हिंदी भाषा ने अपनी हजार साल से ज्यादा की यात्रा में अभी तक अनेक पड़ाव पार किए हैं, उतार-चढ़ाव देखे हैं। उसकी इस विकासयात्रा की एक बड़ी विशेषता है कि वह सदा जन-मन की ओर प्रवाहित होती रही है। यदि यह कहा जाए कि हिंदी की ताकत उसके निरंतर जनभाषा होने में है, राजभाषा होने में नहीं, तो शायद कोई अतिशयोक्ति न होगी। अपभ्रंश के अनेक क्षेत्रीय रूपों से जब दूसरी आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ रूपाकार ग्रहण कर रही थीं, उसी समय हिंदी ने भी अपने प्रारंभिक रूप की आहट दी। यह आहट सुनाई पड़ी अलग-अलग बोलियों और उपभाषाओं के रूप में। एक ओर इसका यह राजस्थानी रूप था - कहिरे भरहेसर कुण कहीइ। मइ सिउँ रणि सुरि असुरि न रहीइ॥ चक्रधरइ चक्रवर्ती विचार। तउ अह्म पुरि कुंभार अपार॥ - भरतेश्वर बाहुबली रास (भरतेश्वर की क्या कहते हो, मेरे सामने तो युद्ध में सुर-असुर भी नहीं ठहरते। यदि उस चक्रवर्ती को चक्रधारण का ही अधिक विचार हो गया है तो हमारे यहाँ तो एक नहीं, कई चक्रधारी कुम्हार हैं।) यह थी 1184 ई. की हिंदी। पृथ्वीराज चौहान के समकालीन चंदबरदायी की कविता में1300-1400 ई. में इसका अलग पड़ाव दिखाई देता है - मति घट्टी सामंत मरण हउ मोहि दिखावहु। जम चीठी विणु कदन होइ जउ तुमउ बतावहु॥ - पृथ्वीराज रासो (हे सामंत! क्या तुम्हारी मति घट गई है जो मुझे इस तरह मृत्यु का हौवा दिखा रहे हो। क्या यम के परवाने के बिना कभी मौत आ सकती है - तुम्हीं बताओ।) दूसरी ओर इन दोनों के बीच अमीर खुसरो की रचनाओं में आरंभिक खड़ीबोली और ब्रजभाषा के रूप देखे जा सकते हैं - "गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपणे, रैन भई चहुँ देस॥" इसी प्रकार हिंदी का एक आरंभिक रूप यदि सरहपाद जैसे सिद्ध और गुरु गोरखनाथ जैसे नाथपंथी कवियों की भाषा में प्रकट हो रहा था, जिसका पौरुषपूर्ण संस्करण आगे चलकर कबीरदास जैसे कवि की भाषा में मुखर होकर संध्याभाषा, सधुक्कड़ी और खिचड़ी कहलाया तो एक अन्य रूप विद्यापति की पदावली में व्यक्त हो रहा था - "नंदक नंदन कदंबक तरुतर धिरे-धिरे मुरली बजाव।" (नंद का पुत्र कदंब के वृक्ष तले धीरे-धीरे मुरली बजा रहा है।) यह मुरली मैथिली में बजी, तो ब्रजी में गूँज उठी। इस तथ्य से हम सब भलीभांति परिचित हैं। राजस्थान से लेकर मिथिला तक, या कहें कि गुजरात से लगती सीमा से लेकर बंगाल से लगती सीमा तक व्याप्त विविध बोलियों के रूप में हिंदी भाषा ने अपनी आरंभिक उपस्थिति दर्ज कराई। इसके बाद का अर्थात कबीरदास के समय से लेकर आज तक की हिंदी भाषा की यात्रा का पूरा इतिहास तो हमें मालूम है ही। लेकिन इस इतिहास को बार-बार दुहराने और समझने की आज के समय में सबसे ज्यादा जरूरत है। आज जब हिंदी ने अपने आपको साहित्य और संपर्क के परंपरागत प्रयोजन क्षेत्रों के साथ-साथ राजकाज, प्रशासन, ज्ञान-विज्ञान, आधुनिक वाणिज्य-व्यवसाय तथा तकनीकी के लिए उपयुक्त भाषा के रूप में सब प्रकार सक्षम सिद्ध कर दिया है (भले ही अपनी राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी या गुलाम मानसिकता की हीनभावना के कारण हम इस सत्य को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने में हिचकते हों) तथा बाजार में और कंप्यूटर पर व्यापक प्रयोग की अपनी संभावनाओं को प्रकट कर दिया है, दुनिया की सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली शीर्ष भाषाओं में शामिल होकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने की दावेदारी प्रस्तुत कर चुकी है। ऐस समय में हिंदी के इस बहुक्षेत्रीय और बहुबोलीय आधार की स्मृति बनाए रखना बेहद जरूरी है क्योंकि हिंदी केवल उतनी सी नहीं है, जितनी सी वह राजभाषा हिंदी या खड़ी बोली हिंदी या मानक हिंदी के रूप में दिखाई देती है। इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि हिंदी का प्रयोग देश भर में किया जाता है या जब इस बात पर गर्व करते हैं कि हिंदी बोलने/जानने वाले विश्वभर में हैं, तो इसका अर्थ है कि हिंदी का प्रयोग करने वाला भाषा-समाज अनेक भाषा-कोडों का प्रयोग करता है। ये भाषा-कोड एक ओर तो उसकी तमाम बोलियों से आए हैं, दूसरी ओर इनका विकास हिंदी की इन बोलियों के विविध भाषाओं के साथ संपर्क से हुआ है। हाँ, जहाँ यह संपर्क अत्यंत घनिष्ठ है, वहाँ हिंदी के विविध रूपों का संप्रेषण घनत्व भी अधिक है तथा जहाँ संपर्क में उतनी घनिष्ठता नहीं है, वहाँ संप्रेषण में भी उतना घनत्व नहीं है। इन स्थितियों में ही हिंदी के बंबइया, हैदराबादी, मद्रासी आदि संस्करण विकसित हुए हैं। इसी प्रकार भारतवंशियों द्वारा आबाद किए गए देशों में भी हिंदी का अपना-अपना रूप है। अंग्रेजी मिश्रण से विकसित संस्करण को भी नकारा नहीं जा सकता। हमें आज हिंदी के विकास की अनेक दिशाओं के रूप में इन सब संस्करणों को स्वीकृत और सम्मानित करना होगा। तभी जनभाषा को विश्वभाषा की प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। हमें इस प्रवृत्ति के बारे में गंभीरता से सोचना होगा कि हिंदी परिवार की बोलियाँ/भाषाएँ मूलत: परस्पर नाभिनालबद्ध हैं और किसी तात्कालिक लाभ के लिए उनकी यह परस्पर एकता खंडित नहीं की जानी चाहिए। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसी संस्थाओं से लेकर सरकारी योजनाओं तक के नियामकों को इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि इन समस्त बोलियों/भाषाओं से संबलित हिंदी भाषा समाज का विस्तार भौगोलिक और सांख्यिकीय दृष्टि से अत्यंत व्यापक है। अत: जब अन्य भारतीय भाषाओं के साथ हिंदी को रखा जाए तो उसके इस विस्तार के अनुरूप विविध योजनाओं में उचित अनुपात में भागीदारी प्रदान की जाए। लोकतंत्र के इस साधारण से सिद्धांत की उपेक्षा का अर्थ है - हिंदी भाषा के व्यापक बोलीय आधार की उपेक्षा। इससे असंतोष पैदा होता है और अलग-अलग बोलियों के प्रयोक्ता समाज में तात्कालिक लाभों के लिए अलग से सूचीबद्ध किए जाने का मोह जागता है। यदि इस प्रवृत्ति पर रोक न लगी, तो सब बोलियाँ खिसक जाएँगी और हिंदी के समक्ष खुद अपनी पहचान का संकट खड़ा हो सकता है। हिंदी की सारी बोलियाँ मिलकर ही हिंदी भाषा रूपी रथ की संज्ञा प्राप्त करती हैं। यदि रथ के घोड़े, पहिए और आसन आदि को एक-एक कर अलग करते जाएँ तो रथ कहाँ बचेगा! अत: हिंदी की बोलियों की एकजुटता में ही हिंदी का अस्तित्व है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हमें हिंदी के रथ को बिखरने से बचाना होगा। यहाँ हम यह भी उल्लेख करना जरूरी समझते हैं कि हिंदी जिस प्रकार बोलीगत विभेदों से भरी-पूरी संपूर्ण भाषा है, उसी प्रकार वह शैलीगत भेदों से भी परिपूरित है। हजार साल से ज्यादा की अपनी विकास यात्रा में हिंदी ने विभिन्न भाषाओं के संपर्क और ऐतिहासिक सामाजिक दबावों के परिणामस्वरूप अपने इन शैलीगत भेदों को निर्मित किया है। ध्यान में रखना होगा कि जिस प्रकार बोलीगत भेद एक दूसरे के सहयोगी हैं, उसी प्रकार हिंदी के शैलीगत भेद भी एक दूसरे के पूरक हैं। यहाँ हम खासकर दक्खिनी हिंदी और उर्दू के प्रदेय की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। इन दोनों शैलियों के बिना हिंदी का इतिहास अधूरा है। उसे भी हिंदी साहित्य के अंग के रूप में ग्रहण करना अपनी विरासत को पहचानने और उससे जुड़ने के लिए आवश्यक है। हिंदी जैसी व्यापक और अक्षेत्रीय--सार्वदेशिक और अंतरराष्ट्रीय--भाषा के लिए यह सदा स्मरण रखना आवश्यक है कि भाषा 'बहता नीर' है। इस बहते नीर की घाट-घाट पर अलग-अलग रंगत है। इस पर तथाकथित शुद्धतावाद नहीं थोपा जाना चाहिए। कहने का अभिप्राय है कि हमें जीवन के समस्त विविध प्रयोजनों और भाषा प्रयोक्ता समाज के वैविध्यों के अनुरूप जहाँ एक ओर उच्च हिंदी पर गर्व है, वहीं उसके हिंदुस्तानी/गंगाजमुनी रूप पर भी नाज है तथा उर्दू रूप पर भी फ़ख्र है। इतना ही नहीं, अंग्रेजी के मिश्रण से बने गए भाषा रूप से भी हमें उतना ही प्रेम होना चाहिए जितना दूसरे भाषा रूपों से। हम किसी भाषा रूप को हिकारत की नज़र से देखेंगे तो यह उचित नहीं होगा। मीडिया के विविध प्रकार के प्रकाशनों और प्रसारणों के कारण जो इन विविध भाषा रूपों का विकास हो रहा है, वह भी प्रशंसनीय है। 14 सितंबर को जब-जब हम हिंदी दिवस मनाएँ तो भारत के संविधान के अनुच्छेद-343से अनुच्छेद-351 तथा अनुसूची-8 के प्रावधानों का तो खयाल रखें ही, यह भी खयाल रखें कि राजभाषा की यह सारी व्यवस्था भारत की जातीय अस्मिता और सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने तथा विकसित करने के उद्देश्य से की गई है। इसे केवल सरकारी कामकाज की भाषा तक सीमित रखना उचित नहीं होगा। बल्कि सच तो यह है कि अनुच्छेद-351 के निर्देश के अनुरूप हिंदी का सामासिक स्वरूप राजभाषा की अपेक्षा व्यापक जनसंपर्क, साहित्य, मीडिया, वाणिज्य-व्यवसाय, ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी की भाषा के रूप में हिंदी के व्यापक व्यवहार से ही संभव है। यदि हम - हमारी सरकारें - सचमुच हिंदी को विश्वभाषा के पद पर आसीन देखना चाहती हैं तो उसका जो संवैधानिक अधिकार लंबे अरसे से लंबिंत/स्थगित पड़ा है, उसे तुरंत बहाल किया जाए। सभी भारतीय भाषाओं को इससे बल मिलेगा तथा परस्पर अनुवाद द्वारा उनके माध्यम से हिंदी भी बल प्राप्त करेगी। अनुवाद ही वह माध्यम है जो हिंदी को समूचे भूमंडलीय ज्ञान की खिड़की बना सकता है, अत: इस दिशा में भी ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। मौलिक लेखन और अनुवाद दोनों मिलकर हिंदी के इस सामासिक और वैश्विक स्वरूप का पुनर्गठन करेंगे - इसी शुभकामना के साथ हम सर्वभाषाभाषी समाजों को हिंदी के हिंडोले में झूलने के लिए आमंत्रित करते हैं, जैसाकि किसी कवि का सहज आह्वान है :- बिहरो 'बिहारी' की बिहार वाटिका में चाहे 'सूर' की कुटी में अड़ आसन जमाइए। 'केशव' के कुंज में किलोल केलि कीजिए या 'तुलसी' के मानस में डुबकी लगाइए॥ 'देव' की दरी में दुरी दिव्यता निहारिए या 'भूषण' की सेना के सिपाही बन जाइए। अन्यभाषाभाषियों मिलेगा मनमाना सुख हिंदी के हिंडोले में ज़रा तो बैठ जाइए॥
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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009
हिंदी के हिंडोले में जरा तो बैठ जाइए
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