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बुधवार, 5 अगस्त 2009

वेमना शतकम् का हिंदी पद्यानुवाद*


वरिष्ठ हिंदीसेवी डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा (1918) नब्बे वर्ष की आयु में भी यथाशक्ति हिंदी भाषा और साहित्य की सेवा में सन्नद्ध हैं। तेलुगु के सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय शतक 'वेमना शतकम्' का हिंदी पद्यानुवाद हिंदी साहित्य को उनकी नवीनतम भेंट है।

स्मरणीय है कि विविध भारतीय भाषाओं के साहित्य में विषय और विधा की जो अनेक समानताएँ मिलती हैं, शतक वाङ्मय का उनमें अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। अधिकांश भारतीय भाषाओं के साहित्य के मूल प्रेरणाग्रंथ रामायण, महाभारत और बृहत्कथा हैं। इन अनेक भाषाओं के साहित्य की इस मूलभूत एकता का कारण निर्विवाद रूप से इनके बीच संस्कृत के सेतु की विद्यमानता रहा है। आज यह सेतु-धर्म हिंदी को निभाना है। इसीलिए यह आवश्यक है कि सभी भारतीय भाषाओं के प्राचीन और आधुनिक साहित्य की सारी संपदा अनुवाद के रूप में हिंदी में उपलब्ध कराई जाए। 'वेमना शतकम्' के हिंदी अनुवाद द्वारा डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा ने इसी आवश्यकता की पूर्ति की हैं। इस हेतु उनकी जितनी सराहना की जाए, कम है।

पंद्रहवीं शती में वेमना ने अपने काव्य के माध्यम से तत्कालीन समाज को जगाने का कार्य किया। इस अर्थ में वे हिंदी के भक्तिकालीन जागरण के समानधर्मी तेलुगु कवि हैं। अपनी उक्तियों में वेमना कभी हमें कबीर की याद दिलाते हैं, तो कभी तुलसी की। हमें उनके स्वर में रहीम और बिहारी के स्वर भी सुनाई पड़ते हैं। अपने लोकमत की दृष्टि से वे तेलुगु भाषा-साहित्य में समन्वय और लोकमंगल के अग्रदूत प्रतीत होते हैं। उनका जीवन भर्तृहरि के जीवन की भाँति भोग और योग के गहन अनुभवों की आंच में निखरा होने के कारण उनके प्रत्येक वचन में गहन अंतर्दृष्टि और प्रभविष्णुता पाई जाती है। इस अनुभवजन्य शक्ति के कारण ही वेमना आज भी प्रासंगिक हैं।

वेमना का साहित्य झाबों में भरे झूठे पत्थरों में से स्वच्छ नीलम की पहचान का विवेक देने वाला साहित्य है। वे चरित्र-शुद्धि का मूल चित्त-शुद्धि को मानने वाले संत थे। समाज और मनुष्यों के स्वभाव का अध्ययन करके उन्होंने यह जान लिया था कि भले लोग अपने बारे में विज्ञापन करते नहीं घूमते, जबकि बढ़चढ़कर आत्मश्लाघा करना नीच व्यक्ति की पहचान है। उसके इस व्यवहार को वेमना ने गंदे नाले के शोर जैसा बताया है। लोग अपनी-अपनी श्रेष्ठता के राग अलाप रहे हों तो यह पहचानना कठिन हो सकता है कि वास्तव में श्रेष्ठ कौन है। संतों ने ऐसे सत्पुरुषों की इसीलिए बार-बार पहचान कराई है। वेमना भी याद दिलाते हैं कि श्रेष्ठता की पहचान जन्म और जाति के आधार पर नहीं गुण के आधार पर की जानी चाहिए। जन्मना जाति व्यवस्था के दृढ़ होने पर भी भारत में प्रायः व्यावहारिक स्तर पर यह मान्यता रही है कि सामाजिक प्रतिष्ठा मनुष्य को उसके आचरण की, कर्म की, उच्चता से ही उपलब्ध होती है। वाल्मीकि का उदाहरण देते हुए वेमना भी कहते हैं कि अज्ञान ही शूद्रता है और सुज्ञान ब्रह्मत्व। वस्तुतः वाल्मीकि का ब्रह्मर्षि बनना उनके हृदय में विश्वकरुणा के उदय होने से जुड़ा है। यह जड़-चेतन मात्र के प्रति आत्मीयता का भाव जब तक नहीं आता, तब तक सारा ज्ञान प्राप्त करके भी हम अज्ञानी और शूद्र बने रहते हैं। यह भाव, यह संस्कार सुज्ञान है जो पोथी पढ़ने से नहीं आता - लोकहित में तपने से आता है। यही कारण है कि व्यक्ति अपनी स्वभावगत सीमा और दुर्बलता से मुक्त न हो सके तो वेमना को उसका पढ़ा-लिखा होना निरर्थक लगता है - दूध से धो-धोकर भी क्या कभी कोयले को गोरे रंग का बनाया जा सकता है ? कबीर को जिस प्रकार वेद-कतेब का बोझ ढोने वाले पंडित-मुल्ला भारवाही गधे प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार संत वेमना को विद्या प्राप्त करके भी हीनता की प्रवृत्ति से मुक्त न होने वाला विद्वान सुगंध ढोने वाला गधा भर प्रतीत होता है। रहे तो गधे ही, परिमल भी ढोया तो क्या ? ऐसे गधों से दुनिया आज भी खाली नहीं। उपाधि प्राप्त करके या जैसे-तैसे अधिकार को पा लिया, पद तो प्राप्त कर लिया, लेकिन पात्रता न आई। पात्रता तो विनय से आती है न! और विनय कहाँ से आएगी ? विद्या यदि विनय न दे, और प्रभुता मिल जाए, तो कुशासन जन्म लेता है, अनीति बढ़ती है, योग्यता का तिरस्कार होता है, अनुभव का अपमान होता है। जिसे चमड़े का जूता चबाने की आदत हो, उसे गन्ने का रस क्या मालूम ? आज भी तो यही हो रहा है। वेमना के शब्दों में : बंदर का राजतिलक करके/टहल करते मर्कट घेर करके

वेमना का हर वचन सूक्ति है क्योंकि उसके पीछे गहरी समझ की शक्ति है। इस समझ का संबंध जीवन और जगत के व्यापक और प्रामाणिक अनुभव से है। अनुभव यदि यह बताता है कि किसी देश और किसी काल में ऐसे निर्दय पुत्रों की कमी नहीं, जो वृद्ध माता-पिता के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करते और स्त्री के गुलाम होकर माँ-बाप को ठोकर मार देते हैं, तो वेमना कहते हैं कि ऐसे पुत्रों का जीना क्या और मरना क्या! स्त्री का मोह जिस पुत्र को माता-पिता से विमुख कर दे, उसे जीने का हक है क्या ? पति-पत्नी का मन तो अलग-अलग स्रोतों से आकर मिले हुए संगम के जल की धार जैसा एकमेक होना चाहिए। मन एक न हुए तो पति-पत्नी कैसे ? वे तो एक दूसरे के गले में पड़े हुए चक्की के पाट जैसे हैं। वेमना कहते हैं कि ऐसी पत्नी को छोड़ वन में वास अच्छा! अर्थ विस्तार करते हुए जोड़ा जा सकता है कि ऐसे पति को छोड़ वन में वास अच्छा।

याद रहे वेमना सुगृहिणी पत्नी को छोड़ने की बात कभी नहीं कहते। वे सद्गृहस्थ के समर्थक हैं। किसी अन्या के पे्रम में पड़कर अनन्या गृहिणी से विमुख होने वाला पुरुष वेमना की दृष्टि में उस पक्षी जैसा मूर्ख है जो खेत की फसल छोड़कर शिकारी के फेंके दाने चुनने जाता है और जाल में फँस जाता है। मूर्ख वे उस पुरुष को भी मानते हैं जो अविवेकपूर्वक स्त्री की बातों में आकर अपने घर को तोड़ देता है, भाई को छोड़ देता है। इतने पर भी वेमना स्त्री-जाति के विरोध में कोई फ़तवा देने की जल्दबाजी नहीं करते। दोषी वे पुरुष को ही बताते हैं क्योंकि जिस समाज के संबंध में वे बात कर रहे हैं, वह पुरुष सत्तात्मक समाज है और सारे निर्णय लेने का अधिकार पुरुष के पास है। हो सकता है कि स्त्री अपने असुरक्षाभाव के कारण पुरुष को माता, पिता, भाई और परिवार से दूर करना चाहती हो, लेकिन इस संबंध में निर्णय तो पुरुष ही लेता है न ? इसलिए वेमना स्त्री को नहीं कोसते, पुरुष को मूर्ख कहते हैं। वे मानते हैं कि स्त्री के कारण झगड़े होते हैं और पुरुष स्त्री के वश में हो जाता है, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि जहाँ स्त्री न हो वह स्थान सूना लगता है। सच ही, शून्य है वह हृदय जो स्त्रीशून्य हो, शून्य है वह घर जो स्त्रीशून्य हो, शून्य है वह जीवन जो स्त्रीशून्य हो, और शून्य होगा वह जगत जो स्त्रीशून्य हो। इसीलिए, तुलसी हों या वेमना दोनों ही चाहते हैं कि आपत्काल में स्त्री का साथ बना रहे। निर्धनता परीक्षा है प्रेम की। वेमना का कथन है कि बंधु तो वही है जो विपत्ति में साथ दे। वह मित्र भी क्या मित्र जो आपत्ति आ पड़ने पर दूर जा खड़ा हो - भाग खड़ा हो। भला वह लड़ाका कैसा जो संकट पैदा होने पर, मैदान ही छोड़ जाए। कबीर हों या नानक, सबने शूर उसे ही माना जो दीन के हेतु लड़े और पुरजा-पुरजा कट-मर कर भी रणक्षेत्र न छोड़े। वेमना कहते हैं, पत्नी के लिए यह रणक्षेत्र निर्धनता में घिरा घर है। निर्धनता में भी पत्नी का पे्रम बना रहे, तो पुरुष का आत्मबल बना रहता है।

संत वेमना के ये वचन जीवन में पग-पग पर हमारे काम के हैं। उन्होंने व्यक्ति और परिवार से लेकर शासन और राजनीति तक के संबंध में नीतिसूक्त कहे हैं। अपने वचनों में उन्होंने जो भी दृष्टांत दिए हैं, वे या तो दैनंदिन लोकजीवन से लिए गए हैं या रामायण और महाभारत के लोकप्रचलित प्रसंगों से ग्रहण किए गए हैं। यही कारण है कि वे अपढ़-सुपढ़ सबके लिए सहज संपे्रष्य और स्मरणीय हैं। इसे ही भरत मुनि ने 'जनपद सुख बोध्य' कहा है। वस्तुतः वेमना के चिंतन में भारत के बहुलतावादी लोकतांत्रिक चिंतन के गुणसूत्र निहित हैं -

पशु-वर्ण जुदा, दूध का न जुदा,
पुष्प-जाति जुदा, पूजा न जुदा।
रूप हैं बहुत, एक ही दैव तो,
विश्वदाभिराम सुन रे वेमा।।

विश्वास किया जाना चाहिए कि डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा जी के इस साहित्यिक सत्प्रयास का हिंदी जगत में हार्दिक स्वागत होगा।



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*वेमना शती
अनुवादक : डॉ. एम. बी.वी.आई.आर.शर्मा
आंध्र प्रदेश हिन्दी अकादमी ,हैदराबाद-५००००१
२००८
७० पृष्ठ
७५/-
द्रष्टव्य  : जनकवि वेमना 

2 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

वेमना को दक्षिण का कबीर कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी कविताओं का अनुवाद कोई सरल कार्य नहीं है। डॊ.शर्मा द्वय को धन्यवाद- एक को अनुवाद के लिए और दूसरे को समीक्षा के लिए॥

दिनेश कुमार माली ने कहा…

kash is kitaab ki e book mil jatee to ,is anmol dharohar ko meri library mein saja kar rakhta