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मंगलवार, 31 जनवरी 2012

भारतीय साहित्य में भक्ति आंदोलन : कुछ टिप्पणियाँ


1. भक्ति आंदोलन ने संपूर्ण भारत को एक सूत्र में जोड़ने का अत्यंत महत्वपूर्ण सामाजिक – सांस्कृतिक कार्य संपन्न किया. वैदिक विचारधारा के अतिरिक्त बौद्ध और जैन विचारधाराएँ भी आरंभ में उत्तर से दक्षिण की ओर गईं. दक्षिण की भावप्रवण मानसिकता के साथ इनका संघर्ष भी हुआ और संगम भी; और धीरे धीरे उत्तर और दक्षिण दोनों की भक्ति परंपराएं एक समान भावभूमि पर स्थापित हुईं.

2. विशेषकर बौद्ध विचारधारा से बल पाकर हाशिए के समाज – जन जातियाँ और दलित जातियाँ उठकर खड़ी हुईं और भागवत परंपरा के साथ उसके समन्वय से भक्त संतों की परंपरा का विकास उत्तर और दक्षिण दोनों में हुआ.

3. महाभारत के परवर्ती काल में उत्तर भारत में जब शकों का आधिपत्य हुआ तो आभीरों को राज सेवा में नियुक्तियां मिलीं. आगे चलकर शकों के दक्षिण की और प्रस्थान के समय उनके साथ ये आभीर भी दक्षिण आए. महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में आभीरों के कई राज्य कायम हुए. इससे उनकी धार्मिक विचारधारा के रूप में पंचवीर (कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और साम्ब) का दक्षिण में व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ.

4. आभीरों की कृष्ण भक्ति का दक्षिण की तमिल भक्ति परंपरा से संगम होने पर उसमें मायोन, नप्पिनै की लोक कथाओं के आधार पर राधा और रास का समावेश हुआ.

5. हाशिए के समाजों ने अपने समाजों की आवश्यकता के अनुरूप अपने आराध्य देवताओं की कल्पना की और उनके नाम संकीर्तन, लीला गायन और गुणानुवाद को वर्ण और जाति के भेद से परे मनुष्य की मुक्ति का आधार माना. दक्षिण से यह प्रवाह पुनः उत्तर की ओर चला और पुराण साहित्य से जुड़कर भव्य रूप में खड़ा हुआ. उदाहरण के लिए प्रह्लाद जैसी पौराणिक कथाओं की प्रेरणा का उल्लेख किया जा सकता है जिन्हें उत्तर और दक्षिण दोनों के भक्ति आंदोलन ने समान रूप से ग्रहण किया. इस प्रकार भक्ति आंदोलन विभिन्न आध्यात्मिक विचारधाराओं के परस्पर आदान-प्रदान का प्रतीक बन गया जिसके विकास में उत्तर और दक्षिण दोनों के भक्तों और संतों की समान भूमिका है – और भावभूमि भी समान है.

6. संस्कृत में उपलब्ध भक्ति साहित्य राम कथा और कृष्ण कथा को तेलुगु भक्त कवियों ने अपने ढंग से पुनः सृजित किया जिससे भागवत धर्म या सात्वत विचारधारा को तेलुगु लोक में व्याप्त होने का अवसर मिला.

7. भक्ति साहित्य हमें भारतीयता के समान सूत्र उपलब्ध कराता है और यह बताता है कि इस आंदोलन के विकास में सारे भारत का साझा प्रयास सम्मिलित है जो वस्तुतः भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट जागरणकाल का प्रतीक है.
    
आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी की संगोष्ठी में अध्यक्षीय वक्तव्य 
25 जनवरी,  2012

फोटो- अप्पल नायुडु.

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

‘नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य’ और ‘लिफाफा’ लोकार्पित



चित्र परिचय -
'साहित्य मंथन' द्वारा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में आयोजित 'नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य' और 'लिफाफा' के लोकार्पण समारोह में (बाएं से) भगवान दास जोपट, एस.के.हलेमनी, डा.राधेश्याम शुक्ल, डा.त्रिवेणी झा, डा.ऋषभ देव शर्मा, प्रो.एन.गोपि एवं डा.जी.नीरजा. 

हैदराबाद, 22 जनवरी, 2012.

‘साहित्य मनोरंजन की वस्तु नहीं बल्कि मानव जीवन को बेहतर बनाने की सतत साधना का नाम है. यही कारण है कि उसे कभी मनुष्यता की मातृभाषा तो कभी मनुष्यता की सुरक्षा चट्टान कहा जाता है. अपने इस व्यापक प्रयोजन की सिद्धि के लिए साहित्य जीवन मूल्यों का सहारा लेता है. नागार्जुन का साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है. उन्होंने अपने अनुभव और जन की पीर की अनुभूति के आधार पर अपनी मूल्यदृष्टि निर्मित की थी. वे मानवीय जीवन मूल्यों की कसौटी पर खरे उतरने वाले कवि हैं. इतना ही नहीं उनकी जनपक्षीय मूल्यदृष्टि का उपयोग किसी भी साहित्यकार के मूल्यांकन के लिए कसौटी के रूप में किया जा सकता है.’

ये विचार उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के अध्यक्ष प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने ‘साहित्य मंथन’ द्वारा आयोजित लोकार्पण समारोह की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए. इस अवसर पर सुप्रसिद्ध तेलुगु साहित्यकार प्रो.एन.गोपि ने डा.त्रिवेणी झा के सद्यःप्रकाशित शोधग्रंथ ‘नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य’ का तथा ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डा.राधेश्याम शुक्ल ने डा.त्रिवेणी झा के ही कहानी संग्रह ‘लिफाफा’ का लोकार्पण किया.  
लोकार्पण वक्तव्य देते हुए प्रो.एन.गोपि ने नागार्जुन की तुलना तेलुगु साहित्यकार कालोजी और जनगायक गद्दर से करते हुए लोकार्पित शोधप्रबंध को गहन अध्ययन का परिणाम बताया. प्रो.गोपि ने इस अवसर पर नागार्जुन की दो कविताओं का तेलुगु अनुवाद प्रस्तुत करके श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया.

कहानी संग्रह ‘लिफाफा’ का लोकार्पण करते हुए डा.राधेश्याम शुक्ल ने कहा कि साहित्य में मूल्यों का स्रोत साहित्यकार का अपना जीवन होता है. यदि रचनाकार मूल्यनिष्ठ है तो उसकी रचना भी मूल्यों से संपृक्त होगी. उन्होंने कहा कि तुलसी, निराला और नागार्जुन ऐसे कवि हैं जिन्होंने अपनी मूल्यनिष्ठा को लोकहित में काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की हैं. विमोचित पुस्तकों के लेखक को बधाई देते हुए डा.शुक्ल ने वर्तमान समय में ऐसे साहित्य की आवश्यकता बताई जो मूल्यमूढ़ता का निवारण कर सके.

विमोचित कृतियों पर व्यंग्यकार भगवान दास जोपट और डा.जी.नीरजा ने समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुत किए तथा दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र के संपर्क अधिकारी एस.के.हलेमनी ने शुभकामना संदेश दिया.

लोकार्पण समारोह में डा.अहिल्या मिश्र, डा.पी.श्रीनिवास राव, डा.अविनाश जायसवाल, डा.करणसिंह ऊटवाल, डा.देवेंद्र शर्मा, डा.अर्चना झा, डा.सीमा मिश्रा, मनोज कुमार, देवकुमार पुखराज, विजय कुमार, अप्पल नायुडु, बृजवासी गुप्ता, के.नागेश्वर राव, अवनीश झा, शेख बाजी हुसैन, वी.कृष्णा राव, निर्मल कुमार बैद, सुषमा बैद, विभा भारती, श्रुतिकांत भारती, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, पवित्रा अग्रवाल, विनीता शर्मा, सुलेखा झा, श्वेता कुमारी, अशोक कुमार तिवारी, हेमंत सिंह, विनोद मिश्र, परमानंद शर्मा, अंसारी और राधाकृष्ण मिरियाला आदि हिंदी प्रेमी और साहित्यकार उपस्थित रहे. संचालन डा.बी.बालाजी ने किया. 

सभी चित्र : राधाकृष्ण मिरियाला 



शनिवार, 21 जनवरी 2012

पारनंदि निर्मला का ‘खुला आकाश’

पारनंदि निर्मला (1950) को सतत हिंदी सेवा और साहित्य सृजन के लिए पहचाना जाता है. वे तेलुगु और हिंदी भाषा और साहित्य की मर्मज्ञ विदुषी  हैं और लगभग दो सौ से अधिक कहानियों – कविताओं का अनुवाद कर चुकी हैं. प्रभूत अनुवाद  कार्य के साथ साथ वे विभिन्न विधाओं में मौलिक साहित्य सृजन के लिए भी जानी जाती हैं. ‘खुला आकाश’(2010) उनके विभिन्न विधाओं के मौलिक सृजन का समेकित संकलन है. इसमें उनकी 25 कहानियाँ, 1 नाटक, 32 कविताएँ, 10 लेख और 1 समीक्षा सम्मिलित हैं. 

‘खुला आकाश’ की कहानियाँ लेखिका के अपने आसपास के परिवेश के यथार्थ पर आधारित हैं तथा मानवीय संबंधों में मिठास की खोज को समर्पित हैं. लेखिका ने यह लक्षित किया है कि समाज में प्रतिष्ठा का आधार पद और उपाधि होने के कारण चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के मन में कुंठाएं पनपती रहती हैं. (छुट्टियों के पैसे). लेखिका का ध्यान रोजमर्रा की कठिनाइयों और अव्यवस्था की ओर भी गया है. (ये निजी बसें, ये सरकारी बसें). वास्तव में सामान्य नागरिक क़ानून और व्यवस्था संबंधी गडबडियों से इतना परेशान है कि भीतर ही भीतर उबलता रहता है. हद तो तब हो जाती है जब भ्रष्टाचार से लड़ने का हौसला दिखानेवाला व्यक्ति स्वयं मध्यमार्ग की तरह भ्रष्टाचार को ही अपना लेता है. (टोकन नंबर - 20). धार्मिक आस्थाओं का शोषण करने वाले पाखंडी तथाकथित भगवानों पर भी एक कहानी में व्यंग्य किया गया है. (वेंकटेश्वर : मिताई गोरंगो). ‘दोष किसका?’ में बड़े साहस के साथ लेखिका ने बलात्कार और उससे जुड़े अनुभव की द्वंद्वात्मकता को उभारा है. शंकर स्वीकार करता है कि पहले दिन तो उसने अवश्य बलात्कार किया था लेकिन उसके बाद के दिनों में स्वयं लक्ष्मी ने पहल की थी. इस पर लेखिका की यह व्यंजनापूर्ण टिप्पणी देहधर्म और नैतिकता के द्वंद्व में तथाकथित नैतिकता के खोखलेपन को प्रकट करती है कि “मुझे उसका चेहरा तपती धरती सा लगा जिसे बारिश की बौंछार की प्रतीक्षा रहती है. एक बूँद गिरने मात्र से ही सौंधी सुगंध फैलाकर अपनी प्यास जाहिर करती है. शायद लक्ष्मी ने भी....” (दोष किसका?). मनुष्यता आज भी जीवित है, इसे ‘वेक्यूम क्लीनर’ का आधार बनाया गया है. इसी प्रकार ‘वे दो आँखें’ में यह प्रतिपादित किया गया है कि मनुष्य अपने दुष्कर्मों का फल अवश्य भोगता है. लेखिका ने आदर्श और यथार्थ का समावेश करके भी कई अच्छी कहानियाँ बुनी हैं. ‘देवत्व’, ‘मे गाड ब्लेस यू’ और ‘ए सेल्यूट टू प्रेम’ ऐसी ही कहानियाँ हैं. 

‘आप भी सीखिए’ एक छोटा नाटक है. इसमें लेखिका ने इस अनुभव जनित वास्तविकता को उभारा है कि कुछ लोग हद दर्जे के कमीने और कृतघ्न होते हैं. उनसे सदव्यवहार करने वाला स्वयं ही मूर्ख सिद्ध होता है. इस नाटक में ऐसे व्यक्तियों के व्यवहार के खोखलेपन और धूर्तता भरी विनम्रता की ओर भी इशारा किया गया है. 

लेख संबंधी खंड में विविध अवसरों पर लिखे गए अलग अलग प्रकार के आलेख शामिल हैं.' हिंदी तेलुगु : खट्टे-मीठे अनुभव', 'नागरी : उद्भव एवं विकास', 'अंग्रेजी की दासता से मुक्त हो हिंदी' जैसे निबंधों में लेखिका का भाषा विषयक दृष्टिकोण व्यक्त हुआ है. वे मानती हैं कि हिंदी को और लचीला बनाने की जरूरत है तथा  इसके लिए उसमें विभिन्न प्रदेशों के ही नहीं लोकप्रिय विदेशी शब्दों को भी जोड़ा जा सकता है. “हिंदी में भी सभी भाषाओं के शब्दों को मिलाकर उसे समृद्ध किया जा सकता है. अन्य भारतीय भाषाओं की लोककथाओं, परंपराओं और मान्यताओं को हिंदी में स्थान दिया जाए तभी समस्त देशवासी अपने अपने क्षेत्र की भाषा का अपनापन हिंदी में महसूस करेंगे और हिंदी सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा बन पाएगी.” 

अब आइए ज़रा कविता खंड को भी देख लें. कवयित्री ‘मेरी पहचान’ के बहाने स्त्री की रचनाधर्मिता को रेखांकित करती हैं – “है यही मेरी पहचान/ रेंगता बच्चा, चहकती चिड़िया/ जीवतत्व को धारण किया बीज/ और अंकुरित करने वाली धरती का हर कोना.” दुःख की सर्वत्र व्यापिनी अनुभूति को अलग अलग संवेदनाओं के माध्यम से अभिव्यंजित करते हुए उन्होंने कहा है – “पक्षी का कलरव रुदन गीत सा लगता है/ पेड़ों के हिलते पत्ते करुण कथा कहते से लगते हैं/ फूल रंग गंध विहीन और फीके से लगते हैं/ रात काली और कराल सी लगती है.” उनकी मान्यता है कि जीवन बहुत छोटा है इसे रूटने और रुलाने में नहीं खोना चाहिए. इसी प्रकार उनका सकारात्मक जीवन दर्शन इस मान्यता से भी  व्यक्त होता है कि मेरे गीतों को सुनने के लिए अनेक श्रोता भले न हों, कोई एक सहृदय भर हो तो काफी है. ‘आधी रात में है चमकता सूरज’ जैसे उलटबांसीनुमा शीर्षक वाली कविता में मित्रों और संबंधियों के विश्वासघात पर व्यंग्य किया है तो ‘तब मेरी सबसे बड़ी मौत हुई’ में एक स्त्री के जीवन में मृत्यु के बार बार घटित होने की शोकांतिका को शब्दबद्ध किया गया है जिसका क्लाइमेक्स है – “तब फिर एक बार मेरी मौत हुई, जब डाक्टर ने कहा/ अब कभी मैं माँ नहीं बन सकती/ क्योंकि खाई थी गोलियाँ डाक्टर के सलाह के बिना/ बच्चा न पैदा करने की/ इस बार एक बड़ी मौत हुई मेरी/ मैं बचपन से अब तक मरती ही रही -/ कभी बच्ची, कभी छात्रा, कभी कुंआरी और/ कभी सुहागन पर अब./ मेरी सबसे बड़ी मौत हुई.” 

इस प्रकार ‘खुला आकाश’ पारनंदि निर्मला की कारयित्री प्रतिभा की बहुविध उड़ान का दस्तावेज है. उनकी इस सारस्वत साधना से हिंदी साहित्य की संपन्नता में वृद्धि हुई है. साहित्य जगत में एक अनुवादक के इस मौलिक अवदान को यथोचित सम्मान मिलेगा, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए.

खुला आकाश / पारनंदि निर्मला/ 2010 (प्रथम प्रकाशन)/ आकाश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, ई – 10/663, उत्तरांचल कालोनी (निकट संगम सिनेमा), लोनी बार्डर, गाजियाबाद – 201 102 / पृष्ठ – 255 / मूल्य – रु.495.00

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

हैदराबाद साहित्य उत्सव-2012 : चित्रावली


हैदराबाद साहित्य उत्सव  [16-18 जनवरी 2012] के तीसरे दिन एक-एक सत्र क्रमशः उर्दू और हिंदी कविता पाठ  का रहा. तुरंत बाद हिंदी-उर्दू का संयुक्त मुशायरा भी रखा गया.हिंदी काव्य-पाठ के सत्र में डॉ. अहिल्या मिश्र, शशि नारायण 'स्वाधीन', प्रो.किशोरी लाल व्यास तथा ऋषभ देव शर्मा [अध्यक्ष] को अपनी कवितायेँ सुनाने का मौका मिला. कविताएं पहले से तय थीं और एलिजाबेथ कुरियन 'मोना'  ने अत्यंत रुचि व  श्रम पूर्वक अंग्रेज़ी अनुवाद करके श्रोताओं कों अनूदित पाठ भी उपलब्ध  करा दिया था; उर्दू कविताओं का भी.

संपत देवी मुरारका जी और विनीता शर्मा जी  ने तीनों दिन के चित्र भेजे हैं. हाज़िर हैं-


द्रष्टव्य-

द्वितीय 'आचार्य हस्ती सेवा-सम्मान' डॉ. राधेश्याम शुक्ल को दिया गया


15  जनवरी 2012  को हैदराबाद में जैनाचार्य हस्तीमल जी की स्मृति में स्थापित न्यास की ओर से इस वर्ष का आचार्य हस्ती सेवा-सम्मान 'स्वतंत्र वार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल को प्रदान किया गया. अध्यक्षता जैन-रत्न सुरेंद्र लूणिया ने की और मुख्य अतिथि के रूप में चेन्नई की जैन संस्था के अधिकारी मंचासीन हुए. अपुन को विशेष अतिथि के रूप में बोलने को बुलाया गया.  





[चित्र :  हरिकृष्णा और  संपत देवी मुरारका]

बुधवार, 18 जनवरी 2012

गुलज़ार : गुफ़्तगू के दौरान

हैदराबाद लिटरेरी फेस्टिवल (16/17/18 जनवरी 2012) की पहली शाम 'सुकृता पुल कुमार की गुलज़ार से गुफ़्तगू' के कारण स्मरणीय बन गई. दिन भर की थकन जैसे हवा हो गई. सरहद और बुढिया वाली कविताएं यों तो पहले की सुनी-पढ़ी थीं पर आमने-सामने कवि के मुख से सुनने का मज़ा और ही था. चलते-चलते भी उन्होंने छात्रों की माँग पर किताब पर भी एक कविता सुनाई. लिपि ने कुछ चित्र भी लिए -


'गुफ़्तगू' के दौरान भी, और सवेरे उद्घाटन में भी, पवन के. वर्मा और गुलज़ार दोनों ने ही ज़ोर देकर कहा कि इस तरह के 'फेस्टिवल' का अंग्रेजीमे स्वरूप मानसिक औपनिवेशिकता का द्योतक है और कि ऐसे अवसरों पर भारतीय भाषा, भारतीय संस्कृति और भारतीयता को केंद्र में रखा जाना चाहिए.


हिंदी के अखबारों में तो इस बड़ी और महत्वपूर्ण घटना का कोई ज़िक्र आज दिखाई नहीं दिया. अलबत्ता अंग्रेजी प्रेस ने अवश्य  कवर किया. एक अखबार ने तो 'साहित्यकारों का क्रंदन' ही शीर्षक बना डाला.
      [चित्र : लिपि भारद्वाज]
द्रष्टव्य-  
Litterateurs lament ‘English Raj’
Need to preserve one's language, culture stressed

Poor turnout at festival

रविवार, 8 जनवरी 2012

तेलुगु नाटक 'अक्षर' : अनूदित पाठ की भूमिका

शुभाशंसा

अनुवाद समाज के लिए उतना ही जरूरी है जितनी भाषा. भाषा के बिना किसी समुदाय के सदस्य जिस प्रकार संवादहीन हो सकते हैं उसी प्रकार अनुवाद के अभाव में भिन्न समुदायों का परस्पर संवाद संभव नहीं है. इसलिए अनुवाद एक ऐसी बहुभाषिक गतिविधि है जो अलग अलग भाषा समुदायों के बीच संवाद सेतु बनाती है. प्रसन्नता की बात है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच परस्पर अनुवाद की इस गतिविधि के कारण अलग अलग भाषा समुदायों के बीच आपसी समझ का विकास हो रहा है. अनुवाद के माध्यम से यह बात भी पुष्ट होती है कि विभिन्न भाषाओं के साहित्य के मूलभूत मानवीय सरोकार एक समान हैं. आज के समय में जीवन मूल्यों का क्षरण दयनीय अवस्था तक पहुँच गया है और आम आदमी भ्रष्टाचार के जाले में बुरी तरह फँसकर छटपटा रहा है. इस क्रूर यथार्थ को सभी भारतीय भाषाओं के लेखक शिद्दत से महसूस कर रहे हैं और अभिव्यक्त कर रहे हैं. श्री बी.विश्वनाथाचारी द्वारा अनूदित श्री नंदिराजु सुब्बाराव का तेलुगु नाटक ‘अक्षर’ भी इसका अपवाद नहीं है.

‘अक्षर’ एक प्रयोगशील नाटक है जिसे नुक्कड़ नाटक के रूप में भी खेला जा सकता है. इसके केंद्र में लुटा पिटा आम आदमी है. समाज का जो विशिष्ट वर्ग है, भद्र लोक है वह सब प्रकार की सुख सुविधाओं से संपन्न है. दूसरी ओर आम आदमी सब प्रकार की सुख सुविधाओं से वंचित है. आर्थिक अभावों के कारण वह पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम जैसी जिंदगी बसर करने को मजबूर है. फिर भी चाहता है कि अपनी अगली पीढ़ी को बेहतर जिंदगी दे सके, आजादी मुहैया करा सके. लेकिन उसकी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं हो पाती. वह अपने बेटे को अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाता इसलिए बेटा बेरोजगार रह जाता है. बेटी के लिए दूल्हों के बाजार में ऊँचा दहेज नहीं दे पाता इसलिए वह अभिशप्त जीवन भोगती है. पत्नी के लिए अपने अंग बेचकर भी कुछ साँसें नहीं खरीद पाता इसलिए वह दम तोड़ देती है. रिश्ते नातों की व्यर्थता, शिक्षा, प्रशासन, चिकित्सा जैसी संस्थाओं के पतन और उपभोक्तावाद के विषैले प्रभाव को इस नाटक में व्यंग्य के माध्यम से पूरी तल्खी के साथ उभारा गया है. घर की तलाश करता आम आदमी अंत तक असफल रहता है. निस्संदेह यह संवेदना केवल तेलुगु भाषा और आंध्र प्रदेश तक सीमित नहीं है बल्कि सारे भारत की कमोबेश यही कहानी है.

इस अनुवाद के माध्यम से हिंदी के पाठक तेलुगु नाटक की समसामयिक चिंता से रू-ब-रू होंगे. साथ ही इसमें निहित व्यंग्य उन्हें विचलित भी करेगा. ऐसा मेरा विश्वास है.

मूल लेखक और अनुवादक को इस कृति के प्रकाशन के अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएँ.


७.१.२०११ 

रविवार, 1 जनवरी 2012

श्रीलाल शुक्ल के जन्मदिन पर ...


पिछले कई वर्षों से उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद की शोधछात्रा श्रीमती सीमा मिश्रा ३१ दिसंबर को श्रीलाल शुक्ल के जन्मदिन पर संगोष्ठी का आयोजन करती रही हैं. उन पर एमफिल के बाद पीएचडी भी वे उन्हीं पर कर रही थीं. इस बार श्रीलाल शुक्ल कों ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया लेकिन कुछ ही दिन बाद वे पंचतत्व में लीं हो गए. यों इस वर्ष [३१.१२.२०११] की संगोष्ठी उनकी स्मृति कों समर्पित की गई.

अध्यक्षता अपुन के जिम्मे आई. मुख्य अतिथि रहे चंडीगढ से पधारे प्रो. अमर सिंह वधान. ''हिंदी साहित्य को श्रीलाल शुक्ल का प्रदेय'' पर मुख्य व्याख्यान प्रो. टी. मोहन सिंह ने दिया ; सीमा मिश्र भी बोलीं. विशेष अतिथि डॉ. अहिल्या मिश्र थीं और संचालक डॉ. जी.नीरजा. सीमा की किताब ''श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'राग  दरबारी' का राजनैतिक संदर्भ'' का लोकार्पण किया डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने. अच्छी-खासी चर्चा हुई.

संपत देवी मुरारका जी ने खूब फोटो खींचे ; और मुझे भेज भी दिए.