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मंगलवार, 16 जुलाई 2024

अभिमत_प्रो. गोपाल शर्मा_'लिए लुकाठी हाथ' पर


आत्मीय संस्मरणों से संचित, सुवासित और सुव्यवस्थित

                     - गोपाल शर्मा

यदि हम किसी साहित्यकार को जानते, पहचानते और सम्मानते हैं तो उन पर लिखना और उनकी रचनाओं पर स्वाधीन समीक्षात्मक लेखन की पेशकश करना कठिन हो जाता है।  कभी- कभी  इन्ही कारणों से आसान  भी हो जाता है।  इसलिए इस पुस्तक में संकलित   9  आलेखों  की पाठकोन्मुख समीक्षा करना कठिन और उनका क़िस्त-दर-क़िस्त पाठ करना आसान है।  

'लिए लुकाठी हाथ' के रचयिता (डॉ.) प्रवीण प्रणव उन जातकों में से हैं जो अंक 9 के प्रभाव से दूसरों की मदद करने वाले और अपनी ऊर्जा को परहित में लगाना पसंद करते हैं। आप भी अब जब इन 9 आलेखों का पाठ करने वाले हैं तो इस पुस्तक के शीर्षक के तीन बीज  शब्दों   का ध्यान रखें । लेखक प्रवीण प्रणव के 'लिए'  प्रो. ऋषभदेव शर्मा  की तेवरियाँ कबीर की 'लुकाठी' सी मार करती - मार्ग दिखाती हैं जो  अंतर 'हाथ' का सहारा देती है। इसलिए जब आलोचक प्रवर के रूप में कवि प्रवीण  इनका गूढ़ अध्ययन करके प्रसन्न होकर प्रसन्नवदन कवि ऋषभ को विलोकते हैं तो उनके रचना संसार में कभी भविष्य का  आईना  देखते हैं और कभी वर्तमान की नज़र।

इस रचना कर्म में इस बात को रेखांकित तो किया ही गया है कि कवि साहित्यकार  के रूप में  ऋषभ शिल्प की सीमा के पार जाकर अर्थ की खुमारी को उम्मीदों के रोशनदान से आलोकित करते हैं, यह भी बता दिया गया है कि कवि ऋषभ दीवानों की जिस बस्ती में रहते हैं  उसमें  नादान का प्रवेश कठिन है। यही इस संग्रह के सहेजक का मंतव्य दिखाई देता है जिसे वे इन पंक्तियों से क्या खूब समेटते हैं-  मुमकिन नहीं कि  शाम-ए-अलम की सहर न हो!  'खूबसूरत फूलों की खुशबू और बारूद की गंध से लबरेज़ होकर लिखी कविताओं से मानस मुकुल सुवासित होता है'-  क्या खूब पकड़े हैं!

अतः  इस संग्रह के पाठक इन आलेखों को उस कुंजी के समान लें, उस कर-ताली के मानिंद समझें जिससे भावों का अनुवाद कविता के अनुवाद से कई गुना बेहतर हो जाता है।  इस संग्रह में  उस तरफ भी दृष्टि दौड़ाई गई है जिस तरफ कवि की कविता का पुनर्जन्म होता है और  न ख़त्म होती कविता अंग्रेजी अनुवाद के माध्यम से पुनः  प्रकट हो जाती है।  यही नहीं, जब ‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' सूक्ति को  सत्य चरितार्थ करते नित्य प्रति बरसों से संपादकीय लिखते उस गद्यकार  के चोखे गद्य से आलोचक प्रवीण   परिचय कराते हैं जिनके नाम में ही 'देव' है तो पाठक नए आलोक में  ऋषभदेव शर्मा के रचना कर्म को देखने-जाँचने-परखने का  सलीका और सुभीता सहज में ही पा जाता है।  

आत्मीय और आदरयुक्त संस्मरणों से संचित, सुवासित और सुव्यवस्थित इन आलेखों के पाठ से  पाठक को गंभीर  समीक्षाओं के साथ-साथ यत्र-तत्र इनके रचनाकार के लेखन अनुभवों से परिचय भी हो जाता  है। यह 'लुकाठी' भावी लेखकों के लिए दिग्दर्शक भी  होगी, इसमें संदेह नहीं। 

साहित्यिक अभिरुचि रखने वाले पाठकों   को पुस्तक की  अपनी  प्रति सुलभ हो, इसी अभिलाषा को पूरी होते देखना चाहता हूँ। इन आलेखों को पुस्तक के रूप में देखकर अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करने का यह सुअवसर मैं क्यों  गँवाता? मेरी भी आभा इसमें है और रहे। इसके लिए  उन सब  हाथों को  धन्यवाद जिन्होंने इस पुस्तक के प्रकाशन को संभव बनाया।  

पुस्तकों की शताधिक भूमिकाएँ  लिखकर संवीक्षक, संरक्षक और  साहित्य-संपन्न हो गए  ऋषभदेव शर्मा के सम्मुख एक और  यथायोग्य  प्रस्तुति !   

- गोपाल शर्मा            

पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, 

भाषा विज्ञान विभाग, 

अरबा मींच विश्वविद्यालय, इथोपिया।

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