ऋषभदेव शर्मा के साहित्य पर एकाग्र अपनी आलोचना पुस्तक 'लिए लुकाठी हाथ' (2024: हैदराबाद; बिभूति प्रकाशन) पर लेखक प्रवीण प्रणव का
लेखकीय ...
एक साहित्यिक परिवेश से आने की वजह से साहित्य में रुचि होना स्वाभाविक है लेकिन यह रुचि बस शौकिया ही रही। 2007 में मैं नौकरी के सिलसिले में हैदराबाद आया। तब तक मेरी कविताओं में रुचि थी, यदा-कदा कुछ लिख भी लेता था लेकिन इससे ज्यादा मेरी निकटता साहित्य से नहीं रही। 2014-15 के आस-पास मेरी सक्रियता हैदराबाद में साहित्यिक जगत में हुई और जल्द ही मेरा परिचय प्रो. ऋषभदेव शर्मा से हुआ।
कम ही लोग ऐसे होते हैं जिनके साथ बात करते हुए आप हर बार कुछ नया सोचने पर विवश होते हैं, हर बार आप कुछ नया सीखते हैं, हर बार आप कुछ नया करने की प्रेरणा पाते हैं और प्रो. ऋषभदेव शर्मा ऐसे ही व्यक्ति हैं। आरंभ में मेरी पहचान उनसे सिर्फ साहित्यिक कार्यक्रमों से हुई जहाँ उनके वक्तव्यों को सुनते हुए और उनकी कविताओं को सुनते हुए मैं उनसे प्रभावित होता रहा। तब तक यह ज्ञात भी नहीं था कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा विपुल साहित्य के रचयिता भी हैं। धीरे-धीरे मेरा परिचय उनके साहित्य से हुआ और फिर मैं उनके साहित्य से इस कदर प्रभावित हुआ कि आज शायद ही उनके द्वारा लिखा हुआ कुछ प्रकाशित/अप्रकाशित हो, जिसे मैंने न पढ़ा हो। उनकी कुछ किताबों की मैंने समीक्षा लिखी, उनके साहित्य पर आधारित कुछ साहित्यिक लेख लिखे, कुछ साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रो. ऋषभदेव शर्मा के साहित्य पर वक्तव्य दिया। विगत दस वर्षों में इस तरह प्रो. ऋषभदेव शर्मा के साहित्य पर मेरी समीक्षात्मक टिप्पणियों की एक लंबी फेहरिस्त बन गई। मैंने कई बार सोचा कि इन आलेखों को एक जगह एकत्रित कर पुस्तकाकार कर दिया जाय ताकि प्रो. ऋषभदेव शर्मा के साहित्य को समझने वालों के लिए यह एक उपयोगी किताब साबित हो सके। जो प्रो. ऋषभदेव शर्मा से या उनके साहित्य से परिचित नहीं हैं उनके लिए भी इन आलेखों को पढ़ना रुचिकर होगा। इसी सोच की परिणति के रूप में यह किताब ‘लिए लुकाठी हाथ’ आपके सामने है।
प्रो. #ऋषभदेवशर्मा का रचनाकर्म जनवादी है। बिना ‘वामपंथ’ या ‘प्रगतिशील’ होने का ठप्पा लगाए, उनकी रचनाएँ सत्ता के विरुद्ध एवं जनता के हक़ में आवाज़ उठाती रही हैं। शोषक वर्ग के विरुद्ध और शोषितों के साथ खड़े होना उनकी कविताओं की मूल भावना है। #तेवरी आंदोलन के प्रवर्तकों में से एक प्रो. ऋषभदेव शर्मा की रचनाएँ किसी ‘वाद’ का समर्थन नहीं करतीं बल्कि उनके लिए ‘वाद’ का अर्थ ही वंचित वर्ग है। ऐसे में स्वाभाविक है कि उनकी रचनाओं पर दृष्टिपात करते हुए, इन बिंदुओं की चर्चा हो। अपनी समीक्षाओं में मैंने कोशिश की है कि प्रो. ऋषभदेव शर्मा की रचनाओं का मूल्यांकन करते हुए इनकी तुलना समकालीन और कालजयी साहित्य के साथ भी की जाए ताकि पाठकों के लिए न सिर्फ अधिक जानकारी मिले बल्कि इस तुलनात्मक अध्ययन से प्रो. ऋषभदेव शर्मा के साहित्य को वृहत अर्थों में समझा जा सके।
जिनके साहित्य पर इस संग्रह के सभी लेख आधारित हैं, उन प्रो. ऋषभदेव शर्मा को धन्यवाद कहना उनकी शख्सियत को छोटा करने जैसा है। सच यह है कि मैं और मेरे जैसे कई नवांकुरों ने साहित्य की समझ प्रो. ऋषभदेव शर्मा से ही पाई है। उन्होंने अपना अमूल्य समय और सुझाव देकर, कई साहित्यकारों को इस योग्य बनाया है कि आज वे हिंदी साहित्य का जाना-पहचाना चेहरा बन सके हैं। उनके मार्गदर्शन के बिना इस किताब की कल्पना नहीं की जा सकती थी।
विगत कई वर्षों से आदरणीय प्रो. गोपाल शर्मा (Gopal Sharma) और आदरणीय अवधेश कुमार सिन्हा (Awadhesh Sinha) से लगातार साहित्यिक विचार-विमर्श होता रहा है और यह मेरी खुशकिस्मती है कि इस किताब के लिए इन दोनों ने ही अपना आशीर्वचन दिया है। आदरणीया प्रो.निर्मला मौर्य जी (Nirmala S Mourya) के प्रति विशेष रूप से आभारी हूँ कि उन्होंने इस पुस्तक को अपने आशीर्वचन से सुशोभित किया है। प्रो. देवराज (Dev Raj) जिनकी विद्वता का मैं कायल रहा हूँ और उससे भी ज्यादा उनकी सौम्यता और सरलता का। प्रो. ऋषभदेव शर्मा के तो वे गुरु भी रहे हैं। ऐसे में उनकी तरफ से इस पुस्तक के लिए लिखे गए शब्द हमारे लिए साहित्य के उत्कृष्ट सम्मान से कम नहीं हैं। मैं इन सभी महानुभावों के प्रति एक बार पुनः धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ। पुस्तक के प्रकाशन के लिए बिभूति प्रकाशन और मुद्रण के लिए हरिओम प्रिंटर्स का भी विशेष धन्यवाद और आभार।
इस किताब पर आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
-प्रवीण प्रणव @Praveen Pranav
praveen.pranav@gmail.com
फ़ोन : 9908855506
हैदराबाद
4 जुलाई, 2024.
2 टिप्पणियां:
प्रवीण प्रणव जी का वक्तव्य 'गागर में सागर' भर देने वाला है, जो प्रोफेसर (डॉ.) ऋषभदेव शर्मा जी के व्यक्तित्व की एक 'मुकम्मल तस्वीर' प्रस्तुत करता है। आदरणीय शर्मा जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को मैंने अत्यंत सामीप्य के साथ जाना-परखा है और प्रवीण जी का वक्तव्य मेरी परख की दिशा में है। 'लिए लुकाठी हाथ' को पढ़ने के बाद ही मैं अपनी वृहद आलोचना कर सकूँगा।
–प्रोफेसर (डॉ.) अश्विनीकुमार शुक्ल
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