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शनिवार, 2 अप्रैल 2011

हैदराबाद में शमशेरियत का पूरा चाँद देखने को मिला - नामवर सिंह


शमशेर  राजनीति नहीं,  सौंदर्य  के कवि हैं    - नामवर  सिंह
हैदराबाद  में   शमशेरियत का पूरा  चाँद  देखने  को मिला -  नामवर सिंह

हैदराबाद, 2  अप्रैल, 2011। 

‘शमशेर  बहादुर   सिंह   हिंदी और उर्दू  दोनों    भाषाओं   के  बड़े   कवि थे।   गद्यकार भी  वे   उतने  ही बड़े   थे। वे  इकलौते ऐसे  आलोचक  हैं जिन्होंने  हाली  की उर्दू    रचना ‘मुसद्दस’   और मैथिलीशरण गुप्त  की हिंदी  रचना ‘भारत  भारती’  की गहराई  से तुलना करते हुए  दोनों   के रिश्ते   की पहचान की। इक़बाल  पर भी हिंदी     में  उन्होंने ही  सबसे  पहले  लिखा।  वे  हिंदी  और  उर्दू  के  बीच  किसी  भी    प्रकार   के  भेदभाव और    टकराव  के   विरोधी थे।  इसीलिए  तो    उन्होंने कहा था  -   ‘वो    अपनों  की बातें,   वो  अपनों     की खू    बू / हमारी  ही  हिंदी हमारी    ही  उर्दू।’  इतना ही  नहीं, नितांत   निजी क्षणों    में   भी    उन्हें     उर्दू   ज़बान  ही याद आती थी।   उदाहरण  के लिए  मुक्तिबोध  पर उनकी उर्दू  में  लिखी  कविता  को  देखा  जा सकता है।’’

ये विचार हिंदी   समीक्षा  के  शलाका पुरुष प्रो.  नामवर सिंह  ने  30-31मार्च,  2011 को  हैदराबाद में  आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय  संगोष्ठी  ‘शमशेर शताब्दी समारोह’  के उद्घाटन  सत्र में   बुधवार  को बीज व्याख्यान देते हुए  व्यक्त   किए। यह  समारोह  उच्च शिक्षा  और  शोध संस्थान,  दक्षिण   भारत   हिंदी  प्रचार   सभा  और  मौलाना आजाद राष्ट्रीय  उर्दू  विश्वविद्यालय के  संयुक्त  तत्वावधान में    संपन्न हुआ। प्रो. नामवर  सिंह ने  इसे एक अच्छी शुरुआत  मानते  हुए  कहा कि शमशेर हिंदी-उर्दू की गंगा-जमुनी  तहजीब  के  अपने ढंग  के  विरले अदीब थे। हिंदी  और  उर्दू  की  राष्ट्रीय  महत्व  की  दो  बड़ी  संस्थाओं  ने  हिंदी-उर्दू  के  इस  दोआब  को  पहचाना  है,  यह  बहुत महत्वपूर्ण  घटना  है।  इस बहाने  इन दोनों   भाषाओं   के परस्पर  नज़दीक   आने का जो  सिलसिला  शुरू हुआ है  वह  हैदराबाद से आरंभ  होकर देश  भर में  फैलना चाहिए।  डॉ.    नामवर  सिंह ने  याद दिलाया कि शमशेर   बहादुर   सिंह  ने  1948    में  निजामशाही के  खिलाफ  भी    एक छोटी   सी नज़्म लिखी   थी  -   ‘ये   चालबाज हुकूमत    दुरंगियों का गढ़/बनी  हुई  है  अभी  तक फिरंगियों  का  गढ़ / लगे  अवाम  की  ठोकर  निज़ाम  शाही  को।’  साथ  ही  डॉ.  सिंह  ने यह भी    ध्यान दिलाया कि आप शमशेर को सियासी  कवि न समझें,  वे   सही अर्थों  में ऐस्थीट  थे - सुंदरता  के कवि थे।  वे   रंगों  से खेलते थे,  शब्दों    से खेलते  थे।   उनके रचनाकार  व्यक्तित्व का एक हिस्सा अपने प्यारे शायर मजाज़ का है  पर वे  उतने  पॉलिटिकल   नहीं हैं ।  वे   चित्रकार  भी   थे   और  एक खास किस्म की  एम्बिगुइटी,  एक खास किस्म का पेंच,   उनकी  कविताओं   में    है। इसीलिए  वे    उतने    पॉपुलर  नहीं  है     जितने  कि  गर्जन-तर्जन  करनेवाले सियासी  कवि हुआ  करते हैं।’’

डॉ.  नामवर सिंह ने शमशेर  के  संकोची  व्यक्तित्व   से लेकर  उनके चित्र और  कविताओं  के  संबंध तक की व्याख्या  की और  कहा कि उनकी कविता इशारा ज्यादा  करती है,   बोलती  कम  है।   शमशेर   के गद्य  की शक्ति  को भी  उन्होंने    वाणी के  संयम में   निहित माना।  उन्होंने   कहा कि शमशेर  की समग्र  रचनावली आनेवाली  है  और   उनकी  रचनाएँ  हिंदी  तथा  उर्दू  दोनों  भाषाओं  का  साझा  सरमाया  है।  इसलिए  उनके  साहित्य  पर,  उसके  हर  एक पक्ष  पर साझा  दृष्टिकोण  से विचार करने की जरूरत है।   अंत  में   उन्होंने      निष्कर्ष  दिया कि दूसरा  शमशेर नहीं हुआ -  न हिंदी  में, न उर्दू  में।   उन्होंने    इस बात की ओर  भी   ध्यान दिलाया कि यह  वर्ष   मजाज़ का भी   शताब्दी वर्ष  है,परंतु साहित्य   जगत का इस ओर   कोई ध्यान नहीं है जबकि अपने समकालीन फैज  अहमद फैज जैसे शायरों  की तुलना में  वे   कहीं बड़े   शायर हैं।

समारोह का उद्घाटन  करते  हुए  डॉ.  गंगा  प्रसाद विमल  ने  कहा  कि  लोक  में  शमशेर लोकप्रिय  कवियों से ज्यादा  रमे  हुए  हैं।  वे    मुकम्मिल  तौर  से हिंदुस्तान  में  रचे  बसे ऐसे  कवि हैं जिन्होंने प्रेमचंद   की तरह  उम्दा  हिंदी   और   बेजोड़ उर्दू    में    लिखा  है।  उन्होंने हिंदी    की कविताभाषा   को  हिंदुस्तानियत  के  लहजे से पुष्ट किया।  इसी  के  कारण  उनकी  शमशेरियत लोगों  से  अपना  लोहा  मनवा  लेती  है।  डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल  ने  आगे  कहा कि  यद्यपि शमशेर बहुत  मुश्किल  कवि हैं  लेकिन  उनके  साहित्य  से  यह  पता  चलता  है  कि  वे  हिंदुस्तान  से बेइंतहा मुहब्बत  करनेवाले कवि हैं।  यही कारण  है कि गुरबत,  युद्ध  और आतंक  के  जो  चित्र उन्होंने  अपनी रचनाओं  में उकेरे  हैं वे   ज्यादा  प्रभावी     हैं।  खास तौर  से हिंदुस्तानी  भाषा   के  अपने  संस्कार   के  कारण वे   आज हमारे  लिए  बेहद  प्रासंगिक  हैं।  गंगा  प्रसाद  विमल  ने  अपने  खास  अंदाज  में  जब  यह  कहा  कि  मैं  तो  चाहता  हूँ कि हिंदी  और  उर्दूवाले  उनके  लिए  इस तरह  लडें  जिस तरह  कभी  हिंदू  और  मुसलमान  कबीर  के  लिए  लड़े  थे,  तो  सभाकक्ष   करतल ध्वनियों  से गूँज  उठा।  डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल  ने  अपनी  बात समाप्त  करते हुए  कहा कि जमहूरियत के इलाके  में   सेक्यूलर बनकर  अपनी बातें  कहनेवाले शमशेर  हिंदुस्तानियत  की मुहिम  का आधार  बन सकते  हैं।

उद्घाटन सत्र के   आरंभ में    संयोजक  प्रो.  दिलीप  सिंह  ने   कहा कि शमशेर  जैसी शख्सियत हिंदी-उर्दू दोनों  जबानों  में    दूसरी बहुत  मुश्किल से मिलेगी।  उन्होंने  नामवर सिंह   के  हवाले  से कहा कि हम लोग  यहाँ शमशेरियत  की खोज  के  लिए  ही   जुटे  हैं। प्रमुख  भाषाचिंतक  दिलीप सिंह    ने  यह  भी    कहा कि  शमशेर   उर्दू काव्यभाषा  के संस्कार  को  हिंदी  में  संभव  बनानेवाले  कवि हैं  इसलिए उन्हें   हिंदी के  साथ  साथ  उर्दू    भाषा  और साहित्य  के पाठ्यक्रम  में   भी   शामिल  किया जाना चाहिए।

विषिष्ट अतिथि   के रूप में   बोलते हुए  प्रो.   आमिना  किशोर  ने  शमशेर  के साहित्य   को  अंतरअनुशासनीय शोध  का विषय  बनाने की जरूरत बताई  और  कहा कि हिंदी-उर्दू  के  ऐसे  रचनाकारों  को खोजा  जाना चाहिए जिनमें दोनों ज़बानों  का मेल है।   उन्होंने  भारत-पाक   क्रिकेट  मैच वाले दिन भी   खचाखच भरे   सभागार  की ओर इशारा  करते हुए  यह  कहा कि साहित्य  के  द्वारा  जो  वैश्विक संदेश   दिया जा सकता  है,  कोई  क्रिकेट   वैसा  नहीं कर सकता।

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता मौलाना  आजाद राष्ट्रीय  उर्दू   विश्वविद्यालय  के कुलपति  प्रो.  मोहम्मद  मियाँ ने  की।   अध्यक्षीय वक्तव्य  में    उन्होंने  संगोष्ठी  की समसामयिक प्रासंगिकता  और  हिंदी-उर्दू  को  नज़दीक लाने  के लिए इसके स्थायी  महत्व  का  समर्थन  किया  और  कहा  कि  भविष्य  में  शमशेर   और  मजाज़  पर संयुक्त  संगोष्ठी  की जानी चाहिए।

उद्घाटन के   बाद    ‘शमशेर की स्मृति’  पर केंद्रित   सत्र में     प्रो.  दिलीप  सिंह  ने  'शमशेर : व्यक्ति    और रचनाकार’  शीर्षक  आलेख  प्रस्तुत  किया। उन्होंने   मुक्तिबोध के  हवाले  से कहा कि शमशेर की जिंदगी ठहराव में  रवानी  की दास्तान  है।    अनेक प्रमाणों  के  साथ  उन्होंने    शमशेर   के  इस  वक्तव्य  की भी    परीक्षा  की कि ‘सारी कलाएँ एक दूसरे  में    समोई  हुई     हैं’  और  यह  दर्शाया   कि शमशेर  चित्र,  संगीत,  नाटक और  नृत्य  को भी   संप्रेषण युक्ति की तरह  इस्तेमाल करते हैं।   प्रो.    दिलीप सिंह  ने जहाँ   एक ओर  यह  कहा कि शमशेर  ने  निराला से आगे जाकर  नए  नए  काव्यरूप  और   भाषा    की संभावना  की तलाश  की है,   वहीं    यह  भी    कहा कि निरंतर निज  से संवाद करनेवाले इस कवि की उर्दू  साहित्य  के लिए  दीवानगी  अद्वितीय है। डॉ. दिलीप सिंह  के अनुसार  शमशेर  विचलन के  कवि हैं  जो  उनकी  मानसिक जटिलता के  साथ  साथ  भाषा कौशल  को जाँचने   की उनकी  ताकत का भी   प्रतीक है।     डॉ.  सिंह   ने याद दिलाया कि सुंदरता समशेर की कविता का बड़ा   हिस्सा   घेरती है,   ‘लीला’ उनका  प्रिय  शब्द  है,  वे  विराम  चिह्नों  और  रिक्त  स्थान  तक का  बहुत  सतर्कता  से  प्रयोग  करनेवाले  लेखक  हैं तथा   सभी  प्रमुख  कवियों   और  आलोचकों  ने  उन    पर  लिखा  है   और     उन्होंने     भी    इन पर लिखा  है    जो  अपने समकालीनों  से उनके रिश्तों   का पता देता   है।

प्रो. तेजस्वी  कट्टीमनी  ने   इसी बात को  आगे   बढ़ाते हुए   ‘लोगों    की स्मृतियों  में बसे  हुए  शमशेर'  पर प्रकाश    डाला। खास तौर    से नरेंद्र  शर्मा,  केदारनाथ  अग्रवाल,   नामवर   सिंह  और   रंजना अरगडे   के  हवाले  से उन्होंने    कहा कि  संकोची   स्वभाव वाले   शमशेर     अपने समय के   सबसे   अधिक  बहुमुखी   प्रतिभावाले   कवि  थे।  उन्होंने   शमशेर की उदारता   के  किस्से  सुनाते  हुए  बताया कि वे   तंगदिल नहीं  थे    और विपन्न   लोगों   के  प्रति उनके मन में  बड़ी   करुणा थी।  चरित्र के  ऐसे  ही गुण शमशेर   को केवल  अच्छा  कवि ही नहीं अच्छा  आदमी   भी  बनाते हैं।

इस सत्र में   डॉ.  गंगा  प्रसाद विमल ने शमशेर बहादुर   सिंह   से जुड़े   कई रोचक  प्रसंग  सुनाए   और उनकी नज़ाकत-नफ़ासत  का खासतौर  पर ज़िक्र  करते हुए  यह  भी    बताया कि उनका  कलाओं के  प्रति   इतना लगाव था   कि प्रायः  कला दीर्घाओं  के  चक्कर  लगाते रहते थे।  फ़ारसी  साहित्य   के प्रति  शमशेर के  प्रेम पर भी   उन्होंने  प्रकाश डाला। 

मुंबई   से पधारे   ‘हिंदुस्तानी’ के  समर्थक  भाषावैज्ञानिक  डॉ.  अब्दुस्सत्तार  दलवी  ने  स्मृति   सत्र की अध्यक्षता करते  हुए  कहा कि ‘‘शमशेर  महात्मा गांधी की हिंदुस्तानी  भाषानीति का सबसे  खूबसूरत उदाहरण पेश   करते  हैं। वे  ऐसे  अदीब  हैं  जिनका  साहित्य  हमारी  तहज़ीबी जिंदगी  का  बड़ा  सरमाया  है,  जिसमें  भारत  की संस्कृति   को पहचाना  जा  सकता है।’’  उन्होंने   कहा कि शमशेर  बहादुर  सिंह  के साहित्य   को  पढ़कर यह  बात समझ  में  आती  है  कि हिंदी.  के  बिना  उर्दू, और  उर्दू  के  बिना  हिंदी,  पूरी  नहीं  हो  सकती।  प्रो.  दलवी  ने  इस  बात की ओर भी   इशारा  किया कि शमशेर की भाषा में   सामाजिक  शैली  की विविधता अहेतुक  नहीं है  बल्कि उनके काव्यरूप  और  भाषारूप  में  गहरा भीतरी  नाता  है।    'शमशेर   की स्मृति’   विषयक  इस  सत्र  का  संयोजन  प्रो. ऋषभदेव  शर्मा  ने  किया तथा  डॉ.  मृत्युंजय  सिंह  ने वक्ताओं के  प्रति   आभार प्रकट   किया।

‘शमशेर की कविता’ पर केंद्रित विचार   सत्र की अध्यक्षता इंदिरा  गांधी  राष्ट्रीय  मुक्त  विश्वविद्यालय से पधारे  प्रो.सत्यकाम  ने  की।   उन्होंने  इस बात पर जोर दिया कि शमशेर   बहादुर सिंह  जैसी बड़ी  प्रतिभा   को  प्रगतिवाद,   प्रयोगवाद या अतियथार्थवाद  जैसे  किसी  खेमे   में कैद  नहीं  किया जा  सकता। उन्होंने    शमशेर को लोककवि  और  जनकवि  बताते  हुए कहा कि उनकी  बहुत सी कविताएँ  सीधे  मजदूर या संघर्ष  करने वालों से जुड़ती हैं, उनकी  कविता में   धर्मनिरपेक्षता   की बातें    निहित हैं और  वे चिंतनपरक  होने    के   बावजूद   अपनी संवेदनशीलता के  कारण हमारे  हृदय  को   भेदती  हैं। डॉ.  सत्यकाम ने  कहा कि शमशेर  एक कवि नहीं, कवियों के पुंज हैं  क्योंकि  उनकी कविताओं  में   परस्पर  विरोधी  प्रतीत होनेवाले कई  कवि झाँकते प्रतीत  होते    हैं।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय   से आए डॉ.  अब्दुल  अलीम  ने 'शमशेर : काव्यानुभूति  के  आयाम’  विषय  पर अपने आलेख  में  कहा कि शमशेर की कविताओं  का रेंज  बहुत  व्यापक है,  वे न विषय  का सीमाबंधन स्वीकार कर सकते  हैं  और  न किसी एक भाषारूप  का।  विजयदेव  नारायण  साही  के हवाले से   शमशेर को  बिंबों  का कवि बताते  हुए  उन्होंने कहा कि उनके  काव्य  में  मानवीयता  और  विश्वव्यापी  चेतना  मौजूद     है  जो   यथार्थसापेक्ष है, और   समयसापेक्ष  भी।
  
‘शमशेर की काव्यभाषा’   पर दक्षिण  भारत  हिंदी प्रचार   सभा  के  कुलसचिव प्रो.  दिलीप  सिंह  ने  आलेख   प्रस्तुत   करते हुए  यह  माना  कि भाषा  के  स्तर  पर शमशेर का पाठ-विश्लेषण  कठिन काम है  जो  पाठक की मानसिकता और  भावना  के  बिना  संभव     नहीं    है।  उन्होंने कहा कि शमशेर   की कविता जीवन में    प्रेम  और  सत्य का स्थान खोजती   हुई   कविता है।    प्रो.   सिंह   ने सिद्ध   किया कि  आंतरिक  स्तर पर शमशेर   की समस्त  कविता ‘हिंदवी की लय’ से युक्त है   और उनकी काव्यभाषा  बहुत लचीली  और  संकेतात्मक  है।  इस लचीलेपन  के कारण  ही  वह अर्थ-सघन  और संश्लिष्ट  बन सकी  है।  शमशेर   की काव्यभाषा  में  सूफियाना ढब को रेखांकित  करते हुए प्रो.   दिलीप सिंह   ने कहा कि सांप्रदायिक  सौहार्द को  संभव  बनानेवाली  लोकभाषा  के  साथ  शमशेर   के  पास  उर्दू शब्दावली   ही  नहीं, उर्दू   साहित्य की पूरी  परंपरा और  भाषिक विधान   भी   मौजूद  है। उन्होंने  शमशेर को शैली के संयम  और  भाषा के  नियंत्रण  में कुशल   भाषा-सर्जक कवि सिद्ध किया।

काव्यभाषा विषयक चर्चा  को  आगे   बढ़ाया उच्च  शिक्षा और शोध संस्थान,  हैदराबाद के डॉ. ऋषभदेव शर्मा   ने। उन्होंने समाजभाषाविज्ञान  की एक संकल्पना  का आधार  लेकर ‘शमशेर की कविता में    रंग’  पर पर्चा पढ़ा। डॉ.ऋषभ के  अनुसार ‘‘शमशेर की  कविताओं  में   विविध  रंगों   का विविध  रूपों में   प्रयोग  सर्वथा समाजसिद्ध है  और  यह  सिद्ध  करने  में  समर्थ  है  कि  अपनी  समग्र  निजता  में  कवि  शमशेर बहादुर  सिंह  लोक, समाज और संस्कृति  के विविधवर्णीय  सौंदर्य  से  अनुप्राणित   रचनाकार हैं।  रंगों के  प्रति   उनका   आकर्षण  उनके   विविध अभिप्रायों   की  गहरी  समझ से जुड़ा   हुआ     है।’’  उन्होंने  ख़ासतौर  पर शमशेर  की -  ये  शाम  है,  कत्थई    गुलाब,  पूरा आसमान का आसमान, एक पीली  शाम, यह  गुलदाउदी  शाम,   सूर्यास्त,  उषा, प्रभात, एक स्टिल  लाइफ, फिर गया है समय का रथ,  वसंत आया, शंख पंख, धूप कोठरी   के  आईने में   खड़ी,  दिन किशमिशी ,  पूर्णिमा  का  चाँद, भुवनश्वर, शरीर  स्वप्न, एक नीला दरिया बरस रहा, वो  एक हरा-नीला सा कगार न था,  अम्न का राग, सौंदर्य, होली : रंग  और दिशाएँ  तथा सावन जैसी  कविताओं  का समाजभाषिक विश्लेषण  करते हुए प्रतिपादित   किया कि ‘‘शमशेर  बहादुर  सिंह   की संवेदनशीलता  का प्रसार पौराणिक   और  छायावादी   संस्कारों  से लेकर अंग्रेज़ी और ख़ासतौर   पर उर्दू    परंपरा तक परिव्याप्त  है।   समाजसिद्ध भाषा   के  अनेक धरातलों  और  संस्कारों  को  एक साथ साध  पाने के सामर्थ्य  के कारण  ही वे   बड़े  कवि हैं - महान, कालजयी और अद्वितीय; जिनका अनुकरण नहीं   हो सकता।’’

जोधपुर से पधारे  डॉ.  श्रवण  कुमार   मीणा  ने शमशेर की गज़लों  का विश्लेषण किया और  कहा कि इनमें प्रेम  और  सौंदर्य  के  साथ  साथ  तत्कालीन  कविता के  वर्ण्य  विषयों   मोहभंग,   निराशा   और  आम आदमी  की पीड़ा को   भी    अभिव्यक्ति  प्राप्त  हुई   है।    उन्होंने  यह  भी  दिखाने  की कोशिश  की  कि शमशेर  के  गज़लकार  पर उनका कवि रूप हावी  है।

दिल्ली से पधारे कविवर डॉ. हीरालाल  बाछोतिया के  सुचिंतित   आलेख  का विषय  था   ‘शमशेर : शोक गीतों के आईने  में’  जिसमें उन्होंने  जवाहरलाल नेहरु,  सुभद्राकुमारी  चौहान,  मुक्तिबोध,  भुवनेश्वर   और   मोहन  राकेश  पर लिखी  शमशेर  बहादुर  सिंह की कविताओं  की संवेदनशीलता , गहरे  मानवीय बोध और   शैलीय  बुनावट की व्याख्या करते हुए कहा  कि मौत  को  भी   रोमांटिक  रूप में   प्रस्तुत करना केवल  शमशेर  के लिए  ही   संभव    है। अध्यक्ष मंडल  के  सदस्य  प्रो.  टी.मोहन  सिंह   ने  शमशेर  की जनपक्षधरता और  प्रयोगधर्मिता  को  तेलुगु साहित्यकार श्रीश्री से तुलनीय बताया जो  कि शमशेर के  समवयस्क  और  समकालीन  थे।

इस  सत्र  का  संयोजन  डॉ.  जी.वी. रत्नाकर ने  किया  तथा  डॉ.  जी.  नीरजा  ने वक्ताओं  और  श्रोताओं का धन्यवाद प्रकट  किया।

दूसरे दिन यानी   31  मार्च, 2011   (गुरुवार)  को  आयोजित विशेष सत्र में   प्रो.  नामवर  सिंह  ने  लगभग   पौन घंटा  शमशेर   से संबंधित संस्मरण   सुनाकर श्रोताओं   को  भावविगलित  तो   किया ही,  वैचारिक  रूप से समृद्ध  भी  बनाया।  उन्होंने   बनारस, इलाहाबाद,  दिल्ली,  उज्जैन   और अहमदाबाद में    शमशेर   से अपनी मुलाकातों  की चर्चा करते हुए  बताया कि एक समय शमशेर   कम्युनिस्ट  पार्टी  के  कम्यून  में    रहते थे  जहाँ  उनकी  घनिष्ठता बच्चन  और   नरेंद्र शर्मा  के अलावा  प्रकाश  चंद्र  गुप्त  और तीन अग्रवाल बहनों  से थी।  नामवर जी ने  बताया कि शमशेर  की आँखों  पर  कम उम्र  में  ही   मोटा चश्मा चढ़  गया था।  वे   नरेंद्र   शर्मा   की गिरफ्तारी और  देवरी कैंट जेल में  कारावास से काफ़ी  विचलित हुए  थे और उस समय आयोजित  कविगोष्ठी  में   उन्होंने अपने से पहले नरेंद्र  शर्मा  की कविता सुनाई   थी। अतीत में   गोता  लगाते  हुए डॉ. नामवर  सिंह ने  याद किया कि शमशेर  थरथराती काँपती सी आवाज  में काव्यपाठ  करते थे  और  उस समय भावावेश के  कारण उनकी इकहरी  काया खुद  बेंत  की तरह थरथराती थी -सरापा खुद   नज़्म हो जैसे।  डॉ.  नामवर  सिंह   ने यह  भी   बताया कि सड़क  साहित्य की रचना  में  भी शमशेर   बहादुर सिंह  का जोड़  नहीं    था।  उनकी सरलता  और  भावुकता के  भी    किस्से  नामवर जी ने  सुनाए  और यह  भी    बताया कि किस तरह  उनका  छोटा   सा कमरा अनेक  साहित्यकारों  का मिलन स्थल  बन गया था।  नामवर  सिंह के  अनुसार  शमशेर  बहादुर सिंह सही अर्थों  में  ‘उखड़े हुए लोग’ थे   जो  कभी कहीं  ढंग  से बस न सके और  जीवन भर शरणार्थी बने रहे।  उन्होंने  कहा कि  ‘‘बेसिकली शमशेर उर्दू  के आदमी  थे,  उनकी  मादरी ज़बान और  पढ़ाई-लिखाई की भाषा उर्दू ही  थी।  इसीलिए  उर्दू  की  उनकी  काबिलियत  को   देखते   हुए  ही ख्वाजा अहमद फारूक़ी ने  उन्हें उर्दू-हिंदी  शब्दकोष के  संपादन  का काम सौंपा  था।’’

दूसरे दिन के   दो विचार  सत्र शमशेर   के  गद्य   को समर्पित रहे।  इन सत्रों  की अध्यक्षता केंद्रीय हिंदी संस्थान   के   प्रो.  हेमराज  मीणा  और  ‘स्वतंत्र    वार्ता’ के   संपादक डॉ.  राधेश्याम  शुक्ल  ने   की तथा  संयोजन डॉ. करनसिंह ऊटवाल और  डॉ.  शेषुबाबु  ने  किया।  डॉ.  हेमराज  मीणा  ने  अपने  पीएच.डी. शोध कार्य   के  दौरान  तीन वर्ष   शमशेर  के  साथ  रहने  के  मार्मिक  संस्मरण  सुनाए। शमशेर  जी साधारण  चाय के  स्थान पर हल्दी  की चाय खुद  बनाकर  पीते  थे  और  आर्थिक  विपन्नता  का  आलम  यह  था    कि  घिसे  और  फटे  हुए  कुर्ते  को  हाथ  से सिलकर काम चलाना पड़ता   था।

डॉ.  राधेश्याम शुक्ल  ने शमशेर बहादुर सिंह   को हिंदी और  उर्दू   की गंगा  जमुनी  तहज़ीब का कवि मानते हुए  उनकी  काव्यभाषा को  हिंदवी   मानने  पर ज़ोर दिया।  डॉ. शुक्ल ने  कहा कि भारतेंदु, प्रेमचंद और शमशेर  बहादुर  सिंह जैसे  साहित्यकारों  की  भाषा मेलजोल और सामंजस्य  की  भाषा है  जिसे   अपनाकर   देश में  सांप्रदायिक  सद्भाव   को  मजबूत किया जा  सकता  है।   उन्होंने   कहा  कि यह  मिली  जुली काव्यभाषा  संगम  की भाँति   है  जहाँ  भाषारूपी  जल तीर्थ  बन जाता है।

एरणाकुलम (केरल)  से आई  प्रो.  सुनीता मंजनबैल  ने  शमशेर  के डायरी लेखन  पर केंद्रित आलेख   में   यह बताया कि  उन्होंने    अपनी डायरी  में  अपनी चिंताएँ, इच्छाएँ, वैचारिकता  और  सपनों    को  स्वभावगत    भावुकता, संवेदनशीलता और  संकोच   के   साथ   व्यक्त   किया  है।   उदाहरण  देकर उन्होंने    बताया कि  इनमें लेखक के अकेलेपन,   गहरी पीड़ा,   तनाव और  निजी अनुभूतियों  को  अकृत्रिम अभिव्यक्ति  प्राप्त  हुई    है।   डॉ.  सुनीता  ने  यह भी   जानकारी  दी  कि अपनी डायरी  में शमशेर ने हिंदी नॉवल का ऐसा इतिहास  लिखने की ख्वाहिश  भी   अंकित की है  जिसमें  हिंदी  और  उर्दू   दोनों    के उपन्यास  शामिल हों।

इसके पश्चात   डॉ.  मृत्युंजय  सिंह  ने   ‘घनत्व    और    प्रसार का गद्य’  शीर्षक    अपने आलेख   में      यह प्रतिपादित  किया  कि  शमशेर  का  गद्य  अमूर्तन  से  मूर्तन  की  ओर  बढ़नेवाला  गद्य  है  जिसमें  उनका  चिंतन  और अनुचिंतन  समाहित है।   डॉ.  सिंह   ने कहा  कि चाहे  कविता हो,  या कहानी,  या  फिर संस्मरण जैसी अकाल्पनिक  गद्य विधा   ही   हो -   तीनों     में  शमशेर   के व्यक्तित्व की निश्छलता, भावप्रवणता,  अध्ययनशीलता और  सौंदर्य दृष्टि के  वैशिष्ट्य  को  साफ साफ पहचाना जा सकता है।

‘शमशेर की कहानियाँ’  विषयक आलेख  में    डॉ.जी.  नीरजा  ने   खासतौर  से युद्ध पर केंद्रित शमशेर की  कहानी    ‘प्लाट  का मोर्चा’    के   वस्तु  और  शिल्प  का विश्लेषण  किया और   बताया कि  इतने    मर्मस्पर्शी ढंग   से महायुद्ध के   प्रभाव को   चित्रित करनेवाले  वे    अज्ञेय के बाद  अकेले कहानीकार  हैं।     इस कहानी  की भाषा      में  खड़ीबोली  क्षेत्र  का ठेठपन  और खुरदरा अंदाज   पाठक को  आकर्षित  करता  है।

गद्य  संबंधी  इस  सत्र  के  अंत  में डॉ.  बलविंदर  कौर  ने सभी  के  प्रति  धन्यवाद ज्ञापित   किया।

इसी क्रम में     संगोष्ठी के   अंतिम विचार  सत्र में    प्रो. अमर ज्योति  (धारवाड)   ने   ‘शमशेर की आलोचना दृष्टि’  शीर्षक  अपने आलेख  में यह  बताया कि शमशेर  एक आलोचक कवि के  रूप में    अत्यंत  अध्ययनशील  और विचारशील  हैं। इसलिए उनके  आलोचना-गद्य  को पढ़ते  हुए  गालिब,  निराला,  त्रिलोचन,  मुक्तिबोध और  पाब्लो नेरुदा   को  ढूँढ़ा  जा  सकता है।    उन्होंने   यह  भी    कहा कि  संघर्ष और   चुनौतियों से भरे जीवन को कलात्मक प्रयोगशाला   मानने   के   कारण अन्य कवियों   की तुलना  में     शमशेर  की आलोचना  रचनात्मक,  कलात्मक  और सृजनशील है।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय   से आए डॉ.  राजीव  लोचन  नाथ  शुक्ल  ने  ‘शमशेर  की भाषादृष्टि’  पर अपने शोधपत्र  में    कहा कि ‘‘शमशेर भाषा  के  व्यावहारिक  रूप को  अभिव्यक्ति  का माध्यम  बनाते  हैं।  वे   अभिव्यक्ति  में  निकटता,   आत्मीयता,  गंभीरता   और   विस्तार   लाने   के   लिए   सर्वनामों,   संज्ञाओं,   अव्ययों    तथा   अनुवर्तन का रचनात्मक   प्रयोग करते हैं।’’ डॉ. राजीव लोचन ने  आगे   कहा कि शमशेर ‘संवेदना  की भाषा और भाषा की संवेदना’ के  रचनाकार हैं।

इस सत्र के  अंत  में    डॉ.  गोरख  नाथ  तिवारी  ने   आगंतुकों  के  प्रति  कृतज्ञता प्रकट की।

समापन  सत्र में     मौलाना   आजाद राष्ट्रीय   उर्दू     विश्वविद्यालय  के   हिंदी  विभाग  के  अध्यक्ष प्रो.  टी.वी. कट्टीमनी    ने  समाकलन   भाषण  दिया  और   इस आयोजन को  शमशेर के  बहाने  हिंदी-उर्दू   सामंजस्य की नई पहल  बताया।  श्रीवेंकटेश्वर  विश्वविद्यालय,  तिरुपति  के  डॉ. आई.एन.  चंद्रशेखर  रेड्डी   तथा  दक्षिण   भारत   हिंदी प्रचार   सभा  की डॉ.  साहिरा बानू  ने  अपनी टिप्पणियों  में   कार्यक्रम की भूरि   भूरि   प्रशंसा की और  कहा कि शमशेर को  समझने में    इस संगोष्ठी  से बड़ी   सहायता मिली।

कार्यक्रम  के परिकल्पक  प्रो.  दिलीप  सिंह ने  संतोष   जताया कि पूरा   आयोजन योजना   के  अनुरूप  चला और  शमशेर   के  व्यक्तित्व   और  कृतित्व  से संबंधित  कई   गुत्थियाँ खुलीं।  उन्होंने  हर्ष  व्यक्त  किया  कि  सभी   शोध  पत्रों  में वादनिरपेक्ष और  पाठकेंद्रित  आलोचनादृष्टि   देखने  को मिली।

समापन  समारोह   के  मुख्य अतिथि   के  आसन  से संबोधित   करते  हुए  डॉ.  नामवर सिंह  ने बताया, ‘‘पिछले   दिनों दिल्ली  मैं  तथा  अन्य स्थानों   पर शमशेर   पर कई   गोष्ठियाँ हुईं  परंतु उनमें पुनरावृत्ति  ही  अधिक दिखाई दी  तथा  कविता पर ही  अधिक  ज़ोर  रहा।  इसके विपरीत  हैदराबाद  के  इस समारोह  की यह  उपलब्धि रही  कि यहाँ   नई  बातें हुईं;  अलग  अलग  दृष्टि  से बातें  हुईं,  सब विधाओं  की बातें  हुईं  और  एक खास  बात यह है  कि  शमशेर  की  नई  रचनाएँ  उद्धृत  की  गईं।  वक्ताओं  ने  हिंदी  और  उर्दू  दोनों  को  उद्धृत  किया।’’  डॉ.  नामवर सिंह  ने  इस  तुलना  को  आगे  बढ़ाते  हुए  कहा  कि  लोग  आधा  चाँद  लिए  नाच  रहे थे,   यहाँ  पूरा चाँद  देखने को मिला   -  शमशेर  की शमशेरियत का पूरा  चाँद।   उन्होंने   कहा  कि इस समारोह की सारी सामग्री   को पुस्तक रूप में जरूर छापा  जाना चाहिए।  अंत  मे नामवर जी  ने   अपने गुरुवर  डॉ.  हजारी  प्रसाद  द्विवेदी  का स्मरण करते हुए  ऋषि विश्वनिंदक  का  पौराणिक  संदर्भ  सुनाया और  कहा कि ‘इतना    अच्छा   होना भी  अच्छा    नहीं’ तो ऑडिटोरियम  तालियों   और  ठहाकों से गूँज  उठा।

समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए  डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल ने  भी   इस  बात  का  समर्थन  किया  कि  यह संगोष्ठी विषयकेंद्रित  रही   और शमशेर  की रचनात्मक प्रतिभा  के  जो  आयाम पहले नहीं   देखे  गए थे, उन्हें यहाँ भली प्रकार उद्घाटित किया गया। उन्होंने कहा कि ‘‘शमशेर  जैसी बड़ी सर्जनात्मक  प्रतिभाओं  के  अर्थ खोलना  नई  दुनिया    के दर्शन  सरीखा है।   इस आयोजन  से  यह  भी   स्पष्ट  हुआ  है  कि  ''शमशेर   का  काव्य  ही  नहीं,  गद्य भी   कम विस्मय में  डालने  वाला  नहीं है   क्योंकि   वे  भाषिक   संरचनाओं का खेल  खेलनेवाले पहले दर्जे  के  खिलाड़ी हैं।’’

समापन  समारोह का संयोजन  शमशेर की उक्तियों के  माध्यम  से प्रो.  ऋषभदेव शर्मा  ने  इतनी रोचक शैली में   किया कि स्वयं प्रो. नामवर  सिंह ने  उनकी संयोजन  शैली  की मंच से मुक्तकंठ  से प्रशंसा   की।

इस द्विदिवसीय  समारोह में    राष्ट्रीय  संगोष्ठी  के  अतिरिक्त तीन अन्य विशिष्ट कार्यक्रम   भी    संपन्न   हुए। एक तो   यह  कि, डॉ.     नामवर सिंह    ने  डॉ.     टी.वी. कट्टीमनी   द्वारा   संपादित समीक्षाकृति  ‘दक्खिनी  भाषा  और साहित्य’  तथा  हैदराबाद   के   प्रतिष्ठित  क्रांतिकारी  कवि शशि नारायण  ‘स्वाधीन’   की काव्यकृति  ‘भूख,    धान  और चिड़िया’  का लोकार्पण किया।   दूसरा  यह  कि, पहले दिन की साँझ एकपात्री नाटक  ‘मैं    राही  मासूम’  का मंचन किया गया जिसके अभिनेता  विनय  वर्मा का अभिनंदन  करते हुए  डॉ. नामवर  सिंह  इतने  गद्गद  हो   गए कि उनका गला  भर  आया  और आँखें  नम हो  आईं  जब उन्होंने  कहा कि मैं तो हैदराबाद   में   शमशेर  से मिलने आया था   पर मुझे  मालूम   न था   कि आप मुझे यहाँ   मेरे    भाई डॉ.  राही  मासूम  रज़ा  से मिलवा देंगे। और    तीसरा कि, संगोष्ठी के   समापन  सत्र के  उपरांत   ‘अलिफ’   के  तत्वावधान  में    प्रो.     खालिद  सईद  ने   ‘बहुभाषा  कवि  सम्मेलन’ आयोजित  किया  जिसमें  हिंदी,  उर्दू  और  तेलुगु  के  कवियों  ने  डॉ.  नामवर  सिंह,  डॉ.  गंगा  प्रसाद  विमल,  डॉ. अब्दुस्सत्तार  दलवी   और डॉ.  हीरालाल बाछोतिया  के सान्निध्य  में   काव्यपाठ किया।

बेशक  हिंदी  और   उर्दू    की दो   अग्रणी  संस्थाओं  के  संयुक्त   तत्वावधान  में आयोजित यह  समारोह  लंबे समय तक प्रतिभागियों  की यादों  में  गूँजता  रहेग!

(रिपोर्टर : संगोष्ठी स्थल से  डॉ. मृत्युंजय  सिंह, डॉ जी. नीरजा, डॉ.बलविंदर कौर एवं  डॉ.गोरख नाथ तिवारी)
[चित्र  : डॉ. जी. नीरजा, डॉ. बी. बालाजी एवं राधाकृष्ण मिरियाला]

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बहुत कुछ जानने को मिला महान रचनाकार के बारे में।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बहुत विस्तृत रिपोर्ट जिसमें नामवरजी ने एक और मुद्दा उछाला- ‘ उन्होंने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया कि यह वर्ष मजाज़ का भी शताब्दी वर्ष है,परंतु साहित्य जगत का इस ओर कोई ध्यान नहीं है जबकि अपने समकालीन फैज अहमद फैज जैसे शायरों की तुलना में वे कहीं बड़े शायर हैं।’
सही कहा; हम भारतीय शायर को छोड़ विदेशी साहित्य्कार की जन्म शती मना रहे हैं, तो इसका क्या औचित्य है???? क्या हमारे साहित्यकार भी राजनीतिक चापलूसी के दलदल में फंस गए हैं???