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सोमवार, 26 जनवरी 2009

'चाहती हूँ मैं, नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द‘

’चाहती हूँ मैं, नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द


पुस्तक :
दलित जीवन का अधिकार और निर्मला पुतुल की कविता /
मिनीप्रिया.आर.
प्रकाशक:
जवाहर पुस्तकालय, सदर बाजार, मथुरा-२८१ ००१/
मूल्य १०० रु./पृष्ठ १०० (सजिल्द)।




मनुष्य जैसे-जैसे सभ्यता की ऊँचाइयाँ हासिल करता जा रहा है, खेद का विषय है कि वैसे-वैसे ही बर्बरता के शिखर भी लांघता जा रहा है। सारी दुनिया आज आतंक के साए तले जी रही है। खाड़ी देषों में तेल के कारण युद्ध है तो फिलिस्तीन में नस्ल के नाम पर युद्ध है। भारत और उसके पड़ोसी देष तरह-तरह की हिंसा से ग्रस्त हैं । इस सब में जाने कितने बच्चे बेघर होते हैं, जाने कितने बुजुर्ग बुढ़ापे के दर्द को झेलते हुए राहत षिविरों में वक्त काटने को मजबूर होते हैं। जाने कितने निर्दोष जन जेल और यातना शिविर में ठूँस दिए जाते हैं और न जाने कितनी औरतों की आबरू लड़ाई के बीचोबीच चिथड़े-चिथड़े कर दी जाती है। कुल मिलाकर हर ओर मनुष्य के जीने और रहने के मूलभूत अधिकारों का हनन होता दिखाई दे रहा है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस नए युग में यद्यपि मनुष्य दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने के अभियान में सफल होता दिखाई दे रहा है, तथापि उसकी मुट्ठी से उसके अपने जीवन के अधिकार छूटते जा रहे हैं। यही कारण है कि दुनिया भर में आज मानवाधिकारों के संरक्षण की चिंता बढ़ गई है। इस स्थिति में साहित्य की प्रासंगिकता का मूलाधार भी यही है कि वह इस रक्त रंजित सामाजिक यथार्थ को पहचानने और मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए अपने आपको समर्पित कर दे। इसमें संदेह नहीं कि ‘‘कवि केवल कवि नहीं, समाजशास्त्री भी है। उसकी अपनी वैज्ञानिक समझ है। वह सामाजिक विमर्श से कविता के भीतर और बाहर कहीं भी उदासीन नहीं रह सकता।’’ (स्वप्निल श्रीवास्तव, आलोचना, अपै्रल-जून 2003, पृ. 33)। इसी का परिणाम है कि आज की कविता में शंका, शोक, आंदोलन, विद्रोह और असमंजस एक साथ उपस्थित हैं । साथ ही इस भीषण समय की अभिव्यक्ति के लिए सटीक भाषा की तलाश का सवाल भी -

‘‘इस मिट्टी को
उस भाषा में मैं किस नाम से पुकारूँ
जिस भाषा में
मिट्टी का मतलब होता है सिर्फ लाश ।’’ (राजेंद्र कुमार)

मानव अधिकारों से वंचितों की श्रेणी के रूप में भारतीय समाज में दलितों की एक अलग जमात रही है जिन्हें सदा हिकारत की नज़र से देखा गया और जाति विशेष में जन्म लेने के कारण हीन समझा गया। कविता में यों तो किसी न किसी रूप में सदा ही वंचितों और दलितों की पक्षधरता का स्वर मुखर रहा है, लेकिन आज के समय में लोकतंत्र और भूमंडलीकरण ने दलित कविता के लिए अपेक्षाकृत अधिक खुला आसमान उपलब्ध कराया है। यही कारण है कि अब दलित अपनी अनुभूतियों, पीड़ा और संवेदना को अपने अनुभव की ठोस भाषा में सटीक अभिव्यक्ति दे रहे हैं और साहित्य में अपनी सुनिश्चित उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। दलित कविता में दलितों का स्वयं भोगा हुआ अनुभव जगत है। उन्हें भले ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति की दीक्षा विरासत में न मिली हो फिर भी दलितों की आवाज की अनन्यता इस प्रवृत्ति के आरंभ से ही अपनी मौलिकता के कारण पहचान बनाने में समर्थ रही है। दलितों ने अपने समुदाय पर हो रहे सामाजिक- राजनैतिक अत्याचारों के खिलाफ पूरे तेवर के साथ सवाल उठाए तथा तथाकथित सभ्यता, परंपरा और सामाजिक व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर के समाज दर्षन के अनुरूप रचित इस कविता (दलित कविता) को यदि अंबेदकरवादी कविता भी कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी क्योंकि यह कविता उसी सामाजिक-राजनैतिक भूमिका का निर्वाह कर रही है जिसका स्वप्न इन महान चिंतकों ने देखा था।

अंबेदकरवादी कविता के उन्नायकों में निर्मला पुतुल का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने केवल दलित जीवन को ही नहीं बल्कि दलितों में भी दलित अर्थात आदिवासियों और स्त्रियों के जीवन संघर्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है। आदिवासी जो सारी सभ्यता का पूर्वज है, विकास की दौड़ में पिछड़ा और पददलित बनकर रह गया है। उसे अषिष्ट और असभ्य समझा जाता है तथा तेज रफ्तार जिंदगी उसे हाशिए पर धकेल कर आगे निकल जाती है। निर्मला पुतुल ने अपनी कविता को इन प्रवंचित और मूक प्राणियों की आवाज बनाया है -

‘‘अक्सर चुप रहनेवाला आदमी
कभी न कभी बोलेगा
जरूर सिर उठाकर
चुप्पी टूटेगी एक दिन धीरे-धीरे उसकी
धीरे-धीरे सख्त होंगे उसके इरादे
व्यवस्था के खिलाफ
भीतर-भीतर ईजाद करते
कई-कई खतरनाक शस्त्र।’’ (धीरे-धीरे)

कवियित्री यह जानती है कि शोषक वर्ग ही कपटपूर्वक समाजसेवी का वेश बना लेता है और आदिवासियों को शोषण के खिलाफ आवाज उठाने से रोके रखता है, उनके आक्रोश और विद्रोह को मीठी भाषा की चासनी में लिपटा जहर चटाकर मार डालता है। यह वर्ग आदिवासियों को भी नष्ट कर रहा है और उनके परिवेश को भी। आदिवासी वृक्ष और नदी के साथ जीते हैं, वे उनके लिए जीवन के पर्याय हैं । लेकिन तथाकथित सभ्य समाज उनके इस पर्यावरण को प्रदूषित ही नहीं, समाप्त करने पर तुला है। विकास के नाम पर उनसे उनकी मिट्टी छीन ली जाती है। मिट्टी छीन लेने पर उससे जुड़े संस्कारों का कट जाना सहज परिणाम है। जंगल और नदियों पर निर्भर रहनेवाले आदिवासियों को पुनर्वास रूपी उपहार देकर उनकी जमीन से उखाड़कर अन्यत्र रोपने का प्रयास किया जाता है, परंतु ऐसा करने वाली सरकारें यह भूल जाती हैं कि आदिवासियों के रीति-रिवाज और त्यौहारों का संबंध इन्हीं जंगलों और नदियों से है। इनसे दूर उनकी संस्कृति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। प्रकृति ही उनके लिए देवी-देवता है और वही उनकी भूख और बेबसी का निवारण कर सकती है। यही कारण है कि निर्मला पुतुल विकास के नाम पर आदिवासियों के व्यापक विस्थापन को उनके मानवाधिकार के प्रति एक क्रूर कार्रवाई के रूप में देखती हैं और प्रश्न करती हैं -


‘‘पर तुम्हीं बताओ, यह कैसे संभव है?आँख रहते अंधी कैसे हो जाऊँ मैं?कैसे कह दूँ रात को दिन?
खून को पानी कैसे लिख दूँ?’’ (खून को पानी कैसे लिख दूँ)
यह भी उल्लेखनीय है कि आदिवासी जीवन के चित्रण को पूर्ण प्रामाणिकता प्रदान करते हुए निर्मला पुतुल ने आदिवासी स्त्रियों की दशा और मानसिकता को भी अपनी कविता में पूरा स्थान दिया है। उनकी कविताओं में संथाली सभ्यता और संस्कार की गंध सर्वत्र व्याप्त है। उनमें इस बात का निर्भीकतापूर्वक खुलासा किया गया है कि किस प्रकार सत्ता का चाबुक पददलित पर, खासकर औरतों पर, प्रहार करता है और उनके भीतर इन प्रहारों से मुक्ति पाने की तड़प तथा बेचैनी जाग उठती है।
प्रायः यह मिथ्या धारणा पाल ली जाती है कि आदिवासी समाजों में स्त्री अपेक्षाकृत स्वतंत्र और अधिकार संपन्न है। निर्मला पुतुल इस मिथ को तोड़ती हैं। वे स्त्री की अस्मिता का प्रश्न काफी तल्ख लहजे में उठाती हैं -


‘‘एक तकिया
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
कि कहीं से थका माँदा आया और सिर टिका दिया
कोई खूँटी
कि ऊब उदासी थकान से भरी
कमीज़ उतारकर टाँग दिया
या आँगन में तनी अरगनी
कि घर-भर के कपड़े लाद दिया।’’ (क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए)


वस्तुतः स्त्री की इस स्थिति के लिए उसे घरेलू बनाकर तथा मातृत्व का अतिरिक्त महिमामंडन करके सेविका बने रहने को मजबूर करने वाली प्रथाएँ जिम्मेदार हैं। सारे कर्तव्य स्त्री के जिम्मे, और सारे अधिकार पुरुष के हक में ! ऐसे में अगर कोई स्त्री मानवाधिकार की बात करे, पिता की संपत्ति का अधिकार मांगे, पर्वतों और वनों की कटाई का विरोध करे, सूदखोरों और ओझाओं की लूट का पर्दाफाश करे या शोषण के खिलाफ आवाज उठाए तो आदिवासी समाज के पास भी उसे कुचल डालने के लिए ‘पंचायत’ नाम की एक व्यवस्था है जो ऐसी स्त्रियों को बड़ी सरलता से ‘डायन’ घोषित करके मरवा डालती है। ऐसी स्त्रियों को भरी पंचायत में सरेआम नंगी नचाया जा सकता है, बिना दलील के छोड़ा जा सकता है, सब कुछ से वंचित किया जा सकता है। पुरुष समाज की इस ‘यूज एंड थ्रो’ संस्कृति को प्रश्नांकित करते हुए पुतुल की स्त्री पूछती है -


‘‘क्या है ग़लती मेरी
जो छोड़ना चाहते हो मुझे?
क्या इसी दिन के लिए इतने जतन से
घर गृहस्थी सँभाली तुम्हारी?
मिलकर बाँधी खोचर
बनाई कोठी और चूल्हा
इसी दिन के लिए?
कि मन भर जाते ही
फटी पुरानी धोती की तरह
उतार फेंको मुझे?’’ (मेरा कसूर क्या है)


कवियित्री निर्मला पुतुल तथाकथित सभ्य समाज की भोगवादी मानसिकता को भली प्रकार पहचानती हैं और उघाड़ती भी हैं। यह समाज एक ओर तो आदिवासियों की भाषा, संप्रदाय, चाल-चलन, पोशाक आदि का मज़ाक उड़ाते हुए उन्हें असभ्य घोषित करता है और दूसरी ओर इन्हीं आदिवासियों की स्त्रियों की देह के लिए लपकता और लार टपकाता रहता है। आदिवासी क्षेत्रों में तथाकथित सभ्य समाज के पदार्पण का परिणाम नाबालिग और नाजायज़ आदिवासी माँओं की बढ़ती संख्या के रूप में सामने आता है। स्त्री शोषण, बाल शोषण, यौन शोषण, श्रम शोषण और सांस्कृतिक शोषण - जाने कितने रूप है आदिवासियों पर ढाए जाने वाले कुलीन समाज के अत्याचारों के! बेजुबान मासूम आदिवासी बालिकाओं को देह व्यापार में धकेलने वाली इस सभ्यता पर व्यंग्य करते हुए निर्मला पुतुल कहती है -


‘‘मेरा सब कुछ अप्रिय है
उनकी नज़र में
प्रिय है तो बस
मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने
जंगल के फूल, फल, लकड़ियाँ
खेतों में उगी सब्जियाँ
घर की मुर्गियाँ
उन्हें प्रिय है
मेरी गदराई देह
मेरा मांस प्रिय है उन्हें।’’ (मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में)


सवाल है कि आखिर निर्मला पुतुल चाहती क्या हैं , उनकी कविता क्या चाहती है, उनकी कविता की औरत क्या चाहती है। उत्तर भी साफ है। उच्च वर्ग और पुरुष वर्चस्व द्वारा निर्मित आचारसंहिता अब कालातीत हो चुकी है फिर भी -


‘‘मेरे विरोध जताने के तरीके पर
तुम्हारा मानना है कि,
इतनी ऊँची आवाज़ में बोलना
हम स्त्रियों को शोभा नहीं देता।’’ (तुम्हें आपत्ति है)

इसीलिए कवियित्री निर्मला पुतुल की स्त्री अपने ऊपर थोपी गई देह मात्र होने की नियति से बाहर निकलना चाहती है ताकि उसका मनुष्य होना, पूर्ण मनुष्य होना, सिद्ध हो सके, स्थापित हो सके -


‘‘मैं कविता नहीं
शब्दों को रचती हूँ
अपनी काया से
बाहर खड़ी होकर अपना होना।’’ (मेरे एकांत का प्रवेश द्वार)


और तब हासिल होगी उसके शब्दों को वह ताकत जो अंधों की आंख और गूँगों की जब़ान बन सकेगी-


‘‘मैं चाहती हूँ
आँख रहते अंधे आदमी की
आँख बनें मेरे शब्द
उनकी जुबान बनें
जो जुबान रहते गूँगे बने
देख रहे हैं तमाषा
चाहती हूँ मैं
नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द
और निकल पड़ें लोग
अपने अपने घरों से सड़क पर।’’ (मैं चाहती हूँ)


ये शब्द ठीक वे शब्द नहीं हो सकते जिनका प्रयोग शोषक वर्ग के हितों की रक्षा करने वाली भाषा करती आई है। इसलिए आदिवासियों और औरतों के पक्ष में खड़ी हुई निर्मला पुतुल की कविता अपने लिए उन्हीं के परिवेष से शब्द चुनती है, भाषा गढ़ती है -


‘‘अबूझ भाषाओं में
बुझाओ मत पहेलियाँ
मैं समझती हूँ भाषा की कपट
इसलिए तुम्हारी मायावी दुनिया से बाहर
सीधे-सीधे अपनी भाषा में
बात करना चाहती हूँ
वैसे भी तुम्हारे गढ़े मुहावरे
और शब्दों के जादुई इंद्रजाल ने
बहुत नुक्सान किया हमारा।’ ’ (प्रश्न)


निर्मला पुतुल की कविता और काव्य भाषा के इस तेवर से परिचित कराती है मलयालम भाषी हिंदी लेखिका मिनीप्रिया. आर. की शोधपूर्ण कृति ‘‘दलित जीवन का अधिकार और निर्मला पुतुल की कविता’’ (2006) । यह कृति दो खंडों में संयोजित है। पहले खंड में ‘ समकालीन कविता और जीने का अधिकार’ तथा ‘ सबाल्टर्न कविता: अंबेदकरवादी कविता’ शीर्षक दो अध्याय हंै। दूसरे खंड में ‘ निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी जीवन-संघर्ष’, ‘कविता और आदिवासी औरत का मानव अधिकार’ और ‘ मुक्तिभाषा का संघर्ष’ शीर्षक तीन अध्यायों में निर्मला पुतुल की कविता का दलित, आदिवासी और स्त्री के अधिकारों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से विवेचन किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि यह कृति उत्तर आधुनिक विमर्श की दृष्टि से अत्यंत सामयिक और महत्वपूर्ण है। विश्वास किया जाना चाहिए कि इस शोध कृति का हिंदी जगत में खुले हृदय से स्वागत होगा।




7 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

सशक्त और दमदार लेख ...मान गए ....आपका और आपके नए ब्लॉग का स्वागत है .....लिखते रहें ......

अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

इंटरनेट के जंगल में टहलते टहलते यूँ ही आपके ब्लॉग पर पहुँच गया |
पढ़ा तो लगा कि कोई रत्न हाथ लग गया हो. पहली पोस्ट और इतनी सुंदर प्रस्तुति |
सचमुच आप बधाई के पात्र हैं | क्या सूक्ष्म और मार्मिक विश्लेषण किया है पुस्तकों का !

आगे भी आपसे ऐसी ही रचनाओं का इंतज़ार रहेगा |

(अगर आप बिना किसी हर्रे फिटकरी के कोरियन लैंगुएज सीखना चाहते हैं तो मेरे ब्लॉग http://koreanacademy.blogspot.com/ पर आएं |)

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

एक और सलाह - कमेंट्स से वर्ड वेरिफिकेशन को हटा दें | इससे कमेन्ट करने वालों को असुविधा होती है |
सेटिंग्स में जाकर कमेंट्स पर क्लिक करें और वर्ड वेरिफिकेशन में नो का ऑप्शन चुनें |
धन्यवाद|

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सुंदर.........लेखन कला को सम्पूर्ण रूप से दर्शाता, सशक्त लेख
कायल हो गयी आपकी लेखनी के

shama ने कहा…

Vilakshan saadharmya...! Lagaa mano kiseene mere manse alfaaz chhenke likh diye hon..yaa meree rachnayen likh dee gayee hon, chand alfaazon ke pherphaarse...! Poora lekh aur, sadar kee gayee rachnayon kee harek panktee seedhe dil aur dimaagme utar gayeen, behad sahajtaase. Inkee saraltaa aur saafgoyee sabse behtareen paksh hai inkaa !
Mubarak ho !
Gar mere blogpe aayen to apnee jeevanee likh rahee hun...behad miltee jultee hai...
Shama

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

व्यवस्था के खिलाफ

भीतर-भीतर ईजाद करते

कई-कई खतरनाक शस्त्र।”
दलित विमर्श की सही कशमश दिखाई देती है। अच्छी चर्चा के लिए बधाई।

श्रद्धा जैन ने कहा…

wah apaki kalam mein to kamaal ka dum hai
itni achhi abhivayakti aur itni achhi kitaab ka chayan
pahli hi post main aapko aur padhne ki utsukta jaag gayi hai

likhte rahe