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शनिवार, 31 जनवरी 2009
गुरुवार, 29 जनवरी 2009
भक्ति काल पर व्याख्यान
अभी कल की ही तो बात है. डॉ. प्रभाकर त्रिपाठी के बुलावे पर हिन्दी महाविद्यालय में भक्ति काल पर व्याख्यान के लिए जाना पड़ा. अच्छा रहा. पर एक गड़बड़ होगई. हमारे युवा मित्र डॉ. शशि कान्त मिश्र भी वहां रिपोर्टर की हैसियत से मौजूद थे. उन्होने कुछ का कुछ अपनी रिपोर्ट में लिख मारा. शायद इसी को कहते हैं - मैंने ऐसा तो नहीं कहा था. लेकिन, उनकी समझ की सीमा की बलिहारी जाते हुए उनकी सदाशयता को ध्यान में रखते हुए धन्यवाद ही कहा जा सकता है.
गोवा में बहुभाषिक कविसम्मेलन आयोजित
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मंगलवार, 27 जनवरी 2009
'समकालीन कविता की चेतनाभूमि' और 'प्रयोजनमूलक हिन्दी तथा अनुवाद' पर विशेष व्याख्यान संपन्न
सोमवार, 26 जनवरी 2009
'चाहती हूँ मैं, नगाड़े की तरह बजें मेरे शब्द‘
पुस्तक :दलित जीवन का अधिकार और निर्मला पुतुल की कविता /मिनीप्रिया.आर.प्रकाशक:जवाहर पुस्तकालय, सदर बाजार, मथुरा-२८१ ००१/मूल्य १०० रु./पृष्ठ १०० (सजिल्द)।
क्या मैंने इस सफेदी की कामना की थी? : द्रौपदी का आत्म साक्षात्कार
क्षुब्ध अश्वत्थामा के हाथों अपने पाँच पुत्रों की हत्या का समाचार द्रौपदी को तोड़ देता है और वह स्वयं से प्रश्न करती है ,''क्या मैंने इस सफेदी की कामना की थी.'' महाभारत के बाद सब ओर सफेदी ही बची न ! पुरूष मर गए और सफ़ेद कफ़न में लपेटे गए. स्त्रियाँ बच गईं और वैधव्य की सफ़ेद साडियों में लिपट गईं.!
इतनी ही फलश्रुति है महाभारत युद्ध की ! विश्व इतिहास के इस अभूतपूर्व मारणहोम का मूल कारण बनी द्रौपदी का यह प्रश्न और अनुताप आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद के तेलुगु उपन्यास ''द्रौपदी'' का केन्द्रीय प्रश्न है तथा लेखक ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक इतिहास और मिथक के पुनर्पाठ के लिए इसे ही अपनी कृति के सृजन के बीज के रूप में रचनाधर्मिता की उर्वर ज़मीन में बोया है. ' द्रौपदी ' [२००६] डॉ. लक्ष्मी प्रसाद जी की इसी नाम की बहुचर्चित औपन्यासिक तेलुगु कृति का हिन्दी अनुवाद है.
इसमें संदेह नहीं कि इस प्रतिष्ठित कृति से तेलुगु और हिन्दी ही नहीं ,भारतीय साहित्य की समृद्धि हुई है .इससे एक बार फिर इस मान्यता की पुष्टि हुई है कि रामायण , महाभारत और बृहत्कथा में आज भी भारतीय साहित्य को नई उड़ान देने वाली ऊर्जा विद्यमान है. लेखक ने इतिहास और कल्पना के सुंदर सामंजस्य द्वारा अपनी इस कृति में आधुनिक [या उत्तर आधुनिक ] युग के पाठक की दृष्टि से कथा रस की सृष्टि में सफलता प्राप्त की है और महाभारत का इस प्रकार पुनर्पाठ प्रस्तुत किया है कि इसे आचार्य यार्ल गड्डा लक्ष्मी प्रसाद का महाभारत कहा जा सकता है क्योंकि इसकी मूलकथा तो पारंपरिक ही है परन्तु उसकी व्याख्या करने तथा छूटी कड़ियों को जोड़ने के लिए उन्होंने जो मौलिक उद्भावनाएँ की हैं, वे पुरानी गाथा को नया रूप देने में सक्षम हैं. द्रौपदी के पुराख्यान को आधुनिक स्त्रीवाद के अभिनव सन्दर्भों में व्याख्यायित करने वाली यह कृति पर्याप्त शोधपूर्ण है. यहाँ द्रौपदी को मात्र शोषित और क्रोधित स्त्री के रूप में ही नहीं बल्कि चारित्रिक दृढ़ता,संकल्प और लक्ष्योंमुखता से परिपूर्ण अत्यन्त संवेदन शील स्त्री के रूप में उभारा गया है . वह एक ऐसी स्त्री है जो , या तो भाग्य वश या कुंती की नीतिवश या युधिष्ठिर के षड्यंत्रवश या अर्जुन की दायित्व-विमुखतावश , पाँच पुरुषों में बंटी हुई है और उसकी त्रासदी यह है कि इनमें से किसी एक से भी उसे सही अर्थों में प्रेम नहीं मिल पाता. लेखक ने द्रौपदी के इस पंचधा विखंडित व्यक्तित्व को उभारने के लिए उसके पाँचों पतियों के काम-व्यवहार का सटीक अंकन किया है और दर्शाया है कि क्यो द्रौपदी की वासना शाश्वत अतृप्ति के लिए अभिशप्त प्रतीत होती है. मनोविज्ञान का सहारा लेकर पूर्वजन्मों से जुडी वरदान आदि की घटनाओं की यह स्त्री विमर्शीय व्याख्या इस उपन्यास को भारतीय मिथकाधारित उपन्यासों में सम्मानपूर्ण स्थान का अधिकारी बनाने के लिए पर्याप्त है. इसमें संदेह नहीं कि लेखक को नए सन्दर्भों में द्रौपदी के व्यक्तित्व की गरिमा को स्पष्ट करने के अपने उद्देश्य में सफलता मिली है. कृष्ण के प्रति कृष्णा के भक्ति भाव की व्याख्या से इस पुनर्पाठ को परिपूर्णता प्राप्त हुई है. तेलुगु से हिन्दी में अनूदित कृति के रूप में देखें तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि एक ही संस्कृति - भारतीय संस्कृति - के भीतर विद्यमान भिन्न भाषा समाजों के बीच यह कृति सेतु की भूमिका निभा सकती है.
ध्यान रहे, कि हिन्दी माध्यमिक या फिल्टर भाषा के रूप में तेलुगु की किसी कृति को अन्य भाषाओं तक ले जाने में भी सहयोग करती है . अतः अनुवादक से बहुत सावधानी की अपेक्षा की जाती है. इस बात के लिए 'द्रौपदी ' के अनुवाद की प्रशंसा की जायेगी कि इसके माध्यम से तेलुगु भाषा समाज की अनेक लौकिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक भाषिक-अभिव्यक्तियाँ हिन्दी भाषा समाज को उपलब्ध हुई हैं .हिन्दी प्रयोक्ता यदि इनका अपने वाक्-व्यवहार और लेखन में उपयोग करे तो इससे हिन्दी सही अर्थों में भारत की सामासिक संस्कृति की भाषा के रूप में समृद्धतर होगी.
यहाँ अति संकोच परन्तु पूरी जिम्मेदारी के साथ मैं यह कहने की अनुमति चाहता हूँ कि अनुवादक को ऐसे महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सांस्कृतिक पाठ का अनुवाद करते समय जिस जागरूकता से काम लेना चाहिए, उसका आरम्भ से अंत तक अनेकानेक स्थलों पर अभाव इस अनूदित पाठ को विषय की गरिमा के निर्वाह में अक्षम बनाता प्रतीत होता है. समस्रोतीय - भिन्नार्थक शब्दों के प्रयोग में वांछित सावधानी तथा आवश्यकतानुसार पाद-टिप्पणी या स्पष्टीकरण के अभाव के कारण संप्रेषण बाधित होता है. आरम्भ से अंत तक पृष्ठ - पृष्ठ पर वर्तनी और व्याकरण के दोषों पर पाठक सिर पीटने के अलावा कुछ नहीं कर सकता ! कहना ही होगा कि अनुवादक की लापरवाही ने तेलुगु की एक उत्कृष्ट कृति की हत्या करने में कोई कसर नहीं छोडी है.. सम्यक शब्द चयन के प्रति अनुवादक की अगम्भीरता के कारण कई स्थलों पर अभद्र और अशोभन शब्दावली के प्रयोग से इस सांस्कृतिक -मिथकीय कृति का लक्ष्यभाषा पाठ विकृत हो गया है .वस्तुतः प्रकाशन से पूर्व अनूदित पाठ का गहराई से पुनरीक्षण , सम्पादन तथा यथावश्यक पुनर्लेखन होना चाहिए था ताकि मूल रचना के साथ न्याय हो सकता !
द्रौपदी [ तेलुगु उपन्यास ] /
मूल लेखक : आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद /
लोकनायक फाउंडेशन , विशाखपट्टनम - ५३०००३./
२००६ / १२५ रुपये / २७८ पृष्ठ [ पेपरबैक ]
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/R/Rishabhdeo/Rishabhdeo_main.htm |
एक ग़ुलाम का एकालाप.
दृष्टिकोण | ||
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हमारी पीढ़ी को स्वतंत्रता अर्जित नहीं करनी पड़ी। पिछली पीढ़ियों के संचित पुण्यों की तरह मिल गई। मिल गई तो मिल गई! सेंत में मिली किसी भी चीज़ की कद्र कभी किसी ने जानी है? तो भला हम कैसे आज़ादी की कद्र जानते? पर जब आज़ादियों में कटौती होती है, तब कैसा-कैसा तो लगता है! आज़ादी में कटौती? यह क्या चीज़ है? संविधान ने हमें हर तरह की आज़ादी की गारंटी दी है न? तो बस, हम हैं आज़ाद हर तरह से। हम सर्वसत्ता संपन्न संप्रभु देश हैं आज - भले ही हमें अपने हर बड़े फ़ैसले से पहले अमेरिका की भृकुटियों का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती हो। जनता जनतंत्र का प्रभु है - भले ही उसे हर नीति के बाहर खड़ा कर दिया जाता हो। जनता ठहरी भीड़। और भीड़ पर विश्वास कैसे किया जा सकता है! तो विश्वास करें, जनता के प्रतिनिधियों पर? हाँ वे तो स्वतंत्रता के संरक्षक हैं। और अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए? तो क्या जनता इन अपने तथाकथित प्रतिनिधियों को वापस भी बुला सकती है? अगर नहीं तो यह कैसी स्वतंत्रता है? कहाँ की संप्रभुता है? कानून के राज्य, समानता और सामाजिक न्याय की तो बात ही मत कीजिए। इन कटघरों में बँधे, तो आज़ादी कैसी? ना, आज जिस तरह की आज़ादी का उपयोग यह देश कर रहा है, वह इन चौहद्दियों में नहीं आती। कोई चाहे तो इसे अराजकता कह ले! इसी तरह के उल्टे-सीधे ख़याल तब हर बार खोपड़ी को कुरेदते हैं जब हर साल हमारा प्यारा पंद्रह अगस्त आता है। पंद्रह अगस्त से पहले नौ अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन की वर्षगाँठ भी हर साल पड़ा करती है। अंग्रेज़ तो भारत छोड़ गए पर अंग्रेज़ी और अंग्रेजियत को भारत में ही छोड़ गए। उपनिवेश तो नहीं रहे अब हम, पर आज भी हमारे ऊपर अंग्रेज-मानस का ही शासन है। सबसे पहली आज़ादी मानसिक आज़ादी होती है। मन मुक्त न हुआ, तो न शरीर मुक्त हो सकता है, न आत्मा। भारत माता के शरीर को तो मुक्त कर गए अंग्रेज़ पर मन और आत्मा कहाँ मुक्त हुए? अंग्रेज़ी का प्रेत देश की आत्मा में घुसा बैठा है और मन पर राज्य कर रहा है। हम एक डरा हुआ देश बन गए हैं। कोई भी हमें घुड़की दे सकता है, डपट सकता है, पीट सकता है। और हम हैं कि फर्शी सलाम बजाए जा रहे हैं दरबार से लेकर बाज़ार तक। इस भय के प्रेत से मुक्त होना ही स्वतंत्रता का मूल मंत्र है। हम भयभीत भीड़ भर थे इसीलिए तो हज़ारों साल जाने किस किस के गुलाम रहे - सच मानिए हम तो गुलामों के भी गुलाम रहे! हमारी नसों में भरे इस गुलामी के ज़हर को ही तो बूँद-बूँद निचोड़कर नया लहू संचारित करने का काम नव जागरण और स्वतंत्रता के आंदोलन ने किया था। वह नया लहू ही तो था जो डेढ़ सौ साल पहले मंगल पांडे की रगों में उछला था और महारानी लक्ष्मी बाई के हृदय में उबला था। वह नया लहू ही तो था जिसने कभी गांधी तो कभी सुभाष, कभी लाला लाजपत राय तो कभी सरदार भगत सिंह को विदेशी सत्ता से जूझने का अमिट हौसला दिया था। यह हौसला पैदा होना ही आज़ादी की शुरुआत था। इस हौसले का अर्थ था आत्मबल का जागरण। देश का आत्मबल जागा तो भय भागा। भय इतना ही था न कि सुविधाएँ छिन जाएँगी! यही भय तो गुलामी का कारण था। जो भी कोई भी कहीं भी गुलामी झेल रहा है, इसी डर से झेल रहा है कि मिली हुई सुविधाएँ न छिन जाएँ। आज़ादी के बदले में हमें थोड़ी-सी सुविधाएँ मिला करती हैं - और हम उन्हें ही जीवन समझ लेते हैं - बंधनों में पड़े रहते हैं। हमारे मज़दूर, हमारी स्त्रियाँ, हमारा मध्यवर्ग, हमारा उच्च वर्ग सब किसी न किसी तरह की आसानी के लोभ में गुलामी की ज़िंदगी जीते हैं! जिन्होंने आज़ादी को अपनी दुल्हन बनाया, उन्होंने भोग विलास का त्याग करना और कठिनाइयों को झेलना सीखा। आप कठिनाइयों को झेलना सीख लें तो कोई आपको गुलाम नहीं रख सकता। कठिनाइयों का भय ही तो हम से समझौते करवाता है। स्वतंत्रता आंदोलन ने इस देश की सदियों से सोई जनता को जब झकझोर कर जगाया और आत्मबल का संचार किया तो हर कंठ से तिलक की हुंकार सुनाई पड़ी थी - स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। किसका जन्मसिद्ध अधिकार है स्वतंत्रता? उसी का, जिसके पास आत्मबल हो। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास `रंगभूमि` में अंधे-भिखारी सूरदास को नायकत्व प्रदान करते हुए बताया है कि वह कोई साधु-महात्मा या देवता-फरिश्ता न था। इन्हीं के पास तो हम मुक्ति खोजने जाते हैं! पर नहीं, सूरदास ये सब नहीं था, फिर भी नायक था। सूरदास में क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार - सारे अवगुण थे। पर एक गुण था कि अन्याय देखकर उससे रहा न जाता था, अनीति उसे असह्य थी। मैं सोचता हूँ, अगर इस महादेश के पास सचमुच सदा से आत्मबल था तो यह सदियों तक चुपचाप अन्याय क्यों देखता रहा, अनीति क्यों सहता रहा! नहीं था आत्मबल हमारे पास। हम गुलामी की रोटियाँ तोड़ने के आदी हो गए थे। आज फिर हम दूसरी तरह की गुलामी की रोटियाँ तोड़ रहे हैं। तभी तो एक समर्थ लोकतंत्र होने का दावा करते हुए भी घर-बाहर, देस-परदेस, सर्वव्यापी अन्याय और अनीति को देखकर भी हम चुप लगा जाते हैं। जागरण का जो रथ १५ अगस्त १९४७ को लालकिले के सामने रुक गया था, आज भी वहीं खड़ा है और हम आज़ादी का ढोंग जी रहे हैं। मुझे प्राय: 'करवट' उपन्यास में कही अमृतलाल नागर की यह उक्ति कचोटती है कि ''हमारा समाज काई और दुर्गंध से सड़ा हुआ बंद तालाब हो गया है। इसके पानी को फिर से स्वच्छ करना ही होगा।'' आप चाहें तो दुष्यंत कुमार के इस शेर से भी प्रेरणा ले सकते हैं - ''अब तो इस तालाब का पानी बदल दो/ये कंवल के फूल मुरझाने लगे हैं।'' उन्होंने यह बात १९७५ में कही थी। पर हम कोशिश करके भी व्यवस्था के तालाब का पानी बदल नहीं सके और कमल के फूल ही नहीं मुरझाते रहे, आज़ादी की मछलियाँ भी मरती रहीं। हम फिर-फिर वही गंदला पानी इस महाताल में भरते रहे और आज यह सड़ाँध लोकतंत्र के शिखर तक जा पहुँची है। आख़िर ऐसा कैसे हो गया? उत्तर स्पष्ट है, हम यानी भारत की जनता तनिक-सा आराम मिलते ही संघर्ष से कन्नी काटने लगते हैं। कुछ ऊपरी बदलावों में रमकर हम यह भूल गए कि आधारभूत ढाँचे में भी आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। लोकतंत्र के संस्कार जब तक एक-एक आदमी के भीतर नहीं जमेंगे, तब तक तनिक-सी भी अनीति देखकर उठ खड़ा होने वाला प्रेमचंद के सूरदास जैसा व्यक्तित्व निर्मित नहीं हो सकता। जब तक ऐसा प्रतिरोधी व्यक्तित्व नहीं बनता जनता का, तब तक नेताओं और अपराधियों की दुरभिसंधियों को रोका नहीं जा सकता। और इसमें संदेह नहीं कि जब तक इस तरह की दुरभिसंधियाँ सफल होती रहेंगी, तब तक आज़ादी को असफल ही माना जाएगा। अंग्रेज़ियत में लिपे-पुते हम कब तक कटी दुम के कुत्ते बने घूमते रहेंगे? कब तक हमारे राजनैतिक आका हमें तरह-तरह के खानों में बाँट कर हमारी नई तरह की गुलामी को पुख्ता करते रहेंगे? नई तरह की गुलामी से मेरा मतलब नेताओं की बिरादरी का हित साधने वाली गूँगी और असहाय जनता बन जाने से है। हम गूंगे और असहाय इसलिए बन गए हैं कि कहने भर को हम एक देश हैं, अन्यथा नेताओं की बिरादरी ने हमें अनेक छोटे-छोटे कमज़ोर टुकड़ों में बाँट दिया है। एक समय था जब हम वर्णों में बँटे होकर भी विराट-पुरुष के परस्पर सहयोगी अंग थे लेकिन सवर्ण-अवर्ण, अगड़े-पिछड़े, हिंदू-मुस्लिम, उत्तर-दक्षिण, यहाँ तक कि स्त्री-पुरुष जैसे अलग-अलग राजनैतिक खानों में बाँटकर आज की नेता-बिरादरी ने हमें परस्पर विरोधी गुट बना दिया है। इसी का परिणाम है कि वे हर चुनाव में हमारा उपयोग करते हैं और भूल जाते हैं। हम गूँगे और असहाय अकेले-अकेले एक-दूसरे से अलग-थलग लोकतंत्र की लाज लुटते देखते रह जाते हैं। फिर एक सवाल हमें अपने आपसे पूछना होगा कि क्या राजनीतिक साज़िशों को समझने के बावजूद हमारा एका संभव नहीं है। मुझे लगता है कि ज़रूर संभव है। इस एके को हमें एक बार फिर स्वतंत्रता आंदोलन के युग की तरह सिद्ध करना होगा। आज जब हम १८५७ की क्रांति की १५०वीं वर्षगाँठ मना रहे हैं, हमें याद करना चाहिए कि वह आंदोलन अंग्रेज़ों द्वारा कुचल दिए जाने के बावजूद इस अर्थ में सफल था कि उससे हम भारतीयों ने एक तो निर्भीकता का पाठ पढ़ा और दूसरे यह जाना कि बिखरे हुए और असंगठित रहकर हम स्वतंत्रता के शत्रुओं का सामना नहीं कर सकते। उसी आंदोलन से हमें यह सीख मिली कि भारत की राष्ट्रीयता के प्रतीक के रूप में राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा कितनी ज़रूरी है। इसीलिए महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा के आंदोलन को स्वतंत्रता आंदोलन का एक अनिवार्य अंग बनाया था। मुझे लगता है कि आज फिर राष्ट्रभाषा के आंदोलन को नई चेतना के साथ पुनर्जीवित करने की जरूरत है। यदि परतंत्र भारत में हिंदी संपूर्ण राष्ट्र को जोड़ने वाली कड़ी बनी थी, तो इसमें संदेह नहीं कि आज स्वतंत्र भारत में भी वह एक बार फिर पूरे देश को जोड़ने का माध्यम बन सकती है। इसके लिए हमें हिंदी को किसी क्षेत्र विशेष की भाषा के स्थान पर संपूर्ण भारत की भाषा की तरह देखना होगा तथा संविधान में उसके स्वीकृत स्थान को उसे व्यवहारत: प्रदान करना होगा। ऐसा करने से अन्य भारतीय भाषाओं को भी वह स्थान मिलेगा जिसकी वे वैधानिक रूप से अधिकारिणी हैं। भारतीय भाषाओं की यह प्रतिष्ठा जनता के मनों से उस मैल को निकाल सकेगी जिसके सहारे स्वार्थी दलगत राजनीति पनपती है। इतना ही नहीं, हिंदी को विश्व-भाषा बनाने की कवायद भी तभी सार्थक और सफल हो सकती है जब हम अपनी भाषाओं में अपना सारा काम करके अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और स्वतंत्रता को प्रमाणित करें, अन्यथा दुनिया भर में हम दोहरे आचरण के कारण हँसी के पात्र बने रहेंगे। २६ जनवरी २००९ |