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बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

स्त्री बहनापे की ‘एक नई पहचान’

मीडिया और स्त्री का संबंध बहुरूपी है. मीडिया ने स्त्री को भरपूर जगह दी है. वहाँ स्त्री एक सजग संप्रेषणकर्मी के रूप में उपस्थित है. सूचनाओं के कवरेज से लेकर विवेचन-विश्लेषण तक – पूरी बौद्धिकता के साथ अपनी पहचान को रेखांकित करती हुई. वहाँ स्त्री हर तरह की मनोरंजन सामग्री के रूप में मौजूद है और उपभोक्ता वस्तुओं को बेचने से लेकर भावभंगिमा और सौदर्य तक का बाजार लगाए हुए है. वहाँ स्त्री खास तरह के पारिवारिक मेलोड्रामा में बेहद लाउड ढंग से मानो अग्रप्रस्तुत है – कभी रोती-चिल्लाती हुई, कभी गाली से लेकर भाषण तक देती हुई, कभी अविश्वसनीय ढंग से दबी कुचली तो कभी अविश्वसनीय ढंग से आकाश में उड़ती. किस्साकोताह यह कि मीडिया पर आगे-पीछे-दाएँ-बाएँ-ऊपर-नीचे-भीतर-बाहर सर्वत्र स्त्री स्त्री स्त्री है – स्त्री न हुई वैदिक ऋषि की गाय हो गई ! बेशक, ये स्त्रियाँ वैदिक ऋषियों की गायें ही हैं जो उपभोक्तावादी संचार क्रांति के नाम पर दशों दिशाओं में हाँक दी गई हैं. इससे यह तो पता चलता है कि मीडिया ने स्त्री की नई छवि बनाई है. वह स्त्री के प्रति संवेदनशील हुआ है. वहाँ स्त्री का वर्चस्व बढ़ रहा है. पर इसमें भी दो राय नहीं कि मीडिया की स्त्री ‘भारत की स्त्री’ नहीं है. 

ऐसे में जब कोई टीवी सीरियल भारतीय स्त्री की किसी निजी समस्या को लेकर सामने आता है तो पिछले कई दशकों में बनाई (या बिगाड़ी गई) भारतीय स्त्री की यह टीवी छवि टूटती है कि स्त्रियाँ स्वभावतः शंकालु और षड्यंत्री होती हैं. भारतीय सोप शृंखलाओं ने पिछले दशकों में व्यापक मध्यवर्गीय स्त्री दर्शकों को बाँधे रखने के लिए एक कथारूढ़ि के रूप में यह मिथ विकसित किया है कि पुरुष स्वभावतः मूर्ख और स्त्रियाँ स्वभावतः षड्यंत्रकारी होती हैं. सोनी टीवी पर 23 दिसंबर 2013 से दिखाया जा रहा धारावाहिक ‘एक नई पहचान’ भारतीय स्त्री की ‘पहचान’ की समस्या को तो रेखांकित करता ही है, इस मिथ को भी तोड़ता है. 

‘एक नई पहचान’ देखते समय तेलुगु की प्रसिद्ध कहानी ‘ईगा’ याद हो आई जिसमें घर लीपते-लीपते अपना नाम भूल जाने वाली मक्खी की लोक कथा की तरह घर परिवार को सँवारते-सँवारते अपना नाम खो देने वाली एक स्त्री की बेचैनी और नाम याद आने पर मिलने वाली खुशी का मार्मिक चित्रण किया गया है. घर-गृहस्थी में अपने अस्तित्व को पत्नी और माँ के गरिमामय संबोधनों के सहारे लगभग मिटा देने वाली आम भारतीय गृहिणी को मिलता क्या है? उसके त्याग और समर्पण का मूल्य परिवार किस तरह चुकाता है? उसकी पहचान मिटाकर ! उसे उपदेश देकर ! दुत्कार कर ! बात-बात पर ताने देकर – तुम्हें आता क्या है? तुम जानती क्या हो? तुम्हें क्या पता पैसा कैसे कमाया जाता है? एक काम भी कभी ढंग से किया है तुमने? क्या करती रहती हो चौबीसों घंटे? अर्थात न उसके श्रम का कोई मूल्यांकन है न प्रेम का. न उसके उत्पादन का कोई महत्व है न आत्मदान का. लेकिन जिम्मेदारी हर चीज की उसी पर. सास-ससुर की, पति परमेश्वर की, बेटे-बेटी की, रिश्ते-नातों की – सबकी देखभाल उसी को करनी है पर श्रेय उसे किसी का नहीं मिलता. कर्तव्यकर्म है सब – करती रहो सिर झुकाए. इस पुरुषवादी दृष्टिकोण को इस सीरियल में सुरेश मोदी नामक उद्योगपति के आचरण द्वारा दर्शाया गया है तो गाय स्वरूपा भारतीय अबला की छवि उसकी पत्नी शारदा के व्यक्तित्व में रूपायित की गई. शारदा को न अपने व्यक्तित्व का पता है न व्यक्तिगत गुणों का. जबकि सुरेश के परिवार ही नहीं व्यापार की भी धुरी वही है. वह पटोला साड़ियों पर अनुपम कारीगरी की माहिर है – इसीलिए तो सुरेश की मिल का नाम ‘शारदा टेक्सटाइल्स’ है. पुरुष का यह स्त्रीपूजक मुखौटा तब बड़ा नकली लगता है जब घर में वह इसी परम पूज्य स्त्री को प्रतिक्षण मानसिक प्रताड़ना देता है. 

शारदा के प्रति सुरेश का व्यवहार घरेलू हिंसा के उस रूप को भली प्रकार उभारता है जो स्त्री को आत्महीनता, आत्मदया और अपराधबोध से भरकर उसके व्यक्तित्व को कुचल देता है. लेकिन स्थिति का व्यंग्य यह है कि सुरेश स्त्री शिक्षा के लिए भी काम करता है. इसके लिए उसे सम्मानित भी किया जाता है. अर्थात दोहरा आचरण. लेकिन एक समय वह भी आता है जब सुरेश को स्त्री शिक्षा प्रोत्साहन हेतु स्वयं शारदा के हाथों पुरस्कृत किया जाता है. सुरेश इस अवसर पर मुक्त कंठ से शारदा की प्रशंसा करता है तो स्वाभाविक है कि वह कृतज्ञता भाव से भर उठती है. पर इस सच्चाई का क्या करें कि घर की सारी व्यवस्था शारदा के पढ़ने जाने की शुरूआत करते ही बिगड़ जाती है – इसीलिए तो सुरेश पकी उम्र में शारदा के पढ़ने का विरोधी है. इस द्वंद्व के द्वारा धारावाहिक यह उभारता है कि पत्नी के व्यक्तित्व के क्षरण और निर्माण दोनों में पति की बड़ी भूमिका होती है. बहू साक्षी इस बात को समझती है और समय समय पर सुरेश की सदाशयता को जगाने का गाहेबगाहे प्रयास करती रहती है. साक्षी के माध्यम से इस धारावाहिक ने स्त्री बहनापे का तो प्रखर रूप उभारा ही है, टीवी धारावाहिकों के इस मिथ को भी तोड़ा है कि स्त्री सदा ही स्त्री की शत्रु होती है. यही कारण है कि यह सीरियल गृहिणियों को ही नहीं नई रोशनी की लड़कियों को भी पसंद आ रहा है. 

स्मरणीय है कि जय मेहता प्रोडक्शन्स द्वारा निर्मित ‘एक नई पहचान’ वस्तुतः प्रसिद्ध लेखिका वर्षा अदाल्जा द्वारा लिखित गुजराती नाटक ‘शारदा’ का आधिकारिक रूपांतर है. शारदा और साक्षी सास-बहू हैं लेकिन उनका संबंध अंतरंग सखियों जैसा है जो वस्तुतः सामाजिक परिवर्तन की वांछित दिशा का द्योतक है. स्त्री सशक्तीकरण और स्त्री शिक्षा द्वारा घरेलू स्त्री की एक नई पहचान निर्मित करने वाली इस गाथा में साक्षी प्रगतिशील नई स्त्री है और शारदा पारंपरिक स्त्री. शारदा जाने कितनी कलाओं में प्रवीण है लेकिन सुशिक्षित अथवा भली  प्रकार साक्षर नहीं है. नामकरण की विडंबना देखिए कि सरस्वती का नाम वहन करने वाली शारदा कंपनी के कागजों पर हस्ताक्षर नहीं कर सकती, अंगूठा लगाती है. धोखा खा जाती है. करोड़ों का नुकसान. परिणाम पुनः पुनः तिरस्कार. साक्षी भी लेकिन केवल तटस्थ भाव की ‘साक्षी’ नहीं है. उसे मालूम है – नहीं पाप का भागी केवल व्याध/ जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध (दिनकर). उसका पात्र रचते हुए यह ध्यान में रखा गया है कि जो स्त्रियाँ साक्षर हैं, सुशिक्षित हैं, मुक्त हैं, स्वावलंबी हैं उनका कर्तव्य है कि वे अशिक्षा, निरक्षरता, परनिर्भरता और गुलामी के पर्दों में कैद अपनी अन्य बहनों को शृंखला की इन परंपरागत कड़ियों से मुक्त करने का प्रयास करें. (द्रष्टव्य : शृंखला की कड़ियाँ : महादेवी वर्मा). और साक्षी इसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है. कहना न होगा कि वह टीवी की दुनिया का एक नया क्रांतिकारी स्त्री चरित्र है जो किसी रजनी, तुलसी और पार्वती की तरह लाउड हुए बिना बड़ी सहजता परंतु दृढ़ता से स्त्री की अस्मिता के लिए आग्रहपूर्वक सामने आती है और शारदा के रूप में मानो कि स्त्री बहनापे की नई इमेज खड़ी करती है. 

दैनिक धारावहिक है तो रोज नई नई चीजें उभरकर सामने आती हैं लेकिन अच्छा यह है कि सारी कड़ियाँ इस एक अंतःसूत्र में पिरोई हुई हैं कि यदि स्त्री के साथ स्त्री खड़ी हो जाए – एकजुट होकर, तो स्त्री जाति को एक नई परिभाषा मिल सकती है. बेशक इस धारावाहिक में घरेलू तानों-उलाहनों से छिदी हुई स्त्री अस्मिता का शिक्षा के सहारे कायाकल्प करने की जिद पिछले दिनों आई फिल्म ‘इंग्लिश-विंगलिश’ की याद दिलाती है लेकिन इस धारावाहिक की स्थितियाँ उससे भिन्न है, और उपचार भी. आगे आगे देखिए होता है क्या ! 

[उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की अर्द्धवार्षिक पत्रिका 'बहुब्रीहि' के दूसरे अंक  - जनवरी जून 2014 - में प्रकाशित यह मीडिया-समीक्षा 14 अप्रैल 2014 को  लिखी गई थी इसलिए इसमें उस समय तक की ही कड़ियों का ज़िक्र है.तब से अब तक 'एक नई पहचान' में अनेक नए मोड आ चुके हैं..... उनकी चर्चा कभी फिर.... यदि अवसर मिला तो.]

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