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साहित्य समाज का अनुकरण भी करता है और अगुवाई भी. वह मनुष्यों के आंदोलनों में सम्मिलित भी होता है और उन्हें दिशा भी प्रदान करता है. जब कभी कहीं कुछ अघटनीय घट रहा होता है तो साहित्य उसकी विवेचना ही नहीं करता उसे घटित होने से रोकने का उद्यम भी करता है. इस प्रकार साहित्य सामाजिक परिवर्तनों का गवाह ही नहीं बनता बल्कि उन्हें संभव बनाने में साझेदार भी बनता है. अशिव की क्षति साहित्य का मुख्य सामाजिक प्रयोजन है जो साहित्य की लोकरक्षक भूमिका का निर्माण करता है. इसी से साहित्य सभ्यता-समीक्षा का रूप प्राप्त करता है. इस संदर्भ में विचारणीय है कि सभ्यता के विकास में मनुष्यों के कुछ समुदाय दौड़ में पीछे रह जाते हैं और आगे चलकर आगे निकले हुए समुदाय इन पिछड़े हुए समुदायों को फिर से आगे होने का अवसर नहीं देते. धीरे धीरे बीच की दूरी बढ़ती जाती है. आगे बढ़े हुओं का सत्ता-केंद्र बन जाता है. और पीछे रह गए हुओं को हाशिए में सिमटे रहना पड़ता है. हाशिए में सिमटे हुए ये समुदाय धीरे धीरे अपनी सीमाओं में कैद हो जाते हैं और चाहकर भी केंद्र में नहीं आ पाते. उनका अस्तित्व मानो केंद्र को पुष्ट करने के लिए ही अभिशप्त होता है. उनकी अनुपस्थिति ही केंद्र की उपस्थिति को अग्रप्रस्तुत करती है. उनकी संवेदनाएँ तक केंद्र की तुलना में अप्रासंगिक हो जाती हैं. इन पीछे छूटे हुए या वंचित समुदायों में - भारतीय सभ्यता के संदर्भ में - दलित, स्त्री और आदिवासी समुदायों की गाथा अत्यंत कारुणिक है. लोकतंत्र की माँग है कि इन सबके मानवाधिकारों को बहाल किया जाए. इसी के परिणामस्वरूप हमारे साहित्य में पिछले ढाई दशक में बहुत तेजी के साथ दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और आदिवासी विमर्श का उभार सामने आया है. शोध और समीक्षा के क्षेत्र में भी आज इन विमर्शों का बोलबाला है.
विजेंद्र प्रताप सिंह द्वारा संपादित ग्रंथ-त्रयी ‘वंचित संवेदना का साहित्य’ (2015) हिंदी साहित्य में दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श के क्रमिक उभार, इनकी सैद्धांतिकी, उपलब्धियों और सीमाओं के विवेचन को समर्पित है.
इस त्रयी के प्रथम खंड में दलित विमर्श केंद्र में है. यहाँ 27 सुचिंतित आलेखों के माध्यम से भारतीय समाज और विशेष रूप से हिंदी साहित्य के संदर्भ में दलित प्रश्नों पर सोदाहरण सटीक चर्चा की गई है. संपादक की मान्यता है कि आज भी दलित सिर्फ और सिर्फ दलित हैं तथा सदियों से चला आ रहा जातिगत संघर्ष आज भी उनके जीवन का अभिन्न अंग है. मैत्रेयी पुष्पा (अछूत स्त्रियाँ मंदिर में), शरण कुमार लिम्बाले (दलित सिर्फ दलित होता है), गुर्रमकोंडा नीरजा (दलित आत्मकथाओं का समाजभाषिक संदर्भ), तुलसीराम (लिखी नहीं, रोई जाती हैं दलित आत्मकथाएँ), ऋषभ देव शर्मा (मानवाधिकारों की लड़ाई में दलित कहानियाँ), कमल साहू (दलित साहित्य की भाषा), भारती सागर (ग्रामीण भारत में दलित महिलाओं की प्रस्थिति एवं मुद्दे) तथा विजेंद्र प्रताप सिंह (दलित, दलित साहित्य, भाषा और समकालीन कथासाहित्य में दलित चेतना) जैसे संग्रहणीय आलेखों से युक्त इस खंड के विचारोत्तेजक होने में कोई दो राय नहीं.
त्रयी के दूसरे खंड के केंद्र में है स्त्री विमर्श. पल पल कहीं-न-कहीं सताई जा रही औरतों वाले हमारे महान देश की 21वीं शताब्दी की वैश्विक उपलब्धियाँ गिनवानी हों तो शायद घरेलू हिंसा और बलात्कार या कुलमिलाकर स्त्रियों पर अपराध के मामले में हमारे देश को निर्विवाद रूप से स्वर्णपदक मिलने चाहिए. दरअसल हमारा समाज ऊपर ऊपर से तो बदला हुआ दिखाई देता है पर भीतर से यह घोर जड़ता का शिकार है. स्त्रियों के मामले में तो हम अपनी मानसिकता को तिल भर भी बदलने को तैयार नहीं हैं. दोगले आचरण का हमारा पुराना इतिहास है. हम स्त्रियों को सदा से पूजते भी आए हैं और उन्हें सताने में भी हमारा सानी कभी नहीं रहा. आज भी हम स्त्रियों को आगे आने या ऊपर आने के लिए खूब लफ्फाजी करते हैं और साथ ही उनके प्रति भोगवादी रवैये को तनिक भी बदलना नहीं चाहते. आज स्वाधीन होती हुई भारतीय स्त्री के चारों तरफ पुरुषवर्चस्व ने नई तरह की गुलामी की बाड़ लगा दी है. हम आज भी स्त्री को पुरुष से कमतर आंकते हैं और उसके मनुष्य होने के अधिकार को व्यावहारिक रूप में चरितार्थ नहीं होने देते. स्त्री विमर्शात्मक साहित्य भारतीय समाज के इस दोगले और घिनौने चहरे को बेपर्दा करने का काम करता है. वह इतना भर चाहता है कि स्त्री रूप में जन्म लेने के कारण किसी जीव को मनुष्य होने के अधिकार से वंचित न रखा जाए. इस समुदाय की वंचित संवेदना को (अथवा वंचित समुदाय की संवेदना को) इस खंड में भली प्रकार विवेचित किया गया है. मृदुला गर्ग, सुधा अरोड़ा, संगीता पुरी, सुषमा बेदी, सुशीला टाकभोरे, गुर्रमकोंडा नीरजा, रोहिणी अग्रवाल, गिरिराज शरण अग्रवाल, प्रीत अरोड़ा और विजेंद्र प्रताप सिंह सहित 29 लेखकों ने इस खंड में बहुत सूक्ष्मता और ईमानदारी और विस्तार के साथ हिंदी के स्त्री विमर्शात्मक साहित्य की व्यापक पड़ताल की है. स्त्री विमर्श पर शोध करने वालों के लिए यह एक आवश्यक ग्रंथ है.
‘वंचित संवेदना का साहित्य’ शीर्षक ग्रंथ-त्रयी का तीसरा खंड आदिवासी विमर्श को समर्पित है. इस खंड में रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल, मधु कांकरिया, हेमराज मीणा, गंगा सहाय मीणा, विनोद विश्वकर्मा, विजेंद्र प्रताप सिंह, सातप्पा लहु चव्हाण आदि सहित 25 विमर्शकारों के आदिवासी और जनजातीय साहित्य की पड़ताल करने वाले आलेख सम्मिलित हैं. संपादक ने यह स्पष्ट किया है कि स्त्री और दलित विमर्श की तुलना में आदिवासी विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति नितांत भिन्न है. स्त्री विमर्श जाति के प्रश्न को नहीं समझता. केवल स्त्री अधिकारों तक सीमित रहता है. दलित विमर्श जाति को इतना अधिक महत्व देता है कि स्त्री प्रश्न को भी जातियों में बाँट लेता है. लेकिन आदिवासी विमर्श विकास में पिछड़े हुए स्त्री पुरुषों का जातिनिरपेक्ष विमर्श है. वह अपनी रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी विद्रोह की परंपरा से लेता है. इसलिए आदिवासी साहित्य को अन्य साहित्य की तुलना में विद्रोही साहित्य या जीवनवादी साहित्य कहा जाता है. आदिवासी विमर्श को उन्होंने उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप माना है जो देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेद भाव का पुरजोर विरोध करती है तथा उनके जल-जंगल-जमीन और जीवन को बचाने के हक में उनके आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ खड़ी होती है. अपने अद्यतन संदर्भों के कारण यह खंड सामान्य पाठकों और शोधार्थियों दोनों ही को अत्यंत उपादेय प्रतीत होगा.
अंततः पाठकों के निजी विमर्श के लिए यहाँ डॉ. रमणिका गुप्ता के निबंध ‘आदिवासी संस्कृति में स्त्री का दर्जा’ का एक अंश प्रस्तुत करते हुए — इति विदा पुनर्मिलनाय :
“ऐसे तो आदिवासी स्त्रियों की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के मिथक और भ्रम का प्रचार खूब किया जाता रहा है लेकिन उनके समाज में भी कुछ ऐसे कठोर नियम और मापदंड हैं, जो स्त्री को पुरुष से कमतर बनाने व आंकने के लिए गढ़े गए हैं. एक बात तो माननी होगी कि भारतीय संस्कृति के बिल्कुल विपरीत, आदिवासी स्त्री को अपना वर खुद चुनने की इजाजत है. इसके लिए न तो वह दंडित होती है और न ही दोषी करार दी जाती है. उनके यहाँ तो घोटुल प्रथा थी जहाँ युवा लड़के-लड़कियों को एक साथ रखकर सब प्रकार का ज्ञान दिया जाता था. यह उनका प्रशिक्षण स्थल था. इसलिए भारत की अन्य स्त्रियों के विपरीत आदिवासी लड़कियाँ लड़कों को देखकर न तो मोम की तरह पिघलती हैं और न ही बर्फ की तरह पानी-पानी हो जाती हैं, बल्कि वे उनसे बतियाती हैं, परखती हैं और अगर जीवन साथ निभाने की संभावना दिखे तो रजामंदी से ब्याह भी कर लेती हैं. न पाटने पर छोड़ने का अधिकार भी उन्हें प्राप्त है.”
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