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मंगलवार, 25 अगस्त 2009

‘‘शोध की दिशाएँ’’ विषयक एकदिवसीय संगोष्ठी संपन्न



''शोध की दिशाएँ'' विषयक एकदिवसीय संगोष्ठी संपन्न


हैदराबाद, 24अगस्त, 2009|


उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के खैरताबाद स्थित परिसर में एम.फिल. पाठ्यक्रम के नए सत्र के उद्घाटन के अवसर पर ''शोध की दिशाएँ'' विषय पर एकदिवसीय संगोष्ठी संस्थान के आचार्य डॉ. ऋषभदेव शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुई। विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ. शर्मा ने कहा कि संस्थान में अछूते विषयों पर अनुसंधान की परंपरा रही है और संस्थान में संपन्न सौंदर्यशास्त्रीय, शैलीवैज्ञानिक, राजभाषा संबंधी, तुलनात्मक अध्ययन, अनुवाद समीक्षा और जनसंचार माध्यम संबंधी शोध कार्यों के वैविध्य का उल्लेख किया।


आर्ट्स कॉलेज, उस्मानिया विश्वविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने ''हिंदी साहित्य विषयक शोध'' की संभावनाओं पर प्रकाश डालते हुए कहा कि कविता और कथासाहित्य के अतिरिक्त कथेतर विधाओं पर भी शोध की विपुल संभावनाएँ हैं। उन्होंने काव्यशास्त्रीय और सामाजिक दृष्टियों के अलावा भाषिक दृष्टि से भी साहित्यिक पाठों के विश्लेषण की आवश्यकता बताई।


गैरयूनिस यूनिवर्सिटी, लीबिया के अंग्रेज़ी विभाग के आचार्य डॉ. गोपाल शर्मा ने ''तुलनात्मक शोध'' की दिशाओं पर चर्चा करते हुए कहा कि साहित्य और भाषाविज्ञान दोनों क्षेत्रों में तुलनात्मक अध्ययन संभव है परंतु आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी का शोधार्थी केवल पारंपरिक आलोचनादृष्टियों से न बंधा रहे बल्कि ठेठ समसामयिक विमर्शों की भी उसे अद्यतन जानकारी होनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने शोधार्थी और शोधनिर्देशक दोनों ही के लिए विपुल स्वाध्याय को आवश्यक बताया।


अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय (इफ्लू) के रूसी विभाग के आचार्य डॉ. जे.पी. डिमरी ने ''भाषाविज्ञान विषयक शोध'' की दिशाएँ उद्घाटित करते हुए कहा कि सैद्धांतिक भाषाविज्ञान और अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान दोनों क्षेत्रों में अभी अनेकविध शोध संभव है। उन्होंने कहा कि भाषा जीवंत है अतः इसके प्रवाह में भिन्न-भिन्न प्रकार के परिवर्तन घटित होते हैं , यों हिंदी के संदर्भ में लिंग, ध्वनि, कारक, परसर्ग आदि से संबंधित ऐसे परिवर्तनों का नए-नए सिद्धांतों के आधार पर विवेचन वांछित है। इसके अतिरिक्त उन्होंने शैलीविज्ञान, अनुवाद प्रक्रिया, अनुवाद समीक्षा, कोश निर्माण और त्रुटि विश्लेषण जैसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों की ओर भी शोधार्थियों का ध्यान आकर्षित किया।


'स्वतंत्र वार्ता' के संपादक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने ''हिंदी पत्रकारिता / जनसंचार विषयक शोध'' की दिशाओं की व्याख्या करते हुए पत्रकारिता और समकालीनता के संबंध को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि हिंदी भाषा की सम्प्रेषणीयता और ज्ञान-विज्ञान के विविध विषयों को अभिव्यक्त करने की क्षमता को जनसंचार विषयक शोध के माध्यम से उजागर किए जाने की आवश्यकता है। डॉ. शुक्ल ने इस बात पर बल दिया कि शोध का कार्य उपाधि प्राप्त होने से रुकना नहीं चाहिए, बल्कि शोधार्थी को अपनी शोधदृष्टि का विस्तार करना चाहिए क्योंकि शोध की प्रक्रिया निरंतर चलनेवाली प्रक्रिया है।


साथ ही डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र की मासिक पत्रिका 'स्रवंति' के स्वतंत्रता दिवस अंक का लोकार्पण भी किया।


आरंभ में अतिथियों ने सरस्वतीदीप प्रज्वलित करके संगोष्ठी का उद्घाटन किया। सुशीला ने मंगलाचरण किया। संस्थान के प्राध्यापकों डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, डॉ. बलविंदर कौर और डॉ. जी. नीरजा ने अतिथियों का स्वागत किया। इस अवसर पर संस्थान के सभी शोधनिर्देशकों को स्मृतिचिह्न द्वारा सम्मानित भी किया गया। हेमंता बिष्ट, सुचित्रा, हेमलता, फूलमती गिरि , एस. वंदना, प्रतिभा, सुशीला, स्वाति सुलभ, मोनिका देवी, निधि कुमारी, आशा, सिसना सी.एस., चंदन कुमारी, शांताकुमारी, जयप्रदा, अर्पणा साहू, जे. श्रीनिवास राव, गायकवाड भगवान, रणजा नायक, जे.जे. प्रसन्न सिंह, पी. श्रीलेखा, चंद्रभूषण, अजय कुमार, नम्मि अप्पलनायुडु, अर्पणा दीप्ति, अंजली मेहता तथा एन पवित्रा आदि छात्रों और शोधार्थियों ने चर्चा-परिचर्चा में भागीदारी निभाई। संगोष्ठी का संचालन रीडर डॉ. साहिराबानू बी. बोरगल ने किया। एम.फिल. शोधार्थी निधि कुमारी ने धन्यवाद ज्ञापित किया।




4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

रिपोर्टिंग अच्छी लगाई है।
इस सफल गोष्ठी के लिए बधाई!

ऋषभ उवाच ने कहा…

प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने निम्नवत ईमेल भेजा है -


''आदरणीय ऋषभ देव जी,

यह कितना सुखद संयोग है कि आपने आज की गोष्ठी की सारी तस्वीरें तत्काल नेट पर मुहैया कर दीं . कमाल के हैं आप . बहुत सुन्दर तस्वीरें हैं .

बधाई आपको, आज के आयोजन के लिए . गोष्ठी बहुत ही सार्थक रही . छात्रो के लिए तो बहुत ही उपयोगी रही, ऐसा मेरा मानना है .आप भी मुझसे सहमत होंगे.मुझे बहुत सन्तुष्टि हुई . शोध के स्तर के प्रति लोगों में प्रतिबद्धता को पैदा करना भी हमारा ही काम है . विशेषकर जितने भी प्राध्यापक्गण हैं उन लोगों में यह संकेत जाने चाहिए कि शोध निर्देशन का कार्य बहुत ही श्रमश्राध्य है . उसे गम्भीरता से लेना होगा . नए शोधार्थियों के लिए आज की चर्चा शोध योग्य मानसिकता के निर्माण में सहय्तोगी होगी ऐसा मेरा विश्वास है .


आपका,
एम वेंकटेश्वर

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

प्रो. वेंकटेश्वर, प्रो. ऋषभदेव शर्मा,प्रो.डिमरी, प्रो. गोपाल शर्मा एवं ऐसे कार्यक्रमों को चार-चांद लगाने वाले सम्पादक डॊ. राधेश्याम शुक्ल जैसे दिग्गज बैठे हो, उस आयोजन के सफ़ल होने में संदेह नहीं रह जाता। सोने पर सुहागा यह कि कार्यक्रम का आपका आदि से अंत तक का सुचारू मार्गदर्शन है ही॥

ऋषभ उवाच ने कहा…

प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने एक और ईमेल निम्नवत भेजा है


> ऋशभदेव जी,
धन्यवाद.
आपके आयोजन की जीवन्तता सदैव उत्साहवर्ध ही रही है . इसमें कोई सन्देह नहीं . फ़िर तो उस दिन का कार्यक्रम बहुत ही सार्थक और स्तरीय रहा . विशेष रूप से सभी मित्रों के वक्तव्य एक से बढकर एक थे . कभी कभी ऐसा होता है कि सभी वक्ता बहुत अच्छा बोलते हैं .उस दिन भी ऐसा ही हुआ था .विषय केन्द्रित वक्तव्य बहुत कम होते हैं , विषय से थोडा बहुत भकटते ही हैं लेकिन उस दिन वास्तव में सभी ने अपना वक्तव्य और मंतव्य सीधे विषय से जोड कर रखा था . अनावश्यक औपचारिकताओं से मुक्त विशुद्ध शैक्षिक व्याख्यान
ऐसे ही होने चाहिए .

आपको बधाई .


> एम वेंकटेश्वर