12 फरवरी 2012, रविवार.
आज डॉ. देवराज हैदराबाद आए.
कुछ ही घंटे रुके. मुंबई से आए थे और विशाखापट्टनम जाना था.
सूचना पाते ही कई आत्मीय जन मिलने आ जुटे.
चार घंटे की अच्छी संगोष्ठी सी ही हो गई घर पर.
प्रो. एन. गोपि, डॉ. राधेश्याम शुक्ल, डॉ. रंगय्या, डॉ.जी. नीरजा दम्पति, डॉ.बी. बालाजी दम्पति, सीमा मिश्र दम्पति तो थे ही, द्वारका प्रसाद मायछ भी पत्नी और पुत्र के साथ आ धमके.
इंटरव्यू, कविता पाठ और परिचर्चा .......खूब समां बंधा. संभव हुआ तो रिकॉर्डिंग कभी ज़रूर साझा करूँगा.
डॉ. एम वेंकटेश्वर जी नहीं आ सके......कहीं फँस गए थे.
अपने चंद्रमौलेश्वर प्रसाद जी भी कसमसाकर रह गए......तीन दिन से अस्वस्थ हैं.
पूनम [डॉ. देवराज जी डॉ. पूर्णिमा जी (श्रीमती ऋषभ) को इसी तरह बुलाते हैं] और मनी [बिटिया] को डॉ. देवराज के आने से अपार प्रसन्नता हुई. मनी के लेखन और फोटोग्राफी के काम को देखकर डॉ. साहब रोमांचित और गद्गद हो उठे. कढी और सूखी मटर का भी कई बार गुणगान किया.
और मैं.......मन ही मन बस कभी शायद आज ही के लिए कहा दोहा दुहराता रह गया .....
पाहुन तुम आए गए रुके न थोड़ी देररही भीलनी देखती बिखरे जूठे बेर
10 टिप्पणियां:
ऐसे सुखद संयोग बनते रहें...
काश! हम भी आ पाते इस स्वर्ण अवसर पर जिसका बरसों से इंतेज़ार था। ‘बिखरे झूठे बेर’ भी देखने का अवसर नहीं मिला।
मेरे मस्तिष्क में डॉक्टर साहब की वह छवि थी जिसमें वे काले बाल और दाढी में दिखाई देते थे। समय कितनी जल्दी बदलता रहता है और व्यक्ति में भी बदलाव आता जाता है। आज से उनकी यह छवि याद रहेगी:)
@ डॉ.कविता वाचक्नवी Dr.Kavita Vachaknavee
हाँ, डॉ.साहब दुबले ही नहीं बूढ़े भी दिखे. मन की बात किसी से कभी जनाब कहते नहीं. बस अकेले सब सहते रहते हैं. पूरा चेकअप कराने कों कह तो रहे थे. शायद थायरायड गडबडाया हुआ हो.
@प्रवीण पाण्डेय
ईश्वर आपके वचन कों सत्य करे!
दरअसल यह सुखद संयोग आने में एक उम्र लग गई - कल के युवक आज के बुड्ढे हो गए. ऊपर से कोढ़ में खुजली यह कि जो मित्र उस दिन मिल नहीं पाए वे रूठ गए हैं.
@चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
छवियाँ तो होती ही टूटने को हैं साहब. टूटे नहीं तो नई कैसे बने? जद छवियाँ सुंदर नहीं रह पातीं. वार्धक्य का अपना सौंदर्य है.....! बल्कि मुझे तो लगता है कि जो बुढापे में भी प्रिय लगे वही सुंदर है.
पता नहीं क्या बकवास कर रहा हूँ.
[जाने दो ...बकता है!]
सर जी, आप ठीक कहते हैं कि हर कोई आयु उस पडाव पर अधिक धीर-गम्भीर और सुंदर दिखाई देता है। आप ने बकवास नहीं यथार्थ का बयान किया है।
कविता जी, बडे होने की बात पर डॉ. शैलेंद्रनाथ श्रीवास्तव की वो कविता याद आ गई-
बडा को क्यों बड़ा कहते ठीक से समझा करो/
चाहते खुद बड़ा बनना तो उड़द सा भीगा करो/ और फिर सिल पर पिसो खा चोट लोढ़े की/कड़ी देह उसकी तेल में है खौलती, चूल्हे चढ़ी।
ताप इसका जज़्ब कर, फिर बिन जले, पकना पडेगा/और तब ठंडे दही में देर तक गलना पडेगा/ जो न इतना सह सको तो बड़े का मत नाम लो/है अगर पाना बड़प्पन, उचित उसका दाम दो॥:)
@डॉ.कविता वाचक्नवी Dr.Kavita Vachaknavee ......
मुझे केवल इतना कहना है कि (1) प्रसाद जी द्वारा की गई संदर्भित टिप्पणी में मेरा इतना ही हाथ है कि वह मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित है तथा (2)मेरा कोई प्रवक्ता नहीं है.
क्षमाप्रार्थी - ऋ.
काश हमें भी उनसे मिलने का अवसर मिला होता ,सबकी बातें सुनकर मुंह में पानी भर आया
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