अभी कल की ही तो बात है. डॉ. प्रभाकर त्रिपाठी के बुलावे पर हिन्दी महाविद्यालय में भक्ति काल पर व्याख्यान के लिए जाना पड़ा. अच्छा रहा. पर एक गड़बड़ होगई. हमारे युवा मित्र डॉ. शशि कान्त मिश्र भी वहां रिपोर्टर की हैसियत से मौजूद थे. उन्होने कुछ का कुछ अपनी रिपोर्ट में लिख मारा. शायद इसी को कहते हैं - मैंने ऐसा तो नहीं कहा था. लेकिन, उनकी समझ की सीमा की बलिहारी जाते हुए उनकी सदाशयता को ध्यान में रखते हुए धन्यवाद ही कहा जा सकता है.
1 टिप्पणी:
कभी कभी अनजाने में/ऐसा भी होता है
भले को भी/बुरे को भी
नज़रअंदाज़ कर जाना पड़ता है।
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