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मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009

हिंदी, प्रौद्योगिकी, बाजार और अनुवाद





बहुभाषिकता भारतीय समाज का यथार्थ है तथा भूमंडलीकृत विश्व में संचार और संप्रेषण के लिए बहुभाषिकता अत्यंत सबल माध्यम है। बहुभाषिक समाजों के बीच संप्रेषण के लिए अनुवाद सदा से प्रयुक्त होता आया है। आज की दुनिया में इसकी प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के डॉ.रायवरपु श्री सर्राजु (1958) ने इससे जुड़े विविध पक्षों पर 'आज की हिंदी और अनुवाद की समस्याएँ' (2007) पुस्तक में पर्याप्त गहन सैद्धांतिक और व्यावहारिक चर्चा की है। विषय का प्रतिपादन शोध पत्रों की शैली में उद्धरणों और उदाहरणों के साथ किया गया है।

लेखक ने वर्तमान में हिंदी भाषा प्रयोग के यथार्थ के तीन आयाम माने हैं - 1. बहुभाषिक भारतीय समाज में हिंदी का विकास हो रहा है।2. हिंदी भाषाई समाज में सिर्फ़ हिंदी भाषी लोग और अंग्रेज़ी के साथ हिंदी भाषा के प्रयोग करने वाले लोगों के सामाजिक स्तर अलग अलग हैं।3. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ समान रूप से विदेशी स्रोतों और भाषाओं से प्रभावित हो रही हैं।
इस संदर्भ में उन्होंने ज्ञान के अंतरण और भाषा प्रयोग के नए परिप्रेक्ष्य में भाषा मिश्रण और भाषा परिवर्तन के अनुवाद पर पड़ने वाले प्रभाव की भी चर्चा की है और माना है कि अनुवाद अब संप्रेषण का एक नया माध्यम बन रहा है। निस्संदेह अनुवाद सदा संप्रेषण का माध्यम रहा है लेकिन आज भिन्न -भिन्न सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले समाजों के बीच द्रुतगति से संचार के लिए उसका महत्व पहले से अधिक दिखाई देने लगा है।

लेखक ने पहले तो आज की हिंदी के संदर्भ में अनुवाद की समस्याओं को उठाया है और फिर अलग-अलग क्षेत्र के तकनीकी प्रकृति के पाठों के अनुवाद की समस्याओं पर प्रकाश डाला है। यह इस पुस्तक की विशेषता मानी जाएगी कि इसमें साहित्यिक पाठों की अपेक्षा तकनीकी पाठ पर अधिक बल दिया गया है। प्रौद्योगिकी की तीव्रगति के युग में हिंदी में ऐसी पुस्तकों की सचमुच आवश्यकता है।

यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि 'आज की हिंदी' पद का अर्थ क्या है ? लेखक ने यह माना है कि आज की मानक हिंदी वास्तव में आजादी के बाद के भारत में विकसित भारतीय मध्यवर्ग और शिक्षित वर्ग की भाषा है जो किसी एक ऐसी जाति या जातीय समूह तक सीमित नहीं है जो किसी एक परंपरागत संस्कृति का संवहन करती हो बल्कि हिंदी के प्रयोक्ता समाज में भारतीय संस्कृति के कई सांस्कृतिक उपस्तर दिखाई देते हैं। लेखक ने राजस्थान की संस्कृति और बिहार की संस्कृति को ऐसे ही एक दूसरे से भिन्न उपस्तर माना है जो विवादास्पद है। इस तरह के स्तरीकरण का ही परिणाम है कि भाषा और बोली के नाम पर भारतभर में आजादी के बाद से ही तलवारें खिची हुई हैं। इस तथ्य का आभास भी लेखक को है इसलिए वह यह स्पष्ट करने में नहीं चूकता कि इस भाषा के प्रयोक्ता मध्य वर्गीय समाज के चरित्र में प्रादेशिक, सांस्कृतिक, बोलीगत भिन्नताओं के बावजूद एक तरह की राष्ट्रीय एकरूपता दिखाई देती है जो खड़ीबोली की मानक हिंदी के रूप में प्रतिष्ठा का आधार है। इसी के साथ नए परिप्रेक्ष्य में हिंदी की विभिन्न प्रयोजन मूलक प्रयुक्तियों के विकास के लिए गठित शब्दावली की एक बड़ी सीमा की ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि इससे हिंदी का चरित्र अनुवादपरक ही रह गया। इसमें संदेह नहीं कि नए संदर्भों में संस्कृत की शब्दावली को आधुनिक अर्थों से मंडित किया गया और काफी हद तक अंग्रेज़ी अभिव्यक्तियों के शाब्दिक अनुवाद से गढी गई भाषा हिंदी के मुहावरे को आत्मसात करने में पीछे रह गई। यहाँ इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि हिंदी के चरित्र को सामासिक संस्कृति का प्रतिरूप बनाने के चक्कर में जहाँ सरकारी भाषा आम भाषा से दूर हो गई, वहीं पत्र-पत्रिकाओं, फिल्म, रेडियो और टेलीविज़न ने लक्ष्य पाठक - श्रोता समुदाय के स्वरूप को ध्यान में रखकर विभिन्न विषयों की जिस भाषा का विकास किया है वह सरकारी भाषा की अपेक्षा सहज और संप्रेषणीय है। इसमें संदेह नहीं कि इन दोनों ही धाराओं ने अनुवाद का सहारा लिया। लेकिन जहॉं एक ने पाठधर्मी अनुवाद की तकनीक अपनाई वहीं दूसरे ने प्रभावधर्मी।

पुस्तक में इस तथ्य को उचित ही रेखांकित किया गया है कि हाल के वषों में हिंदी का शब्द-भंडार बहुत तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि भूमंडलीकरण ने और बाज़ार की व्यवस्था ने दुनिया भर में अपने पैर फैलाए हैं, और भारतीय समाज भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह गया है। इस व्यवस्था की ज़रूरतों के अनुसार भारत में ज्ञान-आधारित समाज का विकास हो रहा है, और इस विकास के अनुरूप हिंदी में भी नए-नए प्रयोजनमूलक रूपों (प्रयुक्तियों) का विकास हो रहा है। इस आधार पर आज हिंदी भाषा समाज के कोड मैट्रिक्स में स्थानीय बोली, क्षेत्रीय बोली, मानक हिंदी और अंग्रेज़ी शामिल मानी जा सकती है।

बोलियों, भारतीय भाषाओं तथा देशी और विदेशी भाषाओं के बीच संपर्क भाषा, शिक्षा के माध्यम और कार्यालय की भाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा का कार्य अभी तक अधूरा है। क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं और राजनैतिक दुराग्रहों ने हिंदी का सचमुच बहुत बड़ा अहित किया है तथापि केंद्र से परिधि की ओर सहज भाव से फैलने की अपनी प्रवृत्ति और ग्रहणशीलता की अपनी शक्ति के कारण हिंदी सब तरह के विरोधों और षड्यंत्रों को धता बताती हुई आधुनिक प्रौद्योगिकी और बाज़ार में अपनी क्षमता को प्रमाणित करने में लगी हुई है। इसमें अनुवाद ने बड़ी भूमिका निभाई है और हिंदी में अनुवाद की जो नई पद्धतियाँ सामने आ रही हैं उनमें विषय के वास्तविक संप्रेषण पर जोर होने के कारण इसे बहुत बल मिला है। इधर कंप्यूटर के प्रयोग से अनुवाद के जो नए आयाम सामने आए हैं वे यह आश्वासन देने में समर्थ हैं कि आने वाले समय में हमारा डाटा बेस किसी भी भाषा से पीछे नहीं रहेगा।

भारत की व्यापक बहुभाषिकता और सांस्कृतिक विरासत को ध्यान में रखते हुए हिंदी की वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक शब्दावली में जहाँ एक ओर अंतरराष्ट्रीय शब्दावली (अंग्रेज़ी) को व्यापक स्वीकृति प्रदान की गई है, वहीं दूसरी ओर अखिल भारतीय शब्दावली तथा क्षेत्रीय शब्दावली की भी उपेक्षा नहीं की गई है। लक्ष्य पाठक - श्रोता समुदाय की प्रकृति और आवश्यकता के अनुरूप वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक विषय के पाठ को पारिभाषिक अथवा सहज बोधगम्य बनाने पर बल दिया जाना जरूरी है। इसका अर्थ है कि जहाँ तकनीकी भाषा की आवश्यकता न हो वहाँ आम फहम शब्दावली से काम चलाया जाए तो वैज्ञानिक पाठ को जटिल होने से बचाया जा सकता है। अनेक प्रकार के ज्ञान विज्ञान संबंधी चैनलों के कार्यक्रमों में प्रयुक्त हिंदी इसका सुंदर उदाहरण है जहाँ जटिल और क्लिष्ट पारिभाषिकों के बिना सारी बात सुबोध शैली में संप्रेषित हो जाती है। इसके बावजूद लेखक की इस धारणा में दम है कि प्रौद्योगिकी की भाषा अपेक्षाकृत क्रमबद्ध और घनीभूत होती है तथा वस्तुनिष्ठता और सुस्पष्टता उसकी मुख्य विशेषता होती है। इसीलिए यह भी ध्यान में रखना जरूरी होता है कि किन शब्दों का अनुवाद नहीं हो सकता - ऐसे शब्दों को प्राय: ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया जाता है।

दूरसंचार की हिंदी की चर्चा करते हुए टेलिफोन निर्देशिका से पुस्तक में कुछ ऐसे अंशों को उद्धृत किया गया है जो अर्थग्रहण और संप्रेषण ही नहीं भाषा प्रयोग के स्तर पर भी असहज और कृत्रिम लगते हैं। ऐसे अनुवादों ने ही अनुवादकों को बदनाम किया है। लेखक का यह सुझाव ठीक प्रतीत होता है कि अनुवाद को सरल बनाने के लिए कभी-कभी कठिन तकनीकी शब्दावली के स्थान पर प्रचलित सामान्य शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है। साथ ही यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि अनुवाद का अर्थ मक्षिका स्थाने मक्षिका न्याय नहीं है बल्कि प्रयोजनपरक भाषा रूपों की दृष्टि से मूल पाठ और अनूदित पाठ की अर्थगत या संदेशगत समतुल्यता प्राप्त करना अनुवादक का लक्ष्य होना चाहिए। बात साफ है कि समतुल्यता की कसौटी पाठ नहीं, प्रयोजन है।

प्रौद्योगिकी से संबंधित सामग्री का अनुवाद करते समय जहाँ उस विषय क्षेत्र की प्रयुक्ति को ध्यान में रखना जरूरी है, वहीं दर्शन जैसे विषयों का अनुवाद प्रोक्ति के स्तर पर किया जाना बेहतर माना जाता है। इस तरह के प्रोक्तिस्तरीय अनुवाद में स्रोत भाषा के वक्ता के प्रकरण युक्त पूर्ण मंतव्य या विचारों का अनुवाद लक्ष्य भाषा में होता है। ऐसी स्थिति में अर्थ ग्रहण के संदर्भ में अनुवादक की सार्मथ्य महत्वपूर्ण हो जाती है। पाठ में निहित संस्कृतिगत अर्थ को समझे बिना शब्दानुवाद करने के हास्यास्पद उदाहरणों में उपनिषदों के मैक्समूलर कृत अंग्रेज़ी अनुवाद की चर्चा की जा सकती है। भला परमार्थ, अनित्य और वैश्वानर के सटीक अंग्रेज़ी पर्याय ढूँढ़ना कहीं संभव है क्या?

लेखक ने आशु अनुवाद की समस्याओं पर भी विस्तृत चर्चा की है क्योंकि आधुनिक राजनैतिक और वाणिज्यिक विश्व में आशु अनुवादकों की माँग बढ़ती जा रही है। यहाँ भी भावानुवाद और सारानुवाद की तकनीक अपनाने पर ही जोर दिया गया है। अनुवादकों के लिए शब्दाकोश निर्माण की आवश्यकता पर प्रकाश डालने के साथ-साथ पुस्तक में कंप्यूटर की सहायता से शब्दानुक्रमणी बनाने की पद्धति को भी स्पष्ट किया गया है।

खास बात यह उभर कर आती है कि तकनीकी और प्रौद्योगिकी विषयों के अनुवाद का शब्द प्रति-शब्द पाठधर्मी होना आवश्यक नहीं है, बल्कि प्रभाव और प्रयोजन को ध्यान में रखा जाना अधिक जरूरी है। इसके लिए अनुवादुक को दो भाषाओं का ज्ञान होना मात्र काफी नहीं है बल्कि उसे संबंधित विषय क्षेत्र की मूलभूत अवधारणाओं की भी जानकारी होनी चाहिए। अनुवाद मूल्यांकन की चर्चा में भी अनुवाद के इसी प्रयोजन परक स्वरूप पर बल दिया गया है।

आशा है, इस पुस्तक को अनुवाद विमर्श में रुचि रखने वाले पाठकों और अनुवादकों के बीच पर्याप्त स्नेह और सम्मान प्राप्त होगा।
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*आज की हिंदी और अनुवाद की समस्याएँ/डॉ. रायवरपु श्री सर्राजु/मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद/2007/पृ.150/रु. 200.00

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