदनाओं के विविध रंग और अभिव्यंजना के विविध रूप इतनी सूक्ष्मता से चुन चुन कर बुने गए हैं कि इनके कई कई पाठ और उपपाठ हो सकते हैं – समर्पण और आत्मदान का पाठ, औदात्य और आत्मविस्तार का पाठ, उपालंभ और मान का पाठ. इन पाठों की बुनावट में मिथक और लोकतत्व अपनी उपस्थिति सर्वत्र दर्ज कराते हैं. देहरी पर सुहागिन का मंगलदीप जलाना, तुलसीदल का प्रसाद मिलना, पाहुन के पाँव पखारना, दान दक्षिणा देना, गुड़ियों के ब्याह रचाना, काजल आंजना, मंगलगीत गाना, ढोल और शहनाई बजना, घूंघट में शर्माना, कंगन, बिंदिया और बाजूबंद पहनना, बाबुल और भैया की प्रतीक्षा करना, आँख फडकना, देवी देवता पुजाना और ऐसे ही न जाने कितने लोकजीवन के मार्मिक दृश्य इन गीतों की पंक्ति पंक्ति में पिरोए हुए हैं जो पढ़ने-सुनने वाले के मन को बाँध लेते हैं.

विनीता शर्मा की रचनाओं के संबंध में जितना भी कहा जाए कम है. इसलिए अस्तित्व की चरितार्थता को व्यक्त करते हुए उनके एक गीत के अंश के साथ इस चर्चा को यहाँ फिलहाल विराम दिया जा सकता है –
‘मैं सीपी में गिरकर वो मोती नहीं बना
प्यासे अधरों की प्यास बुझाई है मैंने
सागर में है निस्वार्थ समर्पण बूँदों का
ऐसे अर्पण की दूर दृष्टि कितनी होगी
अपना वजूद खोये जो औरों की खातिर
उस अंतरतम की आत्म तुष्टि कितनी होगी
मैंने भी किया प्रयास सभी तन-मन दे दूँ
बोकर खुशियों के बीज दर्द की फसल उगाई है मैंने.’

19.6.2012

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

आह का गान,
समर्पण का सम्मान।