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गुरुवार, 29 जनवरी 2009

भक्ति काल पर व्याख्यान




अभी कल की ही तो बात है. डॉ. प्रभाकर त्रिपाठी के बुलावे पर हिन्दी महाविद्यालय में भक्ति काल पर व्याख्यान के लिए जाना पड़ा. अच्छा रहा. पर एक गड़बड़ होगई. हमारे युवा मित्र डॉ. शशि कान्त मिश्र भी वहां रिपोर्टर की हैसियत से मौजूद थे. उन्होने कुछ का कुछ अपनी रिपोर्ट में लिख मारा. शायद इसी को कहते हैं - मैंने ऐसा तो नहीं कहा था. लेकिन, उनकी समझ की सीमा की बलिहारी जाते हुए उनकी सदाशयता को ध्यान में रखते हुए धन्यवाद ही कहा जा सकता है.

गोवा में बहुभाषिक कविसम्मेलन आयोजित

गोवा में बहुभाषिक कविसम्मेलन आयोजित
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प्रो. एन. गोपी की काव्य कृति 'समुद्र, मैं और गोवा' लोकार्पित
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गोवा की प्रसिद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था इंस्टिट्यूट मिनेझिस ब्रागान्झा [पणजी] के तत्वावधान में भारतीय गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में पणजी स्थित आर्ट गैलरी सभागृह में ''बहुभाषिक कवि सम्मलेन'' आयोजित किया गया . कवि सम्मलेन की अध्यक्षता वरिष्ठ कोंकणी साहित्यकार रमेश भगवंत वेलुस्कर ने की तथा संचालन संस्थान के सचिव अशोक परब ने किया. इस अवसर पर डॉ.ऋषभ देव शर्मा और लक्ष्मी नारायण अग्रवाल ने हिन्दी , प्रमोद जोशी और प्रवीण बांदेकर ने मराठी , फिलोमिना सानफ्रांसिस्को और एंड्रू डिकुन्हा ने कोंकणी , डॉ.उषा उपाध्याय ने गुजराती,डॉ. एन.गोपी ने तेलुगु तथा सावित्री राजीवन ने मलयालम भाषा में काव्य-पाठ किया. कार्यक्रम की विशेष उपलब्धि यह रही कि सभी हिंदीतर भाषी कवियों ने अपनी मातृभाषा में पठित कविताओं के हिन्दी-काव्यानुवाद का भी वाचन किया जिसकी श्रोताओं ने भूरि-भूरि प्रशंसा की. इस अवसर पर विख्यात तेलुगु कवि प्रो. एन. गोपी की गोवा -प्रवास के दौरान रचित तेलुगु काव्यकृति के हिन्दी अनुवाद ''समुद्र , मैं और गोवा'' का लोकार्पण भी संपन्न हुआ. आर शांता सुन्दरी द्वारा अनूदित इस पुस्तक का लोकार्पण, समारोह के अध्यक्ष रमेश भगवंत वेलुस्कर ने किया तथा रचनाकार ने प्रथम प्रति गोवा के प्रमुख शिक्षाविद् मोहन दास सुर्लेकर को समर्पित की. ................................................................................................................................ [चित्र-परिचय : गोवा में संपन्न बहुभाषिक कवि-सम्मलेन के अवसर पर (प्रथम पंक्ति में)- सावित्री राजीवन, फिलोमिना सानफ्रांसिस्को, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल , ऋषभ देव शर्मा , रमेश भगवंत वेलुस्कर तथा मोहनदास सुर्लेकर, (द्वितीय पंक्ति में)- प्रमोद जोशी, प्रवीण बांदेकर, एंड्रू डिकुन्हा तथा अशोक परब. इनसेट में डॉ. एन. गोपी की काव्यकृति ''समुद्र,मैं और गोवा'' का लोकार्पण करते हुए कोंकणी कवि रमेश भगवंत वेलुस्कर.] ....................................................................................................................................

मंगलवार, 27 जनवरी 2009

'समकालीन कविता की चेतनाभूमि' और 'प्रयोजनमूलक हिन्दी तथा अनुवाद' पर विशेष व्याख्यान संपन्न



हैदराबाद, 23 जनवरी 2009.
गोवा विश्व विद्यालय, गोवा के हिन्दी विभाग में आयोजित विशेष व्याख्यान माला के अंतर्गत उच्च शिक्षा और शोध संसथान, हैदराबाद के आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ. ऋषभ देव शर्मा के दो व्याख्यान क्रमशः 'समकालीन कविता की चेतनाभूमि' और 'प्रयोजनमूलक हिन्दी तथा अनुवाद' विषयों पर संपन्न हुए.
आरम्भ में गोवा विश्व विद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो.रवीन्द्रनाथ मिश्र ने मुख्य अतिथि प्रो.शर्मा का परिचय देते हुए स्वागत किया. प्रो. शर्मा ने अपने पहले व्याख्यान में समकालीन कविता की मुख्य विशेषता के रूप में उसकी राजनैतिक जागरूकता और लोकतंत्र में प्रतिपक्ष जैसी जनपक्षीय भूमिका को रेखांकित किया.
दूसरे व्याख्यान में उन्होंने विशेष प्रयोजनों की भाषा के रूप में हिन्दी के स्वरुप निर्धारण में अनुवाद के योगदान की चर्चा की. और इस बात पर बल दिया कि विविध ज्ञान विज्ञान के आधुनिकतम अनुसंधानों के साथ कदम से कदम मिला कर चलने के लिए हिन्दी में अनूदित और मौलिक लेखन को अधिक से अधिक प्रोत्साहन दिए जाने की ज़रूरत है.
इस अवसर पर उन्होंने छात्रों और शोधार्थियों की जिज्ञासाओं के भी उत्तर दिए.
प्राध्यापक डॉ. छाया के धन्यवाद प्रस्ताव के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ.

सोमवार, 26 जनवरी 2009

'चाहती हूँ मैं, नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द‘

’चाहती हूँ मैं, नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द


पुस्तक :
दलित जीवन का अधिकार और निर्मला पुतुल की कविता /
मिनीप्रिया.आर.
प्रकाशक:
जवाहर पुस्तकालय, सदर बाजार, मथुरा-२८१ ००१/
मूल्य १०० रु./पृष्ठ १०० (सजिल्द)।




मनुष्य जैसे-जैसे सभ्यता की ऊँचाइयाँ हासिल करता जा रहा है, खेद का विषय है कि वैसे-वैसे ही बर्बरता के शिखर भी लांघता जा रहा है। सारी दुनिया आज आतंक के साए तले जी रही है। खाड़ी देषों में तेल के कारण युद्ध है तो फिलिस्तीन में नस्ल के नाम पर युद्ध है। भारत और उसके पड़ोसी देष तरह-तरह की हिंसा से ग्रस्त हैं । इस सब में जाने कितने बच्चे बेघर होते हैं, जाने कितने बुजुर्ग बुढ़ापे के दर्द को झेलते हुए राहत षिविरों में वक्त काटने को मजबूर होते हैं। जाने कितने निर्दोष जन जेल और यातना शिविर में ठूँस दिए जाते हैं और न जाने कितनी औरतों की आबरू लड़ाई के बीचोबीच चिथड़े-चिथड़े कर दी जाती है। कुल मिलाकर हर ओर मनुष्य के जीने और रहने के मूलभूत अधिकारों का हनन होता दिखाई दे रहा है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस नए युग में यद्यपि मनुष्य दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने के अभियान में सफल होता दिखाई दे रहा है, तथापि उसकी मुट्ठी से उसके अपने जीवन के अधिकार छूटते जा रहे हैं। यही कारण है कि दुनिया भर में आज मानवाधिकारों के संरक्षण की चिंता बढ़ गई है। इस स्थिति में साहित्य की प्रासंगिकता का मूलाधार भी यही है कि वह इस रक्त रंजित सामाजिक यथार्थ को पहचानने और मानव अधिकारों के प्रति जागरूकता को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए अपने आपको समर्पित कर दे। इसमें संदेह नहीं कि ‘‘कवि केवल कवि नहीं, समाजशास्त्री भी है। उसकी अपनी वैज्ञानिक समझ है। वह सामाजिक विमर्श से कविता के भीतर और बाहर कहीं भी उदासीन नहीं रह सकता।’’ (स्वप्निल श्रीवास्तव, आलोचना, अपै्रल-जून 2003, पृ. 33)। इसी का परिणाम है कि आज की कविता में शंका, शोक, आंदोलन, विद्रोह और असमंजस एक साथ उपस्थित हैं । साथ ही इस भीषण समय की अभिव्यक्ति के लिए सटीक भाषा की तलाश का सवाल भी -

‘‘इस मिट्टी को
उस भाषा में मैं किस नाम से पुकारूँ
जिस भाषा में
मिट्टी का मतलब होता है सिर्फ लाश ।’’ (राजेंद्र कुमार)

मानव अधिकारों से वंचितों की श्रेणी के रूप में भारतीय समाज में दलितों की एक अलग जमात रही है जिन्हें सदा हिकारत की नज़र से देखा गया और जाति विशेष में जन्म लेने के कारण हीन समझा गया। कविता में यों तो किसी न किसी रूप में सदा ही वंचितों और दलितों की पक्षधरता का स्वर मुखर रहा है, लेकिन आज के समय में लोकतंत्र और भूमंडलीकरण ने दलित कविता के लिए अपेक्षाकृत अधिक खुला आसमान उपलब्ध कराया है। यही कारण है कि अब दलित अपनी अनुभूतियों, पीड़ा और संवेदना को अपने अनुभव की ठोस भाषा में सटीक अभिव्यक्ति दे रहे हैं और साहित्य में अपनी सुनिश्चित उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। दलित कविता में दलितों का स्वयं भोगा हुआ अनुभव जगत है। उन्हें भले ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति की दीक्षा विरासत में न मिली हो फिर भी दलितों की आवाज की अनन्यता इस प्रवृत्ति के आरंभ से ही अपनी मौलिकता के कारण पहचान बनाने में समर्थ रही है। दलितों ने अपने समुदाय पर हो रहे सामाजिक- राजनैतिक अत्याचारों के खिलाफ पूरे तेवर के साथ सवाल उठाए तथा तथाकथित सभ्यता, परंपरा और सामाजिक व्यवस्था की पोल खोल कर रख दी। महात्मा ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबा साहेब भीमराव अंबेदकर के समाज दर्षन के अनुरूप रचित इस कविता (दलित कविता) को यदि अंबेदकरवादी कविता भी कहा जाए तो कोई अत्युक्ति न होगी क्योंकि यह कविता उसी सामाजिक-राजनैतिक भूमिका का निर्वाह कर रही है जिसका स्वप्न इन महान चिंतकों ने देखा था।

अंबेदकरवादी कविता के उन्नायकों में निर्मला पुतुल का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने केवल दलित जीवन को ही नहीं बल्कि दलितों में भी दलित अर्थात आदिवासियों और स्त्रियों के जीवन संघर्ष को अपनी कविता का विषय बनाया है। आदिवासी जो सारी सभ्यता का पूर्वज है, विकास की दौड़ में पिछड़ा और पददलित बनकर रह गया है। उसे अषिष्ट और असभ्य समझा जाता है तथा तेज रफ्तार जिंदगी उसे हाशिए पर धकेल कर आगे निकल जाती है। निर्मला पुतुल ने अपनी कविता को इन प्रवंचित और मूक प्राणियों की आवाज बनाया है -

‘‘अक्सर चुप रहनेवाला आदमी
कभी न कभी बोलेगा
जरूर सिर उठाकर
चुप्पी टूटेगी एक दिन धीरे-धीरे उसकी
धीरे-धीरे सख्त होंगे उसके इरादे
व्यवस्था के खिलाफ
भीतर-भीतर ईजाद करते
कई-कई खतरनाक शस्त्र।’’ (धीरे-धीरे)

कवियित्री यह जानती है कि शोषक वर्ग ही कपटपूर्वक समाजसेवी का वेश बना लेता है और आदिवासियों को शोषण के खिलाफ आवाज उठाने से रोके रखता है, उनके आक्रोश और विद्रोह को मीठी भाषा की चासनी में लिपटा जहर चटाकर मार डालता है। यह वर्ग आदिवासियों को भी नष्ट कर रहा है और उनके परिवेश को भी। आदिवासी वृक्ष और नदी के साथ जीते हैं, वे उनके लिए जीवन के पर्याय हैं । लेकिन तथाकथित सभ्य समाज उनके इस पर्यावरण को प्रदूषित ही नहीं, समाप्त करने पर तुला है। विकास के नाम पर उनसे उनकी मिट्टी छीन ली जाती है। मिट्टी छीन लेने पर उससे जुड़े संस्कारों का कट जाना सहज परिणाम है। जंगल और नदियों पर निर्भर रहनेवाले आदिवासियों को पुनर्वास रूपी उपहार देकर उनकी जमीन से उखाड़कर अन्यत्र रोपने का प्रयास किया जाता है, परंतु ऐसा करने वाली सरकारें यह भूल जाती हैं कि आदिवासियों के रीति-रिवाज और त्यौहारों का संबंध इन्हीं जंगलों और नदियों से है। इनसे दूर उनकी संस्कृति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। प्रकृति ही उनके लिए देवी-देवता है और वही उनकी भूख और बेबसी का निवारण कर सकती है। यही कारण है कि निर्मला पुतुल विकास के नाम पर आदिवासियों के व्यापक विस्थापन को उनके मानवाधिकार के प्रति एक क्रूर कार्रवाई के रूप में देखती हैं और प्रश्न करती हैं -


‘‘पर तुम्हीं बताओ, यह कैसे संभव है?आँख रहते अंधी कैसे हो जाऊँ मैं?कैसे कह दूँ रात को दिन?
खून को पानी कैसे लिख दूँ?’’ (खून को पानी कैसे लिख दूँ)
यह भी उल्लेखनीय है कि आदिवासी जीवन के चित्रण को पूर्ण प्रामाणिकता प्रदान करते हुए निर्मला पुतुल ने आदिवासी स्त्रियों की दशा और मानसिकता को भी अपनी कविता में पूरा स्थान दिया है। उनकी कविताओं में संथाली सभ्यता और संस्कार की गंध सर्वत्र व्याप्त है। उनमें इस बात का निर्भीकतापूर्वक खुलासा किया गया है कि किस प्रकार सत्ता का चाबुक पददलित पर, खासकर औरतों पर, प्रहार करता है और उनके भीतर इन प्रहारों से मुक्ति पाने की तड़प तथा बेचैनी जाग उठती है।
प्रायः यह मिथ्या धारणा पाल ली जाती है कि आदिवासी समाजों में स्त्री अपेक्षाकृत स्वतंत्र और अधिकार संपन्न है। निर्मला पुतुल इस मिथ को तोड़ती हैं। वे स्त्री की अस्मिता का प्रश्न काफी तल्ख लहजे में उठाती हैं -


‘‘एक तकिया
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
कि कहीं से थका माँदा आया और सिर टिका दिया
कोई खूँटी
कि ऊब उदासी थकान से भरी
कमीज़ उतारकर टाँग दिया
या आँगन में तनी अरगनी
कि घर-भर के कपड़े लाद दिया।’’ (क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए)


वस्तुतः स्त्री की इस स्थिति के लिए उसे घरेलू बनाकर तथा मातृत्व का अतिरिक्त महिमामंडन करके सेविका बने रहने को मजबूर करने वाली प्रथाएँ जिम्मेदार हैं। सारे कर्तव्य स्त्री के जिम्मे, और सारे अधिकार पुरुष के हक में ! ऐसे में अगर कोई स्त्री मानवाधिकार की बात करे, पिता की संपत्ति का अधिकार मांगे, पर्वतों और वनों की कटाई का विरोध करे, सूदखोरों और ओझाओं की लूट का पर्दाफाश करे या शोषण के खिलाफ आवाज उठाए तो आदिवासी समाज के पास भी उसे कुचल डालने के लिए ‘पंचायत’ नाम की एक व्यवस्था है जो ऐसी स्त्रियों को बड़ी सरलता से ‘डायन’ घोषित करके मरवा डालती है। ऐसी स्त्रियों को भरी पंचायत में सरेआम नंगी नचाया जा सकता है, बिना दलील के छोड़ा जा सकता है, सब कुछ से वंचित किया जा सकता है। पुरुष समाज की इस ‘यूज एंड थ्रो’ संस्कृति को प्रश्नांकित करते हुए पुतुल की स्त्री पूछती है -


‘‘क्या है ग़लती मेरी
जो छोड़ना चाहते हो मुझे?
क्या इसी दिन के लिए इतने जतन से
घर गृहस्थी सँभाली तुम्हारी?
मिलकर बाँधी खोचर
बनाई कोठी और चूल्हा
इसी दिन के लिए?
कि मन भर जाते ही
फटी पुरानी धोती की तरह
उतार फेंको मुझे?’’ (मेरा कसूर क्या है)


कवियित्री निर्मला पुतुल तथाकथित सभ्य समाज की भोगवादी मानसिकता को भली प्रकार पहचानती हैं और उघाड़ती भी हैं। यह समाज एक ओर तो आदिवासियों की भाषा, संप्रदाय, चाल-चलन, पोशाक आदि का मज़ाक उड़ाते हुए उन्हें असभ्य घोषित करता है और दूसरी ओर इन्हीं आदिवासियों की स्त्रियों की देह के लिए लपकता और लार टपकाता रहता है। आदिवासी क्षेत्रों में तथाकथित सभ्य समाज के पदार्पण का परिणाम नाबालिग और नाजायज़ आदिवासी माँओं की बढ़ती संख्या के रूप में सामने आता है। स्त्री शोषण, बाल शोषण, यौन शोषण, श्रम शोषण और सांस्कृतिक शोषण - जाने कितने रूप है आदिवासियों पर ढाए जाने वाले कुलीन समाज के अत्याचारों के! बेजुबान मासूम आदिवासी बालिकाओं को देह व्यापार में धकेलने वाली इस सभ्यता पर व्यंग्य करते हुए निर्मला पुतुल कहती है -


‘‘मेरा सब कुछ अप्रिय है
उनकी नज़र में
प्रिय है तो बस
मेरे पसीने से पुष्ट हुए अनाज के दाने
जंगल के फूल, फल, लकड़ियाँ
खेतों में उगी सब्जियाँ
घर की मुर्गियाँ
उन्हें प्रिय है
मेरी गदराई देह
मेरा मांस प्रिय है उन्हें।’’ (मेरा सब कुछ अप्रिय है उनकी नज़र में)


सवाल है कि आखिर निर्मला पुतुल चाहती क्या हैं , उनकी कविता क्या चाहती है, उनकी कविता की औरत क्या चाहती है। उत्तर भी साफ है। उच्च वर्ग और पुरुष वर्चस्व द्वारा निर्मित आचारसंहिता अब कालातीत हो चुकी है फिर भी -


‘‘मेरे विरोध जताने के तरीके पर
तुम्हारा मानना है कि,
इतनी ऊँची आवाज़ में बोलना
हम स्त्रियों को शोभा नहीं देता।’’ (तुम्हें आपत्ति है)

इसीलिए कवियित्री निर्मला पुतुल की स्त्री अपने ऊपर थोपी गई देह मात्र होने की नियति से बाहर निकलना चाहती है ताकि उसका मनुष्य होना, पूर्ण मनुष्य होना, सिद्ध हो सके, स्थापित हो सके -


‘‘मैं कविता नहीं
शब्दों को रचती हूँ
अपनी काया से
बाहर खड़ी होकर अपना होना।’’ (मेरे एकांत का प्रवेश द्वार)


और तब हासिल होगी उसके शब्दों को वह ताकत जो अंधों की आंख और गूँगों की जब़ान बन सकेगी-


‘‘मैं चाहती हूँ
आँख रहते अंधे आदमी की
आँख बनें मेरे शब्द
उनकी जुबान बनें
जो जुबान रहते गूँगे बने
देख रहे हैं तमाषा
चाहती हूँ मैं
नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द
और निकल पड़ें लोग
अपने अपने घरों से सड़क पर।’’ (मैं चाहती हूँ)


ये शब्द ठीक वे शब्द नहीं हो सकते जिनका प्रयोग शोषक वर्ग के हितों की रक्षा करने वाली भाषा करती आई है। इसलिए आदिवासियों और औरतों के पक्ष में खड़ी हुई निर्मला पुतुल की कविता अपने लिए उन्हीं के परिवेष से शब्द चुनती है, भाषा गढ़ती है -


‘‘अबूझ भाषाओं में
बुझाओ मत पहेलियाँ
मैं समझती हूँ भाषा की कपट
इसलिए तुम्हारी मायावी दुनिया से बाहर
सीधे-सीधे अपनी भाषा में
बात करना चाहती हूँ
वैसे भी तुम्हारे गढ़े मुहावरे
और शब्दों के जादुई इंद्रजाल ने
बहुत नुक्सान किया हमारा।’ ’ (प्रश्न)


निर्मला पुतुल की कविता और काव्य भाषा के इस तेवर से परिचित कराती है मलयालम भाषी हिंदी लेखिका मिनीप्रिया. आर. की शोधपूर्ण कृति ‘‘दलित जीवन का अधिकार और निर्मला पुतुल की कविता’’ (2006) । यह कृति दो खंडों में संयोजित है। पहले खंड में ‘ समकालीन कविता और जीने का अधिकार’ तथा ‘ सबाल्टर्न कविता: अंबेदकरवादी कविता’ शीर्षक दो अध्याय हंै। दूसरे खंड में ‘ निर्मला पुतुल की कविताओं में आदिवासी जीवन-संघर्ष’, ‘कविता और आदिवासी औरत का मानव अधिकार’ और ‘ मुक्तिभाषा का संघर्ष’ शीर्षक तीन अध्यायों में निर्मला पुतुल की कविता का दलित, आदिवासी और स्त्री के अधिकारों की अभिव्यक्ति की दृष्टि से विवेचन किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि यह कृति उत्तर आधुनिक विमर्श की दृष्टि से अत्यंत सामयिक और महत्वपूर्ण है। विश्वास किया जाना चाहिए कि इस शोध कृति का हिंदी जगत में खुले हृदय से स्वागत होगा।




क्या मैंने इस सफेदी की कामना की थी? : द्रौपदी का आत्म साक्षात्कार



क्या मैंने इस सफेदी की कामना की थी ? : द्रौपदी का आत्म साक्षात्कार


क्षुब्ध अश्वत्थामा के हाथों अपने पाँच पुत्रों की हत्या का समाचार द्रौपदी को तोड़ देता है और वह स्वयं से प्रश्न करती है ,''क्या मैंने इस सफेदी की कामना की थी.'' महाभारत के बाद सब ओर सफेदी ही बची न ! पुरूष मर गए और सफ़ेद कफ़न में लपेटे गए. स्त्रियाँ बच गईं और वैधव्य की सफ़ेद साडियों में लिपट गईं.!


इतनी ही फलश्रुति है महाभारत युद्ध की ! विश्व इतिहास के इस अभूतपूर्व मारणहोम का मूल कारण बनी द्रौपदी का यह प्रश्न और अनुताप आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद के तेलुगु उपन्यास ''द्रौपदी'' का केन्द्रीय प्रश्न है तथा लेखक ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इतिहास और मिथक के पुनर्पाठ के लिए इसे ही अपनी कृति के सृजन के बीज के रूप में रचनाधर्मिता की उर्वर ज़मीन में बोया है. ' द्रौपदी ' [२००६] डॉ. लक्ष्मी प्रसाद जी की इसी नाम की बहुचर्चित औपन्यासिक तेलुगु कृति का हिन्दी अनुवाद है.


इसमें संदेह नहीं कि इस प्रतिष्ठित कृति से तेलुगु और हिन्दी ही नहीं ,भारतीय साहित्य की समृद्धि हुई है .इससे एक बार फिर इस मान्यता की पुष्टि हुई है कि रामायण , महाभारत और बृहत्कथा में आज भी भारतीय साहित्य को नई उड़ान देने वाली ऊर्जा विद्यमान है. लेखक ने इतिहास और कल्पना के सुंदर सामंजस्य द्वारा अपनी इस कृति में आधुनिक [या उत्तर आधुनिक ] युग के पाठक की दृष्टि से कथा रस की सृष्टि में सफलता प्राप्त की है और महाभारत का इस प्रकार पुनर्पाठ प्रस्तुत किया है कि इसे आचार्य यार्ल गड्डा लक्ष्मी प्रसाद का महाभारत कहा जा सकता है क्योंकि इसकी मूलकथा तो पारंपरिक ही है परन्तु उसकी व्याख्या करने तथा छूटी कड़ियों को जोड़ने के लिए उन्होंने जो मौलिक उद्भावनाएँ की हैं, वे पुरानी गाथा को नया रूप देने में सक्षम हैं. द्रौपदी के पुराख्यान को आधुनिक स्त्रीवाद के अभिनव सन्दर्भों में व्याख्यायित करने वाली यह कृति पर्याप्त शोधपूर्ण है. यहाँ द्रौपदी को मात्र शोषित और क्रोधित स्त्री के रूप में ही नहीं बल्कि चारित्रिक दृढ़ता,संकल्प और लक्ष्योंमुखता से परिपूर्ण अत्यन्त संवेदन शील स्त्री के रूप में उभारा गया है . वह एक ऐसी स्त्री है जो , या तो भाग्य वश या कुंती की नीतिवश या युधिष्ठिर के षड्यंत्रवश या अर्जुन की दायित्व-विमुखतावश , पाँच पुरुषों में बंटी हुई है और उसकी त्रासदी यह है कि इनमें से किसी एक से भी उसे सही अर्थों में प्रेम नहीं मिल पाता. लेखक ने द्रौपदी के इस पंचधा विखंडित व्यक्तित्व को उभारने के लिए उसके पाँचों पतियों के काम-व्यवहार का सटीक अंकन किया है और दर्शाया है कि क्यो द्रौपदी की वासना शाश्वत अतृप्ति के लिए अभिशप्त प्रतीत होती है. मनोविज्ञान का सहारा लेकर पूर्वजन्मों से जुडी वरदान आदि की घटनाओं की यह स्त्री विमर्शीय व्याख्या इस उपन्यास को भारतीय मिथकाधारित उपन्यासों में सम्मानपूर्ण स्थान का अधिकारी बनाने के लिए पर्याप्त है. इसमें संदेह नहीं कि लेखक को नए सन्दर्भों में द्रौपदी के व्यक्तित्व की गरिमा को स्पष्ट करने के अपने उद्देश्य में सफलता मिली है. कृष्ण के प्रति कृष्णा के भक्ति भाव की व्याख्या से इस पुनर्पाठ को परिपूर्णता प्राप्त हुई है. तेलुगु से हिन्दी में अनूदित कृति के रूप में देखें तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि एक ही संस्कृति - भारतीय संस्कृति - के भीतर विद्यमान भिन्न भाषा समाजों के बीच यह कृति सेतु की भूमिका निभा सकती है.


ध्यान रहे, कि हिन्दी माध्यमिक या फिल्टर भाषा के रूप में तेलुगु की किसी कृति को अन्य भाषाओं तक ले जाने में भी सहयोग करती है . अतः अनुवादक से बहुत सावधानी की अपेक्षा की जाती है. इस बात के लिए 'द्रौपदी ' के अनुवाद की प्रशंसा की जायेगी कि इसके माध्यम से तेलुगु भाषा समाज की अनेक लौकिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक भाषिक-अभिव्यक्तियाँ हिन्दी भाषा समाज को उपलब्ध हुई हैं .हिन्दी प्रयोक्ता यदि इनका अपने वाक्-व्यवहार और लेखन में उपयोग करे तो इससे हिन्दी सही अर्थों में भारत की सामासिक संस्कृति की भाषा के रूप में समृद्धतर होगी.


यहाँ अति संकोच परन्तु पूरी जिम्मेदारी के साथ मैं यह कहने की अनुमति चाहता हूँ कि अनुवादक को ऐसे महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सांस्कृतिक पाठ का अनुवाद करते समय जिस जागरूकता से काम लेना चाहिए, उसका आरम्भ से अंत तक अनेकानेक स्थलों पर अभाव इस अनूदित पाठ को विषय की गरिमा के निर्वाह में अक्षम बनाता प्रतीत होता है. समस्रोतीय - भिन्नार्थक शब्दों के प्रयोग में वांछित सावधानी तथा आवश्यकतानुसार पाद-टिप्पणी या स्पष्टीकरण के अभाव के कारण संप्रेषण बाधित होता है. आरम्भ से अंत तक पृष्ठ - पृष्ठ पर वर्तनी और व्याकरण के दोषों पर पाठक सिर पीटने के अलावा कुछ नहीं कर सकता ! कहना ही होगा कि अनुवादक की लापरवाही ने तेलुगु की एक उत्कृष्ट कृति की हत्या करने में कोई कसर नहीं छोडी है.. सम्यक शब्द चयन के प्रति अनुवादक की अगम्भीरता के कारण कई स्थलों पर अभद्र और अशोभन शब्दावली के प्रयोग से इस सांस्कृतिक -मिथकीय कृति का लक्ष्यभाषा पाठ विकृत हो गया है .वस्तुतः प्रकाशन से पूर्व अनूदित पाठ का गहराई से पुनरीक्षण , सम्पादन तथा यथावश्यक पुनर्लेखन होना चाहिए था ताकि मूल रचना के साथ न्याय हो सकता !


द्रौपदी [ तेलुगु उपन्यास ] /
मूल लेखक : आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद /
लोकनायक फाउंडेशन , विशाखपट्टनम - ५३०००३./
२००६ / १२५ रुपये / २७८ पृष्ठ [ पेपरबैक ]


http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/R/Rishabhdeo/Rishabhdeo_main.htm

एक ग़ुलाम का एकालाप.

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

दृष्टिकोण

मुफ़्त की आज़ादी
--ऋषभदेव शर्मा

हमारी पीढ़ी को स्वतंत्रता अर्जित नहीं करनी पड़ी। पिछली पीढ़ियों के संचित पुण्यों की तरह मिल गई। मिल गई तो मिल गई! सेंत में मिली किसी भी चीज़ की कद्र कभी किसी ने जानी है? तो भला हम कैसे आज़ादी की कद्र जानते? पर जब आज़ादियों में कटौती होती है, तब कैसा-कैसा तो लगता है! आज़ादी में कटौती? यह क्या चीज़ है? संविधान ने हमें हर तरह की आज़ादी की गारंटी दी है न? तो बस, हम हैं आज़ाद हर तरह से। हम सर्वसत्ता संपन्न संप्रभु देश हैं आज - भले ही हमें अपने हर बड़े फ़ैसले से पहले अमेरिका की भृकुटियों का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती हो। जनता जनतंत्र का प्रभु है - भले ही उसे हर नीति के बाहर खड़ा कर दिया जाता हो। जनता ठहरी भीड़। और भीड़ पर विश्वास कैसे किया जा सकता है! तो विश्वास करें, जनता के प्रतिनिधियों पर? हाँ वे तो स्वतंत्रता के संरक्षक हैं। और अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए? तो क्या जनता इन अपने तथाकथित प्रतिनिधियों को वापस भी बुला सकती है? अगर नहीं तो यह कैसी स्वतंत्रता है? कहाँ की संप्रभुता है? कानून के राज्य, समानता और सामाजिक न्याय की तो बात ही मत कीजिए। इन कटघरों में बँधे, तो आज़ादी कैसी? ना, आज जिस तरह की आज़ादी का उपयोग यह देश कर रहा है, वह इन चौहद्दियों में नहीं आती। कोई चाहे तो इसे अराजकता कह ले!

इसी तरह के उल्टे-सीधे ख़याल तब हर बार खोपड़ी को कुरेदते हैं जब हर साल हमारा प्यारा पंद्रह अगस्त आता है। पंद्रह अगस्त से पहले नौ अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगाँठ भी हर साल पड़ा करती है। अंग्रेज़ तो भारत छोड़ गए पर अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत को भारत में ही छोड़ गए। उपनिवेश तो नहीं रहे अब हम, पर आज भी हमारे ऊपर अंग्रेज-मानस का ही शासन है।

सबसे पहली आज़ादी मानसिक आज़ादी होती है। मन मुक्त न हुआ, तो न शरीर मुक्त हो सकता है, न आत्मा। भारत माता के शरीर को तो मुक्त कर गए अंग्रेज़ पर मन और आत्मा कहाँ मुक्त हुए? अंग्रेज़ी का प्रेत देश की आत्मा में घुसा बैठा है और मन पर राज्य कर रहा है। हम एक डरा हुआ देश बन गए हैं। कोई भी हमें घुड़की दे सकता है, डपट सकता है, पीट सकता है। और हम हैं कि फर्शी सलाम बजाए जा रहे हैं दरबार से लेकर बाज़ार तक।

इस भय के प्रेत से मुक्त होना ही स्वतंत्रता का मूल मंत्र है। हम भयभीत भीड़ भर थे इसीलिए तो हज़ारों साल जाने किस किस के गुलाम रहे - सच मानिए हम तो गुलामों के भी गुलाम रहे! हमारी नसों में भरे इस गुलामी के ज़हर को ही तो बूँद-बूँद निचोड़कर नया लहू संचारित करने का काम नव जागरण और स्वतंत्रता के आंदोलन ने किया था। वह नया लहू ही तो था जो डेढ़ सौ साल पहले मंगल पांडे की रगों में उछला था और महारानी लक्ष्मी बाई के हृदय में उबला था। वह नया लहू ही तो था जिसने कभी गांधी तो कभी सुभाष, कभी लाला लाजपत राय तो कभी सरदार भगत सिंह को विदेशी सत्ता से जूझने का अमिट हौसला दिया था।

यह हौसला पैदा होना ही आज़ादी की शुरुआत था। इस हौसले का अर्थ था आत्मबल का जागरण। देश का आत्मबल जागा तो भय भागा। भय इतना ही था न कि सुविधाएँ छिन जाएँगी! यही भय तो गुलामी का कारण था। जो भी कोई भी कहीं भी गुलामी झेल रहा है, इसी डर से झेल रहा है कि मिली हुई सुविधाएँ न छिन जाएँ। आज़ादी के बदले में हमें थोड़ी-सी सुविधाएँ मिला करती हैं - और हम उन्हें ही जीवन समझ लेते हैं - बंधनों में पड़े रहते हैं। हमारे मज़दूर, हमारी स्त्रियाँ, हमारा मध्यवर्ग, हमारा उच्च वर्ग सब किसी न किसी तरह की आसानी के लोभ में गुलामी की ज़िंदगी जीते हैं! जिन्होंने आज़ादी को अपनी दुल्हन बनाया, उन्होंने भोग विलास का त्याग करना और कठिनाइयों को झेलना सीखा। आप कठिनाइयों को झेलना सीख लें तो कोई आपको गुलाम नहीं रख सकता। कठिनाइयों का भय ही तो हम से समझौते करवाता है। स्वतंत्रता आंदोलन ने इस देश की सदियों से सोई जनता को जब झकझोर कर जगाया और आत्मबल का संचार किया तो हर कंठ से तिलक की हुंकार सुनाई पड़ी थी - स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। किसका जन्मसिद्ध अधिकार है स्वतंत्रता? उसी का, जिसके पास आत्मबल हो। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास `रंगभूमि` में अंधे-भिखारी सूरदास को नायकत्व प्रदान करते हुए बताया है कि वह कोई साधु-महात्मा या देवता-फरिश्ता न था। इन्हीं के पास तो हम मुक्ति खोजने जाते हैं! पर नहीं, सूरदास ये सब नहीं था, फिर भी नायक था। सूरदास में क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार - सारे अवगुण थे। पर एक गुण था कि अन्याय देखकर उससे रहा न जाता था, अनीति उसे असह्य थी।

मैं सोचता हूँ, अगर इस महादेश के पास सचमुच सदा से आत्मबल था तो यह सदियों तक चुपचाप अन्याय क्यों देखता रहा, अनीति क्यों सहता रहा! नहीं था आत्मबल हमारे पास। हम गुलामी की रोटियाँ तोड़ने के आदी हो गए थे। आज फिर हम दूसरी तरह की गुलामी की रोटियाँ तोड़ रहे हैं। तभी तो एक समर्थ लोकतंत्र होने का दावा करते हुए भी घर-बाहर, देस-परदेस, सर्वव्यापी अन्याय और अनीति को देखकर भी हम चुप लगा जाते हैं। जागरण का जो रथ १५ अगस्त १९४७ को लालकिले के सामने रुक गया था, आज भी वहीं खड़ा है और हम आज़ादी का ढोंग जी रहे हैं। मुझे प्राय: 'करवट' उपन्यास में कही अमृतलाल नागर की यह उक्ति कचोटती है कि ''हमारा समाज काई और दुर्गंध से सड़ा हुआ बंद तालाब हो गया है। इसके पानी को फिर से स्वच्छ करना ही होगा।'' आप चाहें तो दुष्यंत कुमार के इस शेर से भी प्रेरणा ले सकते हैं - ''अब तो इस तालाब का पानी बदल दो/ये कंवल के फूल मुरझाने लगे हैं।'' उन्होंने यह बात १९७५ में कही थी। पर हम कोशिश करके भी व्यवस्था के तालाब का पानी बदल नहीं सके और कमल के फूल ही नहीं मुरझाते रहे, आज़ादी की मछलियाँ भी मरती रहीं। हम फिर-फिर वही गंदला पानी इस महाताल में भरते रहे और आज यह सड़ाँध लोकतंत्र के शिखर तक जा पहुँची है।

आख़िर ऐसा कैसे हो गया? उत्तर स्पष्ट है, हम यानी भारत की जनता तनिक-सा आराम मिलते ही संघर्ष से कन्नी काटने लगते हैं। कुछ ऊपरी बदलावों में रमकर हम यह भूल गए कि आधारभूत ढाँचे में भी आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। लोकतंत्र के संस्कार जब तक एक-एक आदमी के भीतर नहीं जमेंगे, तब तक तनिक-सी भी अनीति देखकर उठ खड़ा होने वाला प्रेमचंद के सूरदास जैसा व्यक्तित्व निर्मित नहीं हो सकता। जब तक ऐसा प्रतिरोधी व्यक्तित्व नहीं बनता जनता का, तब तक नेताओं और अपराधियों की दुरभिसंधियों को रोका नहीं जा सकता। और इसमें संदेह नहीं कि जब तक इस तरह की दुरभिसंधियाँ सफल होती रहेंगी, तब तक आज़ादी को असफल ही माना जाएगा। अंग्रेज़ियत में लिपे-पुते हम कब तक कटी दुम के कुत्ते बने घूमते रहेंगे? कब तक हमारे राजनैतिक आका हमें तरह-तरह के खानों में बाँट कर हमारी नई तरह की गुलामी को पुख्ता करते रहेंगे?

नई तरह की गुलामी से मेरा मतलब नेताओं की बिरादरी का हित साधने वाली गूँगी और असहाय जनता बन जाने से है। हम गूंगे और असहाय इसलिए बन गए हैं कि कहने भर को हम एक देश हैं, अन्यथा नेताओं की बिरादरी ने हमें अनेक छोटे-छोटे कमज़ोर टुकड़ों में बाँट दिया है। एक समय था जब हम वर्णों में बँटे होकर भी विराट-पुरुष के परस्पर सहयोगी अंग थे लेकिन सवर्ण-अवर्ण, अगड़े-पिछड़े, हिंदू-मुस्लिम, उत्तर-दक्षिण, यहाँ तक कि स्त्री-पुरुष जैसे अलग-अलग राजनैतिक खानों में बाँटकर आज की नेता-बिरादरी ने हमें परस्पर विरोधी गुट बना दिया है। इसी का परिणाम है कि वे हर चुनाव में हमारा उपयोग करते हैं और भूल जाते हैं। हम गूँगे और असहाय अकेले-अकेले एक-दूसरे से अलग-थलग लोकतंत्र की लाज लुटते देखते रह जाते हैं।

फिर एक सवाल हमें अपने आपसे पूछना होगा कि क्या राजनीतिक साज़िशों को समझने के बावजूद हमारा एका संभव नहीं है। मुझे लगता है कि ज़रूर संभव है। इस एके को हमें एक बार फिर स्वतंत्रता आंदोलन के युग की तरह सिद्ध करना होगा। आज जब हम १८५७ की क्रांति की १५०वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं, हमें याद करना चाहिए कि वह आंदोलन अंग्रेज़ों द्वारा कुचल दिए जाने के बावजूद इस अर्थ में सफल था कि उससे हम भारतीयों ने एक तो निर्भीकता का पाठ पढ़ा और दूसरे यह जाना कि बिखरे हुए और असंगठित रहकर हम स्वतंत्रता के शत्रुओं का सामना नहीं कर सकते। उसी आंदोलन से हमें यह सीख मिली कि भारत की राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा कितनी ज़रूरी है। इसीलिए महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का एक अनिवार्य अंग बनाया था।

मुझे लगता है कि आज फिर राष्ट्रभाषा के आंदोलन को नई चेतना के साथ पुनर्जीवित करने की जरूरत है। यदि परतंत्र भारत में हिंदी संपूर्ण राष्ट्र को जोड़ने वाली कड़ी बनी थी, तो इसमें संदेह नहीं कि आज स्वतंत्र भारत में भी वह एक बार फिर पूरे देश को जोड़ने का माध्यम बन सकती है। इसके लिए हमें हिंदी को किसी क्षेत्र विशेष की भाषा के स्थान पर संपूर्ण भारत की भाषा की तरह देखना होगा तथा संविधान में उसके स्वीकृत स्थान को उसे व्यवहारत: प्रदान करना होगा। ऐसा करने से अन्य भारतीय भाषाओं को भी वह स्थान मिलेगा जिसकी वे वैधानिक रूप से अधिकारिणी हैं। भारतीय भाषाओं की यह प्रतिष्ठा जनता के मनों से उस मैल को निकाल सकेगी जिसके सहारे स्वार्थी दलगत राजनीति पनपती है।

इतना ही नहीं, हिंदी को विश्व-भाषा बनाने की कवायद भी तभी सार्थक और सफल हो सकती है जब हम अपनी भाषाओं में अपना सारा काम करके अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और स्वतंत्रता को प्रमाणित करें, अन्यथा दुनिया भर में हम दोहरे आचरण के कारण हँसी के पात्र बने रहेंगे।

२६ जनवरी २००९