1. भक्ति आंदोलन ने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में जोड़ने का अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक – सांस्कृतिक कार्य संपन्न किया. वैदिक विचारधारा के अतिरिक्त बौद्ध और जैन विचारधाराएँ भी आरंभ में उत्तर से दक्षिण की ओर गईं. दक्षिण की भावप्रवण मानसिकता के साथ इनका संघर्ष भी हुआ और संगम भी; और धीरे धीरे उत्तर और दक्षिण दोनों की भक्ति परंपराएं एक समान भावभूमि पर स्थापित हुईं.
2. विशेषकर बौद्ध विचारधारा से बल पाकर हाशिए के समाज – जन जातियाँ और दलित जातियाँ उठकर खड़ी हुईं और भागवत परंपरा के साथ उसके समन्वय से भक्त संतों की परंपरा का विकास उत्तर और दक्षिण दोनों में हुआ.
3. महाभारत के परवर्ती काल में उत्तर भारत में जब शकों का आधिपत्य हुआ तो आभीरों को राज सेवा में नियुक्तियां मिलीं. आगे चलकर शकों के दक्षिण की और प्रस्थान के समय उनके साथ ये आभीर भी दक्षिण आए. महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में आभीरों के कई राज्य कायम हुए. इससे उनकी धार्मिक विचारधारा के रूप में पंचवीर (कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और साम्ब) का दक्षिण में व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ.
4. आभीरों की कृष्ण भक्ति का दक्षिण की तमिल भक्ति परंपरा से संगम होने पर उसमें मायोन, नप्पिनै की लोक कथाओं के आधार पर राधा और रास का समावेश हुआ.
5. हाशिए के समाजों ने अपने समाजों की आवश्यकता के अनुरूप अपने आराध्य देवताओं की कल्पना की और उनके नाम संकीर्तन, लीला गायन और गुणानुवाद को वर्ण और जाति के भेद से परे मनुष्य की मुक्ति का आधार माना. दक्षिण से यह प्रवाह पुनः उत्तर की ओर चला और पुराण साहित्य से जुड़कर भव्य रूप में खड़ा हुआ. उदाहरण के लिए प्रह्लाद जैसी पौराणिक कथाओं की प्रेरणा का उल्लेख किया जा सकता है जिन्हें उत्तर और दक्षिण दोनों के भक्ति आंदोलन ने समान रूप से ग्रहण किया. इस प्रकार भक्ति आंदोलन विभिन्न आध्यात्मिक विचारधाराओं के परस्पर आदान-प्रदान का प्रतीक बन गया जिसके विकास में उत्तर और दक्षिण दोनों के भक्तों और संतों की समान भूमिका है – और भावभूमि भी समान है.
6. संस्कृत में उपलब्ध भक्ति साहित्य राम कथा और कृष्ण कथा को तेलुगु भक्त कवियों ने अपने ढंग से पुनः सृजित किया जिससे भागवत धर्म या सात्वत विचारधारा को तेलुगु लोक में व्याप्त होने का अवसर मिला.
7. भक्ति साहित्य हमें भारतीयता के समान सूत्र उपलब्ध कराता है और यह बताता है कि इस आंदोलन के विकास में सारे भारत का साझा प्रयास सम्मिलित है जो वस्तुतः भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट जागरणकाल का प्रतीक है.
आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी की संगोष्ठी में अध्यक्षीय वक्तव्य
25 जनवरी, 2012
फोटो- अप्पल नायुडु.