समसामयिक परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा के महत्व को रेखांकित करने की दृष्टि से वर्ष 2014 के भारतीय राजनैतिक और वैदेशिक परिदृश्य का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि इस अवधि में कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के क्षेत्र में हिंदी ने अपनी आहट दर्ज कराई है. भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी द्वारा कूटनैतिक चर्चाओं और औपचारिक संबोधनों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी के व्यवहार से विश्व बिरादरी को यह संकेत मिला है कि भारत की भी अपनी राजभाषा (राष्ट्रभाषा) है और यदि वह इसके प्रयोग का आग्रही हो तो विशालतम गणतंत्र की अस्मिता की इस भाषा को दुनिया को इस देश के साथ संबंधों की खातिर व्यवहार में स्वीकार करना होगा.
भाषा यदि राष्ट्रीय गौरव का एक प्रतीक है तो यह कहना होगा कि भले ही 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत संघ की राजभाषा के रूप में संविधान ने अधिकृत कर दिया हो, व्यवहारतः विश्व बिरादरी के बीच भारत अंग्रेज़ी ही बरतता रहा है और धिक्कारा जाता रहा है: ऐसे में प्रधानमंत्री के स्वयं गुजरातीभाषी होते हुए चीन के नेताओं से ब्रिक्स सम्मलेन से पहले या भारत यात्रा के दौरान हिंदी में बातचीत करने, नेपाल और जापान की यात्राओं के अवसर पर हिंदी में बोलने, 24 सितंबर 2014 को मंगलयान के कक्षा में स्थापित होने के अवसर पर वैज्ञानिकों को अंग्रेजी के साथ सहज हिंदी में संबोधित करने और 27 सितंबर 2014 को न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र के बहाने समूचे विश्व को हिंदी के माध्यम से संबोधित करने की घटनाओं को कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों के स्तर पर हिंदी के महत्व को स्थापित करने की पहल के रूप में देखना उचित होगा. इससे हिंदी को विश्वस्तरीय संबंधों की माध्यम-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने के अवसर मिलेंगे तथा विदेशों में हिंदी पढ़ने-पढाने को बढ़ावा मिलेगा. मानवीय और मशीनी अनुवाद के क्षेत्र में भी हिंदी की प्रतिष्ठा बढ़ेगी और जानबूझ कर इस भाषा की उपेक्षा करने वाले दूतावासों में इसे सम्मान मिलने की शुरूआत होगी. इस प्रकार के संकेत मिलने लगे है कि सभी देशों ने हिंदी से जुड़ने की दिशा में सोचना आरंभ कर दिया है. उदाहरणार्थ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा, का वर्ष 2014 में 7 देशों के 12 विश्वविद्यालयों से हिंदी पढाने की जिम्मेदारी के समझौते हुए हैं. इसके अंतर्गत एक अनिवार्य पाठ्यक्रम ‘भारत परिचय’ का भी है जिसमें विशेष बल 1857 के बाद के अर्थात आधुनिक भारत पर होगा. अभिप्राय यह है कि आने वाले समय में विश्व स्तर पर आर्थिक-राजनैतिक परिवर्तनों के साथ हिंदी के जुड़ाव के लक्षण दिखाई देने लगे है.
कोई भी भाषा तभी महत्वपूर्ण और सर्वस्वीकार्य होती है, जब वह अपने आपको निरंतर प्रगति की संस्कृति से जोड़कर नए नए प्रयोजनों (फंक्शंस) के अनुरूप अपनी क्षमता प्रमाणित करे. इसमें संदेह नहीं कि हिंदी ने अपना यह सामर्थ्य पिछले दशकों में सिद्ध कर दिखाया है कि वह विश्व मानव के जीवन व्यवहार के समस्त पक्षों को अभिव्यक्त करने वाली सर्वप्रयोजनवाहिनी भाषा है. बीज रूप में कहना हो तो हिंदी के महत्व का आज के परिप्रेक्ष्य में पहला समसामयिक प्रयोजन क्षेत्र कूटनैतिक और वैदेशिक संबंधों [डिप्लोमेसी] की भाषा का है तो दूसरा पहलू शासन [गवर्नेंस] की भाषा का. तीसरा क्षेत्र प्रतियोगिता परीक्षाओं और रोजगार दिलाने वाली भाषा का और चौथा चुनाव तथा राजनीति की भाषा का है. हिंदी के महत्व के पांचवे आयाम के रूप में मीडिया की भाषा को देखा जा सकता है जिसके अंतर्गत प्रिंट और इलेक्ट्रानिक जन संसार माध्यमों के अलावा फिल्म और नए [सोशल] मीडिया पर हिंदी के प्रभावी प्रसार का आकलन करना होगा. सूचना उद्योग हो या मनोरंजन उद्योग, बहुभाषी होना और हिंदी का व्यवहार करना, दोनों क्षेत्रों में सफलता की गारंटी सरीखा है. इससे रंग-बिरंगी हिंदी के जो रूप सामने आ रहे हैं, वे हिंदी की लचीली और सर्वग्राही प्रवृत्ति के प्रमाण भी हैं और परिणाम भी. भाषा मिश्रण पर नाक भौं सिकोड़ने वालों को हिंदी की केंद्रापसारी प्रवृत्ति और अक्षेत्रीय / समावेशी स्वभाव को ध्यान में रखना चाहिए अन्यथा वे इसके बहुप्रयोजनीय स्वरूप के विकास में रोडे ही अटकाते रहेंगे. इसे भाषा के खिचड़ी हो जाने की अपेक्षा प्रयोजन-विशेष के लिए लचीलेपन के रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित होगा. अर्थात हिंदी की पहले से विद्यमान और स्वीकृत सामाजिक शैलियों (हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी) अब भी अपनी जगह हैं और जीवंत प्रयोग में हैं तथा आगे भी रहेंगी. हिंदी के जो नए रूप आज मीडिया के माध्यम से उभर रहे हैं उन्हें भी नई शैली के रूप में स्वीकारना ज़रूरी है. हिंदी की इन विविध शैलियों के प्रयोग के संदर्भ अलग अलग हैं जो भाषा के बहुआयामी विकास के ही प्रतीक हैं. इसी से हिंदी के महत्व का छठा आयाम भी जुड़ा हुआ है जो विज्ञापन की भाषा से संबंधित है. कहना न होगा कि उत्तरआधुनिक भूमंडलीकृत विश्व वस्तुतः भूमंडीकृत विश्व है. इस भूमंडी या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के जितने बड़े हिस्से को कोई भाषा संबोधित कर सके वह उतनी ही महत्वपूर्ण हो जाती है. हिंदी विज्ञापन भारत ही नहीं, दक्षिण एशिया और अरब देशों तक के उपभोक्ता को और साथ ही दुनिया भर में बसे भारतवंशियों को संबोधित और आकर्षित करने में सक्षम हैं; क्योंकि दुनिया भर में हिंदी समझने वालों की तादाद सर्वाधिक नहीं तो सर्वाधिक के आसपास अवश्य है. अतः ग्लोबल मीडिया और बाज़ार दोनों की भाषा की दृष्टि से अब कोई हिंदी को नकार नहीं सकता.
यहीं हिंदी भाषा के महत्व का सातवाँ बिंदु सामने आता है जिसका संबंध ज्ञान, विज्ञान और विमर्श की भाषा से है. भाषिक प्रयुक्तियों, तकनीकी शब्दावलियों और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी का भण्डार अक्कोट है लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषाओं को स्वीकार न करने के कारण सभी भारतीय भाषाओँ सहित हिंदी के प्रयोक्ता संदेह, संशय और हीन भावना के शिकार हैं. समाज को इस औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आकार स्वतंत्र लोकशाही जैसा आचरण सीखना होगा और बुद्धिजीवियों को ‘निजभाषा’ के व्यवहार से जुड़े आत्मगौरव को अर्जित करना होगा. आज हिंदी ज्ञान-विज्ञान-विमर्श के हर पक्ष को व्यक्त करने में समर्थ हो चुकी है. पर जाने हमारे बुद्धिजीवी अपनी भाषा के व्यवहार में कब समर्थ होंगे ?
हिदी के महत्व का आठवां आयाम भारत की संपर्कभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा के थ्री-डाइमेंशनल प्रकार्य से आगे बढ़कर फोर्थ डाइमेंशन के रूप में विश्वभाषा बनकर उभरने से संबंधित है. इसका एक पक्ष तो राजनैतिक और कूटनैतिक है – संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में. इसके लिए बार बार संकल्पबद्ध होकर भी भारत सरकार ने कुछ ठोस कार्य नहीं किया है. इससे हमारी अपनी भाषा के प्रति उदासीनता ही प्रकट होती है. लेकिन विश्वभाषा का दूसरा पक्ष शुद्ध रूप से व्यावहारिक है. व्यवहारतः आने वाले समय में वे भाषाएँ ही विश्वभाषा के रूप में टिकेंगी जिनमें बाज़ार की भाषा और कम्प्यूटर की भाषा के रूप में टिके रहने की शक्ति होगी. बज्ज़र की चर्चा मैं पहले कर ही चुका हूँ, रही कम्प्यूटर की बात, तो आज यह जगजाहिर हो चूका है कि हिंदी कम्प्यूटर के लिए और कम्प्यूटर हिंदी के लिए नैसर्गिक मित्रों जैसे सहज हो गए हैं. हिंदी के कम्प्यूटर-दोस्त होने के कारण तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियां अब ऐसे उपकरण और कार्यक्रम लाने को विवश हैं जो हिंदी-दोस्त हों. दरअसल हिंदी ने साबित कर दिया है कि वह ‘दोस्त भाषा’ है – मीडिया की दोस्त, बाजार की दोस्त, कम्प्यूटर की दोस्त. इस प्रकार विश्वभाषा के रूप में भी अपने प्रकार्य को निभाने में हिंदी निरंतर अग्रसर है. इतना ही नहीं, वह कॉर्पोरेट जगत के दरवाज़े पर भी आ खड़ी हुई है तथा अंदर प्रवेश करने के लिए नया सोशियो-टेक्नोलॉजिकल अवतार लेने वाली है.
इतना ही नहीं, अनुवाद उद्योग की भाषा के रूप में हिंदी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में अत्यंत संभावनाशील और समर्थ भाषा के तौर पर अपने महत्व के नौवें आयाम को छू रही है. इसके अलावा अपने जन्म से ही साहित्य और संस्कृति की भाषा के तौर पर स्वयंसिद्ध सामर्थ्य आज भी उसकी प्रामाणिकता की दसवीं दिशा है जिसके द्वारा वह विश्व मानवता के भारतीय आदर्श को परिपुष्ट करती है. इसी से जुड़ा है हिंदी भाषा के महत्व का ग्यारहवां आयाम जो राष्ट्रीय अस्मिता और निज भाषा के गौरव से संबंधित है. कहना न होगा कि हिंदी केवल एक भाषा नहीं है वह भारतीय अस्मिता का पर्याय है – हम चाहे कितनी ही मातृबोलियों और मातृभाषाओं का व्यवहार करते हों, हिंदी उन सबमें निहित हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनकर उभरती है. निस्संदेह, हिंदी के महत्व के और भी अनेक आयाम हैं लेकिन वे सब इस विराट आयाम में समा सकते हैं. वस्तुतः ‘निजभाषा उन्नति’ से जुड़े राष्ट्रीय गौरव के बोध के बिना हृदय की वह पीड़ा मिट ही नहीं सकती जिसके दंश का अनुभव करके कभी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने पराधीन देश को अहसास कराया था कि ‘बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को शूल!’
- डॉ. ऋषभ देव शर्मा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें