फ़ॉलोअर

सोमवार, 25 सितंबर 2023

डॉ. त्रिवेणी झा की कृति 'विविधा' की भूमिका

 


भूमिका


डॉ. त्रिवेणी झा की कृति 'विविधा' से गुजरना जीवन के विविध अनुभवों और अनुभूतियों की कहीं सँकरी तो कहीं चौड़ी पगडंडियों से होकर गुजरने जैसा है। यहाँ संकलित रचनाएँ उनके देखे, भोगे और झेले जीवन की सहज निष्पत्तियाँ हैं। कहानियाँ हो या कविताएँ अथवा व्यंग्य, सबमें लेखक एक परिपक्व मनुष्य की तरह मौजूद है। समय की आँच में पक कर निकलीं इन रचनाओं में एक खास तरह की निजी खनक है। इस खनक में जहाँ कई बार लेखक का अध्यापकीय संस्कार ध्वनित होता है, वहीं बहुत बार चुहल और चुटकी का अंदाज़ भी ठुनकता सा सुन पड़ता है। खड़ी बोली के अलावा मैथिली की रचनाएँ भी हैं, जो कवि की गहरी लोकानुरक्ति का सबूत देती हैं।


तीनों ही विधाओं की रचनाओं में जीवन मूल्यों की रक्षा अथवा पुनर्स्थापना के प्रति रचनाकार का आग्रह खास तौर पर ध्यान खींचता है। इसी आग्रह के सहारे वे समसामयिक परिवेश को घेरने वाले वास्तविक सवालों और समस्याओं से टकराते हैं। एक और बात यह भी कि वे सामाजिक प्रयोजन को आगे रखते हुए भी मनोरंजन और आनंद की सिद्धि की उपेक्षा नहीं करते। सौंदर्य की सृष्टि का सुख तो खैर अपनी जगह है ही। 


पुस्तक के पहले खंड में छोटी छोटी कुछ कहानियाँ अथवा लघु कथाएँ हैं, जिनमें व्यक्ति मन और समाज मन अपनी अपनी ठसक के साथ विद्यमान हैं। घर-परिवार से लेकर सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेश तक देश-दुनिया की खबर देती-लेती ये कहानियाँ कभी चोट करती हैं, कभी उपदेश देती हैं, कभी मुस्काने को विवश करती हैं, तो कभी रुलाती भी हैं। बौद्धिक आतंकवाद, वृद्धावस्था, पीढी अंतराल, विश्वमारी कोरोना की त्रासदी, वात्सल्य, दायित्व, गृहस्थ जीवन की ऊँच-नीच, संपत्ति, उत्तराधिकार, बेटे-बेटी, रिश्ते-नाते, पर्व-त्योहार, जीवनी शक्ति और मृत्यु बोध को कथ्य बना कर डॉ. त्रिवेणी झा ने अपनी लघु कथाओं की दुनिया का रुपहला संजाल रचा है। यह रचाव इतना सहज है कि पाठक को लेखक की दुनिया अपनी दुनिया लगने लगती है। 


यही बात दूसरे खंड पर भी लागू होती है। इस खंड में प्रस्तुत हास्य-व्यंग्य के प्रसंग दैनिक जीवन से लिए गए हैं और लेखक की विनोद वृत्ति का परिचय देते हैं। इनमें कहीं किस्से जैसा प्रवाह है, तो कहीं चुटकुले जैसा खिलंदड़ापन। शब्द क्रीड़ा भी बहुत बार बाँध लेती है। 'मसक पुराण', 'दाँत की करामात', 'चमचे नए पुराने' और 'बतरस' सरीखी रचनाएँ यह प्रमाणित करने के लिए भी काफी हैं कि कई दशकों की अध्यापकी और प्रिंसिपलगीरी के बावजूद लेखक के भीतर का नटखट बालक आज भी ऊर्जस्वित है। 


इसके अलावा, तीसरा अर्थात कविता खंड रचनाकार की विचारशीलता के साथ साथ उनकी भावप्रवणता का परिचायक है। कवि का आग्रह है कि सभ्य समाज में कलम की मर्यादा का सम्मान होना चाहिए। वे प्राकृतिक सौंदर्य और मानवीय सौंदर्य को एक साथ जोड़कर नैतिकता का पाठ भी बखूबी पढ़ाते हैं। कहना न होगा कि अँधेरी रात में 'जागते रहो' का संदेश बहुअर्थीय है। दुःख के अँधेरे को जिजीविषा के दीप जलाकर काटने की बात वे जिस ढंग से कहते हैं, वह बहुत सहज है। आपदाओं को अवसर में बदलने की प्रेरणा भी इन कविताओं में निहित है। नागर जीवन की अपसंस्कृति के बरक्स ग्राम जीवन की लोक संस्कृति का माहात्म्य भी कई स्थलों पर देखने को मिलता है - विशेषतः मैथिली कविताओं में। 


अंततः इस कृति के प्रकाशन के अवसर पर मैं डॉ. त्रिवेणी झा को, दादी-पोती के स्नेहिल रिश्ते को रूपायित करती और जीवन राग से भरी उनकी कविता 'सूखी डाली में कोंपल' के इस अंश के साथ, शुभकामनाएँ और बधाइयाँ देता हूँ कि: 


  • दादी का सुमधुर स्वर

हवा में तैरने लगा है-

'मेरी रानी बड़ी सयानी

पी ले पी ले थोड़ा पानी'

यही समर्पण सूखे तन-मन को

हरिया गया, फिर तरी दे गया।

आज उस सूखी डाली में

स्पंदन हुआ, 

उस सिहरन से डाली में 

फिर कोंपल आने लगे।

मन पंछी चहचहाने लगे।


आशा है, इस सृजन की हरियाई डाल को सुधी पाठकों का भरपूर प्यार मिलेगा। 


  • ऋषभदेव शर्मा

हिंदी परामर्शी,

दूरस्थ शिक्षा निदेशालय, मौलाना आज़ाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद।

31 जुलाई, 2023



कोई टिप्पणी नहीं: